जीना लिखने की जद्दोजहद है / अभिज्ञात
डेली न्यूज़ से साभार (Sunday, 06 May, 2012)
बचपन, प्रेम और लिखने की शुरूआत
मेरे परिवार में थोड़ा बहुत मेरे पिता लिखते थे। वे और मेरी मां रानू, प्रेम वाजपेयी आदि उपन्यास खूब पढ़ते थे, जिसे लुगदी साहित्य कहा जाता है। मना किये जाने के बावजूद सातंवी कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते चोरी-छिपे मैं भी उन्हें पढ़ने लगा और उन दिनों रानू मुझे सर्वाधिक प्रिय थे। मेरे बाल मन पर रानू के पात्रों का असर हुआ।
मुझे जो अपनी हमउम्र परिचित अमीर लड़की दिखी, अठारह-बीस-बाइस पेज के कई पत्र उसे लिखे। कायदे से लिखना तो मुझे मेरे किशोर मन के एकतरफा प्रेम ने सिखाया और अब वर्षो बाद भी लिखने की प्रवृत्ति साथ बनी है पर प्रेम.. मैं नहीं जानता कब-कहां छूट गया। हाल ही मेरी दसवीं किताब, जो मेरा सातवां काव्य-संग्रह है "खुशी ठहरती है कितनी देर" में इत्तेफाक से एक भी कविता प्रेम पर नहीं है। शायद उसे प्रेम ने चोरी छिपे कहीं अपना रूपांतर कर लिया है। आठवीं कक्षा में पहुंचते-पहुंचते मेरी रचनाएं छपने लगी थीं और मंचों पर भी काव्य-पाठ करने लगा था।
रचना प्रक्रिया
कविता की रचना प्रक्रिया जितनी जटिल और अविश्वसनीय है उसके वक्तव्य और अस्तित्व उतने ही भरोसेमंद। कहानी और लेख लिखने के बाद मुझे लगता है कि एक बोझ हल्का हो गया मगर कविता लिखने के बाद लगता है कि हमें किसी परी ने अपने पंख दे दिए हों उधार कि जाओ उड़ लो थोड़ा तुम भी। कई बार तो रचना प्रक्रिया के दौरान पूरी देह रोमांचित और झंकृत हो उठती है।
कविता लिखने का अनुभव किसी दूसरी दुनिया के साथ अपने को जोड़ने का अनुभव है। मुझे लगता है कि कविता आदमी को अधिक आदमी बनाती है। यह मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। मैं जो कुछ लिखता हूं वह उसी समय की मन:स्थिति का बयान नहीं होता। कविता लिखने की स्थिति बनती है तो मैं जो भी कागज मिल जाये उसी पर लिख लेता हूं। यहां तक कि ट्रेन में भी या प्लेटफार्म पर। क्योंकि यह अभिव्यक्ति का झोंका गुजर जाने के बाद कुछ भी याद नहीं रहता।
मैं साफ-सुथरे व कोरे कागज पर प्राय: नहीं लिख पाता। यह रचना प्रक्रिया कविता की है। कहानी-आलोचना के लिए मैं इतमीनान के साथ बैठता हूं और योजना बनाकर लिखता हूं। काफी टालमटोल के बाद। इन दिनों जो तीन मुद्दे मुझे खास तौर पर आकृष्ट कर रहे हैं, वे हैं- नास्टेल्जिया, विस्थापन और अध्यात्म। इन दिनों पीछे छूटे हुए पेंटिंग के शौक ने फिर जोर मारा है। किशोर उम्र के प्रेम पर एक उपन्यास लिख रहा हूं। मेरा नया कहानी संग्रह कभी भी आ सकता है "मनुष्य और मत्स्यकन्या"।
अपना पराया कुछ नहीं
लेखन में मैं आत्म और पर में कोई विभाजन नहीं रखता। मेरी निजता जब मेरी रचनाओं में आने लगती है तो उससे मुझे कोई गुरेज नहीं होता है। आखिर मैं जिस समाज के विषय में लिखता हूं, मैं भी उसका एक हिस्सा हूं। मैं विषय तथा संदर्भ को ध्यान में रखते हुए विधा का चयन करता हूं। जब स्थितियां जटिल हों तो बातों को साफ-साफ कहना चाहिए। जटिल समय में स्पष्टवादिता के अपने खतरे हैं। कविता में कथ्य को संकेतों, प्रतीकों या बिम्बों के माध्यम से रखा जाता है। इसमें लाक्षणिकता भी होती है। सरल बातों को रखने के लिए विधा के रूप में गद्य का चयन ही उचित है।
लिखने- जीने के बीच
मैं कहानियों के लिए पहले प्लाट का चयन करता हूं फिर उसे अनुभूति एव अनुभव की आंच में पकने देता हूं। किसी- किसी प्लॉट को कथा रूप लेने में एक से दो वर्ष तक का समय लग जाता है। एक कहानी को दो या तीन सिटिंग में पूरा कर लेता हूं। लिखने के बाद भी रचना के किसी चरित्र के साथ यदि न्याय नहीं हो पाता तो मन बेचैन रहता है। कभी-कभी मैं अपनी छपी रचनाओं में भी अपेक्षित संशोधन करता हूं। मुझे ऎसा लगता है कि मैं जितनी देर लिखता हूं उतनी देर ही मैं जीता हूं। शेष, उसी जीवन के लिए संसाधन जुटाने की जद्दोजहद है। जब मैं अपने संघर्षो को लिख लेता हूं तो मेरा दर्द कई लोगों का दर्द बन जाता है। यह कार्य इतनी सावधानी से करता हूं कि पाठकों को इसका आभास नहीं हो पता कि मेरी रचनाओं में कितनी हकीकत और कितना फसाना। कल्पना से रचना में एक नयी चमक पैदा होती है।
हमारा समय
वामपंथी सरकारें खत्म हो रही हैं, उनसे जुड़ी साहित्यिक संस्थाएं एव रचनाकर्मी कन्फ्यूज्ड हैं। एक हताश एवं उद्भ्रांत आदमी की कविता भी उद्भ्रांत ही होगी। भूमंडलीकरण और बाजारवादी व्यवस्था ने शोषण का इतना महीन जाल बुना है कि देश की आम जनता को भान तक नहीं हो पा रहा है। बाजार ने कविता का स्थान छीनने की कोशिश शुरू कर दी है। बाजार विभिन्न माध्यमों से लोगों में ऎसी रूचियां, ऎसे सपने परोस रहा है जिसका विस्तार बाजार के उत्पादों का विस्तार करेगा। कविता को अपना संघर्ष तेज करना होगा।
मेरा नामकरण बच्चन ने किया
शुरू में मैं एक अन्य उपनाम से लिखता था क्योंकि मेरे वास्तविक नाम के लेखक पहले ही साहित्य की दुनिया में सक्रिय थे। किन्तु आरम्भिक उपनाम मुझे बहुत पसंद न था। इसी बीच कवि डॉ.हरिवंश राय बच्चन से पत्राचार शुरू हुआ तो उनसे रचना सम्बंधी तरह-तरह के सलाह मिलने लगी। मैंने उनसे एक उपनाम की मांग को तो उन्होंने अभिज्ञात उपनाम सुझाया। यह भी हिदायत दी कि जब तक यह न लगे कि मैं ठीक-ठाक लिख लेता हूं तब उनके दिये नाम के प्रयोग न करूं।