जीवन कला! / ओशो
प्रवचनमाला
मनुष्य को प्रतिक्षण और प्रतिपल नया कर लेना होता है। उसे अपने को ही जन्म देना होता है। स्वयं के सतत जन्म की इस कला को जो नहीं जानते हैं, वे जानें कि वे कभी के मर चुके हैं।
रात्रि कुछ लोग आये । वे पूछने लगे, धर्म क्या है? मैंने उनसे कहा, धर्म मनुष्य के प्रभु में जन्म की कला है। मनुष्य में आत्म-ध्वंस और आत्म-स्रजन की दोनों ही शक्तियां हैं। यही उसका स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व है। उसका अपने प्रति प्रेम विश्व के प्रति प्रेम का उद्भव है। वह जितना स्वयं को प्रेम कर सकेगा, उतना ही उसके आत्मघात का मार्ग बंद होता है। और, जो-जो उसके लिए आत्मघाती है, वही-वही ही औरों के लिए अधर्म है।
स्वयं की सत्ता और उसकी संभावनाओं के विकास के प्रति प्रेम का अभाव ही पाप बन जाता है। इस भांति पाप और पुण्य, शुभ और अशुभ, धर्म और अधर्म का स्रोत उसके भीतर ही विद्यमान है- परमात्मा में या अन्य किसी लोक में नहीं। इस सत्य की तीव्रता और गहरी अनुभूति ही परिवर्तन लाती है और उस उत्तरदायित्व के प्रति हमें सजग करती है, जो कि मनुष्य होने में अंतर्निहित है। तब, जीवन मात्र जीना नहीं रह जाता।
उसमें उदात्त तत्वों का प्रवेश हो जाता है और हम स्वयं का सतत सृजन करने में लग जाते हैं। जो इस बोध को पा लेते हैं वे प्रतिक्षण स्वयं को ऊर्ध्व लोक में जन्म देते रहते हैं। इस सतत सृजन से ही जीवन का सौंदर्य उपलब्ध होता है, जो कि क्रमश: घाटियों के अंधकार और कुहासे से ऊपर उठकर हमारे हृदय की आंखों को सूर्य के दर्शन में समर्थ बनाता है।
जीवन एक कला है। और, मनुष्य अपने जीवन का कलाकार भी है और कला का उपकरण भी। जो जैसा अपने को बनाता है, वैसा ही अपने को पाता है। स्मरण रहे कि मनुष्य बना-बनाया पैदा नहीं होता। जन्म से तो हम अनगढ़े पत्थरों की भांति ही पैदा होते हैं। फिर, जो कुरूप या सुंदर मूर्तियां बनाती हैं, उनके स्रष्टा हम ही होते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)