जीवन वाक्य में मृत्यु अर्ध-विराम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 05 अप्रैल 2021
एक व्यक्ति के दाह संस्कार के लिए औसतन तीन मन लकड़ी लगती है। कुछ क्रिश्चियन भी दाह संस्कार करते हैं। खाकसार के मुंबई में पड़ोसी का भी दाह संस्कार किया गया था। उनके समाज का बनाया गया दाह संस्कार घर भी है। इस्लाम को मानने वाले मृत व्यक्ति को सुपुर्द-ए-ख़ाक करते हैं। क्रिश्चियन कब्रगाह होते हैं। ताबूत भी लकड़ी का बना होता है। सारांश यह है कि मनुष्य की सारी यात्रा में लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। दुर्घटना में पैर कटने के बाद लकड़ी की बनी बैसाखियों का इस्तेमाल होता है। क्या मृतकों की अंतिम क्रिया, जगत समाप्त करने में शामिल है। इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम की संख्या अत्यंत कम है। प्राय: बिजली का प्रवाह थम जाता है।
नेशनल ग्रिड में लोड शिफ्टिंग की जाती है। यह प्रक्रिया का हिस्सा है। शवदाह के समय बत्ती गुल होने से आधे हिस्से का ही जलना त्रासद हो सकता है। गौरतलब है कि विदेशों में बिजली प्रवाह में बाधा, वर्षों में कभी-कभी होती है। इस विषय से प्रेरित हॉलीवुड में बनी हास्य फिल्म का नाम था, ‘व्हेयर वर यू व्हेन द लाइट्स वेंट आउट।’ ऊर्जा की कमी के दौर में तमाशा क्रिकेट रात में भी खेला जाता है। यह तमाशा 9 अप्रैल से प्रारंभ होने जा रहा है। एक क्रिकेट स्टेडियम में कार्य करने वाले सारे लोग और अभ्यास करने के लिए गया एक खिलाड़ी भी संक्रमित हो गया। तमाशा क्रिकेट की संचालक कॉरपोरेट और टेलीविजन पर इसे दिखाने के अधिकार खरीदने वाले शक्तिशाली हैं और वे अपना लाभ कभी हाथ से जाने नहीं देंगे। इस गोरखधंधे में नेता अपना हिस्सा लेता है। कुंदन शाह की व्यंग्य फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ में ताबूत केंद्रित प्रसंग कभी भुलाया नहीं जा सकता। कब्रगाह से जुड़ा प्रसंग अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘आखिरी रास्ता’ में पिता-पुत्र पात्रों का द्वंद्व भी यादगार रहा। फिल्म ‘शमिताभ’ में भी कुछ ऐसा होता है। शेक्सपियर के नाटक में कब्र बनाने के लिए वेतन पाने वाले कर्मचारियों के आपसी वार्तालाप में मृत्यु से जुड़ी बेहद गंभीर बातों का विवरण है। इस विषय से जुड़ी फिल्म ‘मसान’ भी बहुत सराही गई है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ में नायिका अपनी अस्मत बचाने के लिए विश्राम घाट में शरण लेती है। वहां का कर्मचारी पूछता है कि क्या इस जगह से डर नहीं लगता? वह उत्तर देती है कि उसे डर जिंदा लोगों से लगता है, मुर्दों से कोई भय नहीं है।
कोरोना महामारी ने कई तरह के संकट सामने लाए हैं। हर जगह व्यवस्था के प्रयासों के साथ सामाजिक संस्थाएं भी सहयोग दे रही हैं। अस्पताल में कुछ मरीज अपने इलाज का खर्चा दाखिले के समय ही दे देते हैं। मरीज को बचाने के भरपूर प्रयासों के बावजूद उसकी मृत्यु हो जाती है। सगे-संबंधी अपने अपने संघर्ष में लगे हैं। अस्पताल संचालक को ही दाह-संस्कार का काम करना पड़ता है। लकड़ी का गोदाम बनाया गया। व्यवस्था ने कुछ नए स्थानों को दाह संस्कार स्थल बनाए जाने की इजाजत दे दी है। कहीं-कहीं एकाधिक चिताओं पर सामूहिक रूप से दाह संस्कार हो रहा है। खाकसार की फिल्म ‘शायद’ में अवैध नकली शराब पीने के कारण कई लोगों की मृत्यु हुई और अनेक चिताएं एक ही समय में सक्रिय की गईं। सीन के लिए क्षिप्रा के तट पर अनेक स्थानों पर नकली चिताएं जलाकर फिल्मांकन किया गया। इसी सीन में दुष्यंत कुमार के लिखे गीत का इस्तेमाल किया गया, ‘वह देखो, उस तरफ उजाला है, जिस तरफ रोशनी नहीं जाती। कवि का संदर्भ राजनीति और नियम रचने वाली संस्थाओं की ओर था। ‘कबीर, चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच, साबुत बचा न कोय।’ गौरतलब है कि चिता से उठता धुआं, आकाश में जाकर बादलों में प्रवेश करता है। बरसात होते ही वह धरती पर वापस आ जाता है। समय चक्र, जन्म-मृत्यु, चक्र घूम रहे हैं।