जिस धज से कोई मक़तल में गया / (कान्तिमोहन सोज) फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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‘फ़ैज़ और हम’ शीर्षक से यह लेख 1984 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी-उर्दू विभागों की एक सँयुक्त गोष्ठी में पढ़ा गया था।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ चल बसे। लाहौर में 20 नवम्बर 1984 को दिल का दौरा पड़ा और तत्काल ही उनकी मृत्यु हो गई। इस मौत के सदमे से उबरने में काफ़ी वक़्त लगेगा, फिर भी यह सोचकर हैरानी होती है कि हर तरह के शोषण से मानव मुक्ति के लिए ज़िन्दगी भर संघर्ष करने वाला यह दुर्द्धर्ष योद्धा लोकतंत्र को फ़ौजी बूटों से लगातार कुचले जा रहे उस घुटन भरे माहौल में दो साल ज़िन्दा कैसे रह लिया। कोई दो साल पहले जब वह भारत आए थे तो उनके मित्रों और शुभचिंतकों की इच्छा थी कि वह पाकिस्तान न लौटें, भारत में ही रहें। प. बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में इक़बाल चेयर की स्थापना प्रस्तावित की थी और उनकी ख़्वाहिश थी कि फ़ैज़ इक़बाल प्रोफेसर के रूप में यहीं बने रहें। लेकिन, उनकी पारिवारिक विवशताएँ थीं जो उन्हें लेबनान से पाकिस्तान खींच लाई थीं। इन परिस्थितियों ने उन्हें भारत रहने की इज़ाज़त नहीं दी और वो ‘कूए-यार’ से निकलर सीधे ‘सूए-दार’ चले गए।

फ़ैज़ पिछले पचास बरस से लिख रहे थे। अपने घटना प्रधान और कर्मसंकुल जीवन में उन्होंने लिखना कभी नहीं छोड़ा। फिर भी, इस प्रदीर्घ रचना-काल में उन्होंने अपनी कविताओं की केवल सात नन्हीं पुस्तिकाएँ प्रकाशित कराईं। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो रचनाओं का यह परिमाण बहुत कम है, लेकिन उनकी कविता की गुणवत्ता ऐसी थी कि अपने काव्य-शैशव में ही फ़ैज़ जनता के विभिन्न तबक़ों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए और पिछले चालीस वर्षों के दौरान एक कवि के रूप में वह जिस तरह इस उपमहाद्वीप की काव्य रसिक जनता के मानसिक क्षितिज पर छाए रहे हैं, उसे देखते हुए इस काव्य-युग को अगर फ़ैज़-युग कहा जाय तो बहुत कम लोगों को इस पर आपत्ति होगी। उनकी मृत्यु से इस युग का अन्त हो गया।

फ़ैज़ की असाधारणता और अद्वितीयता को समझने के लिए हमें इस युग की उन परिस्थितियों को समझना होगा, जिन्होंने फ़ैज़ को सजाया-सँवारा, उनकी शायरी को परवान चढ़ाया, उन्हें फ़ैज़ बनाया। चार दशकों के इस युग में चार महती और शक्तिमती धाराएँ विलोड़ित हो रही थीं और फ़ैज़ के सम्वेदनशील मन को मथ-मथकर उसे संस्कारित और अनुप्राणित कर रही थीं।

उन्होंने एक ऐसे दौर में होश संभाला और क़लम उठाई, जबकि इस देश में साम्राज्यविरोधी राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम तरंगायित हो रहा था। यह संग्राम जाति, क्षेत्राीयता, भाषा, धर्म और सेक्स की सँकरी दीवारों को तोड़कर इस उपमहाद्वीप की विराट भौगोलिक इकाई को एक जीवन्त और स्पन्दित राष्ट्र का रूप प्रदान कर रहा था। 1930 के बाद मज़दूर वर्ग एक स्वतंत्र वर्ग के रूप में सक्रिय हो चुका था और जनता के विभिन्न तबकों के बीच व्यापक और टिकाऊ एकता का़यम करने वाली शक्ति के रूप में काम कर रहा था। यह एक ऐसा दौर था जिसमें कला और संस्कृति के क्षेत्र में हर तरह की संकीर्णताओं, सामाजिक रूढ़ियों और प्रगति की राह में बाधा बने हुए अंकुशों पर प्रहार किया जा रहा था तथा साहित्य को जनता के व्यापक संघर्ष और प्रतिरोध की शक्तियों से जोड़ा जा रहा था। फ़ैज़ और उनके कई सहकर्मी इन दिनों इश्क़ और रूमान की कविताएँ लिख रहे थे। इन रूमानी कविताओं को लेकर रूपवादी आलोचक जब फ़ैज़ को इश्क़ो-मोहब्बत का शायर साबित करने की कोशिश करते हैं तो हमारे कुछ प्रगतिशील साथी पेसोपेश में पड़ जाते हैं। कई बार हम यह भूल जाते हैं कि उस दौर में प्रेम की अभिव्यक्ति एक सकारात्मक और प्रगतिशील अभिव्यक्ति थी और ऐसी कविताओं को लेकर हमें क्षमायाचना करने की क़तई ज़रूरत नहीं है। फ़ैज़ जैसे कवियों ने प्रेम के इस सकारात्मक रूप को ही आगे चलकर देश-प्रेम और मानव-प्रेम का रूप प्रदान किया। उनके इस विकास को रेखांकित करना हमारी ज़िम्मेदारी है।

फ़ैज़ के बचपन में ही रूस में महान अक्टूबर क्रान्ति सम्पन्न हो चुकी थी। लेनिन के नेतृत्व में समाजवादी सोवियत संघ ने सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभानी शुरू कीं तो उपनिवेशों में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों की साम्राज्यविरोधी अन्तर्वस्तु दृढ़ हुई और इनमें से कुछ देशों के अपने-अपने मज़दूर आन्दोलनों ने उसे दृढ़तर बनाया। रूस में समाजवाद की स्थापना के बाद उपनिवेशों की ग़ुलाम जनता सिर्फ़ राजनीतिक आज़ादी से सन्तुष्ट हो जाने के लिए तैयार नहीं रह गई थी। वह हर तरह की दासता, शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति पाने के सपने देखने लगी थी। इस दौर में, सोवियत संघ न केवल सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का केन्द्र था, बल्कि हर प्रकार के आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध मानवमुक्ति का एक जीवन्त प्रतीक बन गया था। समाजवादी आन्दोलन की इस प्रचण्ड धारा ने देखते-देखते अगर प्रेमचन्द से लेकर फ़ैज़ तक कई पीढ़ियों के प्रबुद्ध साहित्यकारों को अपनी ओर खींच लिया तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी। समाजवाद और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की दो सशक्त धाराएँ मिलकर एक हो गई थीं और एशियाई-अफ़्रीकी देशों के असंख्य देशभक्त साहित्यकार और बुद्धिजीवी इनसे प्रेरणा ले रहे थे। कुछ आलोचक इस दौर की परिस्थितियों को नज़रअन्दाज़ करते हुए प्रगतिशीलता को विदेशी और अभारतीय सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन एक ऐसे दौर में विकसित हुआ है जिसमें एक ओर साम्राज्यवाद और बाक़ी तमाम दुनिया के बीच अन्तर्विरोध पनप रहा था तथा दूसरी ओर समाजवाद सम्पूर्ण विश्व के मुक्ति आन्दोलन का खुला और निर्भीक समर्थन कर रहा था। ऐसे में, समाजवादी विचारधारा के प्रति ग़ुलाम देशों के स्वतन्त्र बुद्धिजीवियों की आसक्ति न केवल स्वाभाविक और पूरी तरह देशभक्तिपूर्ण थी, बल्कि अनिवार्य और अपरिहार्य थी। हैरानी की बात नहीं कि 1935 तक आते-आते हम देखते हैं कि फ़ैज़ ने न सिर्फ़ समाजवादी विचारधारा ही अपना ली बल्कि अमृतसर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ाने वाला यह सफ़ेदपोश बुद्धिजीवी मज़दूरों के सुख-दुख का भागीदार बन गया, उनकी ट्रेड यूनियनों में काम करने लगा; उसकी शायरी में ‘ग़मे-यारां’ ‘ग़मे-दौरां की शक्ल में ढलने लगा।

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। शुरू में ऐसा लगा था कि यह कोई स्वतन्त्र धारा नहीं है बल्कि राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलन का संगम मात्र है, लेकिन बाद की घटनाओं ने शीघ्र ही प्रगतिवादी साहित्यान्दोलन को एक स्वतन्त्र धारा का रूप दे दिया और इसने बहुत बड़े पैमाने पर साहित्यकर्मियों और कलाकारों को अपनी ओर आकृष्ट किया। यूरोप में पतनशील पूंजीवाद अपने सबसे घिनौने, मानवघाती और प्रतिक्रियावादी रूप नाज़ीवाद और फ़ासीवाद में सर उठा रहा था; बाक़ी तमाम दुनिया से साम्राज्यवाद का अलगाव लगभग सम्पूर्ण हो चला था और दुनिया भर की शान्तिप्रिय और मुक्तिकामी जनता इस उभरते हुए ख़तरे का मुक़ाबिला करने के लिए तैयार हो रही थी। सोवियत संघ इसका नेतृत्व कर रहा था। इन परिस्थितियों ने प्रगतिशील साहित्यान्दोलन को बहुत जल्द ही एक शक्तिशाली आन्दोलन बना दिया और देश की लगभग तमाम भाषाओं के समर्थ रचनाकार इसकी ओर आकृष्ट हुए। प्रगतिवादी आन्दोलन इसलिए इतनी जल्दी और इतना ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हो गया कि देश में पहली बार एक राजनीतिक पार्टी ने उसे प्रवर्तित किया था जैसा कि कुछ आलोचक सोचते हैं बल्कि उसके लोकप्रिय और सर्वग्राह्य होने की वजह यह थी कि वह एक साथ साम्राज्यविरोध, युद्ध विरोध और शान्ति-मुक्ति-प्रगति की पक्षधरता का प्रतीक था। फ़ैज़ और उनकी सी मानसिकता वाले असंख्य साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का इस धार में आ मिलना ऐसा ही स्वाभाविक था जैसे नदी में मछलियों का आ जाना। इसे ‘प्रेम की डगर छोड़कर क्रान्ति का झण्डा उठा लेने’ जैसी उलटबाँसियों से नहीं समझा जा सकता।

बहरहाल, दूसरा विश्वयुद्ध होकर रहा। लाल सेना ने दुर्दान्त दस्यु फ़ासीवाद को धूल चटाई। पहले विश्वयुद्ध के कराल गर्भ से समाजवाद की एक कोंपल फूटी थी जो दूसरे विश्वयुद्ध तक एक अभयदाता अक्षयवट की शक्ल ले चुकी थी। दूसरे विश्वयुद्ध की विकराल कोख से एक सशक्त वल्लरी निकली जो लगातार मढ़े चढ़ती जा रही थी और अपना विस्तार कर रही थी। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर समाजवादी शिविर अस्तित्व में आया। ग़ुलामी की कड़ियाँ तोड़कर पहले उत्तरी कोरिया तथा वियतनाम, बाद में भारत और चीन आज़ाद हुए। 1945 से जिस नये युग का सूत्रापात हुआ वह साम्राज्यवाद की लगातार पराजयों, समाजवाद की सतत सफलताओं और दुनिया के पैमाने पर राष्ट्रीय मुक्ति अन्दोलनों की निरन्तर प्रगति का युग है। आज भी कुल मिलाकर घटना-विकास इसी दिशा में हो रहा है।

तो भी, दूसरे विश्वयुद्ध में साम्राज्यवाद मर नहीं गया। अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में उसने नई रणनीति और नए पैंतरे विकसित किए और उन्हें आज़माना शुरू कर दिया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशों को प्राप्त स्वतंत्रता में एक ओर औपनिवेशक जनता के साम्राज्यविरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की शक्ति मूर्तिमंत है तो दूसरी ओर साम्राज्यवाद की बदली हुई रणनीति जिसे आम तौर पर नव-उपनिवेशवाद के नाम से पुकारा जाता है भी परिलक्षित होती है। इन देशों में सत्ता का हस्तांतरण उन शक्तियों को करना जो स्वाभाविक रूप से साम्राज्यवाद की शत्रु नहीं हैं, इन देशों के आर्थिक विकास के लिए ‘सहायता’ के नाम पर उनकी सरकारों को तरह-तरह के बंधनों में बांधना और उन्हें अपने ऊपर निर्भर बनाना, बहुराष्ट्रीय निगमों और कम्पनियों की पूँजी वहाँ लगाकर उनकी अर्थव्यवस्था में साम्राज्यवादी हितों का विस्तार करना, विचारधारात्मक प्रचार के ज़रिए इन देशों के प्रचार-तंत्र को प्रभावित करना, पतनशील साम्राज्यवादी संस्कृति का निर्यात, प्रलोभन, दबाव और धमकी द्वारा गुटनिरपेक्षता की नीति से उन्हें विचलित करना, फ़ौजी और जनविरोधी निज़ामों को पनाह देना और इन निरंकुश शासकों से रणनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान अपने सैनिक अड्डों के लिए झटक लेना, अविकसित देशों में फूटपरस्त और अलहदगीपरस्त ताक़तों की सरपरस्ती और सी०आई०ए० जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियों की उनमें घुसपैठ की मदद से वहाँ अस्थिरता पैदा कर देना, धार्मिक संकीर्णता, तत्ववाद तथा हर के प्रतिक्रियावाद की ताक़तों को शह देना नवउपनिवेशवाद की रणनीति के प्रमुख घटक हैं। ज़ाहिर है कि इस रणनीति के विरोध में भी एक रणनीति विकसित की गई, जिसमें साम्राज्यविरोध, गुटनिरपेक्षता का समर्थन, आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता, समाजवादी देशों से सहयोग और विघटनकारी-पृथकतावादी तथा धार्मिक तत्ववाद के विरोध पर विशिष्ट बल दिया गया। यही वह चौथी धारा थी जिसने फ़ैज़ के कवि-मानस को प्रभावित किया और उनकी रचनाओं से बल प्राप्त किया। यह, उपनिवेशवाद और उसके विरुद्ध लगातार व्यापक होता हुआ जनान्दोलन भारतीय कवियों की तुलना में फ़ैज़ के बारे में कहीं ज़्यादा प्रासंगिक है।

भारत की तरह ही पाकिस्तान में भी सत्ता का हस्तांतरण वहाँ के पूँजीपति-भूस्वामी शासक वर्गों को किया गया। फ़ैज़ ने पाक की आज़ादी के चरित्र को समझने में भूल नहीं की। 1947 पर उनकी कविता इसका प्रमाण है। कविता की अन्तिम पंक्तियाँ उनकी समझ को स्पष्ट कर देती है :

अभी गिरानि-ए-शब में कमी नहीं आई

नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई

चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई ।

ग़ौरतलब है कि फ़ैज़, हमारे उपमहाद्वीप के अनेक कवियों की तरह, राजनीतिक आज़ादी को अन्तिम लक्ष्य मानने की भूल नहीं करते। वह समझते हैं कि अनगिनत कु़र्बानियाँ देने के बाद इस उपमहाद्वीप की जनता ने जो आज़ादी हासिल की है वह आँखों और दिल पर लगी हुई तमाम पाबन्दियों से, मानव को हर कोण से कसे हुए तमाम बंधनों और चुभने वाले अंकुशों से, हर तरह के शोषण और सामाजिक उत्पीड़न से, मुक्ति कराने वाली शक्ति नहीं है। यह मात्र एक पड़ाव है जहाँ दम लेकर देश की जनता को वास्तविक मुक्ति के संघर्ष की राह पर आगे बढ़ जाना है। उस युग के अधिकांश नहीं तो अनेक साहित्यकारों की समझ यह नहीं थी। वे इस आज़ादी को ही मुक्ति मान बैठे थे और संघर्ष की नयी मंज़िल की ओर रवाना होने से इनक़ार कर रहे थे। ऐसे ही लोगों की पस्तहिम्मती और अवसरवादिता के चलते प्रगतिशील लेखक संघ का विघटन हुआ। इस विघटन में बहुत से ऐसे प्रगतिशील लेखकों की समझ ने भी योग दिया जो राजनीतिक आज़ादी को अन्तर्वस्तु को, और उसके द्वारा प्रदत्त संघर्ष के नए सुअवसरों की संभावना को पहचानने से पूरी तरह इनक़ार कर रहे थे। उनसे हटकर, फ़ैज़ इस आज़ादी को ‘नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी’ में तब्दील करने में जी-जान से जुटे रहे और उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी।

1951 में उन्हें रावलपिण्डी षड्यंत्र केस में गिरफ़्तार करके जेल में ठूँस दिया गया। चार वर्षों तक वे सींखचों में क़ैद रहे और फाँसी का फन्दा लगातार उनके सर पर झूलता रहा। इतिहास की विडम्बना देखिए कि नवउपनिवेशवादी ताक़तों की शह पर जिस सरकार ने फ़ैज़ पर सितम ढाए, उसी के प्रमुख लियाक़त अली ख़ाँ को नवउपनिवेशवाद की सुनियोजित हिंसा का, इस उपमहाद्वीप में, पहला शिकार बनना पड़ा। इसके बाद से पाकिस्तान पर नवउपनिवेशवाद का शिकंजा लगातार कसता ही गया। आज वह उस पर बुरी तरह हावी है। फ़ैज़ ने पाकिस्तान में अपनी आँखों से उन मूल्यों और आदर्शों को मासूम बच्चों की तरह क़त्ल होते हुए देखा जिन्हें इस उपमहाद्वीप के अवाम ने बेशुमार कु़र्बानियाँ देकर हासिल किया था एकता, स्वतन्त्रता, समानता, प्रेम, शान्ति, जनवाद और धर्मनिरपेक्षता। ये मूल्य और आदर्श उन्हें जान से प्यारे थे। यह सोचकर तकलीफ़ होती है कि जो कवि मानव मात्रा की अखण्डता और मुक्ति का सपना अपनी आँखों में सँजोये रहा, उसे दो-दो बार अपनी मातृभूमि के टुकड़े होते हुए देखना पड़ा और एक बार नहीं बल्कि बार-बार उस जम्हूरियत को कटते-पिटते और लहू-लुहान होते देखने की पीड़ा भोगनी पड़ी जिस पर वह सौ जान निछावर करता था। धर्म के विधि-निषेध का ज़िन्दगी भर मज़ाक उड़ानेवाले फ़ैज़ को ख़ुद अपने ही मुल्क में जमाते-इस्लामी की दरिन्दगी झेलनी पड़ी और जिस जनवादी आन्दोलन को मज़बूत बनाने में वह तमाम ज़िन्दगी लगा रहा, वह इतना आंतकित हो उठा कि उसकी रक्षा करने के लिए आगे नहीं आ सका। फ़ैज़ को बार-बार पाकिस्तान जिसमें उनकी रूह बसती थी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।

इन चार-चार शक्तिशाली धाराओं के आलोड़न और घात-प्रतिघात ने फ़ैज़ को एक असाधारण कवि बनाया। इन शक्तिमती धाराओं से प्रेरणा लेकर, इनकी शक्ति को अपने कवि-व्यक्ति में समो लेना फ़ैज़ की एक ऐसी विशेषता है जो उनके समकालीन अन्य कवियों में इतनी प्रचुरता से नहीं पायी जाती। हम देखते हैं कि फ़ैज़ की कविता अपनी समग्रता में एक ओर पाकिस्तान का 37 साला इतिहास प्रस्तुत करती है तो दूसरी ओर वह मानव मुक्ति की कविता है जो दुनिया भर के उन तमाम लोगों से मुख़ातिब होती है जो ज़ुल्म के खि़लाफ लड़ रहे हैं। दूसरे शब्दों, फ़ैज़ की कविता एक साथ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों है। फ़ैज़ विश्व राजनीति से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। उनकी कई कविताएं सीधे-सीधे अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर, एशियाई-अफ्ऱीकी देशों में चल रहे मुक्ति आंदोलनों पर लिखी गयी हैं। लेकिन, फ़ैज़ की असाधारणता इस बात में नहीं है। फ़ैज़ की असाधारणता इस बात में है कि उन्होंने जो कविताएं पाकिस्तान की ठोस परिस्थितियों पर लिखी हैं, और जो पहली नज़र में उनकी नितान्त आत्मगत अभिव्यक्तियां लगती हैं, दरअसल इतना व्यापक प्रभाव रखती हैं कि दुनिया के किसी भी कोने में पढ़ी, समझी और सराही जा सकती हैं। फ़ैज़ का यही जादू उन्हें हिंदी-उर्दू के उन कवियों से अलग करता है जो फ़ैज़ के युग में पैदा हुए और फ़ैज़ की ही तरह चार-चार शक्तिशाली धाराओं में संस्कारित होने के बाद भी असाधारण कवि नहीं बन पाए। फ़ैज़ की कविता को समझना उनके इसी जादू को समझना है।

फ़ैज़ ने उर्दू साहित्य की परम्परा को उसकी संपूर्णता में आत्मसात किया था। इस उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक परम्परा को भी उन्होंने बहुत ध्यान से देखा और परखा था। जब जनरल अय्यूब ने पाक संस्कृति पर रिपोर्ट लिखने का काम फ़ैज़ को सौंपा था, तब कुछ तरक़्क़ीपसंदों को बहुत बुरा लगा था। लेकिन, जब फ़ैज़ ने रिपोर्ट पेश की तो अय्यूब ने उसे छापने से इनक़ार कर दिया। फ़ैज़ की मान्यता थी कि पाक संस्कृति की जडे़ं भारतीय उपमहाद्वीप में हैं। इसका मतलब इस तथ्य को रेखांकित करना था कि भारतीय उपमहाद्वीप में हज़ारों साल से विभिन्न और परस्पर विरोधी धर्मों और नस्लों के लोग साथ-साथ रहते आए हैं। उनके खान-पान, रहन-सहन और पूजा-पाठ के तौर-तरीके़ अलग रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद, भारत उन सबका देश है। इस उपमहाद्वीप की यही सांस्कृतिक परंपरा है जो पाकिस्तान को भी विरासत में मिली है। अगर पाकिस्तान को एक रखना है तो स्थायी एकता मज़हब की बुनियाद पर नहीं बल्कि उस देश में रहने वाली तमाम क़ौमियतों की निजी पहचान को समझकर, अल्पसंख्यकों के हितों को सुरक्षित रखते हुए, उनकी भाषाओं और बोलियों को विकास के समान अवसर प्रदान करते हुए और आर्थिक प्रगति के लाभों का जनता के बीच न्यायसंगत वितरण करने की नीति पर चलकर ही क़ायम की जा सकती है। ज़ाहिर है कि फ़ैज़ की यह मान्यता न तो जनरल अय्यूब को रास आ सकती थी और न जमाते-इस्लामी को, जो धर्मोन्माद की राह पर चलते हुए उस देश के और ज़्यादा टुकड़े करने के सामराजी मनोरथ सफल करने पर आमादा थी। लिहाज़ा, फ़ैज़ को अपनी रिपोर्ट ख़ुद प्रकाशित करानी पड़ी। भुट्टो के ज़माने में बयान की आज़ादी का इस्तेमाल करते हुए जब फ़ैज़ ने अपनी सांस्कृतिक अवधारणा का खुलासा करना शुरू किया तो उन्हें जमाते-इस्लामी के धर्मोन्मत्त आक्रमण का सामना करना पड़ा।

फ़ैज़ उर्दू साहित्य के गम्भीर अध्येता थे। उन्होंने अपने साहित्य की परम्परा का भी अध्ययन और विश्लेषण किया और अपनी रचनाओं से उसे आगे बढ़ाया। हमें उनकी शायरी इसीलिए इतनी अपनी और अज़ीज़ लगती है क्योंकि वह उर्दू साहित्य की परम्परा से उच्छिन्न नहीं है, उसके विरोध में नहीं खड़ी है बल्कि उसकी धारा का अभिन्न अंग है, उसे आगे बढ़ाती है। उर्दू के अधिकांश आधुनिकतावादी, यहाँ तक कि कुछ प्रगतिशील, कवियों की कविता के बारे में यह बात इतने यक़ीन से नहीं कही जा सकती। इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने नए प्रयोग नहीं किए, कविता में नए और सामयिक विषयों का समावेश नहीं किया या उनका अपना अलग रंग नहीं है। फ़ैज़ के ज़्यादातर शेरों पर उनकी अपनी मोहर लगी हुई है। उर्दू की साहित्यिक परम्परा का अंग होते हुए भी हमें यह तय करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता कि यह शेर फ़ैज़ का है। हुआ यह है कि उर्दू साहित्य की परम्परा का अध्ययन करते हुए फ़ैज़ ने पाया कि इस सशक्त परम्परा में आज के ज़माने का चित्रण करने की पूरी-पूरी ग़ुजाइश है और उन्होंने इसका भरपूर फ़ायदा उठाया।

फ़ैज़ की शायरी के ज़्यादातर प्रतीक पारम्परिक हैं। उनके यहाँ ज़ाहिद और रिन्द हैं, साग़रो-मीना हैं, गुलो-बुलबुल हैं, शमा और परवाना हैं, आशियाँ और क़फ़स हैं, मस्जिद और बुतख़ाना है, जुल्फ़ो-रुख़सार हैं, दोरा-रसन और मक़तल हैं, क़ातिल और बिस्मिल हैं, खि़जाँ और बहार हैं, धूप और शबनम है, चान्द और ख़ुर्शीद हैं गोया उर्दू परम्परा की सारी महफ़िल अपने पूरे ठाट-बाट और रख-रखाव के साथ उनके यहाँ मौजूद है और इसके बावजूद उनकी शायरी ख़ास उनकी अपनी, औरों से अलग और आधुनिक है। इसकी वजह यह है कि फ़ैज़ का सोच उनके अपने ज़माने का सोच है, अपने से पहले कवियों के मुक़ाबले शायरी का उनका मक़सद जुदा है, फ़ैज़ के दिल और दिमाग़ पर पड़ने वाले असरात जुदा हैं, उनकी समस्याएँ अलग क़िस्म की हैं और उनका समाधान भी अलग है। फ़ैज़ जानते थे कि परम्परा से चले आए प्रतीकों में नए अर्थ भरना, उन्हें नए भावों और विचारों का संवाहक बनाना कोई खेल नहीं बल्कि एक जोखिम भरी चुनौती है। तो भी, उन्होंने आगे बढ़कर यह चुनौती क़बूल की। वजह यह है कि अगर आप अपनी परम्परा को सिर्फ़ पहचान लेते हैं, उसे अपने दौर से जोड़कर नहीं देख पाते, अपने युग की अपेक्षाओं के अनुसार उसका विकास नहीं कर पाते, तो परम्परा को लेकर इतनी सर-मग़ज़ी करना बेकार है। फ़ैज़ ने न सिर्फ़ यह मोर्चा दिलेरी से संभाला बल्कि उसे फ़तेह करके दिखाया।

मन में फ़ैज़ की प्रतीक योजना पर विस्तार से लिखने की बड़ी इच्छा थी, लेकिन यह लेख पहले ही इतना लम्बा हो गया है कि इसकी गुंजाइश नहीं रह गई है। तो भी, इतना तो कहना ही होगा कि उनके प्रतीकों को सिर्फ़ पारम्परिक अर्थों में लेने से फ़ैज़ की शायरी को समझना नामुमकिन है। उनका यार या महबूब क्रान्ति भी है; रहगुज़र या सफ़र क्रान्ति का पथ भी है; दारो-रसन फाँसी के अलावा अत्याचार का भी प्रतीक है, जुनूँ, इश्क़ और शराब क्रान्ति या उसका उन्माद है; चिराग़ उत्सर्ग का प्रतीक है; रिन्द, रहरौ, सौदाई, बिस्मिल आदि प्रतीकों का इस्तेमाल क्रान्ति के पथिक के लिए हुआ है; नासेह या ज़ाहिद अपने उन पारम्परिक अर्थों अलावा प्रतिक्रियावादी या शंकालु लोगों के भी प्रतीक हैं जो क्रान्तिकारियों को क्रान्ति पथ पर चलने से रोकने की कोशिश करते हैं; बज़्म या महफ़िल वस्तुगत परिस्थितियों का प्रतीक है। फ़ैज़ की प्रतीक-योजना की यह समझ हासिल किए बिना उनकी शायरी की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु हमारी नज़रों से ओझल हो जाएगी। फ़ैज़ के कुछ आलोचकों के साथ यह हादसा हो भी चुका है। दरअसल इस समझ के बिना पारम्परिक शायरों के कलाम से फ़ैज़ की शायरी को जुदा करना कठिन है। मिसाल के तौर पर हम जिगर और फ़ैज़ के ये दो शेर ले सकते हैं जो लगभग एक ही मनःस्थिति को व्यक्त करते हुए लगते हैं, हालांकि वास्तव में दोनों में बहुत बड़ा फ़र्क है :

यूँ तड़पकर दिल ने तड़पाया सरे-महफ़िल मुझे

उसको क़ातिल कहने वाले कह उठे क़ातिल मुझे

-- जिगर

जिस धज से कोई मक़तल में गया वो शान सलामत रहती है

ये जान तो आनी-जानी है, इस जां की तो कोई बात नहीं

-- फ़ैज़

मक़तल, क़ातिल और मक़तूल का वजूद दोनों ही शेरों में मौजूद है। जिगर की महफ़िल क़ातिल की महफ़िल है जहाँ आशिक़ क़त्ल होने के लिए जमा हुए है: लेकिन, क़त्ल के बाद आशिक़ का दिल इस तरह तड़पता है और उसे भी तड़पाता है कि न सिर्फ़ माशूक़ पर बल्कि महफ़िल में बैठे रक़ीबों पर भी आशिक़ की सच्ची मोहब्बत का राज़ अयां हो जाता है। इश्क़ की इस सदाक़त और कु़र्बानी को देखकर क़ातिल के लिए नादिम और शर्मसार होने के अलावा चारा ही क्या रह जाता है? क़ातिल की इस नदामत और इक़रारेजुर्म को देखकर रक़ीबों पर यह असर होता है, गोया क़ातिल मक़तूल है और मक़तूल ही अस्ल क़ातिल है। इस तरह, जिगर इस शेर में जज़्ब-ए-इश्क़ की सदाक़त और उसकी शिद्दत के असर को नुमायां करते हैं। जिगर के ज़माने में गांधीजी का हृदय-परिवर्तन का सिद्धांत सिर्फ़ एक फ़लसफ़ा नहीं रह गया था बल्कि उनकी आवाज़ पर हज़ारों लोग अत्याचारी ब्रिटिश हुकूमत के सामने सीना खोलकर खड़े हो जाते थे और इन शांतिप्रिय लोगों की क़ुरबानियों का असर सिर्फ़ भारतीय जनता पर नहीं बल्कि दीगर मुल्कों के अवाम पर भी पड़ रहा था। मुमकिन है कि जिगर के इस शेर में उस दौर का यह सामाजिक यथार्थ किसी-न-किसी हद तक झलक रहा हो, लेकिन शेर की मौजूदा बुनावट में इसकी गुंजाइश कम ही दिखाई देती है। कुल मिलाकर यह शेर तड़पने-तड़पाने और क़ातिल कौन है इसकी पहचान में ही उलझकर रह जाता है। दोनों मिसरों के अंत में ‘मुझे’ होने के कारण पाठक का ध्यान कवि की वैयक्तिक मनोदशा पर ही केंद्रित हो जाता है और शेर कोई व्यापक अर्थ व्यक्त करने में कामयाब नहीं हो पाता।

इसके विपरीत, फ़ैज़ के शेर में व्यक्तिगत भावना का सामान्यीकरण कर दिया गया है। मक़तल में जाने से ज़्यादा महत्व इस बात का है कि जानेवाला किस धज से जाता है। जान तो ‘आनी-जानी’ है, वह तो किसी की भी सलामत नहीं रहेगी। सलामत रहने वाली चीज़ तो वह अदा या धज ही है जिससे मक़तूल मक़तल में जाता है। यह धज ही वह चीज़ है जो आशिक़ को दीगर मक़तूलों से अलग करती है और लोगों को हमेशा याद भी रहती है। वैयक्तिकता का अभाव धीरे-धीरे हमें शेर के सामान्यीकृत, व्यापक और उदात्त अर्थ की दुनिया में ले जाता है। पाठक का मन ‘मक़तल’ और ‘धज’ के प्रतीकों के पारंपरिक अर्थ से हटकर दूसरे अर्थ तलाश करने लगता है। आहिस्ता-आहिस्ता उस पर यह राज़ खुलता है कि यह मक़तल सिर्फ़ उर्दू ग़ज़ल का वह पारंपरिक मक़तल नहीं जो मीर से लेकर जिगर तक की रचनाओं में मौजूद है बल्कि यह तो क्रूर और निरंकुश तानाशाही का प्रतीक है जिसके हाथों न जाने कितने जम्हूरियतपसन्द और तरक़्क़ीपसन्द नौजवान क़त्ल हो रहे हैं। इन क़त्ल होनेवालों की धज अलग-अलग है। कोई क्रूर सत्ता के दमन को देखकर सिहर उठता है, कोई हँसते हुए और अपने अक़ीदे को नारे की शक्ल देते हुए क्रान्तिकारी उत्साह के साथ फाँसी के फन्दे को चूम लेता है। ऐसे में ‘जां की तो कोई बात’ हो ही नहीं सकती चूंकि वह तो ‘आनी-जानी’ है, चूंकि मरना तो उन्हें भी होगा जो इस लड़ाई में शामिल नहीं हैं। लोग हर तरह के लोग मर जाएँगे, याद रह जाएगी उनकी वह ‘धज’ जिसे लेकर वे मक़तल में गए। इस धज की ‘शान’ सलामत रहेगी क्योंकि ज़ुल्म का पंजा इसे मिटा नहीं सकता। यह शान सलामत रहेगी क्योंकि इससे प्रेरणा लेकर आशिक़ों यानी योद्धाओं के काफ़िले बढ़-चढ़कर कु़रबानी देते रहेंगे और दस्ते-क़ातिल को पशेमान और परेशान करते रहेंगे; ‘और निकलेंगे उश्शाक़ के क़ाफ़िले’। ग़ौर करने की बात है अपने ज़माने के सामाजिक यथार्थ के एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू को जिगर ने आभ्यंतरीकृत करके उसे किस तरह ग़ज़ल के पारंपरिक शेर के चौखटे में महदूद कर दिया है, जबकि फ़ैज़ ने यथार्थ के उसी पहलू से वाबस्ता अपने ज़ाती तास्सुरात को सामान्यीकृत करके प्रेषणीय बना दिया है, और इस कोशिश में वह अपने शेर में न सिर्फ़ अपने दौर की एक अहम सचाई की तस्वीर उतारने में कामयाब हुए है बल्कि ग़ज़ल की पारंपरिक धारणा को एक नवीन और विशद आयाम देने में भी सफल रहे हैं।

असल बात यह है कि मीर से उर्दू शायरी की जो नई परम्परा शुरू हुई, ग़ालिब ने उसे उत्कर्ष पर पहुँचाया और उनके बाद पहले इक़बाल ने और आगे चलकर ज़ोश, फ़िराक़ और फ़ैज़ ने उसे अपने दौर की ज़रूरतों के हिसाब से विकसित किया। ग़ालिब के पचासों ऐसे अशआर हैं जो फ़ैज़ की शायरी पढ़ते हुए बेसाख़्ता याद आ जाते हैं और फिर भी फ़ैज़ के अशआर की अपनी ख़ास और आज़ाद हैसियत है। इस बारे में विस्तार से लिखकर इस लेख को लंबा बनाना ठीक नहीं, इसलिए मैं सिर्फ़ दो मिसालें लेकर अपनी बात स्पष्ट करूँगा।

ग़ालिब और फ़ैज़ के इन दो शेरों पर गा़ैर कीजिए:

क़फ़स में मुझसे रूदादे-चमन कहते न डर हमदम

गिरी है जिसपे कल बिजली वो मेरा आशियां क्यों हो।

- ग़ालिब

चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री

क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है।

- फ़ैज़

दोनों शेर मिलते-जुलते नज़र आते हैं। दोनों शायर क़फ़स में हैं। दोनों को अपने आशियानों की चिन्ता है जो मुसीबत की ज़द में हैं। ग़ालिब का ‘हमदम’ शायर को ‘चमन की रूदाद’ सुनाते हुए डर रहा है, फ़ैज़ को सबा की बेक़रारी से चमन की चिन्ता हो उठती है, एक चमन पर बिजली गिरी है तो दूसरे को उसके माली ने ही गा़रत कर दिया है। लेकिन, ग़ालिब और फ़ैज़ के ज़माने का जो फ़र्क़ है वह इन दो शेरों में साफ़ झलक रहा है। एक विराट महल की तरह भरभराकर गिरते हुए सामंती युग में साँस लेते हुए ग़ालिब अपने दिल को यह झूठी तसल्ली दे लेते हैं कि चमन में हज़ारों आशियाने हैं, कोई ज़रूरी तो नहीं कि जिस पर बिजली गिरी है वह मेरा ही आशियाना हो, या जब बिजली गिर ही गई तो वह ‘मेरा आशियां’ कहाँ रह गया, उसे तो अब नए सिरे से बनाना पड़ेगा और यह ‘हमदम’ भी कैसा है जो ‘रूदादे चमन’ सुनाते हुए डरता है कहीं यह हज़रत ही तो ‘मेरा आशियाँ’ नहीं फूँक आए और अब सारा कु़सूर बिजली का बता रहे हों। लेकिन, फ़ैज़ की चिंता ‘मेरे आशियां’ तक महदूद नहीं, उन्हें सारे चमन की फ़िक्र है जिसे ख़ुद उसका ही गुलचीं ग़ारत करने पर आमादा है। ‘आशियां’ की जगह ‘चमन’ और ‘बिजली’ की जगह ‘गुलची’ कर देने और ‘मेरे’ को ग़ायब कर देने से न सिर्फ़ फ़ैज़ के शेर पर उनकी निज विशिष्टता की मुहर लग जाती है, बल्कि दोनों के दौर का फ़र्क भी नुमायां हो जाता है। फ़ैज़ का ‘चमन’ फ़ौजी तानाशाही के शिकंजे में तड़फड़ाता पाकिस्तान हो जाता है, उनकी चिन्ता देशभक्त की चिन्ता हो जाती है, ‘गुलचीं’ पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमत हो जाती है जो उस देश में लोकतंत्र, स्वतंत्रता और प्रगति की ताक़तों को नेस्त-नाबूद करने पर उतारू थी, जिसने फ़ैज़ जैसे न जाने कितने वतनपरस्तों और जम्हूरियत पसंदों को जेल की आहनी दीवारों में कै़द कर दिया था।

ग़ालिब का एक और बहुत मशहूर शेर है :

काविकावे-सख़्तजानीहाए-तनहाई न पूछ

सुबह करना शाम को लाना है जूए-शीर का

वियोग की शाम को दिन में बदलने के लिए शायर अकेला जूझ रहा है। फ़रहाद भी शीरीं को हासिल करने की शर्त के तौर पर अपने पेशे से पहाड़ को काटकर दूध की नहर निकालने के लिए इसी तरह अकेला जूझा था। लेकिन फ़रहाद ने वह नहर एक बार निकाली थी, यहां शायर को हर रोज़ रात को सुबह करना होता है, फ़रहाद की यातना झेलनी होती है। गोया, फ़रहाद के जुनून से ग़ालिब की यातना बड़ी है।

अब इस शेर की तुलना फ़ैज़ के इतने ही मशहूर शेर से कीजिए :

दिल नाउम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।

समस्या यहाँ भी वही है ग़म की शाम को मसर्रत की सुबह में तबदील करने की। लेकिन, यहाँ नाकामी नाउम्मीदी नहीं बनने दी जाती और इसके नतीज़े में मिलता है यह अदम्य विश्वास कि शाम कितनी ही लम्बी क्यों न हो, अन्ततः सुबह में बदलकर रहेगी। यह विश्वास ही वह डोर है जिसे पकड़कर हम इस सचाई तक पहुँच सकते हैं कि यह लम्बी शाम जुदाई की नहीं बल्कि इस सड़े-गले और मानव द्वारा मानव के शोषण पर आधारित निज़ाम की शाम है जिसका अन्त क्रान्ति की सुनहरी भोर में होना एक ऐतिहासिक सच्चाई है और जो व्यक्ति इस सच्चाई को जानता है, उसका दिल कभी-कभी नाकामी के एहसास से भर तो सकता है लेकिन नाउम्मीद नहीं हो सकता। इस शेर में तनहाई का ज़िक्र नहीं है क्योंकि तनहाई नाकामी को नाउम्मीदी में तब्दीली कर देती है और शाम को सुबह करना जू-ए-शीर को लाने जैसा मुश्किल हो जाता है। ‘तनहाई’ के ग़ायब हो जाने से फ़ैज़ का यह शेर एक क्रान्तिकारी अवधारणा को काव्यात्मक ढंग से व्यक्त करने में समर्थ हो सका है और फ़ैज़ के ज़माने के सामाजिक यथार्थ का कलात्मक चित्रा प्रस्तुत करने में सक्षम भी।


फ़ैज़ को अपने विचारों के कारण जमाते-इस्लामी के हमले झेलने पड़े तो अपने कथ्य की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने रूप या फार्म में जो परिवर्तन किए, उन्हें लेकर उर्दू के उन कठमुल्ला आलोचकों का कोप-भाजन भी बनना पड़ा जो भाषा, कथ्य और शिल्प के अंतः-संबंधों को नहीं समझ पाते और शिल्प या रूप को एक स्वतंत्र और निरपेक्ष इकाई मानकर चलते हैं। फ़ैज़ ने अपनी नज़्मों में ग़ज़ल के और ग़ज़लों में नज़्म के गुण पैदा किये। उनकी ज़्यादातर नज़्में समकालीन इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं से प्रेरित होकर लिखी गयी हैं, लेकिन उनकी शैली ऐसी है, गोया उन नज़्मों का ताल्लुक़ उनकी अपनी ज़िंदगी के हादसों से हो। जहां फ़ैज़ इन घटनाओं पर खुली टिप्पणी करना चाहते थे वहाँ उन्होंने नज़्म के बजाय नग़्मों, तरानों और क़व्वालियों का फ़ार्म अपनाया और कला मूल्यों की अपनी चिन्ता पर इस बात को प्राथमिकता दी कि जिनके लिए ये चीज़ें लिखी जा रही हैं, वे इन्हें आसानी से समझ सकें और अपने संघर्षों में इन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकें। फ़ैज़ ने ग़ज़ल की रूमानियत बनाए रखी लेकिन उसे अपने ज़ाती दुख-दर्द का नहीं बल्कि समकालीन यथार्थ का वाहक बनाया। उन्होंने ग़ज़ल के अशआर को कवि की भिन्न-भिन्न मनोदशाओं और व्यक्तिगत संदर्भों को व्यक्त करने वाले स्वतंत्र और विशृंखल पद मानने की परिपाटी त्याग दी। उनकी ज़्यादातर ग़ज़लें ऐसी हैं जिनमें एक ग़ज़ल में शायर का एक ही मूड है और वह मूड समकालीन यथार्थ के किसी एक पहलू से जुड़ा हुआ है। इस मामले में ग़ालिब से उन्हें ज़रूर मदद मिली होगी जिनकी अनेक ग़ज़लों में शायर पर एक ही मूड तारी रहता है। ग़ालिब की एकाध ग़ज़ल की विस्तृत व्याख्या द्वारा फै़ज़ ने ग़ज़ल में मूड की निरंतरता साबित भी की। आज भी उर्दू और हिंदी की ग़ज़ल कुल मिलाकर ग़ालिब और ख़ासकर फ़ैज़ के ही नक़्शे-क़दम पर चल रही है और फ़ैज़ ने अपने सात कविता संग्रहों में उर्दू के शायरों की परंपरा पर चलते हुए अपने बारे में जो एकाध दर्पोंक्तियां शामिल की हैं उनमें से इस दर्पोक्ति को सिद्ध कर रही है :

हमने जो तर्जे़-फ़ुग़ां की थी क़फ़स में ईज़ाद

फ़ैज़ गुलशन में वही तर्जे़बयां ठहरी है।

फ़ैज़ 1936 के ज़माने से ही प्रगतिशील साहित्यान्दोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों से अभिन्न रूप से जुड़े रहे। इस आंदोलन से जुड़े हुए अनेक चोटी के साहित्यकारों की तुलना में उनकी विशिष्टता यह है कि सर्वहारा की विचारधारा के घोषित पक्षधर होते हुए भी उन्होंने साहित्य के मोर्चे पर कभी संकीर्णतावादी रुख़ अख़्तियार नहीं किया। उन्होंने विचारधारा और साहित्य के अंतःसम्बन्धों को सही ढंग से समझा और एंगेल्स की यह सलाह लगातार अपने मन में रखी कि वर्ग समाज में साहित्य किसी-न-किसी वर्ग की विचारधारा का प्रतिपादन तो अवश्य करेगा लेकिन साहित्य में विचारधारा जितनीप्रछन्न होगी, कलाकृति के रूप में वह रचना उतनी ही अधिक प्रभावशाली और सार्थक होगी। यही कारण है कि फ़ैज़ की शायरी शुरू से आखि़र तक विचारधारा से ओतप्रोत है लेकिन उनका बड़े से बड़ा विरोधी भी उनकी रचनाओं को यह कहकर ख़ारिज नहीं कर सका है कि उनकी रचनाएं कलात्मक नहीं हैं, प्रचारात्मक हैं। उनकी रचनाओं में जोश, साहिर, अली सरदार जाफ़री जैसे तरक़्क़ीपसंद शायरों की घनगरज नहीं है, बड़बोलापन नहीं है, मसीहाई अंदाज़ नहीं है, पाठकों को पिछड़ा हुआ समझकर उन्हें ऐतिहासिक भौतिकवाद या सर्वहारा की भूमिका के बारे में शिक्षित करने का दंभ नहीं है, बल्कि अपनी कविता और अपने पाठकों की समझ के प्रति एक अदम्य और अखण्ड विश्वास है :

जान जाएँगे जाननेवाले

फ़ैज़ फ़रहादो-जम की बात करो ।

आज के दौर में अगर हमारे तरक़्क़ीपसंद शायर फ़ैज़ से पाठकों के फ्रैण्ड-फिलासफ़र-गाइड बनने की यह कला सीखने की कोशिश नहीं करते तो फ़ैज़ का नाम लेना, एक रस्म-अदाई बनकर ही रह जाएगा। फ़ैज़ ने सिद्धान्तों के सवाल पर कभी समझौता नहीं किया। जनवाद के उस मक़तल में उनका सर हमेशा तना रहा। अपनी पूरी ज़िन्दगी में उन्होंने अपनी यह कठिन प्रतिज्ञा सफलतापूर्वक निभाई जो उन्होंने अपने कवि-कर्म के प्रस्थान-बिन्दु पर की थी :

हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे

जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे।

उन्होंने ज़िन्दगी भर मज़दूरों-किसानों और अन्य मेहनतकश तबकों के लिए एक व्यक्ति और एक कवि के रूप में काम किया, उनके संघर्षों में भाग लिया, उन्हें आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई। जब 1942 में साम्राज्यवादी युद्ध ने लोकतंत्र के लिए युद्ध का रूप लिया तो फ़ैज़, अपने फ़ासीविरोधी विश्वास को मूर्त रूप देने के लिए, फ़ौज में भरती हो गए। उन्होंने आज़ाद पाकिस्तान में हर तरह के जुल्म सहे लेकिन अपने सिद्धांत नहीं त्यागे। वे सर्वहारा क्रान्ति के प्रति पूरी तरह समर्पित क्रान्तिकारी कवि थे और सर्वहारा की विचारधारा के मूर्तिमंत प्रतीक थे, और फिर भी विनय, मैत्राी और सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति, दम्भातीत और सहज मानव प्रेम से ओतप्रोत। अगरचे ‘फ़ैज़-अज़-फ़ैज़’ शीर्षक वार्ता में कवि ने इस बारे में ख़ुद पाठकों का ध्यान इस बाबत खींचा है, तो भी इस सचाई की ओर बहुत कम आलोचकों का ध्यान गया है कि फ़ैज़ की पूरी शायरी में मैं का प्रयोग शायद ही कहीं हुआ हो, हर जगह हम है। मेरा, मुझे, मुझसे जैसे शब्द मिल जाएँगे, लेकिन ‘मैं’ नहीं मिलेगा। शायद इसकी वजह यह हो कि ‘मैं’ और ‘हम’ का वज़न बराबर है, लेकिन वज़न बराबर होते हुए भी ‘मैं’ को निकालकर ‘हम’ को अपना लेना, सर्वहारा की विचारधारा से प्रतिबद्ध कवियों के लिए भी आसान नहीं है; समकालीन उर्दू-हिंदी कविता इसकी गवाह है। आज हमारे लिए फ़ैज़ की सबसे बड़ी सार्थकता यही है कि हम उनसे सीखकर, अपने विश्वासों को बनाए रखकर, अपनी रचनाओं को उनकी तरह एक साथ कलात्मक, क्रांतिकारी और लोकप्रिय बनाएँ।