जीवन के रिंग में मार खाती महिलाएं / जयप्रकाश चौकसे

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जीवन के रिंग में मार खाती महिलाएं
प्रकाशन तिथि : 04 सितम्बर 2014


अनेक प्रांतों में प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फिल्म "मैरी कॉम' मनोरंजन कर से मुक्त हो गई है। एकल सिनेमाघरों में पचास रुपए तक के टिकट पर मनोरंजन कर नहीं लगता और नए बने मल्टीप्लैक्स कुछ समय तक कर मुक्त होते हैं, अत: इस कर-मुक्ति का लाभ उतना नहीं है जितना उस समय था जब मनोरंजन कर की दरें 150 प्रतिशत तक थीं। भारत के अतिरिक्त किसी और देश में मनाेरंजन कर नहीं लगता क्योंकि यह स्वाभाविक न्याय के विपरीत है। मनुष्य के सांस लेने पर अभी तक कर नहीं लगा है परंतु जिस दिन इसका मीटर खाेज लिया जाएगा, वह कर भी लग जाएगा। यह सही है कि श्वांस लेने की तरह मनोरंजन आवश्यक नहीं है परंतु मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। जैसे किताब पढ़ने पर कर नहीं है, फिल्म पर भी कर नहीं होना चाहिए क्योंकि फिल्म भी किताब की तरह अभिव्यक्ति का माध्यम है। बेचारे सिनेमा उद्योग पर भांति-भांति के कर हैं, मसलन म्यूनिसिपल प्रशासन तीन सौ रुपए प्रति शो का कर लेती है। कई फिल्मों में चौथे दिन चौथे शो में चार दर्शक से तीन सौ रुपए भी प्राप्त नहीं होते तब सिनेमा मालिक अपनी जेब से टैक्स भरता है। दरअसल सिनेमा उद्योग गरीब की जोरू की तरह सबकी भाभी है जिस पर पूरा परिवार कर्तव्य लाद देता है।

बहरहाल "मैरी कॉम' संभवत: उसी श्रृंखला की फिल्म है जिसमें "भाग मिल्खा भाग', "पानसिंह तोमर', थीं। अब तक खिलाड़ियों पर बनी बायोपिक्स में "पानसिंह तोमर' सबसे अधिक विश्वसनीय थी। "भाग मिल्खा भाग' में घटनाओं का क्रम सिनेमाई प्रभाव के नाम पर बदला गया है और पाकिस्तान में उनकी टक्कर के प्रतिद्वंद्वी का पात्र काल्पनिक है। उस दौर में मिल्खा सिंह की टक्कर का धावक पाकिस्तान में नहीं था, परंतु पाक विरोधी भाव बॉक्स आफिस पर पैसा बरसाता है, चीन विरोधी भाव में उतना दम नहीं है और देश में रहने वाले देशद्रोहियों के पात्र भी अधिक धन नहीं दे पाते। दोनों ही देशों में परस्पर विरोध की भावना का दोहन सरहद के दोनों ओर समान भाव से किया जाता है। कोई भी बायोपिक सौ प्रतिशत सत्यकथा नहीं होती। मिर्च-मसाला डाले बिना कोई लोकप्रिय चीज नहीं पकाई जाती। प्रियंका चोपड़ा अत्यंत सुंदर महिला हैं और मैरी कॉम का सौंदर्य उनकी आंखों और इरादों में है परंतु सिनेमा जैसे महंगे माध्यम में सितारा लिए बिना भीड़ नहीं जुटती। प्रियंका चोपड़ा ने अपनी ओर से खूब परिश्रम करके बॉक्सर की भूमिका के लिए स्वयं को तैयार किया है और संभव है कि हॉलीवुड में बनी इस तरह की फिल्म जिसका नाम शायद "मिलियन डॉलर बेबी' था, को कई बार देखा हो। सिनेमा विश्वास दिलाने की कला है और प्रियंका विश्वास दिला रही हैं जैसा कि अब तक देखे अंशों से लगता है। यह भी तय है कि संजय लीला भंसाली ने बतौर निर्माता इसके प्रस्तुतीकरण को अपनी शैली से प्रभावित किया हो क्योंकि आर्थिक जोखिम तो उन्हीं का है। पुरुषों की बॉक्सिंग पर अमेरिका में बहुत फिल्में बनी हैं और अनेक उपन्यास भी लिखे गए हैं। इनमें से एक फिल्म में नायक अपने पुत्र की खातिर जानलेवा प्रतिस्पर्द्धा का हिस्सा बनता है जिससे प्रेरित होकर मिथुन चक्रवर्ती ने अपना संस्करण बनाया था। इस फिल्म "बॉक्सर' के निर्देशक राज सिप्पी थे और इसमें महत्वपूर्ण भूमिका में शरत सक्सेना थे। भोपाल के शरत सक्सेना इंजीनियर रहे हैं परंतु अभिनय का शौक उन्हें मुंबई ले गया जहां लंबे संघर्ष के बाद उन्होंने अपना स्थान बनाया। आजकल वे मुंबई के मड आईलैंड में रहते हैं और अपने ढंग के अनोखे इंसान हैं। अमेरिका में बॉक्सिंग पर "राॅकी श्रंखला' बनी है।

बॉक्सिंग एक निर्मम खेल है और दमखम की अंतिम परीक्षा की तरह है। हर द्वंद्व में अनेक प्रहार विजेता भी सहता है और कोई एक प्रहार निर्णायक होता है। इसमें भी फेन्सिंग अर्थात तलवारबाजी की चपलता आवश्यक है। यह द्वंद्व शरीर के साथ मष्तिष्क के स्तर पर भी लड़ा जाता है और दोनों जगह मजबूती तथा अापसी सामंजस्य आवश्यक है। हर प्रहार पर शरीर के भीतर की चोट को कैमरा पकड़ ले तो यह दर्द का द्वंद्व हो जाता है और दर्द सहने की क्षमता पर विजय निर्भर करती है। महिला का बॉक्सिंग में प्रवेश होना ही एक घटना है। वे तो धरती की तरह दर्द सह सकती हैं। तमाम औरतें जीवन के रिंग में लगातार प्रहार सहती हैं और जब एक बार मारती हैं तो वह निर्णायक चोट होती है।