जिस तरह मैं सोचता हूँ... / कुमार मुकुल
मेरी दुनिया
उन्नीस सौ पचासी के आस-पास प्राध्यापक पिता की मेज पर जो किताबें पड़ी रहती थीं, उनमें ‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘निराला की साहित्य साधना’, ‘भूरी-भूरी खाक धूल’ शामिल थीं, जिन्हें मैं अक्सर पलटता रहता। रामचरित मानस, चक्रवाल और गीता तो पिता बचपन से रटा ही रहे थे। महाभारत मैं अपनी रुचि से पढ़ा करता था। कुमार विमल की सौंदर्यशास्त्र पर शोध पुस्तक भी मैं काफी रुचि लेकर पढ़ता था। नामवर सिंह की किताब के कवितांशों को मैं अक्सर बार-बार पढ़ता, फिर उनके आस-पास की पंक्तियाँ उन्हें समझने की दृष्टि से देखता था। निराला की कविता से ज्यादा उनके जीवन ने मुझे प्रभावित किया, तो इसके पीछे रामविलास शर्मा की पुस्तक की भूमिका ही बनती है। इसी आस-पास मैथिली के कवि महाप्रकाश और शिवेंद्र दास के साथ घुमक्कड़ी और बैठकी आरंभ हो चुकी थी। इनकी संगत में मैंने कविता और आलोचना की बारहखड़ी सीखी। महाप्रकाश ने काव्याकाश के नक्षत्रों की पहचान सिखाई, तो श्री दास ने भाषा के समुद्र की लहरों से मुठभेड़ की जमीन तैयार की। इसी समय मुक्तिबोध की समग्र रचनावली आई, तो अपने छोटे बहनोई से पैसे ले मैंने उसे खरीदा और आज देखता हूँ कि वह मेरी आलोचनात्मक समझदारी को आधार देती आज भी मेरे साथ है।
मुक्तिबोध की कविता, कहानी या आलोचना हो, सब में वे अपने समय की जहालतों से निर्णायक ढंग से जूझते नजर आते हैं। मुक्तिबोध के बाद शमशेर के गद्य ने मुझे काफी प्रभावित किया। खासकर साक्षात्कार के विशेषांक में कवियों पर लिखे गए उनके लंबे लेख ने। रघुवीर सहाय की जटिल जीविन स्थितियों को प्रकाशित करने वाली भाषा ने भी मुझे आकर्षित किया। अब तक कविता की लौ लग चुकी थी और मिथिलांचल के छोटे से शहर सहरसा में, जो और जितना मैंने भाषा की बाबत सीखा वैसा फिर आगे पटना और दिल्ली में नहीं पा सका। राजकमल चौधरी यहीं के थे और उनकी कविता से ज्यादा उनके उपन्यासों का तिलिस्म मुझे खींचता था। मैंने पहला लेख राजकमल पर ही लिखा, जिसे महाप्रकाश ने उस समय पटना से निकल रहे एक साप्ताहिक जनादेश, जिसे मणिकांत ठाकुर निकालते थे, में छपवाया। मेरी किशोर वय की कविताओं की दो पुस्तिकाएँ उसी दौरान पिता ने छपवाईं। जिसमें पहले समुद्र के आँसू पर प्रभाकर माचवे ने पकाशनार्थ सम्मति भी लिख भेजी थी। मेरी प्रूफ की भूलें और अन्य सलाहें उन्होंने अलग से लिख दी थीं। पर उस छोटे से शहर में अखबार थे नहीं, जिनमें मैं उन्हें छपवाता और पटना के अखबारों तक मेरी पहुँच नहीं थी। आज की तरह वह प्रायोजन का दौर भी नहीं था छपने-छपवाने का और कवि होने के लिए संग्रह की समीक्षाएँ करवाने का तब कोई क्रेज नहीं था। तो पहली पुस्तिका पर एकमात्रा समीक्षा उस समय पटना के प्रतिष्ठित दैनिक हिन्दुस्तान में मुकेश प्रत्यूष की छपी थी। मध्यप्रदेश प्रलेस के अध्यक्ष व कवि रामविलास शर्मा भी उस समय बड़ी सहृदयता से मेरे पत्रों का जवाब देते थे। बहुत दिनों तक मैं उन्हें आलोचक रामविलास शर्मा समझता मन ही मन फूला फिरता रहा। मेरी दूसरी पुस्तिका पर उन्होंने ही सम्मति लिखी थी।
इसी समय मैं मिथिलांचल के उस छोटे से शहर सहरसा को छोड़ राजधानी पटना आ गया। यहाँ लेखकों से मिलने के लिए पहली बार एक सायकिल खरीदी। आरंभ में उस समय आलोचना में प्रतिष्ठा पा रहे भृगुनंदन त्रिपाठी का साथ मिला वर्षों का। उनके साथ रात दस-ग्यारह बजे तक सड़कों पर घूमता उस समय के रचना परिदृश्य पर लगातार बातें करता। देखा जाए तो मेरी समझ को उन्होंने अपने तईं काफी दुरुस्त किया और मुझसे काफी कुछ लिखवाया और अनुवाद करवाया। रघुवीर सहाय पर मेरे दोनों आलेख उनके साथ की गई बहसों का ही नतीजा हैं। इस लेख की बाबत मैंने केदारनाथ सिंह को पत्रा भी लिखा था। आगे एक जलसे में पटना में शिरकत करने आए नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह आदि से उस लेख पर बातें भी हुई थीं और नामवर सिंह ने मुझे काफी उत्साहित किया था। नब्बे के आस-पास होटल की उस बातचीत में नवल जी, गोपेश्वर सिंह, निलय, अपूर्वानंद आदि कई लोग थे। उस समय नंदकिशोर नवल से भी जब-तब बातें होती थीं पर अक्सर वे किसी तीखे मोड़ पर जा पहुँचती थीं। मिलने पर अब भी उनसे घंटों बातें होती हैं। खुद को जब्त कर उनके नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर आदि के विपुल संस्मरणों को सुनना अब मुझे अच्छा लगता है।
पटना आने पर पहली बार मुझे साहित्य में प्रायोजन की महती भूमिका देखने को मिली। कुछ भी सहज नहीं था। सहरसा से ही ‘पहल’ मैं पढ़ता आ रहा था पर मैंने पाया कि वह भी इससे मुक्त नहीं है। राजनीति की तरह साहित्य में भी सलाहकारों की जबरदस्त पैठ थी। अपने आँचलिक लेखन को लेकर चर्चा में रहे विजयकांत ने पहली ही मुलाकात में ज्ञानरंजन का पत्र दिखाते अपनी किताब ब्रह्मफांस पर समीक्षा लिखने को प्रेरित किया। समीक्षा पहल में स्वीकृत भी हुई और ज्ञान जी ने अंक छियालिस या सैंतालिस में छापने की सूचना पत्रा लिखकर दी। पर वह नहीं छपी। इसके अरसे बाद अनठानबे में फिर जब मैंने विष्णु खरे की कविताओं पर लिखा तो ज्ञानरंजन ने उसे दिलचस्प पाते हुए आगे के लिए स्वीकृत किया। आगे उस लेख की प्रति खो जाने की बात कह फिर से वह आलेख मंगवाया और छाप नहीं पाए। लेखन के उस आरंभिक दौर में पहल जैसी पत्रिका में छपना महत्वपूर्ण था एक नवतुरिया कवि, समीक्षक के लिए। पर संपादकों के इस रवैये ने मुझे विचलित किया।
आरंभ से ही प्रायोजन पसंद ना होने के कारण मैंने उससे लड़ने की मंशा से समीक्षा को एक हथियार के तौर पर विकसित किया। फिर मुक्तिबोध के बाद गद्य लेखन एक कवि के लिए मुझे जरूरी शर्त की तरह लगने लगा। छपने की राजनीति ने मुझे हमेशा किनारे करने की कोशिश की, पर लिखकर रखते जाने की आदत कभी छूटी नहीं। अखबारों से जुड़े होने के कारण कभी-कभार चीजें आ ही जाती थीं जहाँ-तहाँ। और मेरा लिखना जारी रखने को यह काफी था। इस तरह मैंने पाया कि प्रायोजन की कला न जान पाने वाले रचनाकार के लिए पत्राकारिता जीवित रहने की जरूरी शर्त-सी बन गई है आजकल। पटना प्रभात खबर में काम करते मिथिलेश जी का साथ रहा। कविता पर उनकी आलोचनात्मक समझ देख मुझे हमेशा आश्चर्य होता। ज्ञानरंजन ने अपने एक पत्रा में लिखा भी था - ‘मिथिलेश जी का उल्लेख करके आपने हमें विचलित किया है। वे बहुत ही प्रतिभाशाली और खूबसूरत इन्सान हैं। काश वे लिखते रहते।’ पर उन्होंने कभी लिखा नहीं। मुझे लगता है मेरे माध्यम से वे भी लिख रहे हैं। दुःख तत्रं में कमला दासी की कविताओं को लेकर बोधिसत्व ने सही लिखा है कि कविताओं में कमला की त्रासदी हैं वे तो लिखिया मात्रा हैं। महाप्रकाश और मिथिलेशजी जैसे लोगों से मिलकर हमेशा लगता है कि मैं तो लिखिया मात्रा हूँ। मैं तो बस उस राह पर चला जा रहा हूँ जिधर उन्होंने इशारा किया था।
दिल्ली तो पारिवारिक संकट में आना पड़ा और यहाँ भी लोग उसी तरह मिले, अच्छे और उत्साही जैसे सहरसा और पटना में थे। पड़ोस में ही लीलाधर मंडलोई मिले जिनका अक्सर सुबह की सैर में साथ होता और घूमते हुए बातें होतीं - मार दुनिया-जहान की। गुमटी पर चाय पीना और फिर घर की चाय और दिल्ली का समय हो जाता। बातें करने का उनका सूफियाना अंदाज मुझे हमेशा अच्छा लगता। विष्णु खरे से जब पटना से मिलने आता था, तो घंटों बातें होतीं, पर जब से यहाँ आया एक बैठकी के बाद उनको समयाभाव ही रहा। विष्णु नागर अपनी कविताओं की तरह सरलता से बातें करते हैं। मंगलेश जी से जब-तब बातें होती हैं थोड़ी बहुत। पंकज बिष्ट से बातें अक्सर बहस की मुद्रा अख्तियार कर लेती हैं और यह अच्छा ही है। हमउम्रों में आर. चेतनक्रांति को हमेशा अपने साथ पाया मैंने।
रचना प्रक्रिया
लीलाधर मंडलोई, विजय कुमार, अच्युतानंद, धर्मेन्द्र सुशांत, नवीन, राजीव आदि अग्रज व अनुज रचनाकारों ने इन आलेखों पर विचार करते एक बात कही कि इसमें भूमिका जैसा कुछ लिखकर मैं बतलाऊँ कि मेरे लिए कविता के मायने क्या हैं, कि मेरा नजरिया क्या है पिछले दशकों में हुए बड़े परिवर्तनों को लेकर।
इस साल देवीशंकर अवस्थी सम्मान के वक्त समीक्षा और आलोचना लिखने के अपने कारणों पर विचार करते विष्णु खरे ने कहा था कि जब कोई कवि मुझे कुपित करता है तब मैं उस पर लिखने का मन बनाता हूँ, ऐसे ही जब कोई रचना मुझे आनंदित करती है तब भी होता है। अपने लेखन के संदर्भों में मैं भी ऐसा ही पाता हूँ। हाँ,, कुपित की जगह मैं आहत होता हूँ और आनंद की जगह मैं थोड़े हल्के शब्द खुशी का प्रयोग करना चाहूँगा। कई बार ऐसा भी होता है कि मैं किसी बिन्दु पर उंगली नहीं रख पाता कि कोई कविता मुझे क्यों अच्छी लग रही है और जब निर्णायक तौर पर कुछ लिखने की बारी आती है, तो मैं खुद को अपनी ही प्रिय रही कविता के खिलाफ पाता हूँ। ऐसे मौकों पर मेरा कवि कंधे उचकाकर खुद को मुझसे अलग कर लेता है। रघुवीर सहाय की कविताओं और केदारनाथ सिंह की लंबी कविता ‘बाघ’ के संदर्भ में ऐसा ही हुआ। कई बार इसके विपरीत भी होता है और सामान्य लग रही रचना लिखते वक्त विशिष्ट बनती चली जाती है। केदारनाथ अग्रवाल और वीरेन डंगवाल के साथ कुछ यही हुआ।
अपने कुछ प्रिय कवियों, जिन पर मैंने लिखा भी सकारात्मक ही, के मामले में यह होता है कि एक बार जंच जाने पर मैं हर आने-जाने वाले के सामने उनका पाठ करता हूँ। इस दौरान हर बार उनकी नयी-नयी अर्थध्वनियाँ खुलती जाती हैं। महीनों बाद जब पढ़ने का दौर खत्म होता है तब ही मैं उन पर लिख पाता हूँ। आलोक धन्वा, विजय कुमार, सविता सिंह आदि के साथ ऐसा ही हुआ। इधर विजेन्द्र की सत्तर के दशक की कविताओं को मैं अपने मित्रों को सुना रहा हूँ।
कुछ ऐसी भी कविताएँ रही हैं, जिनका सस्वर पाठ मैंने कई बार किया है, अपने अकेलेपन से लड़ते हुए, पर उन पर कुछ लिखा नहीं। ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘अंधेरे में’, ‘भूल-गलती’, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’, ‘अमन का राग’ आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। एक समय ऐसा भी गुजरा जब मीरा के कुछ पदों को मैं रात भर गाता रहा और रोता रहा।
जनकवि बनाम जनतंत्र का कवि
नागार्जुन जनकवि हैं, तो रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा जनतंत्र के कवि हैं। जनतंत्र का कवि राष्ट्रकवि के निकट की विभूति है। जनतंत्र राष्ट्र से ज्यादा मूर्त शब्द है। राष्ट्र में जन गुम हो जाता है पर जनतंत्रा में तंत्रा के प्रमुख रहते हुए भी जन की एक भूमिका उसमें बराबर बनी रहती है। जन की भूमिका को जो कवि इस तंत्र में रहते हुए बचाना चाहता है वह हुआ जनतंत्रा का कवि। इन अर्थों में रघुवीर सहाय सबसे आधुनिक कवि हैं। पर जनतंत्रा की सीमाएँ कवि की भी सीमाएँ हैं। जनतंत्र में उपस्थित विपक्ष की तरह उसकी भूमिका भी उतनी ही क्रांतिकारी होती है। पर सत्ता में आते ही वह क्रांतिकारिता जिस तरह चुक जाती है उसी तरह जनतंत्र का कवि भी तंत्र में शामिल होने तक ही बेचैन रहता है तंत्र को बदलने वाले जनकवियों की तरह वह अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता। इमरजेंसी के दौरान रघुवीर सहाय की भूमिका को लेकर आप उनकी सीमाओं की पड़ताल कर सकते हैं। श्रीकांत वर्मा की जन के अलावे कांग्रेस के प्रति प्रतिबद्धता को भी हम इसी तरह से समझ सकते हैं।