जुगलबन्दी / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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दिल्ली में जब भी कोई हिन्दी का नया-नया लेखक बनता है तो अपनी पहली पाण्डुलिपि उठाकर वह शाहदरा की ओर भागता नज़र आता है। दो-एक किताबें छपने के बाद वह अंसारी रोड के भूगोल से वाकिफ़ होने लगता है। लेखक भी किसिम-किसिम के। मसलन कुछ लेखक होते हैं और सिर्फ़ लेखक ही होते हैं, लेकिन कुछ होते तो पत्रकार हैं, लेखक बन जाते हैं। कुछ लेखक भी पत्रकार से लगने लगते हैं। ऐसे ही कुछ होते तो प्राध्यापक है, लेकिन दो-तीन साल पढ़ाने के बाद उन्हें लेखक बनने में देर नहीं लगती और कुछ होते तो लेखक ही हैं, पर दुर्भाग्यवश प्राध्यापक बन जाते हैं और उनके अन्दर बैठा लेखक बेचारा-सा लगने लगता है। ऐसे ही कुछ प्रकाशक भी लेखक हो जाते हैं और कुछ लेखक प्रकाशक बनकर लिखना छोड़ देते हैं। ऐसे में अनजाने में ही सही लेखन का बड़ा भला होता है। लेखकों की इतनी कोटियाँ, पर मनीष मोहन ऐसी किसी भी कोटि में फिट नहीं हो रहा था। हालाँकि एम.ए. करते ही मनीष मोहन को लेक्चरर की नौकरी मिल गयी थी, फिर भी लेखन की लत नहीं छूटी। कविता-कहानी लिखते रहने से ही उसे अपने अस्तित्व की सार्थकता का एहसास होता रहता था। पत्नी भी उसे अच्छी मिल गयी थी। लेखन के इलाके में उसकी थोड़ी-बहुत चर्चा भी होने लगी थी, पर अभी तक उसकी एक भी किताब छपकर नहीं आयी थी। उसे लगता था कि शाहदरा की गलियाँ उसे बुला रही हैं, उसने पाण्डुलिपि भी तैयार कर ली थी। चाहता तो वह किसी लेखक-मित्र के माध्यम से पाण्डुलिपि किसी प्रकाशक तक पहुँचा सकता था, लेकिन न जाने कौन सा बोध उसे ऐसा करने से रोक रहा था। वह दूसरों की किताबें छपकर आती देखता और अपने चेहरे को मुस्कान से सराबोर करके उन लेखकों को तपाक से बधाई देता। पर अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या का अजगर पसरा रहता, जिसे वह बड़ी सफाई से अन्दर ही छिपाए रखता। किताब की साज-सज्जा, कीमत वगैरह पर तुरन्त प्रशंसात्मक टिप्पणी करने की कला उसने सायास अर्जित कर ली थी, इसलिए कुछ लेखक उसे समीक्षक भी मानने लगे थे। मनीष खुद को कवि के रूप में ही देखना चाहता था और चाहता था कि वह प्रसाद, पन्त और बच्चन की तरह से एक प्रतिष्ठित कवि बने। इसी बीच उसे कहानी और फिर नाटक लिखने की लत भी पड़ गयी थी। उसे लगने लगा था कि उसमें एक सम्पूर्ण लेखक होने की पूरी-पूरी सम्भावनाएँ हैं। पर मात्र सम्भावनाओं से क्या होता है! सम्भावना अगर हक़ीक़त में तब्दील नहीं होती तो उस सम्भावना का अर्थ ही क्या है? सम्भावना से हक़ीक़त की ओर आने के बीच एक पुल था। प्रकाशक नाम का पुल। इसे तो पार करना ही था उसे। वह शाहदरा कई बार हो आया। दो-एक प्रकाशकों के यहाँ भी गया। उनकी प्रकाशित किताबें देखता, कुछ लाइब्रेरी के लिए खरीद भी लेता और इन्तज़ार करता कि कोई प्रकाशक उससे पूछे-‘इधर क्या लिखा है...कुछ हो तो हमें दीजिए’, पर ऐसा किसी ने नहीं कहा और वह झोले में जैसे पाण्डुलिपि डालकर ले जाता, वैसे ही लौटकर आ जाता है। यूँ मनीष की गिनती बड़बोले लोगों में होती थी, लेकिन एक दब्बूपन भी उसे दबोचे बैठा था। शायद अपने दब्बूपन को छिपाने के लिए ही उसने बड़बोलेपन का कवच धारण किया हुआ था।

किसी भी प्रकाशक से कोई टाँका फिट न होने के कारण वह विचलित अनुभव करने लगा था। धीरे-धीरे वह अपने ही खोल में सिमटता गया। गोष्ठियों में आना-जाना भी कम होने लगा और उसने एक दिन पाण्डुलिपियों को अलमारी में बन्द करके रख दिया। वह घर में ही मस्त हो गया। किताब पढ़ने की जगह उसे पड़ोस में ताश खेलना ज़्यादा पसन्द आने लगा। इस बहाने वह जवान होते लड़कों की संगत में रहता और उनके जीवन-मूल्यों की पड़ताल करता।

मनीष में एक आदत यह भी थी कि किसी भी काम में अपने को लम्बे समय तक व्यस्त नहीं रख पाता था। किताब और ताश के बीच उसके जीवन की धुरी घूमने लगी थी। लिखकर भला क्या होगा? कौन सी क्रान्ति आ जायेगी और कौन सा समाज सुधर जायेगा! उसे भी लिखकर क्या मिलने वाला है। न कोई आर्थिक लाभ, न यश। लिखना अपने-आप में ही टॉचर्र है। उसमें आनन्द कैसा! तरह-तरह के तर्क उसके मन में उठते थे। वह सचमुच नौकरी, पत्नी, पड़ोस और ताश में व्यस्त हो गया। वह भूलने लगा था कि कभी वह लिखा भी करता था।

मस्ती के दिन काटता हुआ मनीष एक दिन कॉलिज पहुँचा तो उसे उसका इन्तज़ार करता एक व्यक्ति मिला। मनीष नहीं जानता कि वह कौन है, लेकिन वह व्यक्ति मनीष को पहचानता था। मनीष के स्टॉफ रूम में प्रवेशकरते ही वह उसके पास पहुँचकर बोला-”मेरा नाम रूपसिंह महान है।” नाम सुनकर मनीष को लगा कि कोई महान लेखक उसके सामने है, लेकिन अगले ही पल उसने जब यह कहा कि वह एक ‘प्रकासक’ है और कुछ किताबें दिखाना चाहता है, तो उसे लगा जैस ‘प्रकासक’ ने उसके कानों पर हथौड़ों की तेज़ चोट कर दी हो। दूसरे ही क्षण उसके मस्तिष्क का दूसरा कोना सक्रिय हो गया-‘प्रकासक’ है तो क्या, किताबें तो छापता ही है, “दिखाऊँ?”, उसने पूछा।

मनीष को लगा कि ऊँट पहाड़ के नीचे आ गया है-”हाँ, हाँ।”

रूपसिंह ने फटाफट बड़ा-सा बैग खोला और मनीष के सामने किताबें फैलाने लगा। एक के बाद एक नायाब किताब। ऐसी नायाब कि मनीष ने एक भी किताब का आदेश नहीं दिया। उसे यह भी लग रहा था कि एक व्यक्ति इतना बोझ लादकर लाया है तो उसका कुछ न कुछ बिल तो बनवा ही देना चाहिए, लेकिन वह सार्वजनिक धन को व्यर्थ की किताबों पर क्यों खर्च करे! रूपसिंह के चेहरे पर मायूसी साफ तैर रही थी। “चाय लेंगे”, मनीष ने पूछा। रूपसिंह ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा-”शाम ढल रही है, वक़्त तो किसी और चीज़ का है।” मनीष थोड़ा असमंजित हो गया कि वह रूपसिंह की इस बेतक़्ल्लुफी का क्या जवाब दे! वह उसे पहली बार ही तो मिला था। फिर भी मनीष के होठों पर हल्का-सा स्मित फेल गया और उस पर बिना कोई टिप्पणी किये दो प्याला चाय मँगवा ली।

चाय पीते हुए भी कई बार औपचारिकता टूटने लगती है। पूरी तरह से ना भी टूटे तो उसमें अनौपचारिकता की सेंध तो लग ही जाती है। यही हुआ। रूपसिंह ने मेज़ पर फैली अस्वीकृत किताबों को एक लेखक की निगाह से देखा। मानो कि लेखक अपनी अस्वीकृत रचनाओं को देख-देखकर सम्पादकों को कोस रहा हो। उसने फिर हिम्मत की-”एक भी किताब पसन्द नहीं आयी?” “यह दोयम दर्जे के लेखकों की किताबें हैं, कोई तो दोयम दर्जे की भी नहीं हैं और प्रकाशक भी...पता नहीं कहाँ-कहाँ से पैदा हो रहे हैं। ईंट उठाओ तो प्रकाशक झाँकने लगता है...अब तो लेखक कम और प्रकाशक ज़्यादा हो रहे हैं” कहकर मनीष ने कई सालों से दबे आक्रोश का एक अंश मात्र ही निकाला था। उसका बस चलता तो कहता-”अरे चूतिए के पट्ठे परकासक, प्रकाशक बोलना तो सीख, फिर करना किसी लेखक से बात...चले आते हो दुनिया भर का कूड़ा उठा के।” “यह तो अपनी-अपनी पसन्द की बात है जी”, रूपसिंह कह रहा था। “मैं तो बाहर भी जाता हूँ, दिल्ली में तो अभी घूमना शुरू किया है...यह मुश्किल यहीं पर है, बाहर तो पन्द्रह-बीस परसेंट दो और जो चाहे, बेच लो...यह बड़े-बड़े परकासक, सभी यही करते हैं, हमारे पास नहीं हैं इतने पैसे एडवांस देने को तो थैला उठाए घूमते हैं...वरना कौन किस लेखक को कितना पढ़ता है, कितना जानता है, यह दिल्ली वालों को नहीं है पता।”

मनीष को उम्मीद नहीं थी कि रूपसिंह भी ऐसी तेज़ बात कर सकता है। उसके मन में रूपसिंह के बारे में बनी पहली धारणा बदलने लगी। उसने कनखियों से एक बार फिर किताबों की ओर देखा और कहा-”यहाँ तो ऐसी कोई उम्मीद करना नहीं...बाहर ऐसा होता है, तभी तो हो रहा है सारा बंटाधार...लेखक का, प्रकाशक का...अनाप-शनाप लेखन...अनाप-शनाप प्रकाशन और अनाप-शनाप कीमत...” कहकर उसने एक किताब उठाई। “यही देखो, तीन सौ रुपये...तीन सौ...मेरी समझ से इसकी कीमत सौ-सवा सौ से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए।”

“मेरा तन्तर अलग है मनीस जी, कभी आइए!”

“कहाँ है आपका प्रकाशन?”

“अंसारी रोड पर।”

जब मनीष ने यह सुना तो व्यवहार में थोड़ी और नरमी आ गयी और उसने न सिर्फ़ उसके ऑफिस में आने का वायदा किया, सात किताबें भी खरीद लीं।

देश की राजधानी दिल्ली। दिल्ली में अंसारी रोड सभी तरह की किताबों का एक बड़ा बाज़ार है। हिन्दी के प्रकाशकों की कोई कमी नहीं है यहाँ। रूपसिंह ने यूँ अपना प्रकाशन नेकचंद के साथ मिलकर कमला नगर में शुरू किया था। कुछ दिन के बाद पार्टनरशिप टूट गयी और वीणा प्रकाशन दो हिस्सों में बँट गया। वीणा प्रकाशन अपने मौलिक नाम से ही कमला नगर में काम करता रहा लेकिन रूपसिंह ने अभिनय प्रकाशन, शाहदरा की ही एक कॉलोनी सीलमपुर से शुरू कर दिया। रूपसिंह की शैक्षिक योग्यता? वह सिर्फ पहली जमात पास था। मेहनत और अनुभव से उसने हिन्दी और अंग्रेज़ी में ‘रूपसिंह’ लिखना सीख लिया था। थोड़ी और मेहनत करने के बाद उसने हिन्दी में लिखे किताबों के शीर्षक और नाम पढ़ने भी सीख लिए...थोड़ी और मेहनत की तो वह टूटे-फूटे ढंग से हिन्दी पढ़ना और लिखना भी सीख गया, लेकिन बड़ी मेहनत के बाद भी अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर करने से आगे नहीं बढ़ सका। उसका उच्चारण बाज़ारू और बोलने का लहज़ा ठेठ अपना ही था। उसके व्यवसाय के लोग उसे ‘गेट-क्रैशर’ कहते थे। इतनी कम शिक्षा और जानकारी के बावजूद वह कहीं भी जाकर अपना काम कर ही आता था। उसकी इसी क्षमता के कारण अभिनय प्रकाशन जल्दी ही जाना जाने लगा। मनीष मोहन को एक ऐसे प्रकाशक की तलाश थी, जो उससे किताब माँगकर छापे, जल्दी छापे और जो भी वह लिखे, वही छापे। सम्भवतः औरतों की तरह से एक छठी इन्द्रिय लेखक में भी होती है, जिससे वह सूँघ लेता है कि कौन प्रकाशक, कौन सम्पादक और कौन समीक्षक उसके काम आ सकता है। मनीष मोहन की भी छठी इन्द्रिय सक्रिय हो उठी थी।

एक दिन वह अभिनय प्रकाशन में जा ही धमका। अंसारी रोड की मुख्य सड़क पर ही एक बिल्डिंग की पहली मंज़िल पर अभिनय प्रकाशन का छोटा-सा ऑफिस था। यही कोई दस बाई बारह फुट का कमरा। चारों ओर किताबें, किताबों के एक रैक के साथ सटी हुई कुर्सी और मेज़। वहीं रूपसिंह विराजमान था। मनीष को देखते ही रूपसिंह उछलता हुआ-सा अपनी कुर्सी से उठा और बोला-”अरे मनीस जी! धन्य हुए हम, आइए, आइए, बैठिए...ओ मोहरे! पानी पिला।” मनीष रूपसिंह के सामने वाली कुर्सी सँभाली और किताबों पर नज़र फेरने लगा। मोहरे ने पानी ला दिया।

मनीष का पहला सवाल-”मोहरे, कुछ अजीब नाम है न! पहली बार सुना है।”

“नाम तो इसका लालचंद है, पर मेरा यह एक तेज़ मोहरा है।”

“घोड़ा है या प्यादा”, मनीष ने पूछा।

“है तो प्यादा ही, पर इसे घोड़ा या ऊँट बनते देर नहीं लगती।” रूपसिंह ने जवाब दिया।

“इधर से गुज़र रहा था, आपके प्रकाशन का बोर्ड देखा, सोचा मिलता चलूँ।” मनीष ने मिलने के लिए अपनी उत्सुकता को भरसक दबाते हुए कहा।

“अहोभाग्य” रूपसिंह को लग रहा था, यह मोहरा भी फिट हो रहा है और मनीष मोहन को लग रहा था कि पहली बार किसी प्रकाशक से जैनुइन तरीके से टाँका जुड़ रहा है।

सीन एक

वही दिन, वही जगह। समय दिन के दो बजे। रूपसिंह मनीष मोहन को किताबें दिखा रहा है। इसी बीच उसने चुपके से मोहरे को सौ का नोट देकर बाहर भेज दिया है। मनीष पूछता है-”कहाँ जा रहा है?” “अभी आता है”, रूपसिंह जवाब देता है। मनीष फिर पूछता है-”क्या मँगवा रहे हो”-फिर वही जवाब-”अभी आता है।” रूपसिंह बात जारी रखता है-”इतने दिनों में तो आये हो, थोड़ी देर तो बैठोगे”, मनीष को समझ में नहीं आ रहा कि वह क्या करे। देखी हुई किताबों को फिर से देखने लगता है, देखते-देखते पलटने लगता है। पलटते हुए ही-”अरे महान जी, इसमें तो भयानक ग़लतियाँ!”

“तो क्या हुआ?”

“इससे पाठक भ्रष्ट होगा।”

“अरे मनीस जी, इस किताब को पढ़ेगा कौन...पढ़ा-लिखा ही पढ़ेगा न, वह खुद ही समझ जायेगा कि फलां सबद यह नहीं, यह है, और अनपढ़ तो इसे पढ़ेगा ही नहीं, तब परेसानी क्या है!”

मनीष को रूपसिंह के तर्क में दम तो लगता है, लेकिन वह सहमत नहीं हो पाता-”पर पढ़े-लिखे भी तो पढ़ते हैं...और हमें भी अटपटा लगता है ऐसे पढ़ते हुए!”

“दो-चार बार में ठीक हो जायेगा, फिर भी आपकी किताब में ध्यान रखूँगा।”

मनीष ने तो कहा भी नहीं था कि वह उससे अपनी कोई किताब छपवाना चाहता है, फिर रूपसिंह ने ऐसा क्यों कहा। “साला अपनी किताबें पेलना चाहता है”-मन ही मन मनीष ने सोचा। कारण जो भी हो, मनीष से पहली बार किसी प्रकाशक ने ऐसा कहा था। उसके चेहरे पर आत्मगौरव का बोध झलकने लगता है। आत्मगौरव के बोध में नहाता मनीष मोहन। इसी बीच मोहरा प्रवेश करता है। उसके हाथों में बीयर की दो बोतलें हैं। वह बोतलें मेज़ पर रख देता है।

मनीष की आँखें हल्की सी विस्फारित।

रूपसिंह बोतलों को छूकर पूछता है-”ठण्डी हैं न?”

फिर खुद ही जवाब देता है-”हाँ हैं।”

“गिलास ला।”

मोहरा दो गिलास लाता है।

मनीष पूछता है-”महान जी, आपको कैसे पता कि मैं पी लेता हूँ।”

“अजी वो कैसा लेखक, जो पीता नहीं।”

“यह लेखक बनने की क्वालिफिकेशन है क्या?”

“सो मुझे नहीं मालूम, लेखक हो और पिए नहीं, यह हो ही नहीं सकता।”

मनीष मन ही मन सोचता है कि रूपसिंह के अपने कुछ निश्चित मूल्य हैं, स्थिर मान्यताएँ और तय हो चुके एटीट्यूड्स।

यों मनीष कभी-कभार पी लिया करता था, लेकिन इस वक़्त तो वह पीने के मूड में बिल्कुल नहीं था, बोला-”मैं दिन में पीता नहीं।”

“यह कौन सी दारू है मनीस जी, बीयर ही तो है...खाना खाया कि नहीं?”

“कुछ भूख नहीं लगी।”

“बस...बस एक-एक बीयर, भूख भी खूब लगेगी।” कहते हुए रूपसिंह बीयर खोलकर गिलासों में उँडेलने लगता है। गिलास मनीष को देकर टकराते हुए-”चीयर्स।”

“चीयर्स।”

इससे पहले सचमुच मनीष ने दिन में कभी नहीं पी थी, फिर भी वह रूपसिंह के आग्रह को टाल नहीं सका। ऐसा क्यों? ऐसा ही कुछ मंथन उसके मन में होने लगता है।

दूसरी बीयर खुलने के साथ ही मोहरा फिर दृश्य से बाहर हो जाता है और थोड़ी ही देर में दो बीयर और लिये हुए लौटता है।

मनीष-”अरे महान जी, यह क्या कर रहे हो?”

रूपसिंह-”एक-एक से क्या होगा।” कहते हुए वह फिर गिलास भर देता है।

दो-दो बीयर पीने के बाद मनीष और रूपसिंह में गहरी छनने लगती है।

दृश्य में एक और व्यक्ति का चेहरा दिखता है, रूपसिंह चिल्लाता हुआ-सा-”अबे ओ...ओ...इधर, इधर आ।” एक टूटा-फूटा सा व्यक्ति दृश्य के पूरे फ्रेम में आ जाता है।

रूपसिंह की आवाज़ में रोबीलापन आ गया-”इधर बैठ...इनसे मिल, यह हैं...यह हैं मनीस...मनीस मोहन...बहुत बड़े लेखक...क्या...!”

“बहुत बड़े लेखक”, आगन्तुक दोहराता है।

“और मनीस जी, यह जैन है...हमारा लैंड...” इसके आगे वह अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करने लगता है। मनीष को अब समझ में नहीं आ रहा कि वह क्या करे...वह उठकर जाना चाहता है...रूपसिंह उसे रोकते हुए कहता है-”बैठो, बैठो मनीस जी...यह जैन है न...वैसे अपना यार है...पिएगा एक गिलास...ओ मोहरे...दे एक गिलास इन भैन के जैन को...।” मोहरा वैसा ही करता है।

“जा दो बीयर और ला...” मोहरा जाने लगता है।

मनीष-”छोड़ो महान जी, काफी हो गयी, अब खाना खाते हैं।”

रूपसिंह-”खाना...हाँ...खाना...साला खाना...जा बे ले के आ...और दो पत्ते भल्ला...मटके वाले से बे...”

मोहरा खड़ा रहता है।

“जाता क्यों नहीं...ओ...अच्छा...यह ले”, अंटी से पैसे निकाल के देता है। मोहरा चला जाता है। “मनीस जी! यहाँ एक मटके वाला है...हाँ...चार बजे गये न...आ गया होगा, क्या बढ़िया भल्ले बनाता है...स्साला चार बजे आता है, सात बजे माल खत्म...हम साले चूतिया...सारा दिन रगड़ते रहते हैं...किस-किसकी नहीं सुनते...क्या-क्या नहीं करते...और वो भल्लेवाला तीन घण्टे में इतने पैसे कमा के ले जाता है, जितने हम तीन दिन में नहीं कमाते...।” रूपसिंह को बीयर चढ़ जाती है, उसके होंठ फैल जाते हैं...आँखें अन्दर को धँसने लगती हैं। वह बोलता जाता है-”हम परकासक समझते हैं, किताबें छापकर बड़ा महान काम कर रहे हैं...क्या...बोल भैन के जैन...।”

“महान काम!” जैन बोला।

“हाँ महान काम...इसलिए मैंने अपना नाम ही महान रख लिया...रूपसिंह महान...पर कुछ नहीं होता मनीस मोहन जी, कुछ नहीं होता...किताब कोई पढ़ता नहीं, खरीदता तो कोई है ही नहीं।”

“कौन खरीदेगा ऐसी भ्रष्ट किताबें।”

“भ्रस्ट...हाँ...ठीक कहा...भ्रस्ट, पर बड़े-बड़े परकासक तो सुद्ध छापते हैं...पूछो उनसे...रोते दिखते हैं...उनसे मैं अच्छा हूँ...जो छापता हूँ, बेच लेता हूँ...उनसे भी अच्छा और भल्ले वाले से भी अच्छा...इज़्ज़त है मेरी...” कहते हुए वह हँस पड़ता है।

मोहरा दो बीयर और ले आता है।

इसके बाद दृश्य बदल जाता है। वे दोनों ‘पिशोरी दा होटल’ में खाना खाते दिखते हैं। यह बात और है कि वे लंच की जगह डिनर खा रहे हैं।

सीन दो (वाचक)

श्रद्धानंद मार्ग का दिन और श्रद्धानंद मार्ग की रात-दोनों में उतना ही फर्क है जितना लाल और काले में। दिन में श्रद्धानंद मार्ग पर काला व्यापार धड़ल्ले से होता है। रात को वहाँ राग-रंग की महफ़िलें सज जाती हैं। राग भी ऐसा जिसके पीछे सिक्कों की खनक है। कुछ नहीं में से कुछ भी थोड़ा-सा पा लेने की ललक है। बहकते कदम, लड़खड़ाती ज़बानें, कुछ मस्ती के किस्से, कुछ लहलहाते गाने। एक अलग माहौल उभरता है, श्रद्धानंद मार्ग पर रात की गलियों में। सीढ़ियों पर चढ़ते, उतरते टकराते लोग कभी एक-दूसरे को परखते हुए तो कभी एक-दूसरे से बचते हुए निकल जाते हैं। गलियों के कोनों पर जवान होते लड़कों के तमाशबीनी झुण्ड कोठों से छनकर आती आवाज़ों को सुनते हैं और पुलिस के गश्ती दस्ते को देखते ही इधर-उधर होने लगते हैं।

ऐसे ही माहौल में एक स्कूटर रुकता है। उसमें से रूपसिंह महान और मनीष मोहन नीचे उतरते हैं। यह जानते हुए भी कि वे किस जगह पर हैं, मनीष पूछता है-”यह कहाँ ले आये?”

“लेखक हो...यह अनुभव नहीं लोगे तो लिखोगे क्या...मुझे देखो मैं तुम्हारे सामने एक पूरा उपन्यास खड़ा हूँ, जब चाहो लिख लो।” रूपसिंह आप से तुम पर आ गया था, पीने के बाद होने वाली मित्रता उन दोनों के बीच फैलने लगी थी याकि वे एक-दूसरे की ज़रूरत को पूरा करने का सामान बन रहे थे।

“आओ”, रूपसिंह का स्वर आदेशात्मक था। मनीष मोहन के ज़हन में अपने कॉलिज के दिन कौंध जाते हैं। वह जब कॉलिज में था तो एक टूर पर गया था, बहुत सारे लड़कों के साथ। पहला पढ़ाव था आगरा। आगरा में शाम ढलते ही लड़कों के एक दल की जिज्ञासा थी बसई जाकर गाना सुना जाये। दो-एक तो गंगा भी नहाना चहाते थे, पर मनीष जाना ज़रूर चाहता था। बसई बहुत दूर थी, सो एक दलाल के ज़रिए वे राजा की मंडी में एक पुराने कोठे पर पहुँच गये। एक कमरे में दस लड़कों को बिठा दिया गया। सभी के चेहरों से लग ही रहा था कि वे नये कबूतर हैं। थोड़ी ही देर में आदाब बजाते हुए साज़िंदे आ गये थे और उसके बाद बाई जी।

साज़िंदों ने जैसे ही संगीत छेड़ा...एक स्थूल बदन जवान लड़की छनछनाती हुई कमरे में आ गयी...सभी को आदाब करते हुए उसने गाना शुरू किया-”ले गयी दिल गुड़िया जापान की पागल मुझे कर दिया।” मनीष के लिये यह पहला अवसर था, जब उसने कोठे पर किसी लड़की को नाचते देखा था। वहीं उसने यह सीख लिया था कि कोठे पर नाचने वाली लड़की को पैसे किस तरह से दिये जाते हैं।

यह कौंध आते ही मनीष आश्वस्त हो जाता है कि उसके पास कोठे पर जाने का पर्याप्त अनुभव है और वह रूपसिंह से कह ही देता है-”यह कौन-सा नया अनुभव है।”

“अच्छा...!” रूपसिंह की अच्छा में लीलाभाव है। “वो करोगे” कहते हुए रूपसिंह अपनी आँखें मनीष पर गड़ा देता है। मनीष को फिर ग़ौर से देखता है।

“मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं।” मनीष बहाना बनाता है।

“धीरे, धीरे बोलो...ऐसे लोगों को यहीं से नीचे उतार दिया जाता है...पैसे की चिन्ता मत करो, लड़की पसन्द कर लो...वो देखो तीन वहाँ...इनमें से पसन्द न हो तो और बुलवाता हूँ।”

मनीष के माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आती हैं। साहस बटोरकर वह कह ही देता है-”नहीं...मैं सिर्फ गाना सुनूँगा।”

“कर लो बात...सुनो गाना...बैठो...मैं आता हूँ थोड़ी देर में।” और रूपसिंह छोटे कद की एक लड़की को बग़ल में दबाए एक कमरे के अन्दर चला जाता है। मनीष जब घर लौट रहा था तो सोचता रहा कि क्या वाकई उसने कोई नया अनुभव अर्जित किया। क्या इससे उसके लेखन में कोई फर्क़ आने वाला है और फिर रूपसिंह...वह इतना पैसा उस पर खर्च क्यों कर रहा है। इसीलिए न कि उसकी किताबें खरीद ली जायें...चाहे जैसी भी क्यों न हो...पर वह ऐसा नहीं करेगा...उसकी किताब भी तो वह छापना चाहता है। ऐसा और तो किसी प्रकाशक ने उसके साथ नहीं किया। क्या वह सभी के साथ यही करता है। उत्तर हाँ मैं है तो वह सचमुच दोयम-तोयम दर्जे का प्रकाशक है और नहीं तो...तो...क्या ऐसा तो नहीं कि वह खुद भी दोयम दर्जे का ही लेखक है। ‘एवरी राइटर गैट्स दि पब्लिशर, ही डिज़र्वस्” या फिर ‘एवरी पब्लिशर गैट्स दि राइटर ही डिज़र्वस...’। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।

इस कहानी का अगला सीन मनीष के घर पर ही घटता है। शाम का समय। मनीष घर में ही है कि कॉलबेल होती है। मनीष दरवाज़ा खोलता है, चौंक जाता है-”अरे महान जी, इधर...बिना बताए!”

“बस आपका फोन नम्बर लेना भूल गया था। आज मन किया आपसे मिलने का...चला आया...।” मनीष रूपसिंह को बिठाता है-”निशि पानी देना।” निशि पानी लाती है। “यह मेरी पत्नी...और यह बताया था न अभिनय प्रकाशन, वही रूपसिंह महान।” नमस्ते, नमस्ते होती है-”क्या लेंगे” मनीष का प्रश्न। रूपसिंह आँख मारकर-”वो तो है मेरे पास...निकालूँ”

“मेरे घर पर हो, ले आते हैं।”

“एक ही बात है न”, कहते हुए वह अपने ब्रीफकेस से अद्धा निकालता है। तीन-तीन पैग पीने के बाद-बातचीत में बड़ी आत्मीयता आ जाती है। आपसे तुम हो जाते हैं।

रूपसिंह बोल रहा है-”सोचा होगा तुमने, बिन-बुलाए, बिन-बताए...पर एक बात बोलूँ मनीस...क्या?”

मनीष कोई जवाब नहीं देता, रूपसिंह बोलता रहता है-”मुझे तुम अच्छे लगे यार, माँ-बाप तो चुन के नहीं मिलते, न भाई-बहन, पर दोस्त तो चुन के बनाएं जा सकते हैं न...क्या...बस वही किया है मैंने...क्यों निसि!” निशि ने रूपसिंह को पहली बार देखा है, उसे समझ में नहीं आ रहा क्या जवाब दे...खामोश ही रहती है...।

“खाना खाओगे, बनवाऊँ?”

“खाना...खाना...तो रोज़ खाते हैं...क्या...पर आज दिल बड़ा उदास है...।”

“क्या हुआ...?”

“बस भाई है न मेरा..उसे कुछ बनाना चाहता हूँ...पर नहीं...भाई...सब बकवास...उसे चुन भी नहीं सकते...मेरी कोई बहन नहीं है।” बहुत भावुक होते हुए वह एकाएक निशि की ओर देखने लगा-”निसि! तू बनेगी मेरी बहन!”

मनीष और निशि दोनों इस हमले से अवाक् रह जाते हैं। समझ नहीं पा रहे कि इस भावुक-सी स्थिति में उसे क्या जवाब दें।

“मैं राजपूत हूँ निसि। बहन का मतलब जानता हूँ...धर्म का रिस्ता बहुत बड़ा होता है निसि...पत्नी को भी धर्म-पत्नी कहा जाता है हिन्दुओं में...कितना बड़ा रिस्ता है वह...क्या! और धर्म-बहन...बोल बनेगी मेरी बहन...!” कहते हुए वह सचमुच रोने लग जाता है-”मुझे तेरे चेहरे में बहन दिखती है...मेरे बच्चों की बुआ...घर में कोई धागा तो होगा...ला...।” निशि मनीष की ओर देखती है। मनीष सोचता है कि इस भावुक स्थिति को इस वक्त रूपसिंह की बात मानकर ही निभाया जा सकता है। वह निशि को संकेत दे देता है और इस तरह से रूपसिंह और निशि में धर्म भाई-बहन का रिश्ता कायम हो जाता है।

अब मनीष क्या करे। एक तरफ उसका लेखक है, जो प्रकाशित होकर विस्तार चाहता है। रूपसिंह ने उसकी ही नहीं, निशि की किताबें भी छापीं। एक तरफ उसका धर्म-रिश्ता है, जिसे रूपसिंह जगह-जगह बताते नहीं थकता। एक तरफ उसका शिक्षक है जो किताबों की खरीद में रिश्ते को नहीं आने देना चाहता। एक तरफ उसका उस प्रकाशक से जुड़ना है जो बाज़ार में एक दोयम दर्जे के प्रकाशक के रूप में ही ख्यात है। रूपसिंह के मुद्दे साफ हैं, वह जानता है कि कोई लेखक कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसकी सीमाएँ हैं। वह रिश्ते का निर्वाह करता है, लेकिन बिज़नेस पर उसकी नज़र बराबर लगी रहती है, बल्कि मनीष मोहन से इस तरह रिश्ता गाँठकर उसे बिज़नेस और विश्वसनीयता दोनों मिलती है। निशि निर्द्वन्द्व भाव से सारी स्थिति को लेती है, जीती है। लगता है जैसे इन तीनों के बीच एक हित साधक सन्तुलन बना हुआ है।

रूपसिंह अब मनीष मोहन की ख़ातिरदारी वैसे ही करता है, जैसे कि एक आम भारतीय परिवार में एक साले द्वारा बहनोई की जाती है। इतना ही नहीं वह मनीष मोहन के मित्रों की ख़ातिरदारी में भी कोई कोर-कसर नहीं रखता। इसी प्रक्रिया में रूपसिंह का प्रकाशक प्रबल होता जाता है और मनीष का लेखक दबता चला जाता है। ऐसे में ही एक दिन महफिल जमी हुई थी। पीने के बाद रूपसिंह ही सबसे ज़्यादा बोलता। बात होते-होते लेखक की अस्मिता तक पहुँच गयी। रूपसिंह कह रहा था-”लेखक, मनीस, लेखक क्या होता है...मैं हूँ जो बनाता हूँ लेखक, जिसे कहो, उसे लेखक बना दूँ!”

“मोहरे को बना सकते हो लेखक!” मनीष ने बात टालने के मूड से मज़ाक किया।

“एक महीने बाद...एक महीने बाद देखना, मोहरा भी लेखक होगा...यह है न तुम्हारा मित्र...कोई बात नहीं...हाँ इसे भी...जिसे कहो मैं लेखक बना सकता हूँ।”

ऐसी ही गर्वोक्ति मनीष ने एक बार एक पत्रिका के सम्पादक के मुँह से भी सुनी थी-”अरे जिसे दस बार छापो, वही हो जाता है लेखक।” और मनीष ने उस सम्पादक को भी अपनी कोई रचना न भेजने का संकल्प मन ही मन ले लिया था, फिर आज वह चुप क्यों है!

क्यों? का धीरे-धीरे विस्तार होने लगा। उसे लगा कि यह ‘क्यों’ उसकी धमनियों में बहते रक्त के साथ बहने लगा। फिर! फिर भी वह खामोश क्यों है? बोलता क्यों नहीं? उसे अपने सामने चुनौती का बड़ा-सा पहाड़ खड़ा दिखने लगता है। कहीं वह भी दोयम दर्जे का लेखक तो नहीं। दोयम दर्जे का लेखक...दोयम दर्जे का प्रकाशक...यह भी एक जुगलबन्दी हो रही है। जुगलबन्दी से उभरता राग उसे बेसुरा-सा सुनाई देने लगता है...वह सामने गिलास में पड़ी शराब को रद्दी की टोकरी में उँडेलकर खिड़की से बाहर खुले आकाश की तरफ देखने लगता है।