जीवन के रंगमंच पर मृत्यु का नृत्य / जयप्रकाश चौकसे

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जीवन के रंगमंच पर मृत्यु का नृत्य
प्रकाशन तिथि :17 फरवरी 2018

मुंशी प्रेमचंद और शरतचंद्र चटर्जी के साहित्य से प्रेरित फिल्में बड़ी संख्या में बनी हैं। सत्यजीत रे ने केवल 'कंचनजंघा' स्वयं रचित कहानी पर बनाई है। उनकी अन्य सभी फिल्में महान साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरित रही हैं। शरतचंद्र चटर्जी ने अपनी मृत्यु के पूर्व बार बार 'अमाके दाओ' अर्थात 'मुझे दो' दोहराया था। वे अंतिम क्षण क्या मांग रहे थे, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। उनकी लंबी बीमारी में उनका गला प्राय: सूख जाता था और वे पानी मांगते थे। बीमारी और दवा के प्रभाव के कारण उन्हें प्यास लगती थी और उन्होंने यह भी कहा था कि उनकी छाती मरुस्थल की तरह हो गई है। टीएस एलियट की 'मरु भूमि' सांस्कृतिक प्यास और मूल्यहीनता द्वारा रचे मरुस्थल की भी बात करती है। उस महाकाव्य में अनेक अर्थ निहित हैं। अनेक विशेषज्ञों का मत है कि धरती पर मरुस्थल का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। जीवन में नैतिक मूल्यों के पतन का ही आईना बन रहे हैं ये दिनों-दिन फैलते मरुस्थल। नदियों का सिकुड़ना भी इसी समस्या का हिस्सा है।

महाश्वेता देवी के उपन्यास से प्रेरित फिल्म 'संघर्ष' के एक दृश्य में एक उम्रदराज आदमी लंबे समय से बीमार है और उसकी बहु आकर कहती है कि श्वसुरजी प्राण नहीं निकल रहे हैं, क्योंकि आपने परिवार के दो भागों के एक युद्ध में अपने ही बेटे का कत्ल भी कराया था। अपने गुनाहों पर प्रायश्चित करें ताकि प्राण निकल सकें। किसी भी मनुष्य के अंतिम क्षणों में कही गई बात में अर्थ की सतहें होती हैं। शरतचंद्र चटर्जी के बिस्तर के इर्द-गिर्द उनके अपने रिश्तेदार व मित्र एकत्रित हुए थे। एक क्षण ऐसा भी आया जब वे किसी को भी पहचान नहीं सके और सभी अपने उन्हें अजनबी लगे।

'आरोग्य निकेतन' उपन्यास एक नाड़ी वैद्य की गाथा प्रस्तुत करती है। नाड़ी वैद्य रोग का निदान करते हैं परंतु चलती हुई नब्ज में वे मृत्यु की पदचाप भी सुन लेते हैं। वैद्य अपनी मृत्यु का विवरण कुछ इस तरह करता है कि मृत्यु के पैरों में बंधी पायल की आवाज वे सुन सकते हैं। वे कहते हैं कि 'पायल बांधे मृत्यु अब गांव की सीमा में प्रवेश कर गई है, वह खेत की मेड़ पर कदम रखते हुए मेरी ओर आ रही है, अब उसकी पायल की आवाज तीव्र होते जा रही है और यकायक आवाज बंद हो गई है गोयाकि वह मेरे बिस्तर के पास पहुंच गई है'। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'आनंद' में मृत्यु का दृश्य गुलज़ार ने लिखा था- 'ए मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है, मिलेगी मुझको! डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे, ज़र्द सा चेहरा लिए जब चांद उफक तक पहुंचे दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब न अंधेरा न उजाला हो, न अभी रात न दिन जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आने लगे मुझसे एक कविता का वादा है, मिलेगी मुझको...!'

इस तरह मृत्यु के क्षणों को बहुत रोमेंटेसाइज किया गया है, जबकि वह अत्यंत कष्टप्रद होती है। मृत्यु एक असहनीय वेदना है। उसके यथार्थ पर मिर्ज़ा ग़ालिब आश्चर्य अभिव्यक्त करते हैं, 'मौत एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है, नींद क्यों रात भर नहीं आती'। मौत पर मीर तक़ी मीर कुछ इस तरह अपना संशय अभिव्यक्त करते हैं- 'जिंदगी क्या है, अनासिर में जहूरे तरकीब, मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परिशां होना, मौत एक मान्डगी का वक्फा है, याने आगे चलेंगे दम लेकर'। मृत्यु को प्राय: जीवन के वाक्य में एक कॉमा या अर्धविराम की तरह माना गया है। 'अनाड़ी' फिल्म के एक गीत में शैलेन्द्र लिखते हैं 'मरकर भी याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कराएंगे, जीना इसी का नाम है'। बहरहाल, मृत्यु पर साहित्यकारों ने बहुत कुछ लिखा है परंतु उस दर्दनाक सत्य को गरिमामय ही बनाया गया है। बार-बार जन्म होता है, यह भी एक आशावादी दृष्टिकोण है।

मृत्यु के अनेक रूपों में सबसे अधिक त्रासदायक यह है कि अवाम के दिन-प्रतिदिन का जीवन भी किश्तों में मरने की तरह ही है। कतारों में इंतजार करता आम आदमी मृत्यु की रिहर्सल ही करता रहता है। आधार से मोबाइल का पंजीकरण करने की कतारें हों या किराये के अनुबंध का रजिस्ट्रेशन हो - यह सब कवायदें हमें धीरे-धीरे मरने की रिहर्सल ही करा रही हैं। बैंक में अपने ही खाते की रकम सीमित मात्रा में निकालने देते हैं। जाने कितने करोड़ काम के क्षण इन कतारों में खड़े रहते हुए नष्ट करना पड़े हैं। मत देने के लिए भी कतार में ही खड़े होना पड़ता है। मौजूदा व्यवस्था सबसे कम प्रतिशत मतदान द्वारा चुनी गई व्यवस्था है। तमाशबीन अवाम के लिए व्यवस्था ने अनेक नौटंकियों की रचना की है। मेले तमाशों में भरमाए रखने के लिए जतन किए गए हैं।