जीवन-मृत्यु / गोपाल चौधरी
उस दिन चन्दा चली तो गई। पर जाते-जाते जीने की कोई चिंगारी छोड़ गई शायद। तभी उसके जाने के बाद, तुली उसके सपने देखते-देखते सो गया।
पर जब नींद खुली तो शाम हो चुकी होती। सब ओर अँधेरा दीख रहा होता। आउट हाउस का लाइट भी बुझा हुआ। गेट और चारदीवारी के लाइट भी नहीं जले होते। अपने कमरे से तुली बाहर निकला।
चंदा के कॉटेज में भी घना अँधेरा छाया हुआ! मानो कोई मनहूस-सी चुप्पी लटकी पड़ी हो। चहुं ओर।
एक दो बार आवाज़ भी लगाई। पर कोई नहीं लगता। कहाँ गए सब? चंदा के कमरे में भी अँधेरा था। उसके कमरे में गया। जब लाइट जलाया तो चन्दा औंधे मुह लेटी हुई मिली। बीच-बीच में सुबक कर रो भी रही होती। क्या हुआ? चंदा।
चन्दा तुली से लिपट कर रोने लगी और सुबक-सुबक कर, तो कभी हिचकियाँ लेते हुए बताने लगी: वो... मेरा... खसम... नहीं रहा...... रहा । बाबूजी... वह पानी में बह गया...लड़के को बोला... चलो आता हूँ... और दारू पीने बैठ गया। पानी का रेला आया और पूरा शराबखाना बह गया... वह भी॥। चन्दा ज़ोर से रोने लगी। उसे चुप कराने लगा। उसे फ्रेंच कीस कर रोना बंद कराया, वह चुप हो गयी। पर ऐसे लिपट गयी जैसे कभी दामन ही न छोड़े!
फिर वे धीरे-धीरे प्यार करने लगे। पिछली बार की तरह कोई पहल नहीं की तुली ने। चन्दा पर ही छोड़ दिया। धीरे रात के अंधेरे साये पिघलने लगे। वे ऐसे मिले जैसे बरसो से प्यासे हों। फिर ऐसे सोये जैसे बरसो से सोये ही-ही नहीं। न मैं होता और न वह। बस वह ही होता! जब एक हो जाये, न मैं रहे न तू! न वह या और कोई। बस वही रहे जो सदा से है। कहीं ये मंजिल तो नहीं जीवन का?
अगले दिन सुबह सब लोग जल्दी से उठे। पानी का जल स्तर तेजी से बढ़े जा रहा होता! अपने-अपने सामान, जरूरी राशन पानी लिया। हम ऊपर पहाड़ की चोटी की ओर रवाना हो गए। कीर्तन घाटी के सभी घरों और कॉटेज में पानी घुस चुका था। लोग अपने-अपने घरों को छोड़ कर अपने रिशतेदारों और जानकारों के यहाँ चले गए थे। एक दो ही बचे होते। वे भी जाने की तैयारी कर रहे होते!
पर हम कहाँ जाएँ। तुली सोच रहा था ... पर यह सबाल बहुत विकट था। न कोई घर, न जान पहचान। न रिश्तेदार न यार दोस्त। बिलकुल अकेला इस कयामत से लगते जल आप्लावन के बीच। पर कयामत के समय सभी अकेले ही होते है! चाहे भीड़ में हो या अपनों के साथ। मौत के सामने सभी अकेले और बेबस ही होते है!
बाबूजी हमने एडवांस लिया है तीन दिनो का... हम आपके रहने का इंतजाम करेंगे। चन्दा बोलने को तो बोल गई। पर वह भी तो यहाँ के लिए परदेशी ही थी। न घर न रिश्तेदार। बस कॉटेज लीज़ पर लिया था अपने पति के साथ मिलकर।
तीनों-तुली, चन्दा और बहादुर चड़ाई चढ़ रहे थे। किसी ऊंची जगह में जाने क लिए। शायद उस भूरे घर की ओर। वही तो एक बचा हुआ था पूरी घाटी में जहाँ पानी नहीं पहुँचा था और न पहुँच सकता। क्योंकि वह चोटी पर था। हम कहा जा रहे हैं, तुली ने पूछा। चंदा उसके आगे-आगे चल रही थी। बीच वह नेपाली लड़का और वह सबसे पीछे। हम उस भूरे घर जा रहे हैं। वहाँ आपके लिए दो तीन दिन ठहरने का इंतजाम कर दिया है। क्या वहाँ भी कॉटेज है? नहीं वहाँ एक लड़की रहती है जिसे लोग पागल कहते है। पर वह वैसी नहीं है। वह अपने पिता के साथ रहती है। एक गोद लिया हुआ छोटा भाई भी है। अपने पति के साथ अभी सुहागरात मना ही रही थी कि बीच में उसके पति के लिए जंग का बुलावा आ गया। उसका पति सेना में था। उसके बाद लौटा ही नहीं। कुछ पता नहीं चला उसका। पर वह अभी तक उसके लौटने का इंतजार कर रही है!
तुली उस लड़की के घर पहुँचते-पहुँचते बुरी तरह थक चुका था। इतनी खड़ी चड़ाई। ऊपर से बारिश और ठंड। एक पेड़ के नीचे बैठते हुए। चन्दा तुम जाओ, मेरे रहने की बात कर आओ। मुझसे चला नहीं जाता अब। मैं आराम करता हूँ तब तक...
तुली ने बहदुर को भी बैठ जाने का इशारा किया। चंदा उस घर की ओर जाने लगी। बारिश अभी भी हो रही थी। पर थोड़ी कम गई थी। अजीब-सा लग रहा होता। चरो तरफ पानी ही पानी। ऊपर आसमान से बारिश हो रही होती। नीचे भी तीर्थन नदी का सैलाब बढ़ता ही आ रहा था।
प्यास बुझाने वाला और शीतलता देने वाला जल तत्व कैसा भयंकर और विकराल लगता होता! जैसे पानी न हो कर साक्षात मृत्यु का ही रूप हो। आसन्न मृत्यु का भय उसे डराने लगा। पर वह जीना चाहता। अभी तो उसे बहुत कुछ करना है, देखना है। अभी तक वह ठीक से जिया ही नहीं है।
कैसी विडंबना है! कल तक वह जीवन से भाग रहा होता। जीवन बेमानी-सा लगता हुआ...एक बोझ-सा जिसे ढोते जाना जीवन क़हते हैं। कल तक उसकी जिंदगी स्वतंत्र थी। कहीं भी जा सकता था। कुछ भी कर सकता था। जो मन में आया करता रहा। फिर भी जीने से भाग रहा होता!
आज एकाएक उसी जीवन से मोह-सा हो गया! जब मृत्यु पास आती दिखी, तो लगाने लगा: अभी तो जिंदगी जी ही नहीं है! बहुत कुछ करना, देखना है और जीते जाना है...जब सब ओर मौत और विनाश का तांडव हो रहा होता। जब ऐसे बुरे फंसे हैं, चरो तरफ पानी—बाढ़ का पानी... बादल फटने की जल राशि में जीवन अंत होना करीब तय-सा लगता हुआ...तब जीने की इच्छा बढ़ती जाती ...जैसे जीने की बदती इछा और आसन्न मृत्यु के बीच कोई गहरा सम्बंध हो।
बाद में जब तुली ने कोपाल से पूछा था इस अजीबो गरीब जिजीविषा के बारे मे। तो उसने कहा था—यह जीवन ही जो मृत्यु के रूप से तुम्हें डरकर जीने के नए आयाम, नई राह और नई वजह देने को प्रस्तुत हुआ था। अस्तित्व ही तुम्हें ये विकल्प दे रहा है। जीवन और मृत्यु में कोई विरोधाभास नहीं है। वह तो-तो जीवन का पहलू है जैसे पर्दे का उठना और गिरना एक ही नाटक का हिस्सा है। पर हमे लगता है जैसे सब कुछ खत्म। मरने के बाद सब खत्म। एक शून्य। जबकि वह एक दूसरे नए जीवन की शुरुआत होती। ज्ञात से अज्ञात। फिर अज्ञात से ज्ञात। यानी नया जीवन।
सच ही कहा था उसने। उसी समय जब मृत्यु समीप-सी लग रही होती: तब सोच रहा होता—अभी तक तो कुछ किया ही नहीं। जिया ही नहीं। इंजीनियर तो ठीक से बन पाया नहीं क्योंकि बनना नहीं चाहता था। पर अब जो बनना चाहता हूँ वह तो बन सकता हूँ...क्यो नहीं सामाजिक इंजीन्यरिंग किया जाये...क्यो नहीं इस जाति व्यवस्था को ही तोड़ दिया जाये। एसी सामाजिक व्यवस्था जिसने जीवन के हरक पहलू को संकीर्ण कर रखा है। जहाँ सब कुछ थोपा जाता है...जाति, धर्म और पेशा...जीवन जीने की शैली...।
क्यों न एक ऐसे समाज की संरचना की जाये जहाँ कोई छोटी और बड़ी जात न रहे... न ये संकीर्ण और आत्मघाती जाति व्यवस्था हो, न ही जाति, धर्म और पेशा थोपा जाये...सबको जीवन जीने की, जाति, धर्म और पेशा चुनने की स्वत्तंत्रता हो...
एक नए जोश का संचार होता हुआ। जीवन जीने की इच्छा बलवती हुए जाती!
चलो बाबूजी आपके रहने का इंतजाम हो गया है। चंदा एक अति सुंदर लड़की के साथ आती दिखी।
बाबूजी इनसे मिलिये...ये हैं चंद्रिका... इन्हीं की कृपा से आपको एक रूम मिल गया है। जब तक पानी नहीं उतरता... यहीं रहे...मैं भी आप लोगों की सेवा में रहूँगी...!