जुआरी निर्माताओं का हश्र / जयप्रकाश चौकसे
जुआरी निर्माताओं का हश्र
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2009
फिल्म उद्योग की पत्रिका ‘इंफोरमेशन’ ने लिखा है कि 38 करोड रूपए की लागत वाली अक्षय कुमार अभिनीत और नागेश कुकनूर निर्देशित फिल्म ‘8 बाई 10 तस्वीर’ को देखने प्रारंभिक भीड भी नहीं जुटी, जिसके लिए सितारे को मोटी रकम का मेहनताना दिया जाता है। बतातो हैं कि फिल्म में कथित तौर पर अक्षय कुमार ने अपने पहले से तयशुदा पारिश्रामिक में इजाफे की मांग की, जिससे अधूरी फिल्म के निर्माता को स्वीकार करना पडा। नतीजतन इस फिल्म के लिए अक्षय कुमार को 20 करोड रूपए अधिक मेहनताना मिला। इस मोटी रकम ने फिल्म का बजट बढाया और अब 90 प्रतिशत घाटे की यह फिल्म अर्थशास्त्र के भयावह पक्ष को उजागर करती है।
‘चांदनी चौक टू चाईना’ के बाद अक्षय कुमार की यह दूसरी विफलता है। ज्ञातव्य है कि उनकी तथाकथित सफल फिल्म ‘सिंह इज किंग’ से भी अनेक वितरकों और पूंजी निवेशकों को भारी घाटा हुआ था। यह स्वयंभू बॉक्स ऑफिस किंग मनोरंजन के ताश के पत्तों में चिडी की दूर्री से अधिक कुछ नहीं है। अपने इस बूरे कालखंड में धन के लालच में इस नायक ने फैशन शो में अपनी जींस का बटन अपनी पत्नी से खुलवाया। अब उनके खिलाफ सार्वजनिक स्थान पर अभद्रता का मुकदमा कायम हो चुका है।
आज फिल्म उद्योग ढाई प्रतिशत लाभांश के लिए मल्टीप्लैक्स से लड रहा है और सितारों को करोडों रूपए देकर घाटा सह रहा है। अनेक मल्टीप्लैक्स मंहगी टिकट दर और आय के अन्य स्त्रोतों के बाद भी घाटे में चल रहे हैं, क्योंकि उन्होनें अपनी खरीदी हुई जमीन पर इमारत नहीं खडी की है और लाखों रूपए प्रतिमाह का किराया भर रहे हैं। उन्हें वातानुकूलित रख-रखाव के साथ ही जरूरत से ज्यादा कर्मचारियों का खर्च भी भारी पड रहा है। दस करोड की लागत से भव्य तामझाम लगाने वाला उद्योग पांच रूपए की चीज पन्द्रह में नहीं बेचेगा, तो कैसे खेल में जमा रहेगा। दरअसल फिल्म उद्योग के तीनों पक्ष-निर्माण, वितरण और प्रदर्शन के अतिरेक के शिकार हैं और व्यवसाय के प्रथम सिद्धांत किफायत को भूल चुके हैं।
निर्माण पक्ष अपने निर्देशक की क्षमता और ट्रेक रेकार्ड को अनदेखा करके सिर्फ इसलिए धन लगाता है कि सितारे ने उस निर्देशक के साथ काम करना स्वीकार किया है। नागेश कुकनूर ने अल्प बचत की ‘हैदराबाद ब्लूज’, ‘रॉकफोर्ड’ और ‘तीन दीवारें’ बनाई थीं। उनकी ‘इकबाल’ और ‘डोर’ फिल्म को खूब प्रशंसा प्राप्त हुई और ये बेहतर फिल्में थीं, परन्तु इनके निर्माता को कोई लाभ नहीं मिला। उनकी ‘बांबे टू बैंकाक’ अत्यंत फूहड फिल्म थी और भारी घाटा दे गई।
इस ट्रेक रेकार्ड वाले फिल्मकार के साथ आप 40 करोड रूपए की फिल्म कैसे बना सकते हैं। इसी तरह विशाल भारद्वाज की ‘मकडी’ और ‘मकबूल’ छोटे बजट की फिल्में थीं, जिन्होनें कोई मुनाफा नहीं दिया। उन्हें सितारा जडित ‘ओमकारा’ दी गई और वितरकों ने भारी घाटा सहा। रणजी ट्रोफी के साधारण खिलाडी को टेस्ट में खिलाने पर यही हश्र होता है। मल्टीप्लैक्स के दौर में उद्योग मल्टीपल गलतियां कर रहा है और मंदी के दौर से जूझने के बदले एक-दूसरे से टकरा रहा है। मनोरंजन को महाभारत बनाने के बजाय उन्हें महाभारत से मंदी के खिलाफ लडने की शिक्षा लेनी चाहिए।