जीवन-अस्तित्व असीम है!!! / ओशो
प्रवचनमाला
सूरज निकलता है। सर्दियों की सुबह। रात हवाएं ठंडी थीं। और सुबह दूब पर ओस कण भी फैले थे। अब तो किरणें उन्हें पी गयी हैं और धूप भी गरमा गयी है।
एक सुखद सुबह, दिन का प्रारंभ कर रही है। पक्षियों की अर्थहीन गीत भी कितनी अर्थपूर्ण मालूम होते हैं- पर शायद जीवन में कोई अर्थ नहीं है। और अर्थ की कल्पना मनुष्य की अपनी है। अर्थ नहीं- शायद इससे ही जीवन में अनंत गहराई और विस्तार है। अर्थ तो सीमा है। जीवन-अस्तित्व है असीम, इससे अर्थ वहां कोई भी नहीं है।
और जो अपने को इस असीम में असीम कर लेता है, वह विराट अर्थ-शून्यता में अर्थ-शून्य हो जाता है, वह उसे पा लेता है 'जो है'- वह उस अस्तित्व को पा लेता है। सब अर्थ क्षुद्र है और क्षुद्र का है। सब अर्थ अहं के बिंदु से देखे गये हैं। अहं ही अर्थ का केंद्र है। उससे जो जगत देखा जाता है, वह वास्तविक जगत नहीं है। जो भी 'मैं' से संबंधित है, वह वास्तविक नहीं है।
सत्य अखंड इकाई है, वह 'मैं' और 'न-मैं' में विभाजित है। सब अर्थ 'मैं' का है। इससे जो अखंड है, 'मैं' और 'न-मैं' के अतीत है, वह अर्थ शून्य है। उसमें न अर्थ है न 'अर्थ-नहीं' है। उसे कोई भी नाम देना गलत है। उसे ईश्वर कहना भी गलत है। ईश्वर भी 'मैं' के ही प्रसंग में है। वह भी 'मैं' की ही धारणा है। कहें कि जो भी सार्थक है, वह व्यर्थ है। सार्थकता की सीमा के बाहर जाना- आध्यात्मिक हो जाना है। बोधिधर्म से किसी ने पूछा था, 'पवित्र निर्वाण के संबंध में कुछ कहें'। वे बोले, 'पवित्रता कुछ भी नहीं, बस, शून्यता और केवल शून्यता'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)