जिन्न ऐसे होते हैं / मोहम्मद अरशद ख़ान

Gadya Kosh से
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जब सुहेल की अम्मी उसे डाँट रही थीं, तभी मैंने तय कर लिया था कि उन खंडहरों की तरफ़ ज़रूर जाऊँगा। मैंने सुहेल को अपना इरादा बताया तो अम्मी की डाँट के बावजूद वह राजी हो गया।

हमारे कस्बे में एक पुराना खंडहर था। उसके ज़्यादातर कमरों की छतें ढह चुकी थीं। बस कुछेक दीवारें और खंभे खड़े थे, जिन पर घास उग आई थी। लोग कहते थे कि उस सुनसान में जिन्न रहते हैं। खंडहर के थोड़ा आगे एक निस्वाँ स्कूल था। स्कूल के पीछे बड़ा-सा तालाब और तालाब से कुछ दूर ऊँचाई पर रेल की पटरियाँ बिछी हुई थीं। जाहिर है, उस तरफ़ लोगों आना-जाना कम था और कस्बे की आबादी भी वहीं से ख़त्म हो जाती थी। बस, आस-पास कुम्हारों के कुछ छप्पर पड़े कच्चे-पक्के मकान बने थे।

सुबह होते ही स्कूल की लड़कियाँ हरा कुर्ता और सफेद शलवार पहने, सिर पर दुपट्टा कसे स्कूल जाती दिखती थीं। अगर किसी लड़की के सिर से दुपट्टा सरक जाता या बाल दिख जाते तो मौलवी साहब बड़ी डाँट लगाते। एक बार अम्मी को कहते सुना था कि अगर किसी जिन्न की नज़र ख़ुशबू लगाए और खुले बालोंवाली लड़की पर पड़ जाए तो वह उसका आशिक हो जाता है। हालाँकि मेरे बड़े भाई के एक दोस्त, जो अलीगढ़ में पढ़ते थे, कहते थे कि खंडहर में जिन्न वगैरह कुछ नहीं हैं। लोग लड़कियों के स्कूल की तरफ़ न जाएँ इसलिए यह अफवाह उड़ाई गई है।

बहरहाल, जो भी हो, हमने तय कर लिया कि खंडहरों में जाकर पता ज़रूर लगाएँगे कि जिन्न कैसे होते हैं। पर घरवालों की निगाह बचाकर निकल पाना मुश्किल था। इसलिए हमने तय किया कि लू भरी दोपहरी में, जब घरवाले कमरों में बंद होकर सो जाते हैं, तब चलेंगे।

हम निकलने की तैयारी में थे कि सईद आ गया। वह मुहल्ले की मस्जिद के इमाम साहब का बेटा था। वह हमेशा महँगे और कलफ़ किए कपड़े पहने रहता था। उसका घर भी बड़ा शानदार और दो मंजिला था। हालाँकि इमाम साहब पाँचों वक़्त की नमाज पढ़ाने और गंडा-ताबीज देने के अलावा कोई काम नहीं करते थे।

हम लोग सईद से बचना चाहते थे, पर वह ऐसा चिपका कि छोड़ने का नाम ही न ले। हम कुछ भी बहाना करते तो कहता ठीक है मैं भी ऐसा करूँगा। सईद को साथ ले जाने में ख़तरा था। वह डरपोक क़िस्म का लड़का था, वह जाकर घरवालों पर हमारा राज फ़ाश कर सकता था।

आखिरकार जब सईद नहीं टला तो हमने उसे सारी बात बता दी। सईद माथे पर बल डालता हुआ बोला, ‘‘अरे, तुम लोग नहीं जानते। जिन्न अलग मखलूक होते हैं। जैसे हम इंसानों में कुछ सीधे और कुछ शरारती होते हैं, उसी तरह जिन्नों में भी होते हैं। अगर किसी के पीछे एक बार पड़ जाएँ तो उसका काम-तमाम समझो।’’

सईद ने बताया तो डराने के अंदाज़ में पर उसकी बातें हमें डरा नहीं पाईं। पर बात चूँकि खुल चुकी थी, इसलिए सईद को ले जाना ज़रूरी था। इसलिए बेमन से ही सही, हमने उसे सुनना ज़रूरी समझा। हमें दिलचस्पी लेता देख वह आँखें बड़ी-बड़ी करके बताता रहा, ‘‘जिन्न अक्सर सुनसान जगहों में रहते हैं। कुछ तो खुले पानी या समुंदर में भी रहते हैं। कुछ ख़तरनाक क़िस्म के जिन्न कब्रिस्तान में भी पाए जाते हैं, जो इंसानों का गोश्त खाते हैं। अगर कोई ज़िंदा आदमी रात-बिरात इनके बीच फँस जाए तो उसका खून पी जाते हैं और तो और कुछ जिन्न तो इंसानी शक्ल में रहते हैं, कोई भूल से भी उनके हाथ पड़ जाए तो उसे क़ैद करके भेड़ बना देते हैं।’’

जिन्नों के प्रकार जानने में हमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। हम दोनों उबासी लेने लगे। हमारी दिलचस्पी कम होते देख सईद ने ज़ोर देकर कहा, ‘‘मेरी बात तुम लोगों को मज़ाक लग रही है। अरे, जिन्नों का ज़िक्र तो कुराने-पाक में भी आया है कि ये बिना धुँएवाली आग के बने होते हैं।’’

‘‘पर मैंने सुना है कि जिन्न कुराने-पाक की तिलावत से बहुत डरते हैं,’’ सुहेल ने कहा।

‘‘बेशक...! जिन्न तो क्या बड़े से बड़ा शैतान भी।’’

सुहेल ने तुरुप का पत्ता फेंका, ‘‘देखो सईद, हम दोनों तो अलिफ़ के आगे बे नहीं जानते हैं, पर तुम्हें तो ख़ूब सूरतें और आयतें याद हैं। तुम जोर-जोर से पढ़ते रहना। किसी शैतानी ताकत में कहाँ दम, जो सामने आ जाए।’’

मैं सुहेल के दिमाग़ को मान गया। क्या पासा फेंका था। उसकी बात से सईद के अंदर भी हिम्मत पैदा हो गई और वह तैयार हो गया।

हम तीनों चल पड़े। लू की साँय-साँय हो रही थी सड़कों पर सन्नाटा था। इक्का-दुक्का लोग ही इधर-उधर आते-जाते दिखते थे। जब हम खंडहरों की ओर बढ़े तो बिल्कुल सन्नाटा हो गया। हम दोनों तो खंडहर के पास पहुँच गए, पर सईद दूर खड़ा रहा। वह जोर-जोर से आयत-अल-कुर्सी पढ़ रहा था। मैं और सुहेल ईंट-पत्थर उठा-उठाकर खंडहर की ओर फेंकने लगे। चिल्ला भी रहे थे--

‘‘निकल बाहर, जिन्न के बच्चे...!’’

‘‘तेरी ऐसी की तैसी... !’’

सईद के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसने अब चारों कुल पढ़ने शुरू कर दिए थे।

थोड़ी देर हम लोग पत्थरबाजी करते रहे, फिर एकाएक लगा अंदर जैसे कुछ हलचल हो रही है। हम दोनों तो अद्धी ईंटें तानकर खड़े हो गए कि कोई जिन्न-विन्न निकला तो मारकर खोपड़ी तोड़ देंगे, पर सईद वहाँ से डरकर भाग निकला।

थोड़ी देर बाद अंदर से चार खानोंवाली लुंगी और मटमैली-सी बनियान पहने, मुँह में बीड़ी दबाए एक आदमी निकला। पीछे के अंधेरे में दो चेहरे और उभरे। वे भी उसी की तरह मैले-कुचैले थे। आगेवाला आदमी ज़ोर से चिल्लाया, ‘‘ओ रे, लड़कों, शोर क्यों मचा रहे हो? भागो यहाँ से वर्ना बहुत पिटाई करूँगा।’’

हम दो थे और वे तीन, शायद अंदर और भी रहे हों, इसलिए हमने भागने में ही भलाई समझी।

हम जब भागकर गली के मोड़ पर पहुँचे तो सईद डर से सफेद चेहरा लिए खड़ा था। उसने थरथराते हुए पूछा, ‘‘क्या कोई जिन्न दिखा?’’

‘‘हाँ...,’’ सुहेल बहुत अनमने ढंग से बोला, ‘‘मैं तो समझता था, जिन्न सफेद कपड़े पहनते होंगे। चेहरे पर बड़ी-सी सफेद दाढ़ी होगी। पर मुझे क्या पता जिन्न इतने गंदे होते हैं कि बीड़ी पीते हैं...और ताश भी खेलते हैं।’’