जीवन में संयोजन और सामूहिक सम्मोहन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 मई 2019
एलिया कज़ान के उपन्यास 'द अरेंजमेंट' पर फिल्म भी बनी है। इसके पूर्व एलिया कज़ान 'ए स्ट्रीट कार नेम्ड डिज़ायर' नामक मार्लन ब्रेन्डो अभिनीत सफल एवं चर्चित फिल्म बना चुके थे। 'अरेंजमेंट' का कथासार यह है कि एक सफल समृद्ध व्यक्ति कार दुर्घटना में घायल हो जाता है। अस्पताल में अपनी नीम बेहोशी में वह डॉक्टर को यह कहते सुनता है कि कभी-कभी इस तरह की दुर्घटना से मनुष्य की याददाश्त गुम हो जाती है। नायक सोचता है कि उसकी याददाश्त तो कायम है परंतु कुछ समय के लिए याददाश्त गुम हो जाने का स्वांग रचने पर बड़ा मनोरंजन हो सकता है।
वह याददाश्त गुम हो जाने का अभिनय करता है। यह स्वांग उसे बहुत महंगा पड़ता है। उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाती है। उसे ज्ञात होता है कि जैसे उसने अपनी पत्नी से छिपाकर एक मेहबूबा रखी थी, वैसे ही उसकी पत्नी ने भी एक अदद प्रेमी पाल रखा था। उसकी अपनी मेहबूबा भी उसके वफादार बॉडीगार्ड से प्रेम करती है। उसके दफ्तर में सभी लोग अवसर मिलने पर घपले करते हैं। वह स्वयं को नितांत असहाय और तन्हा पाता है। उसके तथाकथित संयोजन की पोल खुल जाती है। कमोबेश वह 'प्यासा' के नायक की तरह महसूस करता है कि 'ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है'। या कैफी आज़मी रचित चेतन आनंद की 'हीर रांझा' के नायक की तरह यूं कहें 'ये दुनिया मेरे काम की नहीं'।
जीवन में संयोजन (अरेंजमेंट) का बड़ा महत्व है। इसका भ्रम और सम्मोहन आपको बिखरने नहीं देता।
हम सब एक अफसाने के सहारे अपना-अपना यथार्थ ढो रहे हैं। बादल सरकार का नाटक 'बाकी इतिहास' भी इसी तरह का संकेत देता है। हमारे अवचेतन में रचे जलसाघर में निरंतर एक जलसा जारी रहता है। जीने के लिए हम बार-बार कतरा-कतरा मरने के लिए अभिशप्त हैं। इरशाद कामिल की पंक्तियां हैं, 'मैं जूतों पर पॉलिश नहीं करता फटे जूते पर पॉलिश का काम सरकारी है। मैं तसमे (फीते) कसके बांधने की कवायद सीख रहा हूं, तलवे पर नया नक्शा उलीक रहा हूं। सुविधा नहीं संयोजन है, जूते का एक प्रयोजन है...'। ज्ञातव्य है कि इरशाद कामिल ने इम्तियाज अली की 'रॉकस्टार' के गीत लिखे थे और सलमान अभिनीत 'सुल्तान' में उनका गीत 'जग घूमिया, थारे जैसा न कोई' अत्यंत लोकप्रिय हुआ था। विगत दो वर्षों से वे 'सांझी' नामक फिल्म के लेखन व निर्देशन में व्यस्त रहे हैं। अब फिल्म के प्रदर्शन का जुगाड़ कर रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि इरशाद कामिल ने हिंदी साहित्य में एमए किया है। बंधनमुक्त प्रतिभाएं दसों दिशाओं से उजागर होती हैं। सक्षम, सेहतमंद, सृजनशील व्यक्ति को भी कभी न कभी नीमबेहोशी की आवश्यकता होती है। उसके अवचेतन में इसके लिए बेकरारी होती है। हमें लगता है कि शल्य क्रिया नहीं कराते हुए भी एनेस्थेशिया लेना चाहिए। एम्नेशिया (याददाश्त गुम हो जाना) और एनेस्थेशिया भी जीवन की आवश्यकताएं हैं। रोटी, कपड़ा, मकान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मूलभूत अधिकार और आवश्यकताएं हैं। साहित्यकार लिऑन दादेत ने कहा है 'एक आदमी को रोजगार की तलाश होती है, रोटी, कपड़ा और मकान उसकी आवश्यकताएं हैं। उसकी एक और जरूरत आत्महत्या भी है, आत्महत्या का अधिकार भी वह चाहता है।' मनुष्य समाज द्वारा निर्मित है इसलिए कहें कि व्यक्ति की आत्महत्या समाज की भी आवश्यकता है। यह आत्म परीक्षण से भी अधिक आवश्यक है। कभी-कभी सामूहिक आत्महत्या की घटनाएं भी घटित हुई हैं। सामूहिक सम्मोहन के लिए महान किताबों के गलत अनुवाद जिम्मेदार हैं।
कभी-कभी डॉक्टर महसूस करता है कि रोग काल्पनिक है, क्योंकि प्रयोगशाला से रक्त व एमआरआई रिपोर्ट में रोग के लक्षण नहीं मिले परंतु इलाज तो करना ही है। अत: वह प्लेसेबो का प्रयोग करता है। खाली कैप्सूल में शकर भरी होती है परंतु रोगी से कहा जाता है कि यह उसके रोग का सटीक उपचार है। 'रोगी' सचमुच सेहतमंद हो जाता है। यथा रोग तथा उपचार। यह पूरी सृष्टि ही एक विराट संयोजन है। हम सब भगवान विष्णु द्वारा देखे गए स्वप्न के पात्र हैं। मंच पर आगमन से अधिक महत्व पात्र के एक्जिट का है। पटाक्षेप सटीक होना चाहिए।