जीवन की तीन घटनाएँ / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जमींदारों की लूट और गाँधीजी के सत्य की पुकार के प्रसंग में मैं यहाँ अपने जीवन को तीनमहत्त्वपूर्ण घटनाएँ लिख देना चाहता हूँ जिन्होंने मेरे हृदय पर अमिट छाप डाली, बहुत अंशों में मेरे जीवन को पलटा, और मुझे उग्रपंथी बनाया। पहली घटना सन 1917 ई. की है, जब मैं गाजीपुर जिले के विश्वंभरपुर गाँव में रहता था। वहाँ सुखी जमींदार रहते हैं। उनके मौजे मौरा में जो 3-4 मील पर है,मैंने जाड़ों में एक हलवाहे को मरा देखा। 60-70 साल का रहा होगा। टूटी झोंपड़ी में जमीन पर पड़ा था। इनफ्लुएंजा से मौत हुई थी। यह बीमारी और जाड़े का दिन। मगर कमर में सिर्फ एक लँगोटी थी! ओढ़ने को कुछ नहीं! कहीं से एक फटा बोरा मिला था। उसी में सिर और टाँगें डाल के पड़ा-पड़ा मर गया! पीठ और चूतड़ खुले ही थे! बिस्तर, चारपाई, दवा वगैरह की तो बात ही नदारद! मेरा दिल रोया। मैंने सोचा कि इसने इन 60-70 वर्षों में लाखों आदमियों की खुराक का गेहूँ,चावल,दूध, घी पैदा किया होगा और अपार धन कमाया होगा! मगर दुनिया कैसी जल्लाद और लुटेरी है कि इसने शायद ही जीवन-भर में कभी गेहूँ,घी खाया हो, अच्छा कपड़ा पहना हो! और मरने के समय नंगा ही रह गया,सो भी जाड़े में। टूटी खाट भी नहीं। अब इसे कफन भी देनेवाला कोई नहीं! यह दुनिया डूब जाए! ऐसा घोर अन्याय! यह अंधेर! ऐसी निर्दयता! यह लूट!!
दूसरी घटना सन 1935 ई. की है। मुंगेर जिले में चकाय थाना है, ठेठ पहाड़ों में। वहाँ से संथाल परगना और हजारीबाग जिले निकट हैं। वहाँ देहातों में काले-काले प्राय: नंगे और बिष्टी पहने पहाड़ी संथाल वगैरह रहते हैं। वहीं एक-दो दिन रहना पड़ा। शाम को देहातों में टहलने जाया करता था। जब उन नग्नप्राय गरीब और परिश्रमी किसानों को दशा की पूछताछ की तो पता चला कि पहाड़ और जंगल काट के खेत बनाते और धान उपजाते हैं। मगर कभी एक आना पैसा और कभी सेर भर चावल दे के दोई चार साल में सारे खेत बनिए लिखवा लेते हैं। फलत: वे या तो बनियों के हलवाहे बन जाते या कहीं और जा कर फिर उसी तरह खेत बनाते, जिन्हें पुनरपि बनिए ले लेते हैं। यही क्रिया सैकड़ों वर्षों से चालू है। वे इतने परिश्रमी, सच्चे और सीधे हैं! इसी से लुट जाते हैं और बराबर नंगे ही रहते हैं! मेरे दिल से आवाज आई कि इस दुनिया में सत्य और न्याय कहाँ है? अहिंसा कहाँ है?दीनबंधु भगवान कहाँ हैं? इनसे बढ़ के दीन कौन है? इनका सत्य तो इन्हें लुटवाता है और बनिए का जाल और छल उसे हलवा देता है। क्या भगवान,सत्य,न्याय नाम की कोई वस्तु सचमुच है?
तीसरी घटना मुंगेर के बेगूसराय इलाके की है, सन 1937 ई. की। मैंने रास्ते में देखा कि एक मुर्दे को टूटी खाट में सुलाये और चिथड़ा ओढ़ाए कुछ लोग गंगा की ओर लिए जा रहे हैं। उनके पास न तो मुर्दा जलाने के लिए लकड़ी है और न दूसरा ही सामान। एक मुट्ठी या मामूली सी रद्दी लकड़ी है। मेरे दिल ने पुकारा कि ओह यह जुल्म! यह लूट! यह हृदय हीनता! जिसने जीवन में धानियों तथा सत्ताधारियों के लिए भोग-विलास का सामान और लाखों के खाने के लिए गेहूँ, मलाई पैदा की उसकी ही यह दशा कि कफन तक नदारद! ऐसा तपस्वी और त्यागी कि दूध, गेहूँ पैदा कर के भी स्वयं न खाया, किंतु मदमत्तो को दिया। उन्हीं का इसके प्रति ऐसा व्यवहार! इस समाज को मिटाना होगा। यही सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़ी अहिंसा, सबसे बड़ा सत्य है। इन्हीं गरीबों की सेवा करते-करते मरना होगा। इन्हें छोड़ मेरे दिल में भगवान कहाँ? मेरे भगवान तो यही हैं!