जीवन के जंगल में पगडंडी की खोज / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 जनवरी 2017
निरंतर विकास करती हुई टेक्नोलॉजी मनुष्य के सामाजिक व्यवहार और विचार प्रक्रिया में नित्य नए परिवर्तन प्रस्तुत कर रही है। इसने एक वैकल्पिक संसार ही रच दिया है। फेसबुक की सहायता से वर्षों पहले बिछुड़े हुए मित्र और रिश्तेदार एक-दूसरे के संपर्क में आ जाते हैं। इस विकसित संचार माध्यम से नकारात्मकता भी विकसित हो रही है कि हम सब अपने-अपने अजनबियों के बीच जी रहे हैं। बहरहाल, टेक्नोलॉजी द्वारा पाटे गए अपरिचय के विध्यांचल मनुष्य को याद की मांद में बार-बार जाने को विवश करते हैं। मनुष्य के भूलने की क्षमता ही उसे दु:खों से उबरने में सहायता देती है। यह विरोधाभास देखिए कि संचार माध्यम भूल-बिसरे मित्रों से संपर्क बनाने में सहायता देता है तो दूसरी ओर घटती हुई संवेदनाएं आपको खोखला भी बना देती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि मन कहता है कि हमें किसी अपने के बिछड़ जाने पर रोना चाहिए परंतु आंसू नहीं आते, क्योंकि संवेदनाएं पथरा गई हैं।
फॉर्मूला फिल्म के आदि पुरुष शशधर मुखर्जी ने बचपन में जुदा हो गए भाइयों के वर्षों बाद अकस्मात मिल जाने की फिल्में बनाईं और उनका 'लॉस्ट एंड फाउंड' फॉर्मूला बड़ा ही लोकप्रिय हुआ। उनके प्रिय शागिर्द नासिर हुसैन और भाई सुबोध मुखर्जी ने इस फॉर्मूले के आधार पर अनेक फिल्में बनाईं। एक बार उनके यहां भोज पर निमंत्रित रणधीर कपूर ने उनके घर पकी बिरयानी की प्रशंसा की और अगली दावत में भी उसी तरह पकी बिरयानी की फरमाइश भी की। कुछ दिनों बाद दोबारा मिलने पर रणधीर कपूर ने शिकायत कि वे हमेशा एक-सी खोया और पाया कहानियां ही क्यों फिल्माते हैं तो शशधर मुखर्जी ने पूछा कि मेहमान मेरे घर वैसी ही पकी बिरयानी की फरमाइश क्यों करते हैं। सारांश यह कि शशधर मुखर्जी के लिए फिल्म और बिरयानी बनाना समान बातें थीं। नासिर हुसैन के भाई के सुपुत्र आमिर खान हमेशा कुछ नया करते हैं। कुछ फिल्मकार लीक से हटकर नई कहानी पर फिल्म बनाते हैं परंतु उसके सफल होते ही वे सफलता को दोहराने के लिए फॉर्मूलाबद्ध फिल्म बनाते हैं। गोयाकि हर नई खोजी हुई पगडंडी पर इतने अधिक लोग इतनी अधिक बार चलने लगते हैं कि वह पगडंडी आम सड़क हो जाती है। आप कभी वर्षों से जुदा हुए मित्र को मिलते हैं तो आप पाते हैं कि आपका मित्र बदल चुका है। जीवन की चक्की ने उसे ऐसा पीसा है कि उसकी सोच और संसार परिवार के जीवन-यापन के साधन जुटाने में पूरी तरह खप गया है और आपका पुराना साथी अब उसमें खोजे नहीं मिलता। बेहद निराशा होती है। समाज में आमूल परिवर्तन की बातें करने वाला व्यक्ति चीजों के महंगा हो जाने में ही डूब गया है। सामूहिक अवचेतन की भी इंजीनियरिंग कुछ ऐसी हुई है कि महंगाई को लेकर एक सरकार अपदस्थ हुई और परंतु आज और भी अधिक बढ़ चुकी महंगाई पर कोई विरोध ही नहीं होता। विरोध को भी नवीनता की दरकार है।
चीन से भारत ही नहीं पूरे विश्व को खतरा है परंतु हमें एटीएम के उपयोग की सलाह दी जा रही है और एटीएम के उपयोग के भाड़े का एक अंश चीन के खाते में चला जाता है गोयाकि अनजाने में ही हम शत्रु को लाभांश कमाकर दे रहे हैं। हमें बार-बार भारत के वैभवशाली अतीत पर गर्व करना सिखाया जा रहा है परंतु भारत में अत्यंत अल्प आविष्कार हुए हैं। शोध से अधिक सुविधा के प्रति हमारा आग्रह ही हमें वस्तुओं के आविष्कार के बदले लेबल निर्माण की ओर धकेलता है। आज एक कंपनी के अनगिनत प्रोडक्ट बाजार में हैं परंतु उनके उत्पाद कारखानों की कोई जानकारी नहीं। संभवत: वे केवल लेबल बनाते हैं। प्रसिद्ध औद्योगिक घराने भी अपने लोकप्रिय प्रोडक्ट अन्य कारखानों से लेते हैं और केवल अपना लेबल उस पर चस्पां करते हैं। हम तो पुराने संबंधों को भी नई ऊर्जा में नहीं ढालते केवल लेबल से संतुष्ट हो जाते हैं। दो व्यक्ति परस्पर प्रेम के नए रूपों को भी बार-बार खोज सकते हैं। जाने-पहचाने जिस्म में छुपी अदृश्य-सी परतों से भी अनजान रहते हैं। हमारा प्यार भी बिस्तर पर बिछी चादर की सलवटों में खो जाता है।