जीवन का ताप / सुभाष नीरव
कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। उस पर पिछले कई दिनों से सूरज देवता न जाने कहाँ दुबके थे। दिनभर धूप के दर्शन न होते। रोज़ की तरह आज भी बिशन सिंह की आँख तड़के ही खुल गई, जबकि रात भर वह ठीक से सो नहीं पाया था। आँख खुलने के बाद फिर कहाँ नींद बिशन सिंह को। गर्मी का मौसम होता तो उठकर सुबह की सैर को चल देता। पर भीषण ठंड में किसका मन होता है बिस्तर छोड़ने का! वह उठकर बैठ गया था। उसने ठिठुरते-काँपते अपने बूढ़े शरीर के चारों ओर रजाई को अच्छी प्रकार से लपेट-खोंस कर दीवार से पीठ टिका ली थी। एक हाथ की दूरी पर सामने चारपाई पर उसकी घरवाली सुखवंती रज़ाई में मुँह-सिर लपेटे सोई पड़ी थी।
रात भर खाँसती रही बेचारी...तड़के कहीं जाकर टिकी है। कितनी बार कहा है जो काम करवाना होता है, माई से करवा लिया कर। दो टेम आती है। पैसे देते हैं, कोई मुफ्त में काम नहीं करवाते, पर इसे चैन कहाँ! ठंड में भी लगी रहेगी...पानी वाले काम करती रहेगी... बर्तन माँजने बैठ जाएगी... पोंछा लगाने लगेगी... और नहीं तो कपड़े ही धोने बैठ जाएगी। अब पहले वाली बात तो रही नहीं। बूढ़ा शरीर है, ठंड भी जल्दी पकड़ता है। पर सुखवंती मानने वाली कहाँ!' सुखवंती को लेकर न जाने कितनी देर तक अपने आप से ही बातें करता रहा बिशन सिंह।रात में उठ-उठकर वह पत्नी की पीठ मलता रहा था। विक्स भी मला। सुखवंती को कुछ होता है तो वह खुद परेशान हो उठता है। बाहर आँगन में चिड़ियों का शोर बता रहा था कि सवेरा हो चुका था। बिशन सिंह ने रजाई की बुक्कल में बैठे-बैठे वक्त का अंदाज़ा लगाया- छह बज चुके होंगे। बिशन सिंह का मन किया कि उठकर खिड़की खोले या आँगन वाला दरवाज़ा खोलकर बाहर देखे। पर तभी, इस विचार मात्र से ही उसके बूढ़े शरीर में शीत की एक लहर दौड़ गई। उसे लगा, ओढ़ी-लपेटी रजाई कहीं से उघड़ गई है। उसने फिर से अपने ईद-गिर्द रजाई को अच्छी तरह लपेटा और सोचने लगा- इन चिड़ियों को ठंड क्यों नहीं लगती? इस कड़कड़ाती ठंड में भी कैसे मस्ती में चहचहा रहीं हैं बाहर!
तभी सुखवंती ने करवट बदली थी। करवट बदलने से रजाई एक ओर लटक गई थी जिससे उसकी पीठ नंगी हो गई। बिशन सिंह का मन हुआ कि वह सुखवंती को आवाज़ लगाकर जगाये और रजाई ठीक कर लेने को कहे। पर कुछ सोचकर उसने ऐसा नहीं किया। इससे उसकी नींद में खलल पड़ता। बिशन सिंह ने खुद उठकर सुखवंती की रजाई को ठीक किया, इतनी आहिस्ता से कि सुखवंती जाग न जाए। जाग गई तो दुबारा सोने वाली नहीं। वैसे भी सुखवंती ठीक हो तो इतनी देर तक कभी नहीं सोती। चिड़ियों के चहकने पर ही बिस्तर छोड़ देती है। पर सारी रात जागकर काटी है बेचारी ने। खाँसी ने सोने ही नहीं दिया। आज इसे डॉक्टर के पास ज़रूर लेकर जाऊँगा, चाहे कुछ हो जाए। अपने आप तो जाने से रही। छोटा-मोटा ताप, खाँसी-जुकाम तो इसके लिए कोई माने नहीं रखता। कहती है- यह भी कोई बीमारी है? खुद ठीक हो जाएगी। पैसे फालतू आ रहे हैं जो डॉक्टरों की जेबें भरें...। अब फिर वह अपने बिस्तर पर दीवार से पीठ टिका कर बैठ गया, रजाई को अच्छी तरह ओढ़कर।
स्मृतियाँ अकेले आदमी का पीछा नहीं छोड़तीं। बूढ़े अकेले लोगों का तो ये स्मृतियाँ ही सहारा होती हैं, जिनमें खोकर या जिनकी जुगाली करके वे अपने जीवन के बचे-खुचे दिन काट लेते हैं। बिशन सिंह भी अपनी यादों के समंदर में दिन भर उतरता-डुबता रहता है। कभी जीवन के कड़वे दिन याद आते हैं तो कभी सुखभरे दिन।
सुखवंती ब्याह कर आई थी तो उसके घर की हालत अच्छी नहीं थी। बस, दो वक्त की रोटी बमुश्किल चलती थी। ज़मीन-जायदाद थी नहीं। गाँव में छोटा-मोटा बढ़ई का काम करता था वह, जो उसका पुश्तैनी धंधा था। पर सुखवंती का पैर उसके घर में क्या पड़ा कि उसके दिन फिरने लगे। उन्हीं दिनों गाँव के साथ वाले शहर में एक नया कारखाना खुला था। बिशन सिंह को वहाँ काम मिल गया। साइकिल पर सवेरे काम पर जाना और दिन ढले लौट आना गाँव में। हर महीने बँधी पगार आने से धीरे-धीरे उसके घर की हालत सुधरने लगी। कच्चा घर पक्का हो गया। भांय-भांय कर्ता घर हर तरह की छोटी-मोटी वस्तुओं से भरने लगा। बिशन सिंह ने गाँव में ही ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा ख़रीद लिया। चार दुकानें निकाल लीं। एक अपने पास रखकर बाकी तीन किराये पर चढ़ा दीं। हर महीने बँधा किराया आने लगा। कारखाने की पगार और दुकानों का किराया, और दो जीवों का छोटा-सा परिवार! पैसे की टोर हो गई। ख़याल तो बिशन सिंह सुखवंती का पहले भी रखता था, पर अब कुछ अधिक ही रखने लगा था। वह उसकी हर ख्वाहिश पूरी करने लगा। लोग गाँव में बातें किया करते- सुखवंती क्या आई, बिशने के घर सुख ही सुख हो गया।
सुखवंती ने फिर करवट बदली। अब उसने मुँह पर से रजाई हटा ली थी। बिशन सिंह उसके चेहरे की ओर टकटकी लगाए देखता रहा। ईश्वर ने हर चीज़ का सुख उनकी झोली में डाला था। बस, एक औलाद का सुख ही नहीं दिया। बहुत इलाज करवाया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। सुखवंती चाहकर भी यह सुख बिशन सिंह को न दे पाई। लोग बिशन सिंह को दूसरा विवाह करवा लेने के लिए यह कहकर समझाते-उकसाते कि औलाद तो बहुत ज़रूरी है, जब बुढ़ापे में हाथ-पैर नहीं चलते तब औलाद ही काम आती है। पर बिशन सिंह ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कभी। बस, उसकी यही चाहत रही कि सुखवंती सुखी रहे।
इस बार सुखवंती ने करवट बदली तो उसकी आँख खुल गई। मिचमिचाती आँखों से घरवाले को बिस्तर पर बैठा देखा तो वह उठ बैठी। पूछा, क्या बात है?...तबीयत तो ठीक है? हाँ, तू अपनी बता। सारी रात तू सो नहीं पाई। खाँस-खाँसकर बुरा हाल रहा तेरा...आज डॉक्टर के पास चलना मेरे साथ। कुछ नहीं हुआ मुझे... सुखवंती ने अपना वही पुराना राग अलापा, मामूली-सी खाँसी है, ठंड के कारण... मौसम ठीक होगा तो अपने आप ठीक हो जाएगी। पर मुझे तो लगता है, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं। काँपे जा रहे हो। बस, ठंड के कारण काँप रहा हूँ। इस बार तो ठंड ने रिकार्ड तोड़ डाला। बिशन सिंह ने रजाई को अपने चारों ओर खोंसते हुए कहा। बैठे क्यों हो?...लेट जाओ बिस्तर में। मैं चाय बनाकर लाती हूँ। लेटे-लेटे भी जी ऊब जाता है। धूप निकले तो बाहर धूप में बैठें। तीन दिन हो गए धूप को तरसते। पता नहीं, आज भी निकलेगी कि नहीं। नहीं, अभी पड़े रहो बिस्तर में...बाहर हवा चल रही होगी। जब धूप निकलेगी तो चारपाई बिछा दूँगी बाहर। घुटनों पर हाथ रखकर सुखवंती उठी और 'वाहेगुरु-वाहेगुरु' करती हुई रसोई में घुस गई। कुछ देर बाद वह चाय का गिलास लेकर आ गई। बिशन सिंह ने गरम-गरम चाय के घूँट भरे तो ठिठुरते जिस्म में थोड़ी गरमी आई। उसने सुखवंती को हिदायत दी, अब पानी में हाथ न डालना। अभी आ जाएगी माई, खुद कर लेगी सारा काम। तू भी आ जा मेरे पास, चाय का गिलास लेकर। सुखवंती ने पहले अपना बिस्तर लपेटा, चारपाई को उठाकर बरामदे में रखा और फिर अपना चाय का गिलास उठाकर बिशन सिंह के पास आ बैठी, उसी के बिस्तर में। बिशन सिंह अपनी ओढ़ी हुई रजाई को खोलते हुए बोला, थोड़ा पास होकर बैठ मेरी रजाई में...गरमाहट बनी रहेगी। सुखवंती बिशन सिंह के करीब होकर रजाई में सिमटकर बैठी तो उसे बिशन सिंह का बदन तपता हुआ-सा लगा। अरे, तुम्हें तो ताप चढ़ा है... सुखवंती ने तुरंत बिशन सिंह का माथा छुआ, तुमने बताया नहीं, रात में गोली दे देती बुखार की... आज बिस्तर में से बाहर नहीं निकलना। कुछ नहीं हुआ मुझे...यों ही न घबराया कर। बिशन सिंह ने चाय का बड़ा-सा घूँट भरकर कहा। फिर, वे कितनी ही देर तक एक-दूसरे के स्पर्श का ताप महसूस करते रहे, नि:शब्द! बस, चाय के घूँट भरने की हल्की-सी आवाज़ दोनों के मध्य तैरती रही, रह-रहकर। फिर, पता नहीं सुखवंती के दिल में क्या आया, वह सामने शून्य में ताकती हुई बड़ी उदास आवाज़ में बुदबुदाई, पता नहीं, हमने रब का क्या बिगाड़ा था...हमारी झोली में भी एक औलाद डाल देता तो क्या बिगड़ जाता उसका। बुढ़ापे में हम भी औलाद का सुख भोग लेते। औलाद का सुख? बिशन सिंह हँसा। सुखवंती ने गर्दन घुमाकर बिशन सिंह की ओर देखा। उसकी हँसी के पीछे छिपे दर्द को पकड़ने की कोशिश की उसने। बिशन सिंह अपने दोनों हाथों के बीच चाय का गिलास दबोचे, चाय में से उठ रही भाप को घूर रहा था। औलाद का सुख कहाँ है सुखवंती...जिनके है, वे भी रोते हैं। अब चरने को ही देख ले। तीन-तीन बेटों के होते हुए भी नरक भोग रहा है। तीनों बेटे अपना-अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए। बूढ़ा-बूढ़ी को पूछने वाला कोई नहीं। अपने-अपने हाथों में चाय के गिलास थामे वे खामोश हो गए। बिशन सिंह ने ही कुछ देर बाद इस खामोशी को भंग किया। बोला, वो अपने परमजीत को जानती हो? अरे वही, शिंदर का बाप... औलाद के होते हुए भी बेऔलाद-सा है, रोटी-टुक्कड़ को तरसता। जब तक औलाद नहीं थी, औलाद-औलाद करता था। जब रब ने औलाद दी तो अब इस उम्र में कहता घूमता है- इससे तो बेऔलाद अच्छा था। सारी जायदाद बेटों ने अपने नाम करवा ली, अब पूछते नहीं। कहता है- मैं तो हाथ कटवा बैठा हूँ, अगर रुपया-पैसा मेरे पास होता तो सेवा के लिए कोई गरीब बंदा ही अपने पास रख लेता। पर सारी औलादें ऐसी नहीं होतीं...। सुखवंती बिशन सिंह के बहुत करीब सटकर बैठी थी, पर बिशन सिंह को लगा, जैसे उसकी आवाज़ बहुत दूर से आ रही हो। थकी-थकी-सी!
चाय के गिलास खाली हो चुके थे। सुखवंती ने अपना और बिशन सिंह का गिलास झुककर चारपाई के नीचे रख दिया। उघड़ी हुई रजाई को फिर से अपने ईद-गिर्द लपेटते हुए वह कुछ और सरककर बिशन सिंह के साथ बैठ गई। बिशन सिंह ने अपना दायाँ बाजू सुखवंती के पीछे से ले जाकर उसे अपने और करीब कर लिया। जिन्दर ने भी हमें धोखा दिया, नहीं तो...। कहते-कहते सुखवंती रुक गई। उसकी बात न कर, सुखवंती। वह मेरे भाई की औलाद था, पर मैंने तो उसे भाई की औलाद माना ही नहीं था, अपनी ही औलाद माना था उसे। सोचा था, भाई के बच्चे तंगहाली और गरीबी के चलते पढ़-लिख नहीं पाए, जिंदर को मैं पढ़ाऊँगा-लिखाऊँगा। पर... बिशन सिंह कहते-कहते चुप हो गया। जब हमारे पास रहने आया था, दस-ग्यारह साल का था। कोई कमी नहीं रखी थी हमने उसकी परवरिश में। इतने साल हमने उसे अपने पास रखा। अच्छा खाने को दिया, पहनने को दिया। जब कोई आस बँधी तो उसने यह कारा कर दिखाया...। सुखवंती का स्वर बेहद ठंडा था। सब-कुछ उसी का तो था। हमारा और कौन था जिसे हम यह सब दे जाते। जब उसने तुम्हारे गहनों पर हाथ साफ़ किया, तो दुख तो बहुत हुआ था पर सोचा था, अपने किये पर पछताएगा। बिशन सिंह ने सुखवंती का दायाँ हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबाकर थपथपाते हुए कहा, पर जब उसने दुकानें और मकान अपने नाम लिख देने की बात की तो लगा, हम तो इससे झूठी आस लगाए बैठे हैं। यह तो अपना कतई नहीं हो सकता। अच्छा हुआ, अपने आप चला गया छोड़कर। सुखवंती ने गहरा नि:श्वास लेते हुए कहा। सुखवंती, आदमी के पास जो नहीं होता, वह उसी को लेकर दु:खी होता रहता है उम्रभर। जो होता है, उसकी कद्र नहीं करता। जो हमारे पास नहीं है, उसकी हम क्यों चिंता करें। जो है, हम उसी का आनंद क्यों न उठाएँ। कहकर बिशन सिंह ने सुखवंती को अपने से सटा लिया। सुखवंती भी उसके सीने में मुँह छुपाकर कुछ देर पड़ी रही। यह सेक, यह ताप दोनों को एकमेक किए था। इधर, बिशन सिंह ने सोचा, 'जीवन का यह ताप हम दोनों में बना रहे, हमें और कुछ नहीं चाहिए।' और उधर सुखवंती सोच रही थी, 'यह तपिश, यह गरमाहट बिशन सिंह के बुखार के कारण है या फिर उसके प्यार के कारण... काश! दोनों के बीच यह गरमाहट यों ही बनी रहे।'
तभी, धूप का एक छोटा-सा टुकड़ा खिड़की के काँच से छनकर कमरे में कूदा और फ़र्श पर खरगोश की भाँति बैठकर मुस्कराने लगा। सुखवंती हड़बड़ाकर बिशन सिंह से यों अलग हुई मानो किसी तीसरे ने उन दोनों को इस अंतरंग अवस्था में देख लिया हो! दोनों ने धूप के उस नन्हें खरगोश की ओर देखा और फिर एक-दूजे की ओर देखकर मुस्करा दिए।