जुए की जीत / सुकेश साहनी
राम सहाय दफ्तर से घर लौटे तो यशोदा काफी परेशान बैठी दिखाई दी।
"परेशान क्यों हो?" उन्होंने पूछ लिया।
"सनी अभी तक नहीं आया है," यशोदा ने गुस्से में कहा, "कहीं दोस्तों के साथ ताश खेल रहा होगा। आपने उसे बहुत सिर चढ़ा रखा है।"
"गुस्सा क्यों होती हो? मैंने उसे केवल दिवाली वाले दिन के लिए इजाजत दी थी, न कि रोज के लिए."
"उसी दिन से उसे जुए की लत पड़ गई है। पढ़ना न लिखना, जब देखो ताश ही ताश। आज तो हद ही हो गई-मुझसे सौ रुपए माँग रहा था। मैंने नहीं दिए तो बोेला-पापा से ले लूँगा। कुछ कीजिए, अब तो पानी सिर से निकला जा रहा है।"
ु राम सहाय के चेहरे पर भी चिन्ता की रेखाएँ दिखाई देेने लगीं।
"तुम चिंता मत करो," उन्होंने पत्नी को तसल्ली देते हुए कहा, "सनी एक समझदार लड़का है। उसे आने दो, मैं समझा दूँगा। मुझे विश्वास है-आज के बाद वह कभी जुआ नहीं खेलेगा।"
तभी-सनी दौड़ता हुआ भीतर आया।
"पापा, मुझे सौ रुपए दे दीजिए." आते ही उसने कहा।
"इतने रुपयों का क्या करोगे?" राम सहाय बहुत गम्भीर थे।
"मैं ताश खेलूँगा। सोहन और दिनेश भी अपने घर से सौ-सौ रुपए लेकर आए हैं," सनी ने बताया।
"ताश खेेलकर क्या होगा?"
"मैं जीतूँगा। मेरे पास ढेर सारे रुपए हो जाएँगे" सनी ने आत्मविश्वास के साथ कहा।
"अच्छा रुपए जीतकर क्या करोगे?" राम सहाय ने फिर पूछा।
"मैं आपके और मम्मी के लिए बहुत सारी चीजें खरीदकर लाऊँगा," सनी ने तपाक से कहा।
राम सहाय थोड़ी देर तक सोचते रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि भोेेले-भाले सनी को कैसे समझाए. तभी उन्हंंे एक तरकीब सूझी। उन्होंने सनी की आँखों में झाँकते हुए कहा, "मैं तुम्हें एक शर्त पर सौ रुपए दूँगा।"
"इन रुपयों से तुम उसी के साथ ताश खेेेलोगे जो कभी हारा न हो," उन्होंने अपनी शर्त बताई.
"बस, इतनी-सी बात!" खुश होते हुए सनी बोला, "मुझे मंजूर है। अब जल्दी सौ रुपए दीजिए. मेरे मित्र मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"
उन्होेंने सौ रुपए का नोट सनी को दे दिया। सनी खुशी से उछलता हुआ बाहर आ गया। अब यशोदा क होठों पर भी मुस्कान तैरने लगी थी।
सनी दौड़कर सुनील के पास गया और बोेला, " सोहन, तुम कभी हारे हो?
"मैं अक्सर हारता ही रहता हूँ," सोहन ने उत्तर दिया।
"मैं भी कभी जीत नहीं पाया," दिनेश बोला, "पर तुम यह सब क्यों पूछ रहे होे? तुम्हारी वजह से पहले ही काफी देर हो चुकी है। आओ, पत्ते बाँटते हैं।"
"नहीं, मैंने पापा को वचन दिया है, मैं उसी के साथ खेेलूँगा, जो कभी हारा न हो।"
"रमेश ताश का बड़ा खिलाड़ी है," दिलीप ने सुझाया, "चलो, उसके साथ खेेेलते है।"
रमेश के पास पहुँचकर उनके हाथ निराशा ही लगी। उसने ताश में अपनी दो-तीन बड़ी हार के बारे में तीनों को बताया। फिर वे मुहल्ले के दूसरे लड़कों के पास गए, पर उन्हें कोई भी ऐसा नहीं मिला जो कभी हारा न हो। कई घण्टों के प्रयास के बाद सनी थका-थका-सा घर लौटा आया।
"पापा, मुझे कोेई भी ऐसा नहीं मिला जो कभी हारा न हो। मैं किससे खेेेेेलता?" सनी ने अपने पिता को बताया।
"तुम एक भी ऐसा आदमी नहीं ढूँढ़ सके, जो कभी हारा न हो। ज़रा सोचो फिर तुम कैसे जीतीगे?" उनहोंने मुस्कराकर कहा।
सनी की नजरें झुक गई.
"बेटा, यह शर्त मैंने तुम्हें समझाने के लिए ही रखी थी। जुआ खेलना बुरी बात है। इसमें आदमी अपना सब कुछ हार जाता है," राम सहाय न समझाया। सनी ने सौ का नोट पिता को लौटा दिया, उनकी बात उसकी समझ में आ गई थी। उसने मन ही मन फिर कभी जुआ न खेेलने का निश्चय कर लिया।
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