जुग्गी चाचा की मोटरसाइकिल / मृदुला गर्ग

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उपन्यास ‘मिलजुल मन’ का एक अंश

पिताजी की माली हालत सुधरी तो उन्होंने वह घर, जिसमें हम तब तक, किराया दे कर रहते थे, खरीद लिया. गुल और मुझे उन्हीं दिनों साइकिल सवारी का शौक़ चर्राया. पिताजी से ख़रीद देने को कहा तो उन्होंने कहा पहले किराए की साइकिल पर चलाना सीख लो. ज़ाहिर है, जुग्गी चाचा से. सीख लोगी तो खरीद देंगे. पर चाचा ने सिखलाने से साफ़ इंकार कर दिया. उनका कहना था, लड़कियों का साइकिल चलाना, शोहदों को न्योता देना है. हमें बहुत गुस्सा आया. गुल बोली,

‘मेरी तमाम सहेलियाँ साइकिल चलाती हैं. उनके बड़े-बुज़ुर्ग, दादा-नाना भी उसमें कोई ऐब नहीं मानते. आप कहते हैं, आप हमारे चाचा नहीं, बड़े भाई हैं और हैं, बुड्ढों से गए-गुज़रे.’

‘अरे बुड्ढों को शोहदों का क्या इल्म?’

‘आप शोहदों के सरताज हैं!’

जुग्गी चाचा ज़रा बुरा नहीं माने. हा-हा कर हँस दिए. उनकी हँसी, उनके ऊँचे सुर की तरह, ठोस बब्रूवाहनी थी. फिर अपने तकियाकलामों में से एक दुहराया,

‘फ़िक़्र क्यों करती हो, मैं हूं न’

‘आप क्या करेंगे?’

‘देखती जाओ.’

वाक़ई उन्होंने दिखला दिया. एक ज़बर 600 सीसी की नॉर्टन मोटरसाइकिल खरीदी और बारी-बारी से मुझे और गुल को पीछे बिठला, दिल्ली की सैर करवाने लगे.

एक बार दोनों को साथ बिठला ले चले. आगे चालक सीट पर चाचा, पीछे की गद्दी पर, खूब घेरदार गरारा पहने, गुल. और दोनों के बीच घुसी-भिंची बैठी, मैं. न पूरी पिछली गद्दी पर, न पूरी अगली पर. आख़िर मैं पहना करती थी स्कर्ट-ब्लाउज़, तो कम से कम जगह में ठूंसी जा सकती थी. गरारा ठहरा, मुग़लिया शाही लिबास, जब तक फहरा कर न पहनो, क्या बात बने. जुग्गी चाचा को मेरे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने में एतराज़ क्यों नहीं था, तब मेरी समझ में नहीं आया था; बाद में आ गया था. यूँ कि चाचा की नज़र में, वह सैक्सी पोशाक नहीं थी या कहें कि शोहदों की दिलचस्पी की बायस नहीं हो सकती थी.

गुल का रेशमी नया-नकोर गरारा, उस पर खूब फ़ब रहा था, इतना कि वह ख़ुद अपने पर फ़िदा हो चली थी. सजीलेपन का तक़ाज़ा था कि जितना फहराया जा सके, गरारे को फहरा कर बैठा जाए. सड़क पर चलते नौजवानों की निगाहें उस पर टिक, आहें भर रही होंगी, इसमें न उसे शुबहा था, न मुझे. जुग्गी चाचा ने नई-नई मोटरसाइकिल चलानी सीखी थी, इसलिए पूरा ध्यान चलाने पर था, वरना उस दिन दो-चार शोहदे पिट कर रहते. रफ़्तार भी, मोटरसाइकिल की, 600 सीसी जैसी नहीं, बेहद धीमी थी.

पर वहाँ कुछ और ही हादसा घट गया. फहराते गरारे का एक सिरा पिछले पहिए में जा फँसा. उस के साथ मिलकर फिरकनी-सा घूमने लगा. घेर गरारे में पहुंचे में काफ़ी था, फिर भी 600 सीसी की मोटरसाइकिल से, कब तक लोहा लेता. आख़िर चीं बोल गया.

जब नेफ़े तक गरारा, पहिए की गिरफ़्त में आ रहा तो कटी पतंग की मानिंद, गुलमोहर को पिछली सीट से खींच, ज़मीन पर ला गिराया. गनीमत कि रफ़्तार धीमी थी. और गरारे की खींचतानी ने चाचा को और धीमा होने पर मजबूर कर दिया था.

जुग्गी चाचा बोले,‘हमने पहले ही कहा था, मोटरसाइकिल पर बैठने की तमीज़ है नहीं, साइकिल किस बूते पर चलाओगी.’

गुल को चेहरे के बल पट पड़ा देख, मेरा रोना निकल गया.

चाचा ने डाँट कर कहा,‘चुप रोंदू. गिरी वह है, तुम क्यों रो रही हो.’

मैं और ज़ोर से रो कर बोली,‘गुल मर गई!’

‘हैं! चाचा उसे उठाने को झुके, उससे पहले वह खुद उठ कर बोली,’ मरे तू! मेरा नया का नया गरारा फाड़ दिया, इस शैतान के चरखे ने!’

‘मुँह पर खरोंच भी है,‘मैंने कहा.

सुनते ही गुल ने बेतहाशा रोना शुरू कर दिया. बोली, ‘अब मेरा क्या होगा?’

‘होना क्या था? खरोंच ही है न. ऐसी क्या मुसीबत आ गई.’


‘मेरा चेहरा बिगड़ गया. मैं बाबाजी से शिक़ायत करूँगी. देख लेना, वे क्या ख़बर लेते हैं आपकी. कहेंगे, लड़की का मामला है, चेहरे पर दाग़ आ गया तो अच्छा वर कैसे मिलेगा?’

‘पागल हुई है क्या? लालाजी की छोड़, तू भाईसाहब से भी कुछ मत कहना, तुझे मेरी कसम. चल, तुझे हकीम कल्लन खाँ के पास ले चलता हूँ, क़रीब ही हैं. ऐसा मलहम देंगे कि भाभी-सी गोरी हो जाएगी.’

वाक़ई! तो पहले क्यों नहीं लिवा ले गए, बड़े भाईसहब!

‘पागल कौन है, आप ही तय कीजिए. फटा गरारा पहन कर कहीं भी कैसे जाऊँगी, बतलाएंगे?

‘या ख़ुदा!’ जुग्गी चाचा सिर पकड़ कर बैठ गए.

आज का ज़माना तो था नहीं दूकान-दूकान, सिली-सिलाई पोशाकें मिले. वह भी गरारा! खैर छोड़ो गरारा, मिल सकती थी तो सिर्फ़ साड़ी. उन्होंने तजवीज़ रखी कि वे एक साड़ी खरीद लाते हैं; गुल उसे कुर्ती और गरारे से ऊपर बाँध ले. पर गुल अपना जोकर बनाने को किसी हाल में तैयार नहीं हुई. कहा,‘यहाँ सड़क पर?’

चाचा फिर सिर थाम बैठ गए.

तब मैंने अक्ल लगा कर कहा कि क्यों न हम, एक साड़ी और एक लम्बी बरसाती ख़रीदें. बरसाती से ढक कर गुल को हकीम कल्लन खाँ के घर तक ले जाएँ. वहाँ उनके घर के भीतर, गुल चाहे तो साड़ी बाँध ले या खरोंच पर मलहम लगवा कर, बरसाती में ही घर पहुँच ले.

तजवीज़ सुन कर पहले तो गुल ने खींच कर एक घूंसा मेरी पीठ पर जमाया. पर जुग्गी चाचा के बार-बार मेरी अक्ल की दाद देने पर, बरसाती पहन कर हकीम जी के घर तक जाने को राज़ी हो गई. उस रज़ामंदी में कुछ हाथ लाचारी का था और कुछ लालच का कि कहीं, वाक़ई, हकीम कल्लन खाँ ऐसा मलहम दें, जिससे चेहरे का रंग, माँ जैसा हो रहे.

गरदन से टखनों तक मर्दाना बरसाती में लैस, गुल हकीमजी के यहां पहुँची तो उनकी सवालिया नज़र का, ऐसी खा जाने वाली निगाह से जवाब दिया कि उन्होंने सोचा, लड़की पर चुड़ैल आई हुई है. उसी को उतरवाने, उस अजब भेष में उनके पास लाया गया है. चाचा ने फटाफट पूरी कहानी बयान करके, उनका शक़ दूर किया पर गुल की खूंखार नज़रों के सामने, बेचारे, डर के मारे हँस भी न पाए. उठ कर भीतर गए और बेटी को साथ लिए लौटे. उसने एक सैकिंड में हमारी सारी उलझन सुलझा दी. बोली,‘‘इसमें क्या है. मेरा बुर्क़ा पहना कर बीबी को घर ले जाओ. बाद में जुग्गी भाई लौटा लाएँगे. घरवाले पूछेंगे तो कह दीजिएगा, कॉलेज के ड्रामे में अनारकली बनी हैं, उसी के रिहर्सल के लिए गई थीं.’’

हम सब उछल पड़े. यह सुझाव गुल को भी रास आया. जुग्गी चाचा बाग-बाग हो बोले,‘‘अब समझ में आया, रज़िया सुल्तान, सुल्तान क्योंकर बनी थीं.’’ बेटी ने तब एक और रज़ियाई हिकमत सुझाई, ‘जुग्गी भाई चाहें तो जब बुर्क़ा लौटाने लाएँ, इनका गरारा भी लेते आएँ, ऐसी रफ़ू करवा दूँगी कि कसीदाकारी-सी लगेगी.’

चाचा इतनी देर तक वाह-वाह करते रहे कि लगा, अगर वालिद न बैठे होते और पिटने का डर न होता तो, लड़की का हाथ चूम लेते. वह काम हम दोनों लड़कियों ने कर डाला.

पहली बार बुर्क़े की महता समझ में आई. एकदम ख़ुदाई चीज़ थी. लिबास का लिबास, ख्वाब का ख्वाब. गरारा पहन कर अपने को शहज़ादी महसूस करती गुल, बुर्क़ा पहन, सिर से पाँव तक अनारकली हो उठी. ऊपर से हकीम साहब ने करामाती मलहम भी पकड़ा दिया.

नतीजतन, गुल कुछ और अकड़-फैल कर बैठी और मुझे पहले से भी ज़्यादा घुट-पिस कर, मोटरसाईकिल पर सवार होना पड़ा. पर घर पहुँचने की जुग़त तो भिड़ी.


गुल और मैं, पिछले दरवाज़े से दाख़िल हो, सीधे पिछ़वाड़े की कोठरी में घुसे. पारबती के सिवा किसी ने नहीं देखा. उसकी 'हाय दैया' को अनारकली के झूठ से दबाया कि बुर्क़ा उतरते ही वह फिर, दैया री, उचार उठी. पर हम पहले से तैयार थीं. एक साथ उसके मुँह पर हाथ रख, आवाज़ घोटी और माँ के नाज़ुक दिल का हवाला देकर क़ौल भरवाया कि मोटरसाइकिल के पेड़ से टकराने की बाबत, किसी को कानोंकान ख़बर न होने देगी.

हकीम के पास गए. मलहम भी मिला. पर अफ़सोस गुल का रंग न निखरा. खरोंच से चेहरे पर निशान भी नहीं पड़ा. पर जुग्गी चाचा को बस में करने का हथियार ज़रूर हाथ लग गया. जब कोई काम करवाना हो, लड़की का मामला बना कर, बाबाजी से शिक़ायत करने की धमकी दे दो. बस शेर मेमना हो रहेगा. मज़े की बात यह थी कि जितना लोग दादा से ख़ौफ़ खाते थे, उतना ही दादी से बेखौफ़ थे. दादा की मौजूदा बीवी हमारी दादी, जुग्गी चाचा की सगी और पिताजी की सौतेली माँ थीं.

पर चूंकि हमने सगी माँ को कभी देखा न था; हमने क्या, हमारी माँ ने कभी न देखा था, इसलिए सिर्फ़ उन्हीं को माँ बतौर सास, और हम, बतौर दादी, पहचानते थे.

गुल से उनका अच्छा याराना था.

‘पागल हो क्या? दादी से याराना?’

एक नई नवेली बोल उठी थी. ‘वह सुनाओ न, जो मर्दों की महफ़िल में सुनाती हो. पर्दे के पीछे से हम भी सुना करती हैं न.’ बाईजी ने हाथ जोड़ दिए थे, ‘आपके सौ ख़ून माफ़ हैं हूज़ूर पर हमारी भी कोई इज़्ज़त है. हम उसको ग़ारत नहीं कर सकतीं.’


‘थोड़ी बहुत हूँ. पर इसमें मेरा क़सूर नहीं. दादी थीं ही ऐसी यारबाश चीज़. ऐसी फड़कती हुई गज़लें गाती थीं कि क्या बतलाऊँ! सुना था रंडियों के मौहल्ले के क़रीब रिहाइश थी, उनकी गायकी सुन सुन कर गज़ल गायकी में महारत हासिल कर ली थी. गले का सोज़ ख़ुदा का बख्शा हुआ था. गुल की शादी से में सजे रतजगे में उन्होंने वह-वह गज़लें गाई थीं कि अख्तरी बाई की याद ताज़ हो गई थी.

उसकी सहेलियों ने सोचा था, कोई मुजरेवाली बुलवाई होंगी. बेचारी अफ़सरज़ादियाँ जानती न थीं कि मुजरेवालियाँ, मर्दों की मजलिस में गाती थीं, औरतों के बीच नहीं. हमारी बड़ी चाची, एक बार गाँव की पुश्तैनी हवेली में, एक शादी के दौरान, ज़िद पर अड़ गई थीं कि मुजरेवाली का गाना सुकर रहेंगी. मनुहार करके बाईजी को ज़नानखाने में भेजा गया था. उन्होंने बेहद सुरीली आवाज़ में मीराबाई का भजन अदा किया था.

औरतें रूठ कर बोली थीं, यह क्या, कोई फड़कती हुई चीज़ सुनाइए न! बाईजी के कानों को हाथ लगा कर फ़रमाया था, हज़ूर यह तो रूहानी मसर्रत देने वाली गायकी; इससे ज़्यादा फड़कती चीज़ सुनाने की मेरी ताब नहीं है. एक नई नवेली बोल उठी थी. ‘वह सुनाओ न, जो मर्दों की महफ़िल में सुनाती हो. पर्दे के पीछे से हम भी सुना करती हैं न.’ बाईजी ने हाथ जोड़ दिए थे, ‘आपके सौ ख़ून माफ़ हैं हूज़ूर पर हमारी भी कोई इज़्ज़त है. हम उसको ग़ारत नहीं कर सकतीं.’

ख़ुदा के फ़ज़ल से दादीजी पर ऐसी कोई बंदिश नहीं थी. वे जो चाहे, जब चाहें गा सकती थीं, बशर्ते वहां ग़ैर मर्दे न हों. सो, उनकी गज़ल गायकी खाविंद के पहलू और औरतों की महफ़िलों तक महदूद थी. गुल की सहेलियों को जब पता चला कि गज़ल गाने वाली हमारी दादी हैं तो बोलती इस तरह बंद हुई थी कि मैं उन पर सवाया पड़ ली थी. नजरिया