जीने का आनंद / ओशो
प्रवचनमाला
मैं प्रकृति में ही परमात्मा कोजीने का आनंद
टिक..टिक..टिक.. घड़ी फिर से चलनी शुरू हो गयी है। वह अपने में तो चलती ही थी, मेरे लिये बंद हो गई थी या ठीक हो कि कहूं कि मैं ही वहां के प्रति बंद हो गया था, जहां कि उसका चलना है।
एक दूसरे समय में चला गया था। आंखें बंद किये बैठा था और भीतर देखता था, देखता रहा-काल का एक और ही क्रम था। ओर फिर काल-क्रम टूट गया था।
समय के बाहर खिसक जाने में कैसा आनंद आता है! चित्त पर चित्र बंद हो जाते हैं। उनका होना ही काल है। वह मिटे कि काल मिटा और फिर शुद्ध वर्तमान ही रह जाता है। वर्तमान कहने को समय का अंग है। वस्तुत: वह काल-क्रम के बाहर है, अतीत है। उसमें होना 'स्व' में होना है। उस जगत से अब लौटा हूं। सब कितना शांत है। दूर किसी पक्षी का गीत चल रहा है, पड़ोस में कोई बच्चा रोता है और एक मुर्गा बोल रहा है।
ओह, जीना कितना आनंदप्रद है। क्योंकि जीवन उसमें भी समाप्त नहीं होता है। वह जीवन की एक स्थिति है। जीवन उसके पूर्व भी है और उसके पश्चात भी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)