जीवन के सबसे बडी ज़रूरत-रोटी / गोवर्धन यादव
एक दिन मैं अपनी स्कुटर सुधरवाने के लिये एक गैराज में बैठा था, वहाँ आठ-दस साल का एक लडका हेल्पर के रूप में काम कर रहा था, शायद वह नया-नया लगा था, मैकेनिक ने बगैर उसकी तरफ़ देखे 19-20 का पाना माँगा, लड्के ने एक पाना उठाया और उसके हाथ में पकडा दिया, वह पाना उस नम्बर का ना होकर कोई दूसरे ही नम्बर का था, सही पाना न पाकर उस मैकेनिक को क्रोध आ गया और उसने गंदी गालियाँ बकते हुये उसके गाल पर कस कर एक झापड मार दिया, लडके की आँख छलछला आयी,
थोडी देर बाद वह मिस्त्री किसी आवश्यक कार्य से बाहर गया, मैने जिग्यासावश उस लड्के से पूछा:-मिस्त्री तुम्हारा कौन लगता है, और कितनी तन्खाह देता है,
लडका थोडी देर तो चुप रहा, फ़िर हलक को थूक से गिला करते हुये उसने कहा:-रिश्ते में तॊ कोई लगता नहीं है, खाने को दो जून की रोटियाँ देता है,
मैने आश्च्रर्य से पूछा '-केवल रोटियाँ, और कुछ नहीं,
उस लडके ने बडी मासुमियत से जबाब दिया" साहबजी, जिंदा रहने के लिये रोटियाँ ही काफ़ी है,
छोटी-सी उम्र में उस लडके ने श्रम के मुल्य को समझ लिया था।