जुगनू की चमक / कविता भट्ट
सुबह के समय चिड़ियों के मीठे सुरों के बीच सड़क के किनारे बैंक के बन्द शटर के सामने फर्श पर कम्बल में लेटे बूढ़े भिखिया के कानों में एक विनम्र स्वर गूँजा-“और बाबा कैसे हो?” आवाज हमेशा की तरह सतीश की थी।
“ठंड ज्यादा हो गई आजकल बाबू जी, लेकिन जैसे आप हमेशा पेटभर रोटी देते हो, उसी तरह किसी भले मानुष ने कम्बल दे दिया, यह सर्दी कट जाएगी, बस ठीक हूँ”- भिखिया ने काँपते स्वर में जवाब दिया।
सतीश ने सब्जी और अचार के साथ फॉइल पेपर में लिपटी हुई चार रोटियाँ, भिखिया को पकड़ा दीं।
भूखी निगाहों से पैकेट खोलकर वह रोटियों पर झपट पड़ा। जल्दी-जल्दी निवाले मुँह में डालते हुए और अँगुलियाँ चाटते हुए कहने लगा, “बाबूजी भगवान आपको लम्बी उम्र दे। बहुत अच्छी सब्जी बनी है। ---नाश्ते में कभी-कभी पूड़ी भी मिल जाए तो…”, थरथराते स्वर में भिखिया ने कहा।
सतीश की आँखों में एक विचित्र भाव आया, परन्तु मुस्कराते हुए बोला, “क्यों नहीं बाबा, अच्छा हुआ आपने कह दिया। किसी दिन पूड़ी भी खिलाऊँगा।”
यह कहकर सतीश घर की ओर मुड़कर धीमे-धीमे चलने लगा, भिखिया उसे जाते हुए प्रतीक्षा भरी निगाहों से देख रहा था…शायद अब किसी दिन पूड़ी भी खाने को मिलेगी! इस आशा में भिखिया की आँखों में जुगनू की तरह एक चमक उभर आई।
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