जीना है संग्राम बंदे (शोभाकांत) / नागार्जुन
इलाहाबाद के दारागंज का मोरी मोहल्ला। गंगा के किनारे ‘हरभजन दास का मंदिर’ नामक मठिया। वैरागियों का एक पुराना मठ। भीड़-भाड़ नाम मात्रा... पुराने क़िस्म का मकान था। एक छोटे दरवाज़े से होकर प्रवेश था, फिर बड़ा-सा आंगन। उसके सामने बरामदा और दो कमरे भजन-कीर्तन के लिए। बाईं ओर तीन कमरे पुजारी के ज़िम्मे। दाहिनी ओर दो कमरे और उसके ऊपर दो कमरे...नागार्जुन ऊपर वाले एक कमरे में रहते थे। आंगन में एक ओर हैंडपाइप। बिजली नहीं। अधिकांश दिन मठ खाली रहता। गंगा स्नान के लिए जब कोई तिथि पड़ती, तो मठ में दो-तीन दिन भीड़ रहती। यों अन्य दिनों में नीचे बरामदे पर चार-छह लोग दिख जाते और रात्रि निवास करने वाले दो-एक यात्राी भी... नागार्जुन जिस कमरे में रहते उसके पीछे की खिड़कियां खोलने पर गंगा और छोटी लाइन का पुल सामने बिलकुल क़रीब दिखता... बरसात में गंगा जब उमड़ती, तो मठ की मज़बूत नींव से सटकर बहती। और बाढ़ के समय ‘देखते हैं रात दिन जल-प्रयल का ही दृश्य / पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाला / किराये का घर हमारा रहे यह आबाद/ पुराना ही सही पर मज़बूत / रही जिसको अनवरत झकझोर / क्षुब्ध गंगा की विकट हिलकोर / सामने ही पड़ोसी के / नीम, सहजन, आंवला, अमरूद / हो रहे आकंठ जल में मग्न/ रह न पाये स्तंभ पुल के नग्न / दूधिया पानी बना उनका रजत परिधान... चिर उपेक्षित हमारी छोटी गली की / रूढ़-दंतुर सीढ़ियां ही बन गयी हैं घाट...’। इस मठ में कमरा तलाशने आये थे तो पुजारी या मठ के कर्ता-धर्ता को नागार्जुन ने ‘बड़े भैया’ कहकर संबोधित किया था। रविवार का दिन था। न जाने क्यों घंटे भर बैठाकर बातें करता रहा। बीच में चाय, वह भी कांसे के गिलास में और सुपारी, काला कत्था, चूना और तंबाकू के दोखरे के बाद कमरा मिला ढाई रुपये महीना के भाड़ा पर। कमरा देखने के बाद नागार्जुन ने चार महीने का किराया अग्रिम दे दिया था... हफ़्ते भर के भीतर ‘बड़े भाई’ अर्थात पुजारी का अति स्नेही छोटा भाई बन गये थे और उसके बेटे लखन के चाचा। लखन की मां अर्थात पुजारिन ने इस यायावर मैथिली ब्राह्मण को अपना देवर बना लिया था। पूरा परिवार इस तरह घुल-मिल गया कि हफ़्ते-दस दिन के बाद एक दिन रात के नौ बजे के क़रीब बस अड्डा के पास वाले होटल में खाना खाकर आये, तो ‘बड़े भाई’ ने बैठा लिया और पुजारिन भाभी ने कहा, ‘नाहक बाहर होटल में खाकर अपना स्वास्थ्य चौपट करोगे... यहीं खा-पी लो। भगवान की दया से कोई दिक़्क़त तो है नहीं। मंगनी में नहीं खिलाऊंगी। जो जी में आये दे देना। कुछ देना तो पड़ेगा ही।’ पुजारी मठ की देखरेख के साथ ‘छिऊकी’ के सैनिक साज़ समान वाले कारख़ाने में काम भी करते थे। सबेरे की चाय और रात का खाना साथ ही खाते। नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 75 लगभग दस महीने के बाद इस बार फिर वह इलाहाबाद आये। शाम को पटना से चलकर सबेरे-सबेरे गाड़ी से उतरकर सीधे हरभजन दास के मंदिर वाले अपने पुराने आवास आये। पुजारी और पुजारिन भाभी ने हुलसकर स्वागत किया। 1951 के मार्च की 13 तारीख को इलाहाबाद से निकले। याद आया नागार्जुन को... उस समय यहां से मसूरी गये थे राहुल जी के पास। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की एक संस्था थी। भाड़े की एक कोठरी में किसी समय आरंभ होकर विशाल संस्था के रूप में विकसित हो गयी थी। महात्मा गांधी ने इसकी नींव रखी थी। हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने इसे जोड़ रखा था। समिति की परीक्षाओं में पचास हज़ार से ज़्यादा छात्रा बैठते। इसकी परीक्षाओं को मान्यता मिली थी। विद्यार्थियों की पाठ्य पुस्तकें समिति से छपती थीं। भदंत आनंद कौसल्यायन इसके मंत्राी थे। सब कुछ इन्हीं की निगरानी में होता था। राहुल जी की इच्छा थी कि हिंदी के माध्यम से यह संस्था भारत की सभी प्रादेशिक और विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को लोगों के सामने लाये। साथ ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य का इतिहास, वह भी विभिन्न भाषाओं में और विभिन्न भाषाओं के स्वयं शिक्षक आदि जैसी अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं राष्ट्रभाषा प्रचार समिति अपने हाथ में ले। राहुल से ही पूरी योजना बनवायी गयी और उन्हीं की देखरेख में इस तरह का साहित्य तैयार करने का काम मसूरी में और छपाई, प्रकाशन और प्रसारण वर्धा से होना तय किया गया। इस काम में राहुल जी को अपनी रुचि के अनुसार ढेर सारे विद्वानों की आवश्यकता थी। इसी सिलसिले में उन्होंने नागार्जुन को बुलवाया। एक समस्या यह ज़रूर थी कि दमा का मरीज नागार्जुन सर्दी में मसूरी जैसी सर्द जगह पर रह सकता है या नहीं। सोचा यह गया कि सर्दियों में छपाई आदि की देखरेख के लिए वर्धा में रह लेंगे... राहुल जी चाहते थे कि नागार्जुन को ऐसे काम में लगाया जाये जहां पत्नी और बच्चों के निर्वाह के लिए समय से दो पैसा मिल जाये। वर्धा वाली योजना से पहले भी कोलकाता के एक प्रकाशक ने पचीस हज़ार शब्दों का एक गुटका कोश तैयार करने का आग्रह राहुल से किया, तो उसमें भी नागार्जुन को साथ रखने का विचार था। राहुल के साथ किसी भी तरह काम करने को हमेशा तैयार रहते थे नागार्जुन। ‘रतिनाथ की चाची’ लिखने के बाद राहुल ने उनसे लिपिक का काम लेना एक तरह से बंद कर दिया। उनका कहना था कि नागार्जुन तो स्वयं अब रचनाकार के रूप में माने जाने लगे हैं। कोश वाली जब बात हुई थी, तो नागार्जुन गांव से पटना और फिर इलाहाबाद आ गये थे। नवंबर 1950 की बात है। उसी समय हरभजन दास के मंदिर में अपना ठौर-ठिकाना ले गये थे। उन दिनों भी बड़े बेटे का लगातार बीमार रहना उनके लिए सबसे बड़ी समस्या थी। बड़ा बेटा शोभा मिसर (शोभाकांत) नौंवे वर्ष में चल रहा था और जन्म के तीसरे वर्ष के बाद से ही रोगी रहने लगा। अपराजिता तो बिलकुल ठीक हैं। नागार्जुन ख़ुद अच्छे स्वास्थ्य के नहीं रहे, पर बीमार कहां रहे कभी। दमा भी तो 1947 के अंत में प्रकट हुआ। वह भी बदलते मौसम में ही परेशान करता। शोभा मिसर की देह को मलेरिया और मियादी बुखार ने जर्जर बना डाला। सकरी, दरभंगा और पटना के डॉक्टरों से दिखा चुकने के बाद जब नागार्जुन वर्धा रहने के लिए गये, तो उसे भी साथ ले गये, ताकि इलाज समय पर हो जायेगा और पथ्यादि की सुविधा रहेगी, जो तरौनी में संभव नहीं था। पर वहां भी चार माह में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। फिर सघन जांच में पाया गया कि फेफड़े वाली हड्डी में टीबी हो गया था, अर्थात बोन टीबी और इलाज किसी बड़े अस्पताल में ही संभव है। वहां मित्रों की राय बनी कि पटना मेडिकल कॉलेज में ही इलाज करवाना अच्छा रहेगा। ठीक उन्हीं दिनों ऐसी बातें हो गयीं कि राहुल जी को सूचित कर दिया गया कि राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के ‘साहित्य निर्माण’ से संबंधित 76 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 काम करने में जो-जो प्रमुख लोग वर्धा में थे, वे सब समिति छोड़ने का निर्णय कर चुके हैं। उसी निर्णय के अनुसार नागार्जुन लंबी छुट्टी का आवेदन देकर पुत्रा के इलाज के लिए सितंबर, 1951 के अंतिम सप्ताह में तरौनी गये और अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में पूरे परिवार को लेकर पटना पहुंचे। पटना की लंगरटोली वाली गली में पार्टी का पुराने ढंग का बड़ा मकान था। पानी और बिजली की अच्छी व्यवस्था थी वहां। उसी मकान के पीछे वाले भाग में एक कोठरी और सामने का बरामदा नागार्जुन के परिवार को दिया गया। कोठरी छोटी नहीं थी। बड़ी-बड़ी दो खिड़कियां, न हवा की कमी और न प्रकाश का अभाव। उस मकान में प्रेस और ‘जनशक्ति’ के अलावा किसान-संघ, मज़दूर संगठन, कर्मचारी संगठन आदि नेताओं के ठौर ठिकाना हुआ करते थे। इसके अलावा कोर्ट और अस्पताल या अन्य कामों से जो भी पार्टी का कार्यकर्ता पटना आता, तो वहीं ठहरता। पटना पहुंचकर पार्टी के शुभचिंतक डॉ. सेन से शोभा मिसर को दिखलाया, तो रोग की गंभीरता को देखकर डॉक्टर साहब ने ख़ुद सारा काम छोड़ पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल के डॉ. नवाब से मिलकर रोगी को बच्चा वार्ड में भर्ती करवाया। उसके बाद वापस आये, तो देखा अपराजिता नहा-धोकर दोनों छोटे बच्चों को खिला चुकी थीं। शायद ऑफिस के किसी कार्यकर्ता के मार्फत नुक्कड़ के होटल से खाना मंगवाया था। शोभा मिसर के अस्पताल में होने के बारे में जानकर वह देर तक मौन रहीं और पति पर नज़र गड़ाये रहीं, फिर धीरे से बोलीं, ‘भाग्य ने खिलवाड़ करना शुरू किया... तूफ़ान के बीच भी सब तरफ़ से मुझे ही ठोकर लगनी है क्या...’ और उसकी आंखें छलछला आयीं। नागार्जुन चुपचाप पत्नी को देखते रहे, ‘बहे जा रहे थे नयनों से नीर/ बिंदुमाल-अविरल कपोल पथ पांथ/पिघला-पिघला बहा रही ज्यों स्नेह/ दंड दीपिका-मोममयी दो ओर...’ उस दिन बारह बजे के आस-पास अपराजिता पति के साथ पहली बार बड़े अस्पताल गयीं। पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल के हथुआ वार्ड का ऊपरी हिस्सा बच्चा बार्ड था। घंटे भर अकेले अपने बिस्तर पर बैठे-बैठे शोभाकांत ने जब मां को देखा, तो रो उठा। अपराजिता ने लपककर बेटे को छाती से चिपकाया। दोनों छोटे बच्चे को वहीं अस्पताली सीट पर बैठा दिया गया था। उसी समय एक नर्स सुई देने आयी। नागार्जुन दस दिनों के लिए बीस सुई खरीदते हुए आये थे। अस्पताल की ओर से यह सुई मिलने वाली नहीं, कुछ दवा तो बाहर खरीदनी थी। अपराजिता स्टूल पर बैठे रोगी पुत्रा का सिर सहलाती रहीं और नागार्जुन बरामदे पर चक्कर लगा-लगाकार अस्पताल की व्यवस्था को देखते रहे... उन्हें बताया गया था कि लड़का भीतर से भी कमज़ोर है, सो पूरी डॉक्टरी देखरेख में चार-पांच माह रहेगा, फिर ऑपरेशन किया जायेगा। छाती की दो हड्डियां प्रभावित हैं। उस दिन शाम तक अस्पताल में ही वे रहे। साढ़े छह के आस-पास रोगी पुत्रा को समझा-बुझाकर घंटे-डेढ़ घंटे के लिए नागार्जुन अपराजिता को लंगरटोली ले आये। एक कॉमरेड मित्रा को समझा आये कि गिरस्थी जमाने के लिए तात्कालिक सामान आदि सबेरे तक ला दे। नुक्कड़ वाले होटल से खाना ले नागार्जुन जब अस्पताल वापस हुए, तो एक उबला हुआ अंडा पुत्रा के लिए लेते गये... अगले दिन से दोनों पति-पत्नी ने पुत्रा की तीमारदारी का अपना-अपना मोर्चा संभाल लिया। अपराजिता दिन के साढ़े नौ-दस के बीच खाना बनाकर किरी तरह दो-चार कौर गले के अंदर डाल एक बच्चा गोद में और दूसरे का हाथ पकड़े और किसी तरह तीन खाना वाला टिफिन कैरियर संभाले गोविंद मित्रा रोड या दुरुखी गली पार कर अस्पताल पहुंचने लगीं। तब तक रात भर रोगी पुत्रा के पास रहने वाले पिता को डॉक्टरों से भेंट-मुलाकात हो जाती... डॉक्टरों ने इतना तो ज़रूर बताया कि बोन टीबी गंभीर रोग है, लेकिन समय नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 77 पर अस्पताल आ जाने से बच्चे का जीवन सुरक्षित तो हो ही गया। दिन में कुछ देर विश्राम के बाद नागार्जुन का समय इसी सोच में ज़्यादा बीतने लगा कि इलाज का ख़र्च कैसे संभलेगा? यों अपराजिता के मायके वालों ने यह अवश्य कहा कि जो भी खर्चा आयेगा, वह सब किया जायेगा। पर तत्काल मना कर दिया था कि ज़रूरत पड़ने पर कहा जायेगा... यह तो तय था कि पूरा परिवार तब तक पटना में ही रहेगा, जब तक रोगी पुत्रा ठीक नहीं होता। चाहते थे कि मन मारकर क़लम को कसकर पकड़ें। उन्हें अपने मित्रों और क़लम पर ही भरोसा था। मन ही मन तय कर रहे थे कि निश्चित दिनचर्या बनाकर क़लम को कसकर पकड़ना तो पड़ेगा ही.... इसी वजह से रोगी को पटना के अस्पताल में और परिवार को पटना में ही छोड़कर नागार्जुन इलाहाबाद आ गये थे। पुजारी बड़े भाई और पुजारिन को जब यह कहा गया कि शोभाकांत अस्पताल में सांघातिक रोग के कारण पड़ा है, तो वे सब भी परेशान हो गये थे। उसी परिवार की देखरेख में नागार्जुन ने आसन जमाया। तीन-चार दिन तो मित्रों से मिलने-जुलने में लगाया। हां, इलाहाबाद आने के दूसरे दिन अपराजिता को दो सौ रुपये का मनिऑर्डर भेज दिया था। यह रकम तत्काल दो-तीन पुस्तकों के प्रकाशकीय संपादन और भाषा शुद्ध करने के पारिश्रमिक के तौर पर लिया था अपने प्रकाशक से। इस काम में पांच-छह दिनों का समय लगा और फिर ‘बलचनमा’ का लिखा अंश लगे पढ़ने। पिछले तीन-चार वर्षों के भीतर इस नगर, उस नगर रहते हुए थोड़ी-थोड़ी लिखी कॉपी यहां-वहां भटकती रही और न जाने कितनी बार उसे पढ़ा.... जाने कितनी बार बालचंद सिर चढ़ बैठा... लगा उस खेत-मज़दूर की तरह हाड़-तोड़ परिश्रम करें, तो संकट से त्राण पा सकते हैं। मानो बलचनमा कह रहा हो, ‘मेरे सिवाय अभी और कोई रास्ता नहीं.... मुसीबतों के पहाड़ को खुशी-खुशी सिर पर उठा लो...’ सत्य थिक ई मनोबल अ-विजय / सत्य थिक ई बांहि / सत्य थिक ई हाथ / एकरे प्रतापे कमा लइछी चारि कैंचा नित्य.. (सत्य है यह मनोबल अ-विजय / सत्य है यह बांह / सत्य है यह हाथ / इसकी कृपा से कमा लेता दो-चार पैसा रोज़)। नित्य कमाने के चक्कर में ही तो वर्धा वाले काम को लेकर मसूरी गये थे। वहां राहुल जी ने अपने अतिघनिष्ठ तमाम मित्रों में से चुन-चुनकर कुछ को बुलावा भेजा और अधिकांश मसूरी पहुंच चुके थे। सभी प्रायः एक मानसिकता के थे, फिर भी टकराहट की गुंजाइश तो थी ही, पर राहुल की छत्रा-छाया में सब निश्ंिचत थे। निश्चित था ही कि राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के लिए साहित्य-निर्माण योजना कार्य रूप में परिणत हो जायेगी। इतने लोग राहुल जी के आवास पर जमा हो गये थे कि अलग आवासीय व्यवस्था ज़रूरी हो गयी। अलग मकान लिया गया और होटल में भोजनादि की व्यवस्था की गयी। रविवार को छुट्टी का दिन रहता। छुट्टी का उपयोग नागार्जुन राहुल के साथ पढ़ने-लिखने या बातचीत में किया करते। याद आया, एक रविवार को मसूरी में ही रह रहा एक भोटिया परिवार आया। उन्हें शायद यह पता था कि राहुल और नागार्जुन तिब्बत रह आये लोगों में हैं, तो साथ में सूखा गोश्त और तिब्बती चाय वे लेते आये। भाप में पकाकर गोश्त का समोसा (मोमो) बनाया और मक्खन डालकर तिब्बती चाय। वर्षों बाद उस दिन नागार्जुन को तिब्बती नाश्ते का स्वाद मिला था। मसूरी में जिस रफ़्तार से काम हो रहा था उसमें वर्धा की छपाई संबंधी ढिलाई से परेशानी हो रही थी। उस दिक्कत को दूर करने के लिए अप्रैल के अंतिम सप्ताह में राहुल जी ने नागार्जुन को काम में गति लाने के लिए वर्धा में रहने को कहा था। नागार्जुन ने तरौनी जाकर शोभाकांत को साथ लिया और जा पहुंचे वर्धा। उनके वहां जाने पर भी काम में कोई ख़ास प्रगति नहीं हो पा रही थी। एक कंपोजीटर 78 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 था, प्रूफ रीडर था ही नहीं। काम शब्दकोश पर चल रहा था। छपाई में देर होते देख और शब्दों को डालने की बात हुई। पर साहित्य निर्माण योजना के लिए जो साहित्यिकार वर्धा में थे, उनमें और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की कार्यकारिणी तथा प्रांतीय मंत्राी के बीच छोटी-छोटी बातें व्यवहार में टकराहट बढ़ाने लगीं। समिति के लिए अपने पुराने कार्यकर्ताओं को देखना तथा उनके हितों की रक्षा के साथ उनकी बातों से सहमत होना पहला काम था। यों तो दोनों पक्ष एक दूसरे के मित्रा ही थे। नौबत यहां तक आयी कि व्यवस्थापकीय पक्ष ने साहित्य निर्माण में लगे कुछ लोगों को निकालने का प्रयास किया। सितंबर, 1951 के मध्य आते-आते राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के व्यवस्थापक के खि़लाफ़ विद्रोह हो गया। समिति में काम करने वाले स्पष्ट रूप से दो दलों में विभाजित हो गये। स्थिति तो यहां तक आ गयी कि एक दूसरे के खि़लाफ़ पोस्टर और बुकलेट तक छपने लगे। व्यवस्थापक पक्ष बचाव की मुद्रा में लड़ाई लड़ रहा था, तो विरोधी खेमा आक्रामक था। आक्रामकों में नागार्जुन प्रमुख थे। उन्हीं दिनों ‘नवयुग’ में छपी उनकी मुकरियों के दो बंद खूब प्रचारित हुए: ‘मारै मौज, मनावैं खैर / अपन-अपन से जिनका वैर / रिखी-मुनी को देय नजीर / क्या सखि प्रीतम? नहीं वजीर... नहीं खुशामद न दरबार / झुकने को है नहीं तैयार / मुंह पे चिढ़ अंखियन में लाली / का सखि साजन? न हड़ताली...’ परिणाम यह हुआ कि समिति की कार्यकारिणी ने व्यवस्थापक का पक्ष लिया, तो नागार्जुन जैसे कई लोगों को वहां से निकलना उचित लगा। यदि रोगी पुत्रा साथ न होता, तो बंबई या इलाहाबाद चले जाते उस समय। पार्टी में भी खूब रमे थे उन दिनों... राहुल मन-मिज़ाज पर छा गये, तो याद आया उस बार मसूरी जाने से लगभग तीन माह पूर्व राहुल ने अपनी तीसरी शादी में बुलाया था उन्हें। 23 दिसंबर, 1950 को राहुल ने कमला परियार से शादी की। बाद में राहुल जी ने बताया था कि उन्हें पूरा विश्वास था कि नागार्जुन उस मौके पर ज़रूर संग रहेंगे. .. लेकिन नागार्जुन तो राहुल जी का कमला से शादी वाला पत्रा पाकर उद्वेलित हो गये थे। उसी समय उन्हें याद आ गया कि छपरा जेल में 1939 में वे राहुल के साथ थे, तो वहीं पहली बार पता लगा कि रूस में राहुल ने शादी की है और यह सूचना तब मिली, जब पुत्रा पैदा होने की ख़बर आयी। यों राहुल का ग्यारह साल की उम्र में तिलक चढ़ा और ब्याह हो गया था। उस बाल विवाह के बाद चौदह वर्ष की उम्र के राहुल ऐसे भड़के कि प्रतिज्ञा कर डाली, ‘पचास वर्ष की उम्र तक आजमगढ़ जिले में पैर नहीं रखूंगा।’ संभवतः विद्रोह का प्रथम अंकुर उनके अंदर तभी फूटा था। राहुल के वैराग्य, गृहत्याग, घुमक्कड़ी, खोजी व्यक्तित्व और एक संस्था के प्रतीक बनने में बाल विवाह का जबर्दस्त हाथ रहा है। कच्ची उम्र में उस रुढ़िगत सामाजिक खिलवाड़ ने केदारनाथ पांडेय को महापंडित राहुल सांकृत्यायन बना डाला। और प्रतिज्ञा के अनुसार 1943 में जब राहुल पचास वर्ष के हुए, तो आजमगढ़ जिले में पैर रखा। तब चार घंटे के लिए अपने गांव कनैला भी गये, उनके साथ थे उस यात्रा में... स्वस्थ और संदुर प्रौढ़ा अर्थात राहुल की पहली पत्नी का चेहरा आंखों के सामने नाच उठा, जिसने कैफियत तलब की थी, ‘मेरा क्या कुसूर है, क्यों छोड़ रखा है उन्होंने...’ जवाब में एक भी शब्द नहीं निकले थे नागार्जुन के मुंह से। चुपचाप निगाहें नीचे कर ली थीं। छोटी-बड़ी अनेक स्त्रिायां खुले जंगले के बाहर खड़ी थीं। तभी तैश में आकर एक वृद्धा ने राहुल की पत्नी की कलाई पकड़ ली और खींचती हुई चीख़ी-‘छोड़ो, छोड़ो चलो यहां से। यह भी किसी को छोड़कर भाग आया होगा। केदार ने भगोड़ों की जमात बना रखी है...’ वह आक्रोश भरा स्वर कभी नहीं भूलता... कनैला में उस समय भी उन्हें अपनी पत्नी अपराजिता का सिंदूर तिलकित नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 79 भाल याद आ गया था... नागार्जुन जब बौद्ध का ताना-बान छोड़कर अपराजिता के पास लौटे, तो लगा था कि वह कह रही हैं, ‘विकल थी चिर प्यास से यह चातकी / आ गये तुम अब कमी किस बात की. ..’ तो उन्होंने भी महसूस किया, ‘आज तेरी गोद में यह शीश रखकर / क्या बताऊं मैं कि जो विश्राम पाया...’ और राहुल ने पहली ग्रामीण पत्नी और रूसी पत्नी के ग्यारह वर्षीय पुत्रा को छोड़ कलिंपोंङ की रहने वाली कुमारी कमला माया परियार से शादी की, जो उम्र में उनसे लगभग पैंतीस वर्ष छोटी थी... एक दिन प्रयाग के दारागंज बस अड्डे से सीधे गंगा की ओर चले गये और किनारे-किनारे पुल तक चले आये। उसी दरम्यान अचानक ख़याल आया कि उपन्यास तो आगे बढ़ ही नहीं रहा है। अपने ठिकाने पर आये, तो देखा कि बड़े भाई (पुजारी) अपनी ड्यूटी से वापस आ गये हैं। दोनों ने साथ-साथ चाय पी और उसी पुजारिन भाभी ने अपने पति से कहा, ‘आजकल मिसिर जी खूब जमे रहते हैं काग़ज़-क़लम लेकर...’ तो नागार्जुन को लगा कि जमते अवश्य पर उपन्यास पर ध्यान केंद्रित कहां कर पाते। जबकि पटना से आये दस-बारह दिन तो हो ही गये थे। अपराजिता से कहकर आये थे, ‘उपन्यास पूरा करने में बीस-पचीस दिन ही लगेंगे और पैसे तुरंत मिल जायेंगे...’ अस्पताल में ही दोनों पति-पत्नी थे। बीमार पुत्रा को देखकर उन्होंने कहा था, ‘कंधे पर भारी बोझ हो, तो फुर्ती ही फुर्ती चाहिए!’ अपराजिता को यह सब जानकर परेशानी हुई थी, ‘ठीक है किसी तरह पंद्रह-बीस दिन रह लूंगी। कहीं बीच में ऑपरेशन न हो जाये?’ नागार्जुन ने पत्नी को बताया था कि डॉ. नवाब ने कहा है, ऑपरेशन में अभी डेढ़-दो मास का समय है।... और उसी दिन किरासन तेल वाले लालटेन की रोशनी वाला बलचनमा फिर सामने आया। कथा को आगे बढ़ाने के क्रम में उन्हें साफ़-साफ़ लगने लगा, ‘ज़मींदार के लठैत बेगारी के लिए ग़रीबगुरबा को बांधकर ले जाते... घर उजाड़ देते... महिलाओं को उठा लेते... एक रुपया या सेर भर अनाज के लिए मालिकों के दालान पर भूखे पेट और नंगे बदन जी हुजूरी में दिन भर लगा देते. .. जिस समाज में विषमता की लंबी खाई हो, वहां रूढ़िगत परंपरा जड़ और गतिहीन होकर जमी रहती ही है। न जाने कितनी बुराइयां जन्म लेती हैं। वहां क़र्ज़ के एवज में बंधुआ मज़दूर की तरह मज़दूरी करते हुए बलचनमा का कांग्रेस के लोगों से संबंध बनना और फिर सोशलिस्ट और किसान नेता के क़रीब पहुंचना। अपनी परिस्थिति और परिवेश को देख-समझकर वह लाल झंडे के नीचे आया। हक़ के लिए लड़ने को तत्पर...’ वह ज़माना कहां आया कि खाली ईमानदारी से सारा काम निकल जाय। चालाक और चाईं लोगों से बचने के लिए चौकस रहना ज़रूरी हो जाता है, बलचनमा ही क्यों, नागार्जुन जैसे लोगों के लिए भी। सामान्य युवा कृषि मज़दूर गालियां, पिटाई, तिरस्कार, अपमान, दुत्कार और फटकार के साथ जीना सीखता है और अपनी ग़रीबी उसे हल की नोंक बनकर कलेजे को फाड़ने लगती.... कर्मठ और स्वाभिमानी पात्रा को जब मां ने कहा, ‘बबुआ मर जाना लाख गुना अच्छा है, मगर इज़्ज़त का सौदा करना अच्छा नहीं, तो बेटा भला क्यों न सोचेμचाहे उजड़ जाना पड़े, चाहे जेहल-दामुल हो, चाहे फांसी चढ़ूं मगर कभी जालिम के सामने सिर नहीं झुकाऊंगा...’ और अपने पात्रा के विकास से यह तो साफ़ हो ही गया कि वह निश्चित रूप से सोचता होगा अंग्रेज़ बहादुर से सोराज लाने के लिए बाबू भैया ने एक होकर हल्ला-गुल्ला और झगड़ा-झंझट मचाया, उसी तरह जन-बनिहार कुली-मज़दूर और बहिया खबास लोगों को अपने हक़ के लिए बाबू भैया से लड़ना होगा... स्वतंत्राता प्राप्ति से वर्षों पूर्व की कथा और परिवेश पर आज़ादी मिलने के चार वर्षों बाद सोचने पर लगता तो यही है कि ‘आज़ादी हासिल करने से पहले हमारे राष्ट्रीय नेताओं का ध्यान समाज की छोटी-बड़ी विसंगतियों की ओर अक्सर जाता था। 80 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 वे सामाजिक समस्याओं का हल निकालने को उद्यत दिखते थे। रुढ़ियों के खि़लाफ़ वे अक्सर लोहा लेते थे। स्त्रिायों, शूद्रों, निर्धनों, पीड़ितों का पक्ष लेने में हिचकते नहीं थे। अब लेकिन इन मामलों में उन्होंने देहातों को अनाथ छोड़ दिया है।’ उन्हीं दिनों देश का पहला आम चुनाव संपन्न हुआ था। उससे यह तो साफ़ हो गया था कि ‘ग्रामीण जनता से हमारे महाप्रभुओं को उतना भर मतलब रहता है, जितने से चुनाव में जीत हासिल हो। बाक़ी भाड़ में जायें! देहाती क्षेत्रों में स्वाधीनता के लड्डू निम्न वर्गों के हाथों तक कहां पहुंचे हैं।’ और बलचनमा जैसे पात्रा जिस गांव-घर से आते हैं, वहां ‘क़र्ज़ और ग़्ाुलामी में सिर से पैर तक डूबा हुआ आदमी मलेरिया की हड्डी तोड़ बीमारी से गलपचकर जब मरा, तभी छुटकारा पा सका...’ क़र्ज़ के बोझ और बेटे की हड्डी वाली बीमारी को वे स्वयं झेल रहे हैं... इलाहाबाद के गंगा किनारे वैरागी मठ में ‘बलचनमा’ पर काम करते हुए यदा-कदा क्या, अक्सर मन-मिज़ाज पटना के यतीन प्रेस वाले मकान से लेकर अस्पताल तक का चक्कर लगाता रहता... रंग-बिरंगी पर्चे और पोस्टरों से गली और सड़कें भर गयी थीं। लाल, हरे, पीले कागजों पर शीर्षस्थ नेताओं की तस्वीर... हाथ जोड़े उम्मीदवारों की नाटकीय मुद्रा... गांधी की सूक्तियां... जनतंत्रा की मायावी परिभाषा... जन साधारण की फटेहाली पर विकास के मंत्रा... क्या नहीं दिखा था उन पोस्टरों में... सड़कों पर ज़ोर-ज़ोर बजते लाउडस्पीकर... कांग्रेस ने स्वतंत्राता की लड़ाई लड़ी है... देश आज़ाद हुआ... हक़ की लड़ाई.... ज़मीन की लड़ाई जारी है... नये परिवेश में नये तामझाम से विषमता ने अपना हाथ-पांव मारना शुरू किया। चुनावी कर्मकांड की तैयारी के समय ही एक रचना छपी, ‘कांग्रेसजन तो तेणे कहिए, जे पीर आपणी जाणे रे...’ वर्धा में प्रायः रोज़ ही गांधी का प्रिय भजन ‘वैष्णन जन तो तेणे कहिए, जो पीर परायी जाणे रे’ सुनते थे। उसी शैली-छंद की यह रचना पटना में खूब पसंद की गयी। ‘जैसे-तैसे वोट बटौरे, पिछली कीर्ति वरवाणे रे / बड़े-बड़े सेठन के हीत मां, अपणा हित पहचाणे रे...’ अपस्ताल के विशाल परिसर में शाम को अक्सर ‘चनाज़ोर’ वाला से सामना होता, वह गाने लगता... ‘चना जोर गरम प्यारे / मैं लाया मजेदार चना जोर गरम।’ अचनाक कौंधा, ‘चना खायें कांग्रेसी लोग / कि जिनमें दुनिया भर के रोग....’ और एक लंबी कविता लोकशैली में तैयार हो गयी। वे देख रहे थे: ‘कहीं पर भोज, कहीं गुनगान / कहीं सिगरेट, कहीं पर पान / कहीं पर मिलती रेशम की थान / कहीं पर थोक नगद नगदान’ क्योंकि ‘वोट पाने का है उद्योग/ भिड़ाते हैं छल-बल का जोग...’ और एक बुकलेट तुरंत छपी। उस बुकलेट को उन्होंने ख़ुद भी घूम-घूमकर पटना और इलाहाबाद में बेचा। सब खर्च काटकर दो सौ रुपये हाथ आये थे। ‘हंस’ में भी छपी वह रचना। हां बीच में एक दिन के लिए पटना हो आये थे, क्योंकि बलचनमा के परिवेश में दिमाग़ लगा था। ठेठ ग्रामीण मज़दूर की तरह सोचा तो लगा कि संतान कोई मामूली चीज़ नहीं होती है। पटना में डॉक्टरों ने बताया कि ऑपरेशन लायक ताक़त तो हो गयी है, पर कुछ और शक्ति आ जाये, तो ठीक रहेगा। अर्थात एक मास तो लगेगा ही। उनके पटना पहुंचने पर अपराजिता रो उठीं...बताया जिस दिन नागार्जुन पटना से निकले तो उनसे खाना नहीं खाया गया था। खूब रोयी थीं। दो-तीन दिन गुन-धुन में पड़ी रहीं, तो एक दिन अचानक लगा कि डटकर ख़ुद को संभालने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। नागार्जुन को लगा कि ग्रामीण छुई-मुई महिला विपत्ति पड़ने पर तनकर खड़ी हो सकती है, और अपराजित खड़ी थीं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ। उस दिन अस्पताल में उनकी फुर्ती और व्यवहार देखकर सोचने लगे थे कि कि श्रम, सहयोग, प्रज्ञा, विवेक और सुरुचि केवल पुरुषों की बपौती नहीं है, स्त्रिायों का भी साझा है इनमें। नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 81 उद्योग-धंधे बढ़ेंगे, खेती-बाड़ी बढ़ेगी, जहालत और ग़रीबी हटेगी, साधारण जनता का जीवन सुखमय होगा-तब स्त्रिायां कदम मिलाकर चलेंगी.... तीनों बच्चे उस दिन चिपके रहे अपने पिता से। अपराजिता जिस सहजता के साथ सब कुछ झेल रही थीं, उसमें आत्मविश्वास साफ़ झलक रहा था। उनके लिए तुलसीदास की पंक्ति चरितार्थ हो रही थी, ‘धीरज, धरम, मित्रा अरु नारी, आपातकाल परिखहु चारि...’ हां, इतना अवश्य हुआ कि राजनीति द्वारा साहित्य-संस्कृति को अपना चरणदास बनाने का प्रयोग तेज़ी से आरंभ हुआ, तो अच्छी तनख्वाह और सरकारी सुविधा के लोभ में उनके समकालीनों में से अनेक अपना वर्ग बदलने लगे... रहन-सहन ही नहीं, अपितु सामाजिक चिंतन में भी वे सब परिवर्तित होने लगे थे। प्रमाद-संशय, आत्मरति, दंभ, मोह आदि का पनपना उन सब के बीच स्वाभाविक होता जा रहा था। सत्ता की रेशमी छांह में आराम से बौद्धिक कला-संस्कृति का लबादा ओढ़े दो अर्थी सूत्रा वाक्यों का सहारा लेना उन सबके लिए आवश्यक हो गया था: ‘कलाकार को लग गया प्रवचन का चस्का / सरल को जटिल बनाने का रोग... / यह भी ठीक है / वह भी ठीक है / हां भी कह लो / जंच जाये तो ‘ना’ भी कह लीजिए.... क़लम की नीब को लग गयी हैं जंग / अनेकांत दर्शन ला रहा है रंग...’ बलचनमा की रचना प्रक्रिया से गुज़रते हुए संस्कृत के अच्छे ज्ञाता और मार्क्सवाद को व्यावहारिक स्तर तक जन-जन के बीच ले जाने की आकांक्षा वाले नागार्जुन चारों ओर नज़र दौड़ाने की अपनी मज़बूरी के कारण यहां तक सोच लेते, ‘आवर्त-विवर्त-संवर्त-प्रवर्त-परावर्त वामावर्त-दक्षिणावर्त अथच घूर्णावर्त...’ विलक्षण था संकट! पर यथार्थ अनुभव तो संघर्ष की ओर ही ले जाता लोगों को। प्रथम आम चुनाव के बाद राजनीतिक उठापटक, बेटा को लेकर अस्पताल-डॉक्टर के साथ दवा और नमक-रोटी की ज़रूरत के बीच बलचनमा भी अपनी समस्याओं में विकसित हो रहा था। बलचनमा में उन्हें कुछ और नहीं, बहुत कुछ की ज़रूरत थी। बलचनमा भी उन्हीं की तरह चाहता, ‘समांग’ दुरुस्त रहे, कामकाज मिलता जाये, परिवार छोटा हो, नीयत बिगड़े नहीं, दिल में दस-बीस के लिए जगह हो-और क्या चाहिए।’ डूबना ही पड़ा उपन्यास में। बलचनमा रचनाकार को कहानी सुनाता... बहुत ज़ोर डालने पर भी उम्र के बारहवें वर्ष की घटना से ही शुरू करता। बबुनी (मुंगिया), बुचुवा और परदिपवा तीन संतान का पिता बलचनमा शायद उनकी ही उम्र का होगा उस समय। पहली बार चौदह-पंद्रह की उम्र में गांव के ज़मींदार की बेगारी करने के क्रम में शहर पहुंचा, तो देखा कि चलते-फिरते लोगों के रूप-रंग के साथ बोली भी बदली हुई थी। काहे-कुहे वाली हिंदी-उर्दू जब पहले-पहल सुनी, तो लगा कि कानों में कोई खूंटा ठोंकता जा रहा था और ‘अब तो मुझे भी इसी बोली की लत पड़ गयी है, अपनी बोली भूलता जा रहा हूं। बबुनी की बात छोड़ो, चार बरस का मेरा ननकिरवा (बेटा) परदिपवा फर-फर हिंदी बोलता है!’ बालचंद का ठेठ किसानी स्वर हरभजनदास के मंदिर से इलाहाबाद में नागार्जुन सुनते हैं। उसे देखकर गांव में कहा जाता है, ‘दरभंगा पटना घूमे हुए हो, हम तो जाहिल गंवार ठहरे...’ उन्हीं जाहिल-गंवार लोगों के बीच पला-बढ़ा बलचनमा जालिम ज़मींदार और महात्मा गांधी के भक्तों के आश्रम से होता हुआ जहां पहुंचा, वह ‘समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स’ सोनपुर के 1938 के कैंप जैसा ही था। दूर से ही देखा, बांस की छिपाठी पर लाल झंडा फहरा रहा था। नज़दीक जाकर नज़र ऊपर की, तो लाल झंडे पर दो औजारों के निशान दिखायी पड़े-एक निशान था हंसुआ का, दूसरा हथौड़ा का... हंसुआ के सूने पेट पर हथौड़े का माथा। वह भी आश्रम था, जहां ख़ाकी जंघिया लाल हाफ कमीज़ पहने सोसलिस्ट वालंटियर उसे दिखे और पहली बार कॉमरेड शब्द कानों में पड़े थे। नागार्जुन को भी ‘कॉमरेड’ शब्द से संबोधित समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स में ही 82 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 पहली बार किया गया था। कांग्रेस के अंदर से ही समाजवादी लोग निकले थे। उन दिनों के सोशलिस्टों का कहना था कि ज़मींदार-महाजन की फाजिल धन-संपदा ग़रीबों में बंट जायेगी, रोज़ी-रोटी का सवाल हल होगा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई.... खान-पान और रहन-सहन का ठौर-ठिकाना... दवा-दारू, पथ्य-पानी का इंतजाम सभी के लिए सुलभ होगा... दरभंगा के महाराज हों, चाहे पटना के लाट-साहेब, मुफ्त का खाना किसी को नहीं मिलेगा.... सब काम करेगा, सब दाम पावेगा.... पैसे के बल पर कोई किसी को बंधुआ ग़्ाुलाम नहीं बना सकेगा... जिसका हल-फार उसकी धरती, जिसका हुनर और जिसका हाथ उसी का कल-कारखाना... लाल झंडे के नीचे नागार्जुन की भी तो बलचनमा जैसी प्रतिबद्धता रही है न! वैरागी मठ के ऊपर तले के कमरे में सबेरे से दोपहर तक जमे रहते! समय पर भोजन के लिए झांक जाती पुजारिन भाभी। चिंतित पर चमकती आंख और फड़कते होंठ तो दिख ही जाते। यदाकदा उनके तनावयुक्त चेहरे को देख वह थरथरा जाती। मिथिला के इस ब्राह्मण के प्रति आदर और स्नेह समान रूप से रखती वह.... अक्सर वह अपने पति से पूछ बैठतीμ ‘पढ़ा-लिखा है, लोग जानते हैं, बाल-बच्चेदार होकर वैरागी जैसा क्यों है नागार्जुन।’ गोल मुंह, बादामी आंख, मोटी नाक, पत्तर-सा कपार, सुनहले बाल, पतले होंठ, तनिक सी ठुड्डी, सुरेख गर्दन, हल्का गेहुंआ रंग वाली पुजारिन बड़ी भली लगती। साक्षर मात्रा वह प्रौढ़ महिला नागार्जुन के प्रति वही भाव रखती, जो एक मां और आज्ञाकारी बहन की होती है। जितना हंसाती-गुदगुदाती उतना ही सेवा के लिए सतत तैयार रहती। नागार्जुन को भी पुजारी और उसके परिवार से श्रद्धा और लगाव-सा हो गया था। दोपहर के बाद कुछ मित्रा अक्सर आ जाते। उन मित्रों के साथ उन्मुक्त ठहाकों के बीच गिलास में चाय भेज देती अपने दस वर्षीय पुत्रा के हाथ और शाम नागार्जुन के सामने अपने पति से कहती, ‘लखन के बाबू, यह मिसिर तो खूब हंसता है, अपने यार-दोस्तों के बीच।’ उन्हें वहां रहते बुलहवा मठ याद आ जाता। वह मठ तो इससे बिलकुल भिन्न था। पुजारी नौकरी करता, ताकि पत्नी और एकमात्रा पुत्रा का पेट भर सके.... जिस इलाके के लोगों की कृपा से कभी मठ बना होगा, उधर के लोगों से अब कुछ भी नहीं मिलता। पता लगा कि एकाध संपन्न गृहस्थ पांच-सात मन अनाज भेज देता, ताकि कोई उधर से प्रयागराज आये, तो यहां रुक सके। अंगनई में कई चूल्हे बने थे। पर न देव मंदिर, न ठोप-चंदन, न भस्म और न झंडा। यह पुराना जर्जर मठ आडंबरहीन दिखावे और कर्मकांड से मुक्त था... मन में आता, तो दोनों पति-पत्नी शाम में भजन गाया करते। एक दिन किसी बात के दरम्यान पुजारी ने किसी से कहा, ‘बारहों महीने जाड़ा ही पड़ता रहे, तो कैसा लगेगा? कभी रात न हो, सुबह-शाम न हो, हर हमेशा दुपहरिया ही तपती रहे, तो कैसा लगेगा? क्या जिनगी, क्या जहान, क्या जुग, क्या ज़माना, सभी में फेर-फार चलती रहती है। हेर-फेर का यह चक्कर घूमता ही रहता है।’ नागार्जुन को लगा था कि जीवन का सही ज्ञान उस पुजारी को शायद उनसे ज़्यादा है। पर उन दिनों बालचंद के जन्मदाता को अपने इलाके में वर्षों पूर्व सुना गया गीत बार-बार याद आ रहा थाμ ‘दुर्दिनमा कैलक हरान / रे फिकिरिया मारलक जान / करजा करिके खेती केलूं, मरि गेलई सब धान / रे फिकिरिया मारलक जान / बैल बेचि रजवा के देलू, छोड़ए नहिं बईमान / ज़मींदार के जुलुम रोकअऽ / चेतअऽ भई किसान / रे फिकिरिया मारलक जान!’ (दुर्दिन ने किया हैरान / चिंता फिक्र ने मारा जान / कर्जा ले खेती की, मर गया धान / चिंता-फिक्र ने मारा जान / बैल बेच राजा को दिया / छोड़ता कहां बेईमान / ज़मींदार का जुलुम रोको / चेतो भाई किसान...)। बिहार तो आरंभ से ही किसान आंदोलन का समर-क्षेत्रा रहा है। वर्षों पूर्व दरभंगा में किसी से सुना था, ‘पीसै अछि हमरा जमिंदार / सोखै अछि हमरा नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 83 सूद वला / चौपट करै छथि साल-साल / जीवछ करेह कोसी कमला...’ (ज़मींदार पीसता और सूदखोर सोखता / जीवछ करती हैं, कोसी, कमला नदियां, चौपट कर रहीं साल-साल...)। बलचनमा अपनी पूरी कहानी सुनाने को व्यग्र था.. लगा, दो उपन्यास तो आसानी से तैयार होगा! इस खेतिहर नायक ने सम्मोहित कर रखा था नागार्जुन को। पर औरस पुत्रा की दशा नागार्जुन को बाध्य कर रही थी कि बलचनमा से कुछ समय के लिए अनुमति लें। वह युवा खेतिहर कथा कहते-कहते उस जगह पहुंच गया था, जहां एक विराम लगाया जा सके। पच्चीस वर्ष की उम्र रही होगी बालचंद की और एक डेढ़ वर्ष की बेटी का बाप भी हो गया था वह सन् 1937 के शुरू में। उन दिनों कांग्रेस की स्वदेशी हुकूमत क़ायम होने को थी, तो कांग्रेसियों के ज़मीन वाले भाई-बंद और साले-ससुर मूंछों पर ताव देने लगे थे। बलचनमा जैसे लोग ज़मींदार के लठैतों के साथ पुलिस को भी समझ रहे थे। ज़मींदारों की शह पाकर तरह-तरह के मुक़दमों में उन्हें फंसाया जा रहा था पुलिस के द्वारा। नागार्जुन को अमबारी का किसान सत्याग्रह याद आ गया। वह सत्याग्रह गन्ने की कटाई को लेकर किया गया था। वहां राहुल के ऊपर ज़मींदार के लठैत ने हमला किया था... उस स्मृति से कथा को दिशा मिल गयी। गन्ने की खड़ी फसल के बीच बलचनमा को घेरकर सिर पर ज़ोर से लाठी की चोट पड़ी और वह बेहोश होकर ज़मीन पर लुढ़क गया... बालचंद की आवाज़ कंठ में अवरुद्ध सी हो गयी और नागार्जुन ने क़लमबंद की। उपन्यास ख़त्म करने के दूसरे दिन ठीक साढे़ दस बजे नागार्जुन जीरो रोड स्थित किताब महल पहुंचे। उपन्यास पर एकमुश्त उतनी रकम तो उन्हें चाहिए ही, जितने की उन्हें तत्काल पुत्रा के इलाज के लिए ज़रूरत थी। पर ‘चार सौ से ज़्यादा धेला भी नहीं / हो अगर मंजूर तो देता हूं चेक / वरना मैनस्कृप्ट वापस लीजिए / जाइए ग़रीब पर रहम भी तो कीजिए...’ लाचार उपन्यासकार अपनी पांडुलिपि को सूनी नज़रों से देखता हुआ बोला, ‘बेटा जकड़ा है बोन टीबी की गिरफ़्त में / पचास ठो रुपया और दीजियेगा / जैसा मेरा वैसा आपका / लड़का ही ठहरा/ एं हें हें हें कृपा कीजिए/ अब की बचा लीजिए... एं हें हें हें / पचास ठो रुपया लौंडे के नाम पर!’ पर साहित्यकारों के दीन दयाल / प्रूफरीडरों के प्रणतपाल नहीं पिघले तो नागार्जुन ने कहा था, ‘इस हीरो’ की और कहानी है। उसी के लिए कुछ अग्रिम करें...’ किताब महल के मालिक ने कहा, ‘साहित्यकारों से बड़ा डर लगता है। न जाने कितनों की एडवांस रकम पचाकर साहित्यकार विशुद्ध साहित्यकार बनता है! जाने कितनी पांडुलिपियां आप लोगों की कृपा से प्रकाशकों की दराज में अधूरी पड़ी होंगी...’ चाय के प्याले सामने आ गये थे। घूंट लेकर नागार्जुन ने कहा था, ‘साहित्यकार को भी ठीक इसी तरह प्रकाशकों से बड़ा डर लगता है। प्रकाशकों के प्रति भी उसकी सौ शिकायतें हैं.... मार्केट डल है जेनरल बुक्स का और चारों ओर स्लम्पिंग है... लेकिन मैं आपसे एक बात पूछता हूं, आप इस धंधे में आखिर आये ही क्यों?’ प्रकाशक हंसने लगा और बोला, ‘मैं इस धंधे में नहीं आता, तो आपसे उपन्यास भला और कौन लिखवाता?’ नागार्जुन को हंसी आ गयी थी और सोचा ‘उतराये खूब अब दुनिया की थाह लो’। फिर एग्रीमेंट पर किया साइन, कॉपीराइट बेच दी। शोभाकांत को बचाने के लिए बलचनमा को घायल अवस्था में बंधक रख आये... चेक लेकर बैंक गये और वहां से सीधे दारागंज की टमटम पकड़कर ढाई बजे तक अपने ठौर पर वापस आ गये। कानों में बलचनमा की आवाज़ लगातार आती रही, ‘कोई ताकत नहीं हमारे संघर्षों को धीमा कर पायेगी। हां अलबत्ते कीर्ति तुम्हारी खूब बढ़ा जायेगी...’ 84 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 उस दिन पुजारी अपनी सरकारी ड्यूटी से किसी कारणवश दोपहर में ही आ गये थे। नागार्जुन पहुंचे, तो देखा कि ‘बड़े भाई’ और पुजारिन भाभी बरामदा में चुपचाप बैठे थे। उन्हें देखते ही ‘बड़े भाई’ ने उनके नाम आया तार थमाया... देखा लिखा था, ‘ऑपरेशन ऑन फ्राइडे, कम...’ हाथ कांप गया था। मन एकाएक परेशानी और तनाव की स्थितियों में सोचता रहा, अनिश्चितता और काल्पनिक भय की परिधि में मन प्रवेश कर गया। बड़े भाई की बगल में चौकी पर बैठ गये। ‘कोई गाड़ी है, तो शाम में निकल जाओ भैया।’μपुजारिन भाभी ने नागार्जुन की ओर देखकर कहा था। वे उठे अपने कमरे में जाकर सामान ठीक किया। सोचा आज बृहस्पतिवार है, सबेरे-सबेरे पटना पहुंच जायेंगे। सबेरे के पांच-छह बजे के आस-पास नागार्जुन स्टेशन से सीधे अस्पताल ही पहुंचे, तो देखा अस्पताली खाट की बगल में खादी भंडार वाले काले कंबल पर दोनों छोटे बच्चे सोये पड़े हैं और अपराजिता स्टूल पर बैठी शोभा मिसर के सिर पर हाथ रखे एकटक उसे निहार रही थीं। उन्हें देखकर एक बार सिर उठाया अपराजिता ने और फिर रोगी पुत्रा को देखने लगीं। नागार्जुन को लगा पत्नी नाराज हैं उनसे। वह उनकी पीठ पर हाथ रख मुस्कुराकर बीमार बेटे की ओर देखने लगे। पत्नी ने उनका हाथ हटाया और भर्राये गले से बोलीं, ‘क्या ज़रूरत थी अब आने की। लोकनाथ की जलेबी और दही जाकर खाइये और सब कुछ वहीं इलाहाबाद में ही है न!’ नागार्जुन एक निरीह प्राणी की तरह मुस्कुराते हुए दोनों सोये बच्चे को बारी-बारी से चूमते रहे। उन बच्चों के बदन पर आहिस्ते-आहिस्ते हाथ फेरते रहे। भला हो सुई लगाने वाली नर्स का, वह दवा और सीरिंज लेकर आ पहुंची। रोगी भी जग चुका था। बाबूजी को सामने पाकर उसके होंठों पर मुस्कान खेल गयी। सुई लगवाने के बाद शोभा ने धीमे से कहा, ‘ऑपरेशन हो गया बाबूजी! कैसे हुआ सो पता नहीं!’ फिर बाहर की तरफ़ दिखाकर बोला, ‘उस तरफ़ कोने वाले रूम में एक ऊंची टेबुल पर सुला दिया और मुंह-नाक पर एक छोटी टोपी रख दी और कहा, सांस लो... जाने कैसी तो गंध थी। फिर शाम में यहीं मां के पास न जाने कैसे आ गया।’ फिर अपराजिता ने बताया कि तार देने के बाद नवाब साहेब, सेन साहेब और मुखोपाध्याय, तीनों आये और कहा ऑपरेशन कल ही होगा। सेन साहेब ने बताया था, सारी व्यवस्था हो गयी है। घबराने की कोई बात नहीं है। नागार्जुन नहीं हैं तो क्या? और लोग तो हैं न! ऑपरेशन के लिए स्ट्रेचर ट्राली पर लेटकर जाते समय बेटा हंस रहा था... तीन-साढ़े तीन घंटा लगा ऑपरेशन में। उस अवधि में अपराजिता के प्राण अधर में टंगे रहे। ऑपरेशन रूम बाहर अपने दोनों बच्चों के साथ चुपचाप रो-रो उठतीं और अपनी कुलदेवी के मंत्रा जप लेतीं... पार्टी ऑफिस के कई लोग थे, पर कोढ़-करेज तो फट ही रहा था। ऑपरेशन हुए पुत्रा को लगातार देखे जा रहे थे नागार्जुन, और सोच रहे थे कि श्रमजीवी साहित्यकार को अभावग्रस्त जीवन की राह त्याग कर कोई दूसरा धंधा पकड़ लेना चाहिए क्या? पर दिमाग़ी पटल पर बलचनमा भी बेहोश पड़ा था और उसकी आवाज़ कानों में गूंज गयी, ‘सस्ती-महंगी और खुली-तंगी तो ज़िंदगी भर साथ चलेगी... जीना है संग्राम बंदे, जीना है संग्राम...’ मो.: 09304884025