जिन्दा जुनूनों का कोलाज / सुधा अरोड़ा
यों तो मेरे लेखन की शुरुआत ही डायरी लेखन से हुई। पर इधर लगभग तीन साल से दिन के चौबीस घंटे मेरा अनवरत डायरी लेखन या कहें, अपने से संवाद चलता रहता है - खाते पीते नहाते सोते - यहां तक कि नींद में भी। गरज यह कि हर काम करते हुए मानसिक रूप से लगातार एक वार्तालाप चल रहा है। जैसे एक लम्बी फिल्म की कभी न खत्म होने वाली रील चल रही हो। घर के रोजमर्रा के सारे क्रियाकलाप चल रहे हैं और उन पर एक मोनोलॉग साउंडट्रैक पर चल रहा है - लगातार। नॉन स्टॉप। न थकता है, न रुकता है। जिन्हें ज्यादा बोलने की आदत होती है, जो किसी आत्मीय के साथ अपने भीतर का सब कुछ बांट लेना चाहते हैं लेकिन बांटने को कोई होता नहीं उनके पास तो अपने से या अपने गढ़े एक बुत से उनका इकतरफा संवाद निर्विकार चलता रहता है जिसकी गूंज लौट लौट कर खुद तक ही आती है।
कई बार यह लगता है कि काश, दिमाग के साथ कोई ऐसी मशीन फिट होती तो दिमाग में उमड़ते घुमड़ते विचार तरतीबवार अपने आप कागज पर दर्ज हो जाते। सारी सारी रात दिमाग में कुछ न कुछ अंधड़ तूफान की तरह चलता रहता है। सुबह उठ कर सोचती हूं कि जरा कागज पर दर्ज कर लूं तो मेज पर आने तक में दिमाग कोरी स्लेट की तरह पड़ा होता है। अंधड़ को जैसे झाड़ा बुहारा जा चुका है और अब वहां सिर्फ अंधड़ की खुरदुरी धूल बची रह गयी है जो थका देती है। सिर पर हथेलियों से तबला बजा कर उस खुरदुरी धूल को उड़ा कर सामने पड़े इतने लम्बे दिन के लिए सुव्यवस्थित करना चाहती हूं। दिमाग की सारी नसें आपस में गुत्थमगुत्था होकर मुझे परेशान न करें, इसका अतिरिक्त खयाल रखना पड़ता है। फिर दोनों हाथों की तीन उंगलियों से कनपटी की नसों पर ठक ठक ठक - धीरे धीरे खटखटाती हूं तो ऐसी आवाज आती है जैसे खाली ढोल पर उंगलियों के प्रहार से आती है या फिर जैसे डॉक्टर मरीज के पेट पर बायें हाथ की उंगलियां रख कर दाहिने हाथ से ठकठका कर जांच करता है... मैं भी अपने सिर के भीतर की जांच कर लेना चाहती हूं। वहां अब भी कुछ बचा रह गया है या इस सख्त खोल के भीतर सब कुछ धीरे धीरे समाप्ति के मुहाने पर है...
अब उम्र का तकाजा है कि याददाश्त के कलपुर्जे ढीले पड़ने लग गये हैं और कागज पर उतरने से पहले ही तीन चौथाई चीजें तो जेहन से उतर जाती हैं। कई बार जो याद रहता है और बमुश्किल कागज पर उतरता भी है, तो उसे अपना ही एक हिस्सा अलग दूर खड़ा देखता परखता है और उसे पढ़ कर बड़ी बेरहमी से खारिज कर देता है। खारिज हो चुकने के बाद बहुत थोड़ा सा ही है जो बचा रह जाता है। वही आपके सामने है।
11 जून 2008: एक जुनून की तरह जिन्दा रहती है औरत!
सवा दो साल पहले - रात के पौने ग्यारह बजे - ऐसा मानसिक धक्का जिसे साठ साल की दहलीज पर पड़ी औरत झेल नहीं पायी और ढह गयी। सबने कहा - जा, जा, जा! यहां मत रह! तेरा अब कोई काम नहीं यहां। पर अटकी अटकी सांसें लेते हुए भी जिन्दा रही। फिर धीरे धीरे मान मनौवल से जाने के लिए उठ खड़ी हुई... जैसे एक ट्रांस में हो। अचानक नहीं गयी वह। सबके समझाने और अंततः धकियाने पर भी नहीं गयी। बहुत धीरे धीरे, बेहद अनिच्छा से दो सालों में कतरा कतरा कर जाती रही क्योंकि उसके पास धीरे धीरे दम तोड़ने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था। पर बहुत अच्छा हुआ कि जिन्दा रहने की जिद पर अड़ नहीं गयी। आहिस्ता आहिस्ता जाने का मन बना लिया उसने और बगैर किसी शोर शराबे के चली गयी। जाना तो उसकी नियति थी ही। न जाती और एक जिद की तरह मेरे भीतर अड़ जाती तो मुझे भी कतरा कतरा उसके साथ ही जाना पड़ता।
और तब एक पूर्णविराम! नहीं, यह पूर्णविराम ऐसे नहीं लगने दूंगी। ऐसा पूर्णविराम देखने के लिए इतने कॉमा, अर्द्धविराम, प्रश्नचिह्न, लगातार चलते असमाप्त बिन्दु पार नहीं किये थे। एक बेतरह मुश्किल हर्डल रेस पर ऐसा पूर्णविराम तो नहीं लगना था। नहीं लगने दिया। मोच खाये पांव से हर्डल रेस जीतने का अपना जीवट होता है। यह उस जीत से अलग होता है, जो मजबूत पांव वाला प्रत्याशी प्रेक्षकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जीतता है। ढेलों और कंकरों से अपने को बचाते हुए टीसते पांव से एक जिद में जीने-जीतने का जुनून अलग ही होता है।
2 सितम्बर 2008: मैंने दूसरा रास्ता चुना
मेरी उम्र अब महज सवा दो साल है। लेकिन यह ठीक नहीं हुआ कि जाते जाते वह अपने साठ सालों के दुखों की, सुखों की, आबाद होने और बरबाद होने की, भरोसे और धोखे की एक पोटली - जो दिखने में छोटी सी है (और हर औरत की थाती होती है) पर बहुत वजनी है - मुझे थमा गयी। उसके बोझ से मेरे कंघे झुकते चले जाते हैं। उसकी लम्बी फेहरिस्त अनचाहे टिड्डों की तरह खिड़की की जरा सी फांक देख कर कमरे में बेरोकटोक घुसी चली आती है और मेरे लिए उस फौज के घेरे से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। कहां चाहती है वह कि मैं उससे अलग, उससे स्वतंत्र सिर्फ अपने लिए एक नयी जिन्दगी की शुरुआत कर सकूं। उम्र के साठ बरस तक उसके कब्जे में रही तो अब अपने चंगुल से बाहर छूट निकलने की मेरी छोटी सी कोशिश भी उससे बर्दाश्त नहीं होती या फिर मेरे लिए कुछ ज्यादा ही प्रोटेक्टिव है, कहीं मैं खो न जाऊं इसलिए मुझे पूरी तरह अपने से छूटने देना नहीं चाहती।
आधी आधी रात को, कभी भी, मेरे सिर पर सवार हो अंधड़ बरपा कर देती है।
उसके कगार पर पहुंचे साठ साल मेरे इस सवा दो साल पर हावी हो जाते हैं - कई कई बार। तब मेरी भी वही हालत हो जाती है, जो जाते जाते उसकी थी - उखड़ी हुई सांसें, कमरे की छत और दीवार को भेद कर विराट शून्य में खोयी हुई आंखें और बुझा हुआ मन - जिसमें भांय भांय करते हुए सन्नाटे के अलावा रोशनी की एक लकीर तक नहीं थी। कभी कभी वह अपना भीषण लबादा मेरे ऊपर डाल देती है जिससे मेरा दम घुटने लगे। मुझे उसे जबरन अपने पर से बेरहमी से हटाना पड़ता है क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मेरी परिणति भी वही हो जो उसकी हुई।
मैं अकेली कहां हूं। इतनी बड़ी कतार है ऐसी औरतों की, जिनके लिए हर रोज अपने को जिन्दा रख पाना एक बड़ी लड़ाई है। हर रात वे अपनी पीठ थपथपा कर सोती हैं कि दोस्त, आज भी यह जंग जीत ली तुमने। हर सुबह का उगता सूरज उनकी आंखों की चमक में झिलमिलाता है कि आज की सुबह भी देख ली - लाल गोले सा उगता खूबसूरत सूरज।
जब मेरी जान पर बन आयी तब मैं चेती।
जब मुझे कुचलने की बेतरह कोशिश की गयी
मेरे विकल्प हाथ से छूटते गये।
मेरे सामने दो ही रास्ते थे -
या मैं आत्महत्या कर लेती या बगावत करती।
मैने दूसरा रास्ता चुना और देखा
लाल गोले सा उगता सूरज।
16 मई 2006: नहाना -एक रिलीफ थेरेपी
पहले कभी नहीं जाना था कि नहाना इतनी महत्वपूर्ण क्रिया हो सकती है।
कुछ दिन पहले तक यह अनजाने में होता था कि बाल्टी और मग लेकर बैठी और बदन पर पानी उंड़ेलना शुरू किया तो बस वह क्रिया अनंतता में बदल जाती थी। नल की टोटी खुली तो खुली रह गयी। नल की मोटी धार बाल्टी में पूरे फोर्स के साथ गिरती है और उसी त्वरा से हाथ में थमा मग बदन पर दनादन पानी उलीचता चलता है ऐसे कि एक लगातार झरता हुआ झरना कम पड़ जाये। पानी कितना असरदार टोटका है, यह तो हाल ही में समझ में आया। तपता हुआ माथा, सिर के पिछले हिस्से में टांकों के पीछे खून का तेज दौरा जैसे गरमी का फव्वारा उल्टी दिशा में भाप उड़ाता उठ रहा हो - इस धार धार झरते हुए पानी से ही शांत होता है। थोड़ी देर के बाद पानी की यह ठंडक इतनी अच्छी लगने लगती है कि मन होता है - ठंडक पहुचाने की यह क्रिया फ्रीज हो जाये। सिर के अंदर जो लावा दहक रहा है, उसे शांत करने का एकमात्र यही उपक्रम है। इस दहकन पर गिरता हुआ ठंडा पानी अपने साथ न जाने कितने झाड़ झंखाड़, कंकड़ पत्थर, सीपी घोंघे अपने साथ बहाता चलता है और कुछ देर के लिए ही सही पर तरलता के संचार के साथ मन को शांत संयत बना देता है। दिमाग में खिंचती आड़ी तिरछी लकीरें शांत हो जाती हैं। सतह पर उभरे अनगढ़ टीले ढूह सपाट समतल हो जाते हैं। वह तनाव, जो धड़कनों को बेसुरा और बेमेल कर देता था, पानी के निरंतर उलीचने से सम पर आ जाता है और सांसों का जाते जाते लौट आना कैसा सुकून देता है, यह तो सिर्फ वही समझ सकता है जो इस अनोखे अनुभव से गुजरा है - हाथ से छूट छूट भागती सांसों की भुरभुरी रेत को सहेज समेट कर मुटठी में बंद कर लौटा लाना और मुटठी को ऐसे कस कर बांधे रखना कि उंगलियों की दरारों से रेत का एक कण भी फिसल कर हवाओं में खो न जाए।
अब समझ में आता है कि क्यों जब तन शिथिल और बुझा हुआ हो, मन सुलग रहा हो, अचानक सड़क पर चलती भीड़ का हिस्सा बनने को मन हो आये तो एकाएक घर से बाहर दोनों हाथ बांध कर रास्ते पर निकल आओ और अचानक बारिश की हल्की हल्की बूंदें आसमान से झरने लगती हैं तो मन को कैसी ठंडक पहुंचती है। शायद पानी का काम यही है - तपन को बुझाना और मन को शांत करना। इसलिए नहाना एक रिलीफ थेरेपी है। ....
और यह कितना बड़ा सुकून है कि हमारे घर चौबीस घंटे पानी आता है। पानी की जैसी किल्लत है मुंबई में, उसमें नल में हर वक्त पानी का आना कितनी बड़ी राहत है।
अभी हाल ही में जोगेश्वरी के इलाके में एक हवलदार की औरत की मृत्यु की खबर थी। उसके पति ने उसे तीन बच्चों के साथ छोड़ कर उनके ही घर में काम करने वाली एक विधवा महरी से सम्बन्ध बना लिया था और दस घर छोड़ कर ही एक खोली लेकर उसे बसा दिया। वहां सामने पानी का नल था, जहां रोज यह औरत पानी भरने जाती और उस औरत को देखती जो पहले उसके घर का पानी भरने इस नल पर आती थी, अब उसी के सामने उसके पति को मुट्ठी में बंद कर बैठी थी। वे उस पर ताने फब्तियां कसते। आठ महीने वह जानलेवा तनाव से गुजरी। एक दिन पानी भरते भरते गिर गयी और नल के पास ही दम तोड़ दिया। जिन्हें पीने के पानी के लिए इतनी जद्दोजेहद करनी पड़ती है, वह अपने सिर में मची हलचल को शांत करने के लिए पानी कहां से लायें और आखिर उसके जीवट ने साथ छोड़ दिया। पानी सिर्फ हलक की प्यास नहीं बुझाता, तपते मन को भी शांत करता है। पर उसके लिये पानी होना तो चाहिए न!
...तब से मुझे नल में चौबीस घंटे पानी आना इतनी बड़ी नियामत लगने लगा।
15 जून 2006: औरत की देह-उसकी अंतिम प्राथमिकता
आमतौर पर एक औसत औरत अपने शरीर की ओर देखती तक नहीं। देखने की न उसे फुर्सत होती है, न चाहत। हमारा भारतीय समाज उसे अपनी ओर देखने की मोहलत ही नहीं देता। पति में, बच्चों में, रसोई में, बाथरूम की मोरियों और वहां से बाहर आते केंचुओं में, परदों में, दीवारों पर झूलती तस्वीरों और दीवारों पर ठुकी कीलों में वह इस कदर अपने को खो देती है कि आखिरकार एक दिन खुद भी दीवारों और फर्नीचर का एक हिस्सा हो जाती है। यह औरत कभी अपना मेडिकल चेक अप नहीं करवाती। खर्च के डर से वह इसे टालती रहती है और कोई जानलेवा बीमारी जब तक असहनीय नहीं हो जाती, वह चेतती नहीं।
एक दिन अचानक वह देखती है कि उसके दोनों स्तनों के नीचे फंगल इन्फेक्शन हो गया है। सबसे पहली बार मैंने अपनी बीजी (मां) को इस बीमारी से त्रस्त देखा। ऐसी खूबसूरत बीजी। यह इन्फेक्शन इतना बढ़ गया था कि ब्रा पहनने में भी उन्हें बहुत तकलीफ होती। ब्रा के नीचे लगे एलास्टिक में वे सफेद सूती कपड़े की सलवटदार पाइपिंग लगातीं। स्तनों के नीचे की चमड़ी छिल छिल कर सफेद लाल हो जाती और उसमें से तरल द्रव रिसने लगता। लैक्टोकैलामाइन और तमाम तरह के सॉल्यूशन लगा लगा कर वे थक जातीं पर आराम नहीं मिलता। आमतौर पर यह निम्न मध्यवर्ग की औरतों में ज्यादा होती है। मां ने भी सात सात बच्चों की देखभाल में अपनी पूरी जिन्दगी खपा दी। कभी पूरी एक रात तो वे ढंग से सोयी नहीं - कभी किसी बच्चे को बुखार तो कभी किसी को सर्दी खांसी, दमा, मीजल्स, टायफायड। अपनी ओर देखने का तो उन्हें मौका ही नहीं मिला। ...और एक दिन गॉल ब्लैडर, हर्निया और अपेंडिक्स के एक साथ तीन ऑपरेशन करवा कर लौटीं। फिर सेप्टिक हो गया।
इसके बाद काउंसिलिंग के सालों में तो न जाने कितनी औरतों को इस बीमारी से ग्रस्त देखा। औरतें तब तक इस बीमारी का जिक्र, जिसे इन्टरट्रिगो कहते हैं, नहीं करतीं, जब तक यह असाध्य न हो जाये या कराहने पर मजबूर न कर दे। उन्हें लगता है, यह कोई एड्स जैसी शर्मनाक बीमारी है। जब कि हकीकत यह है कि यह सिर्फ शरीर की उपेक्षा से पैदा होती है। औरतों के पास नहाने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं होता। वे हमेशा एक हड़बड़ी में रहती हैं और इसलिए नहाने में ज्यादा वक्त बरबाद नहीं करतीं और बदन पर के पानी को सुखाने में और भी कम। हम जब नहाते हैं, चार मग पानी तो बदन पर उलीच लेते हैं पर नहाने के बाद घर के काम के दबाव में या स्वभाववश हमारे पास इतना समय नहीं होता कि अपने बदन को तौलिए से ढंग से सूखा कर पायें। फिर औरत के बदन पर स्तन जैसी नामुराद चीज - अब कौन इन्हें एक हाथ से उठा कर तौलिये से ढंग से सुखाये - प्यार दुलार से पोंछे, पाउडर लगाये। भीषण गर्मी में जब एक आम औरत गैस पर या चूल्हे पर खाना बनाती है तो माथे और गालों पर चुहचुहाते पसीने की बूंदें तो वह पोंछ लेती है पर ब्लाउज के भीतर गर्मी से भीगे कपड़ों में उसका क्या हाल हो रहा है, इसे वह भूल जाती है। स्तनों के नीचे की जगह के हर वक्त गीला रहने से धीरे धीरे वहां की त्वचा गलने लगती है और घाव की तरह उसमें से पानी रिसने लगता है। फिर भी वह डॉक्टर के पास तब तक नहीं जाती जब तक यह गलती हुई त्वचा तकलीफ का बायस नहीं बनती। ...और जब तकलीफ हो जाती है तो उसे छिपाती फिरती है। घर को पहली प्राथमिकता मानने वाली गिरस्थिन औरतें ही इस किस्म की बीमारियों से ग्रस्त रहती हैं।
14 मार्च 2007: धराशायी होता इंतजार - एक हिन्दुस्तानी सुहागरात
'दुनिया में कोई भी शादी इसलिए नहीं होती कि उसका अंजाम तलाक हो...। शादी, किसी भी लड़की की जिन्दगी की नयी शुरूआत होती है। नये सपने, नयी उम्मीदें, नयी उमंगें।'
'बचपन में हर लड़की अपनी दादी नानी से परियों की कहानी सुनती है। 'एक परी होती है... और एक दिन सफेद घोड़े पर सवार एक राजकुमार आता है और परी को ले जाता है।' दुनिया की शायद ही कोई लड़की हो जिसने यह सपने न देखे हों - सिंड्रेला की तरह।' असीमा ने कहा था।
पद्मा अक्सर अपने जीवन की किताब खोलकर बैठ जाती है। कुछ लोग सिर्फ अतीत में जीते हैं क्योंकि उनके पास वर्तमान और भविष्य होता ही नहीं।
शादी से पहले हर लड़की शादी के बाद की अपनी उस पहली रात के सपने देखती है, जब उसका राजकुमार उसे फूल की तरह छुयेगा। उसकी बांहों पर होंठों से हवा में उड़ते हल्के पंखों की तरह ऐसे चुम्बन अंकित करेगा कि वह सिहर कर उसे अपने सीने में भींच लेगी पर उस पहली रात होता यह है कि उसका राजकुमार उस पर ऐसे टूट पड़ता है जैसे कोई बरसों का भूखा खाने पर पिल पड़े, जिसके लिए न थाली की कोई अहमियत है, न उस पर परोसे गये व्यंजनों की। उस पर तुर्रा यह कि तृप्त होकर एक विजेता की मुस्कान के साथ वह थाली और भोजन पर अहसान भी जताता है और उससे पूछता भी है - खुश हो न? संतुष्ट प्रसन्न? यह सवाल सवाल नहीं होता, एक जारी किया गया फरमान होता है। अगर आका प्रसन्न हैं तो गुलाम के पास तो खुश होने के अलावा कोई चारा ही नहीं। अब क्या मजाल थाली की और क्या औकात उस पर परोसे गये व्यंजनों की कि अपने आका के फरमान को नकारने की गुस्ताखी करें।
अधिकांश लड़कियों के साथ यही होता है। बड़ी कोमलता और बारीक कशीदाकारी से बुने हुए, पहली रात के उसके सारे सपने, रेशा रेशा उधड़ कर धराशायी होने के लिए ही होते हैं। भारतीय जीवन में शादी के बाद की इस पहली रात का नाम है - सुहागरात।
एक लड़की कितने नाजुक कोमल सपने मन में संजो कर शादी करती है - कि उसका पति उसे फूलों की तरह ऐसे छुएगा कि उस नाजुक फूल की एक भी पंखुरी झर न जाये। उसकी कोमलता बरकरार रखते हुए उससे प्रेम करेगा पर ऐसा अक्सर नहीं होता। वह इस कोमल स्पर्श की कसक हमेशा अपने मन के भीतर छिपाये उसे झाड़फूस से ढांपे रखती है। न वह कसक उघड़ती है, न दिखायी देती है। धीरे धीरे वह इस कसक को भूल जाती है।
17 मई 2007: लड़की को ससुराल भेजना - दुश्मन के खेमे में निहत्थे को भेजना
खूबियां, समझदारी, हर जहीन लड़की में होती हैं, पर ज्यादातर लड़कियां ऐसे ही हाथों में पड़ जाती हैं, जहां उनके पंख कतरने वाले हाथ पहले से मुस्तैद खड़े होते हैं। हिन्दुस्तानी तहजीब में एक लड़की को ससुराल भेजना ऐसा ही है जैसे किसी दुश्मन के खेमे में एक निहत्थे को अकेले भेज दिया जाये। मां बाप भी उसकी डोली विदा कर गंगा नहाते हैं - बस, हमने अपना फर्ज निभा दिया, अब अपने नये घर के नये लोगों के साथ तुम निबटो। और अपना दरवाजा इत्मीनान से उढ़का देते हैं। असीमा के मां बाप ने यही किया। किसी भी पीढ़ी के हों, अधिकांश मां बाप यही करते हैं। बेटी ने शादी अपनी मर्जी से की है, बस, अपना पल्ला झाड़ो - पति पैसे नहीं देता, ताने कसता है, बच्चों की देखभाल नहीं करता, गुस्से में तमाचा भी जड़ देता है तो हम क्या करें? हमने कहा था कि इस निखट्टू से शादी करो, तुम्हारी अपनी पसंद थी, खुद भुगतो। माता पिता यह भी नहीं सोचते कि अगर दहेज से लाद फांद कर, उनकी पसंद के लड़के से भी शादी की गयी होती तो भी यह हो सकता था। शादी के बाद ही तो एक लड़की को भावनात्मक सम्बल की जरूरत होती है क्योंकि यह सम्बल वहां से तो मिलता ही नहीं, जहां से मिलना चाहिए। ससुराल वाले तो चाहे प्रेम विवाह हो या अरेंज्ड विवाह, बाहर से आयी हुई लड़की को घुसपैठिये (इंट्रूडर) का ही दर्जा देते हैं। एक बहू ने साल, दो साल, चार साल में आत्महत्या कर ली तो क्या फर्क पड़ता है, दूसरी आ जायेगी। पूरे भारत में लड़कियों की संख्या और अनुपात में चाहे कमी हो गयी हो पर एक कन्या की चिता पर ही विधुर पुरुष के लिए, दहेज से बचने के लिए, माता पिता अपनी कुंवारी कन्याओं के रिश्ते लिए हाजिर मिलते हैं।
जिनके चेहरों पर जुड़ाव का नूर नहीं होता यानी सेंस ऑफ नॉन बिलांगिग -
सुपर्णा। इकसठ साल की उम्र में भी इस कदर खूबसूरत। उस उम्र में भी वह अपनी जवानी के दिनों की कुछ धुंधली उम्मीदें, कुछ मुरझाये हुए सपने आंखों में समेटे हुए थी।
सुबह की सैर के दौरान पहचान हुई। बातचीत में बेहद शालीन और सलीकेदार। कलाई में हाथी दांत का शाखा और लाल रंग का कड़ा और चेहरे पर बंगाली अभिजात्य पसरा हुआ। बंगाली व्यक्ति को देखते ही मेरे भीतर का सोया हुआ कलकना हिलोरें लेने लगता है। सुपर्णा अपनी 'डिम्पी' को पार्क में घुमाने के लिये लायी थी। मुझे अपने 'स्नोई' की याद आ गयी और मैं ठिठक गयी। फिर उसने कहा - कोई अच्छी काम वाली हो तो बताओ। मैंने कहा - मेरे पास तो एक बांग्लादेशी विदूषी बंगालन है। नाम है - अंजलि कर्मकार। ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं पर मुहावरों और बंगाली कहावतों का पिटारा है उसके पास। बात बात में धर्मग्रंथों और पुराणों के उदाहरण देने लगती है - मिथकों का पुनर्पाठ कोई उससे सुने। वह भी साठ साल की है पर गजब की मेहनती। ईश्वर के भेजे हुए देवदूत की तरह बिटिया की शादी से पंद्रह दिन पहले मिल गयी, जब मैं काम के लिए कोई लड़की तलाशने में बदहवास हुई जा रही थी। सुपर्णा ने मेरे हाथ थाम लिए - प्लीज, मुझे भी ऐसी कोई बंगालन तलाश दो जो टिक कर हमारे घर रहे। यहां हर रोज कामवाली बदलती है और घर में सब मुझे दोष देते हैं कि मैं बहुत किच किच करती हूं। हर वाक्य पर उसकी आंखें पनिया जाती थीं।
फिर एक बार अपने पति देबांग के साथ आयी - वसुंधरा में! क्या था उसके चेहरे पर, जो मैंने पहली ही नजर में भांप लिया था। जब पहली बार देखा तो उसके बेरौनक चेहरे पर यह अनमनापन बहुत साफ साफ जमा बैठा था।
वे औरतें, जो देखने में बेहद खूबसूरत होती हैं, लेकिन उनके चेहरे पर एक अजीब किस्म का उजाड़ होता है - खोयी खोयी सी इधर उधर कुछ ढूंढती सी आंखें, एक वाक्य भी जो बिना हकलाये बोल नहीं पातीं, जिनका आत्मविश्वास रौंदा। कुचला हुआ दिखाई देता है, बातें करते करते अचानक बात का सिरा पकड़ में नहीं आता, बार बार भूल जाती हैं - अभी अभी क्या बात कही थी। उनसे बात करो तो चेहरे पर ऐसा पसरा शून्य कि जो आपने कहा, उन तक पहुंचा ही नहीं। उन्हें देखने पर लगता ही नहीं कि साबुत खड़ी हैं वहां। पूरी की पूरी आपके सामने खड़ी होती हैं और आधी पौनी ही दिखती हैं। बाकी का हिस्सा कहां किसे ढूंढ रहा है, उन्हें खुद भी मालूम नहीं होता।
उसके घर की दीवारों पर खूबसूरत पेन्टिंग्स लगी थीं जो उसने शादी से पहले और शादी के दो चार साल बाद तक बनायी थीं। इंटीरियर डिजाइनर भी की और उसका बेस्ट उसके घर के दरवाजों, झरोखों और बाथरूम तक में दिखायी देता था। पर उसके चेहरे पर वह खोया सा भाव जमा बैठा था - जिसे कहते हैं - 'लॉस्ट लुक'। ऐसा भाव जो लम्बे अरसे तक 'सेंस ऑफ नॉन बिलांगिग' और 'चुप्पी की हिंसा' झेलने से पैदा होता है।
दो तीन दिन की पहचान में ही एकाएक खुल कर अपनी तकलीफ बयान करने लगी। यह खुलासा तभी आता है जब औरत चुप्पी के तीस चालीस बरस झेलने के बाद सैचुरेशन बिन्दु पर पहुंच जाती है - 'सुधा, आय हैव अब्यूज्ड माय बॉडी सो मच। आय हैव पनिश्ड इट। टॉर्चर्ड इट नाउ माय बॉडी इज टेलिंग मी - नो मोर! टेक केअर ऑर आय लीव यू एंड गो।'
(मैंने अपने शरीर का, अपनी सेहत का कभी ख्याल नहीं रखा। अपने को सजा दी, यातना दी। अब मेरा शरीर मुझसे कह रहा है - बहुत हुआ! अब मुझे संभालो, नहीं तो मैं चला!)
मैंने उससे कहा तुम अकेली नहीं हो। सभी औरतें यही करती हैं। और कहीं तो जोर चलता नहीं, बस, अपने को सजा देने बैठ जाती हैं। और कोई रास्ता नहीं होता उनके पास। अपने को सजा देकर ही उन्हें सुख मिलता है। घर को मिटने से बचाये रखने का सुख, अपने को तहस नहस करके भी अपने को त्याग के ऊँचे आसन पर बिठाने का सुख और बच्चों के सिर पर एक सुरक्षित छत देने का सुख।
एक दोयम दर्जा दूसरे दोयम दर्जे से थोड़ा सा ऊँचा उठना चाहता है।
यह सवाल जरूर उठता है कि औरतें अपने को ही सजा देने क्यों बैठ जाती हैं। और कोई रास्ता क्यों नहीं होता उनके पास?
जब भीतर खलबली मची होती है, मन बेचैन होता है, अपने आप से डर लगने लगता है कि बिना वजह कुछ तोड़फोड़ न कर दें, किसी पर बरस न पड़ें। तो यह बेचैनी उतरेगी किस पर? किस पर वश चले? जाहिर है, घर के मालिक पर तो नहीं ही - चाहे वह ससुर हो, जेठ हो या कोई और बुजुर्ग, क्योंकि वहां जोर नहीं चलता। सास पर? नहीं, क्योंकि उसके पति की मां हैं वह। हर हाल में इज्जत की हकदार है। हमारी माताओं ने हमारी पीढ़ी को यही सीख दी है कि सास को मां समान समझो। पति पर? सवाल ही नहीं। वह तो जहांपनाह हैं घर के। अन्नदाता हैं। एकल परिवार में उन्हीं की हुक्मउदूली होती है। बचा कौन? अपनी सारी खीझ, गुस्सा, कुंठाएं कहां निकालें? बच्चों पर? एक तो वे इतने मासूम होते हैं, दूसरा पिता का प्यार नहीं मिलता उन्हें, तो दोहरी जिम्मेदारी औरत की बनती है कि उन्हें वह पिता के प्यार की कमी महसूस न होने दे। और दूसरा, वे घर पर रहते नहीं और अच्छा ही है कि नहीं रहते वर्ना वे मासूम ही शिकार होते इस खलबली का, इस बौखलाहट का। लेकिन फिर भी ये मासूम बच्चे भी गृहिणी की कुंठा का शिकार होते हैं। 'दोहरा अभिशाप' की लेखिका कौसल्या बैसंत्री की बेटी सुजाता पारमिता बताती हैं कि जिस दिन मेरी मां पिता से पिटती थीं, अगले दस दिन तक वह मुझे पीट पीट कर अपना गुस्सा निकालती थीं क्योंकि बेटों को पीटना नहीं चाहती थीं और नौकर नौकरानी घर में थे नहीं, तो ले देकर एक बेटी ही उपलब्ध थी हर वक्त पिटने के लिए। यह पीटना इतना बढ़ता गया कि सुजाता ने आव देखा न ताव, उस घर से और मां की रोज की पिटाई से बचने के लिए पहले ही प्रेम में झटपट शादी कर ली और वह शादी ही उसकी बाकी की जिन्दगी की अंतहीन तबाही का कारण बनी।
मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय घरों में, जहां काम करने वाले मौजूद होते हैं, वहां बच्चे तो कमोबेश मां की झल्लाहट का शिकार होने से बच जाते हैं, वहां सारी खलबली का शिकार होती है - एक अदद गरीब, मासूम नौकरानी - वह, जो बिना किसी अपराध के, सिर्फ अपनी गरीबी और काम करने की मजबूरी के कारण आटे में घुन की तरह पिसती है। बच्चे भी अनजाने में अपना गुस्सा घर की नौकरानी, माली, अर्दली, ड्राइवर पर उतारते हैं क्योंकि वही एक है जिनसे वे अपने आप को ऊपर पाते हैं ।
अब अगर उसने मेज नफासत से नहीं लगायी या चम्मच सलीके से नहीं रखे या सब्जी एक नपे तुले अंदाज में नहीं काटी तो सोचने की बात है कि अगर उसे इतनी ही समझ होती तो आपके यहां इतने कम पैसों में चौका बर्तन ही कर रही होती? अगर इतनी लियाकत और सलीका होता तो कहीं किसी बेहतर जगह न चली गयी होती? झाड़ू पोंछा ही करती रहती जिन्दगी भर? नौकरानी पर ज्यादा नाराजगी जाहिर नहीं की जा सकती, उसके काम छोड़ कर चले जाने का अंदेशा है। फिर भी घर की मालकिन उसे बख्शती नहीं।
वजह यह है कि उस गृहिणी का भी घर में वही दोयम दर्जा है, जो उस नौकरानी का है। एक दोयम दर्जा दूसरे दोयम दर्जे पर गुस्सा, भड़ास निकाल कर अपने दर्जे को थोड़ा सा ऊँचा उठाना चाहता है।
नो बट वट! दिस इज माय हाउस ...
सुबह दस बजे घंटी बजी। दरवाजा लता ने खोला। मैं अपने कमरे में फैले कागजों और किताबों के अम्बार की छंटाई कर रही थी। प्राणायाम कर रही थी तो ध्यान उचट उचट कर बार बार कागजों पर जा रहा था। सब छोड़ छाड़ कर मैं कागज ही देखने लगी। लता ने आकर खलल डाला - व्वो पड़ोस वाली मैडम आयी हैं। मैंने कहा - आती हूं, बिठाओ।... और मैंने आंखें बंद कर दो बार लम्बी सांस खींची ही थी कि देखा - लता अब भी खड़ी है। मैंने कहा - चाय पूछो, मैं आती हूं। लता शांत स्वर में बोली - वो रो रही हैं। नाक से खून निकल रहा है। मैंने लता की ओर सहारे के लिए हाथ बढ़ाया। उठी। उसी सांस में बाहर आयी। देखा - सुपर्णा। रो रो कर आंखें सूजी हुई थीं। नाक से नहीं, होंठ कटा हुआ था, खून बह रहा था। तब तक लता पानी ले आयी। सुपर्णा ने पानी पीने की कोशिश की पर उसे कटे होंठ से पानी पीने में तकलीफ हो रही थी।
'डोण्ट वरी! आय'म देअर!' मैंने उसे बांहों से घेरा।
बस, फिर जो रोना शुरू हुआ तो दो मिनट रुका ही नहीं। मैंने भी उसे रो लेने दिया।
'सुधा, मुझे अब उस घर में नहीं रहना है। बस, तुम मुझे डिग्निटी लाइफस्टाइल में एक कमरा दिलवा दो। देबांग मुझसे छुटकारा पाने के लिए इतना तो दे ही देंगे।'
पर हुआ क्या - मेरे पूछने पर रोते सिसकते उसने जो बताया - बात छोटी सी थी। देबांग दा ड्राइंगरूम में बैठे क्रिकेट देख रहे थे। सुपर्णा की मित्र आयी तो उसने धीरे से कहा - बाबू, तोमार घरे बशे क्रिकेट देखे नाओ।
खैर, वह नहीं गये तो सुपर्णा अपनी मित्र को अपने कमरे में ले गयी जहां वह अपनी अलमारी का पूरा सामान बाहर निकाल कर साफ कर रही थी। मित्र चली गयी तो पति सीधे कमरे में आकर हाथ चलाने लगे - तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे अपने घर में अपने टी वी पर क्रिकेट देखने से मना करने की।
पतियों को एक बार हाथ उठाने की आदत हो जाती है तो वह इस आएटलेट का मौका तलाश ही लेते हैं, क्योंकि पत्नियां तीस पैंतीस साल तो पड़ोसी को भी खबर नहीं लगने देतीं। मेरी बांद्रा वाले घर की पड़ोसन साधना खुराना ने यही किया।
मैंने कहा - सुपर्णा, बहुत रो लिया। पहले तो रोना बंद करो। और आज घर नहीं जाना, जब तक वहां से कोई बुलाने न आये।
सुपर्णा की फिर गंगा जमुना शुरू - कोई बुलाने नहीं आयेगा। किसी को मेरी जरूरत ही नहीं। मैं अब यहां नहीं रह सकती।
...और सचमुच सुपर्णा उम्मीद भरी और तरसी हुई आंखों से अपना मोबाइल ताकती रही जो शाम के सात बजे तक बजा ही नहीं। न कोई बुलाने आया। न उसका अता पता किया। मैंने कहा - कोई जरूरत नहीं जाने की। यहीं रह जाओ। सुपर्णा ने तब तक जाने का मन बना लिया था - नहीं, मैं चुपचाप अपने कमरे में जाकर सो जाऊँगी। मुझे सुबह उठ कर थायरॉयड और बी.पी. की दवा खानी है। मैंने कहा - मेरे पास दोनों दवाएं हैं, सुबह खा लेना।
सुपर्णा की आवाज न जाने किस कुएं से बाहर आ रही लगती है - नहीं, मैं जाती हूं। हालांकि मुझे पता है, जाकर मैं ऐसी आंखें झेलूंगी जो कहेंगी - आ गयी न। आखिर कहां जाओगी? कोई ठिकाना है तुम्हारा?
मैंने कहा - अकेले नहीं जाओगी तुम! मैं तुम्हें छोड़ कर आती हूं।
सुपर्णा मनुहार करने लगी - तुम मत चलो सुधा। देबांग का कोई भरोसा नहीं। तुम्हें अपमानित कर दें।
मैंने हंस कर कहा - डरो मत, चलो।
सुपर्णा सॉलिटेअर के गेट से अपने गेट तक जाने में निरीह बार बार मुझे लौटने को कहती रही - बस, अब मैं चली जाऊँगी, तुम अब जाओ।
मैंने घंटी बजायी। दरवाजा देबांग दा ने खोला।
सुपर्णा ने एक बार अपने पति की ओर, फिर मेरी ओर ऐसी कातर निगाहों से देखा जैसे कोई बच्चा डांट खाने से बचने के लिए अपने मित्र की आड़ लेता है और तीर की तरह अपने कमरे में चली गयी। देबांग दा ने न हमेशा की तरह मुझसे हलो कहा, न आकर बैठने को कहा, सीधे सोफे पर बैठे और हाथ में अपना ड्रिंक का गिलास उठा लिया। मैंने दरवाजा बंद किया और उनके सामने जाकर बैठ गयी। मैं चुपचाप बैठी रही। आखिर उन्होंने टी वी का स्विच ऑफ किया।
मैंने कहा - देबांग दा, यह सब क्या है?
- व्हॉट डू यू मीन? देबांग दा का सुर सीधे सप्तम पर था।
- इस उम्र में ...
- यस! व्हाय नॉट? आस्क दैट बिच! शी हैज नो राइट टु टेल मी कि मैं कहां बैठ कर और कौन से टी वी पर क्रिकेट देखूं। दिस इज माय हाउस। एवरी पेनी स्पेण्ट ऑन दिस हाउस इज माइन।
मैंने दीवारों पर लगी सुपर्णा की पेंटिग्स और कलाकृतियों पर एक नजर डाली।
- एंड दैट ब्लडी बिच हैज द चीक टु टेल मी कि आमी आमार रूमे जाबो? कैनो जाबो? फक इट। मैं जहां मन आयेगा, वहां बैठूंगा। ..
- ठीक है, बट
- नो बट वट। मैंने बयालीस साल नौकरी की। हर साल तीन तीन प्रमोशन मिले। मेरे पूरे कैरियर में कभी शिप में कोई मिसहैप नहीं हुआ। आय हैव बीन ऐन एक्सलेण्ट कैप्टन। मेरी एक उंगली के इशारे पर बीस एम्प्लाई सी में कूद जाने का हौसला रखते थे। और यहां साला मुझ पर ऑर्डर जमाया जा रहा है कि मैं कहां बैठूं। इतने साल मैंने पैसा कमाया और मैं अपने घर में अपनी मन मर्जी से क्रिकेट नहीं देख सकता... माय कम्पनी वॉन्टेड मी टु स्टे ओवर, आय रिजाइंड बिकॉज आय वॉन्टेड पीस... साला कोई रिलैक्स नहीं करने देता... नाउ टेल मी इफ आय एम रांग...।
- बट ..
- नो बट वट। कम, आय विल शो यू माय मेडल्स। माय सर्टिफिकेट्स...
मैं उठ खड़ी हुई - देबांग दा, यू आर ड्रंक। ...मैं कल सुबह आऊँगी।
संवाद को पूरा सुनने से पहले ही वह दहाड़े - न्नो। आय एम नॉट। एम आय टॉकिंग बुल शिट?
मैं दरवाजे पर आ गयी - जो भी आज हुआ, दोबारा नहीं होना चाहिए।
मैं बाहर निकल आयी। मन खट्टा हो गया। एक ही तरह की बातें। एक ही तरह का अहंकार। घर के सदस्यों को भी दफ्तर के कर्मचारियों की तरह ट्रीट करना। अफसरी रुआब। अहंकार का वीभत्स प्रदर्शन।
8 नवम्बर 2008: तुम्हें क्या हो गया था - यूकियो मिशिमा?
आज पृथ्वी थिएटर के सामने वाले पृथ्वी हाउस के नये हॉल में फिल्म देखी - 1970 में हाराकीरी करने वाले लेखक यूकियो मिशिमा की फिल्म 'पेट्रिऑटिज्म'। 1968 में उसने यह एकमात्र फिल्म बनायी। 45 साल की उम्र में हाराकीरी की। भयंकर रूप से विचलित कर देने वाली और दहला देने वाली। अपने आप को यातना देने का क्रूरतम तरीका। फिल्म के नाम से तो आभास ही नहीं हुआ कि यह फिल्म हाराकीरी पर है। दृश्य माध्यम में इतनी क्रूर मौत को देखना... और यह जानते हुए कि इसके निर्देशक लेखक ने ऐसी ही मौत का वरण किया, आपको भीतर तक झकझोर कर रख देता है। फिल्म खत्म हुई तो संजना कपूर से फिल्म पर बातचीत की शुरुआत करने के लिए कहा गया। संजना इस कदर हिल गयी थी कि बाय बाय करके बाहर चली गयी। एक एक कर सभी चले गये। फिल्म पर बात करने की ताकत किसी में नहीं बची थी। हॉरीफाइंग फिल्म।
प्रकृति की ऐसी ठोस रचना को इतनी बेरहमी से काट पीट देना - प्रकृति के प्रति कितना बड़ा गुनाह है। जंगल में आग लगने के अंदेशे से तो कछुए भी उससे बचने के लिए बरसों मेहनत कर 17 से 20 फीट लम्बी सुरंग खोद लेते हैं ताकि आपातकालीन स्थिति में वहां पनाह ले सकें... और जब जंगल में आग लगती है तो वे अपने दुश्मन सांपों को भी सुरंग में आने से नहीं रोकते, उन्हें नुकसान भी नहीं पहुंचाते। जंगल की आग से बचाव के समय बैरी दुश्मन सब एक हो जाते हैं। और आदमी जो प्रकृति की सबसे सुंदर रचना है, इस तरह आत्मघाती होता है और उसके आत्मघात को हम महिमामंडित भी करते हैं, हद है!
मौत से मैं भी इसी तरह ऑब्सेस्ड रही। शुरू से ही। शायद मौत का डर न होता तो हाथ में कलम ही न पकड़ती। पहली कहानी लिखी - 'एक सेण्टीमेण्टल डायरी की मौत' सारिका में चंद्रगुप्त विद्यालंकार ने अपने सम्पादन में छापी थी। निहायत लचर कहानी। तब से अब तक कहां कहां से गुजर गये पर प्रकृति ने भी कैसी सख्तजान देह बनायी है कि बाहर से देखो तो ऐसी दिखती है कि फूंक मारे अदृश्य हो जायेगी पर कैसे कैसे थपेड़े झेल ले जाती है और हार नहीं मानती। मन्नू जी इसका सबसे ठोस उदाहरण हैं।
10 सितम्बर 2008
देबांग दा वही देबांग हैं, लगता नहीं। जैसे कोई सपना देख रही हूं। सुपर्णा के साथ देवलाली होकर आये। कैंसर काउंसिलिंग सेण्टर में। दोनों को जैसे नयी जिन्दगी मिली है। सुपर्णा के चेहरे पर थकी हुई मुस्कान है।
सुधा देख तो, कैंसर ने मेरी सारी खूबसूरती छीन ली। मेरे रेशम से सुनहरे बाल, मेरी आय ब्रोज यहां तक कि आय लैशैज भी झर गयी, मेरी पतली पतली नाजुक उंगलियां देखो, कैसी रूखी और ठूंठ हो गयी हैं। मेरे नाखून काले हो गये हैं। जीभ तो ऐसी काली हो गयी थी कि तुमने ही कहा कि सुपर्णा, तूमी की काला जाम खेएछो? मेरा स्किन देखो। छह महीने ने मेरी उम्र में दस साल बढ़ा दिये हैं। पर सुधा, मैं सचमुच बहुत खुश हूं कि मुझे कैंसर हो गया। आय एम सो ग्रेटफुल टु दिस किलिंग डिसीज। मुझे पहले क्यों नहीं कैंसर हो गया। इसने मेरा पति मुझे लौटा दिया है। और सुपर्णा रोती चली जाती है। ये खुशी के आंसू हैं। शायद मरने से पहले वह जो पाना चाहती थी, उसे कैंसर ने दे दिया - उसकी रूखी सूखी हथेलियों पर देबांग का प्रेम भरा स्नेहिल स्पर्श।
7 दिसम्बर 2008
आज मेरे दूसरे नम्बर के भाई का जन्मदिन था। मैंने फोन किया। पापा जी ने उठाया। कहने लगे - ओह, मुझे तो याद ही नहीं था। याद कैसे रहता। उनका यह बेटा सिर्फ है उस घर में। नहीं होने जैसा। उसे बुलाया। फोन पर वह आया तो मैंने कहा - हैप्पी बर्थ डे शम्मी। वह ठंडी आवाज में बोला - हां, हैप्पी बर्थ डे। उसे समझ ही नहीं आया होगा कि मैं किसे क्या कह रही हूं। वह अपना नाम भी भूल चुका है शायद। अर्से से - बत्तीस सालों से एक गुमनाम सी जिन्दगी जी रहा है। दवाइयों ने उसके दिमाग को सुन्न कर दिया है। सारा वक्त एक बेचैनी में अपने दोनों हाथ सिर तक ले जाकर हिलाया करता है। आंखें ऐसे खुली रहती हैं जैसे कुछ भी देख न रही हों। उसके चेहरे पर लिखी उसकी मौत को हम तीस साल से देख रहे हैं - तब से, जब से उसकी बीवी उसे छोड़ कर अमेरिका चली गयी, अपने पुराने प्रेमी के साथ। ...और मेरा बेवकूफ भाई उसकी सजा भुगत रहा है। हम सबने न अकेले, न मिल कर - कुछ नहीं किया उसके लिए। शायद इसी दिन के इंतजार में - जब वह अपना नाम भूल जाये और यह भी कि एक दिन उसने इस दुनिया में कदम रखा था। मुझे चालीस साल पहले का शम्मी याद आता है - आवाज बिल्कुल मुकेश की कार्बन कॉपी - ओहरे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में... और सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है... गाता था तो आंखें मुंद जाती थीं उसकी। उसके गाने को हम सब सराहते थे पर इस आवाज के सहारे वह जी सकता था, इसे किसी ने नहीं पहचाना। एक औरत की वजह से अपनी जिन्दगी बरबाद कर बैठा ...उसे भूल ही नहीं पाया। सारा दिन मन बुझा बुझा सा रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हो रहा है। अभी डायरी लिखने बैठी तो समझ आया - क्यों दिमाग इतना अस्त व्यस्त हो रहा था।
8 दिसम्बर 2008: ब्यूटिफुल पिक्चर्स आर डेवेलप्ड इन अ डार्क रूम...
सुपर्णा बताती है - देख, मैं कितने बरसों बाद झूले पर बैठी। और हवा में जैसे ही झूले ने पींगें लीं, मैं सोलह बरस की हो गयी। ...मेरे झूले की लहरों के साथ साथ सत्ताईस मंजिल की बिल्डिंग ओडिसी टू भी हिलोरें ले रही थी। इतनी बड़ी बिल्डिंग... और मेरे साथ साथ झूल रही थी। और पता है, देबांग दूसरे झूले पर थे। अचानक पता नहीं, उन्हें क्या सूझा कि अपने शॉर्टस् की जेब में रखे मोबाइल पर यह गाना चला दिया -
तुमको पाया है तो जैसे खोया हूं
कहना चाहूं भी तो तुमसे क्या कहूं,
किसी जबां में भी वो लफ्ज ही नहीं,
कि जिनमें तुम हो क्या, तुम्हें बता सकूं।
मैं अगर कहूं, तुम सा हसीं, कायनात में नहीं है कहीं
तारीफ ये भी तो, सच है कुछ भी नहीं।
सच, मुझे लगा जैसे देबांग मेरे लिए गा रहे हैं। मेरा मन था - यह गाना अनंत काल तक बजता रहे - इसी तरह... और मैं झूलती रहूं... इसी तरह। और मेरे साथ साथ हिलोरें लेती रहे - सत्ताईस मंजिल की बिल्डिंग ओडिसी टू। बस, ये पल फ्रीज हो जायें। पता है, फिर मैंने भी गाया - हां, ये दो लाइनें, जो मेरी थीं, फीमेल वॉयस में थीं -
तुम हुए मेहरबां, तो है ये दास्तां
अब तुम्हारा मेरा, एक है कारवां, तुम जहां, मैं वहां
फिर देबांग की आवाज आयी -
मैं अगर कहूं हमसफर मेरी
अप्सरा हो तुम या कोई परी
तारीफ ये भी तो, सच है कुछ भी नहीं।
सुधा, मुझे लगा, मैं इस उम्र में भी, कैंसर से जूझते हुए भी, बिना बालों वाले सिर पर स्कार्फ बांधे हुए भी कितनी खूबसूरत हूं। अब यह बताओ - अपनी खूबसूरती पहचानने के लिए भी मुझे देबांग की ही जरूरत क्यों हुई?
सुपर्णा तो कह कर चली गयी।
मैं यह सोच रही हूं कि 1996 में जब साधना खुराना के साथ मैं बॉम्बे हॉस्पिटल डॉ. कालरो के पास कोलोनोस्कोपी करवाने गयी थी, तब भी और 2005 में जब गरिमा ने आकर मेरा एंडोस्कोपी टेस्ट करवाया था और दो दिन बाद बायोप्सी की रिपोर्ट आयी थी - नेगेटिव - तो मैं इतनी निराश क्यों हो गयी थी। क्यों मैं अपने लिए कैंसर चाह रही थी। ऐसी राक्षसी बीमारी। और कैंसर नहीं है, यह जान कर मैं इस कदर क्यों निराश हो गयी थी। शायद इसलिए कि नेगेटिव नेगेटिव को काटता है और एक पॉजिटिव बनता है। ब्यूटिफुल पिक्चर्स आर डेवेलप्ड इन अ डार्क रूम