जीवन कोई फॉर्मूला नहीं है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 मार्च 2016
जापान में बनी फिल्म 'लाइक फादर लाइक सन,' राकेश मित्तल द्वारा संचालित सार्थक फिल्मों के प्रदर्शन वाली संस्था में दिखाई गई। इस तरह की संस्थाएं कुछ शहरों में सक्रिय रही हैं और इस आंदोलन का प्रारंभ भी सत्यजीत राय से जुड़ा है। सार्थक सिनेमा के दर्शक हर शहर और कस्बे में हैं परंतु उनका कोई अखिल भारतीय संगठन नहीं है। दरअसल, दूरदर्शन पर सार्थक फिल्मों का प्रदर्शन लंबे समय से जारी है और आज भी दूरदर्शन की पहुंच किसी भी सैटेलाइट चैनल से बहुत अधिक है। यह एक ऐसा सरकारी पर्याय है, जिसका प्रबंधन इसकी व्यापक पहुंच से अपरिचित है और इसका दोहन ही नहीं हुआ है। दूरदर्शन आज भी विराट संभावना है। उसके खजाने में अनेक मूल्यवान रत्न है जैसे श्याम बेनेगल का सीरियल 'भारत एक खोज।'
जापानी फिल्म में अमीर और गरीब परिवारों के पुत्र एक-दूसरे के परिवार में पल रहे हैं और इसी विचार से प्रेरित फिल्म थीं राज कपूर और मेहमूद अभिनीत 'परवरिश' जिसका दत्ताराम द्वारा बनाया गीत 'आंसू भरी हैं जीवन की राहें' आज भी लोकप्रिय है। लालन-पालन के महत्व पर रवींद्रनात टैगोर का उपन्यास 'गोरा' महान रचना है। ख्वाजा अहमद अब्बास का उपन्यास 'इन्कलाब' भी इसी थीम को रेखांकित करता है। ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी 'आवारा' का भी केंद्रीय विचार यही है। 'आवारा' में प्रस्तुत विचार को ही उलटा करके रणधीर कपूर ने 'धरम-करम' बनाई थी। जीन्स से अधिक शक्तिशाली पालन-पोषण होता है।
'धरम-करम' में गायक बेटे को अपराधी अपना बेटा समझकर पालता है और अपराधी के पुत्र का लालन-पालन गायक के घर होता है परंतु इस फिल्म में 'आवारा' में प्रस्तुत विचार को उलटा कर दिया गया है। गायक के परिवार का वातावरण भी जन्म से जुड़े अवगुणों को बदल नहीं पाता। जहां 'आवारा' की थीम प्रगतिशील थी, वहां 'धरम-करम' में दिखाया गया है कि लालन-पालन से अधिक महत्वपूर्ण जीन्स है। इस तरह एक ही बैनर से प्रगतिशील फिल्म आई है और दूसरी प्रतिक्रियावादी है। यह अंतर पिता और पुत्र का भी है। उस दौर में मनमोहन देसाई का अमिताभ बच्चन अभिनीत सिनेमा अत्यंत लोकप्रिय था और रणधीर कपूर ने उसी से प्रभावित 'धरम-करम' बनाई थी। राज कपूर की निर्माण संस्था में पहली बार एक्शन फिल्म बनी थी। 'आवारा' कालजयी फिल्म है और दुनिया के अनेक देशों में सफलता से प्रदर्शित हुई है। 'धरम-करम' बमुश्किल अपनी लागत ही निकाल पाई थी। इसमें रणधीर कपूर का दोष महज इतना है कि उन्होंने लोकप्रिय धारा के साथ बहना पसंद किया।
सच्चाई तो यह है कि लोकप्रियता को कभी भी अपना आदर्श नहीं बनाया जा सकता। लोकप्रियता की लहरों के विपरीत तैरने में डूबने का खतरा है। किंतु डूबते समय भी जो उंगलियां पानी के बाहर रहती हैं, वे इतिहास लिखती हैं। इस तरह डूब जाने में भी सार्थकता है बशर्ते आपका पूरा विश्वास उसमें हो। किसी आदर्श के लिए मरना भी निरर्थक जीवन से बेहतर है, भले ही वह लंबा क्यों न हो। लीक पर चलना सुरक्षित हो सकता है, परंतु लीक छोड़ने से ही आप कुछ नया कर पाते हैं। अपने जीवन को फॉर्मूला बनने से बचाने के प्रयास करना चाहिए, भले ही उसमें सफलता पाना कठिन हो।
आज के समाज में लोकप्रियता और सफलता के प्रति लोगों का आग्रह इतना प्रबल है कि इससे बच पाना अत्यंत कठिन हो गया है। राजनीति का क्षेत्र सबसे अधिक फॉर्मूला ग्रस्त है, जबकि इसी क्षेत्र में नई लहर की सबसे अधिक आवश्यकता है। किसी भी नेता के मुंह खोलने से पहले जनता जान जाती है कि वह क्या बोलने वाला है। आज इन बातों का इतना शोर है कि क्षणिक-सी खामोशी के लिए हम तरसते हैं। वाचालता को बुद्धिमानी समझा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। पिता-पुत्र के रिश्ते पर उपनिषद में एक श्लोक है। इसका अर्थ है कि पिता अौर पुत्र का रिश्ता जैसे तीर और कमान। जीवन के धनुष में पुत्र का तीर उसी समय निशाने पर लगता है, जब पिता और पुत्र में यथेष्ट तनाव हो।