जुड़हिया पीपल और जला दिल / सविता पाठक

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पत्तों ने नन्हें नन्हें हाथ फैलाये। पानी हाथ से सरक गया। कुछ पत्तों ने अंजुरियां बनाई अनगढ़ अंजुरियों में जल की कुछ बूंदे बची रहीं शेष ढलक गईं । सामने बंधें कपड़े सुखाने वाले तार पर चमकीले मोतियों की लड़ी गुंथ गई ऐसी मोती की लड़ी जो रह रह कर चूती जा रही थी। नाजुक गुड़हल के फूल जो दोपहर में सूरज के माथे का मुकुट बन कर तने रहते हैं आज भींग कर कपड़े की तरह सिकुड़ चुके थे। पीले कनेर जमीन पर लेट-लेट कर गोता लगा रहे थे। नन्ही गिलहरी अमरूद के कोटरे में छुपकर बारिश देख रही थी। ऐसे में वह खड़ा था विशाल छत्र छाया लिये। जी हां जुड़हिया पीपरवा ठंडक देता पीपल का पेड़। पट पट पटर पटर,झर झर का ऐसा शोर था पेड़ के नीचे कि मानो इसी के पत्तों में बादल उमड़घुमड़ कर रहें हों और इन्ही के किनारे बरस रहें हों । बगल में खड़े जामुन के ठेले पर ढेरों काले काले जामुन लदे हुए थे। उन सब के बीच में रखे देसी गुलाब के कुछ फूल। एक पल को लगा कि दो जामुन ने पर खोल लिया है और घूं घूं की आवाज के साथ फूलों को चूमने लगे हैं। काले भौरों का जोड़ा था जो बारिश में फूलों पर इतरा रहा था। सामने के घर के हाते में शमी का पेड़ भीग रहा था। रंग बिरंगी कलगी सफेद गुलाबी और ऊपर गहरा नीला। चमकीले काले रंग पर बूंदे सरक-सरक जा रहीं थीं हरे रंग की पत्तियां ऐसी कसीदाकारी कर रहीं थीं कि क्या बतायें। बारिश उनकी डिजाइन धोने पर अमादा थी वो थी कि हर बूंद के साथ कुछ नया रच रही थी। शमी के फूलों की कलगी जमीन पर टप – टप गिर रही थी। जैसे वो भी सारी अर्शफियां आज लूटा देगा।

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इन्ही सबमें मुग्ध खड़ी थी शुभ्रा। वह इस बारिश में सब धो देना चाहती थी यह स्मृति भी की वह अभी मुश्किल से आधा घंटे पहले यहाँ आयी है। यह भी कि उसको लेने कोई नहीं आया है। उसके पास घर का पता के नाम पर कुछ नाम है जिसमें से नम्बर गायब हैं। उसे खुद पर कोफ्त हुई कि फोन क्यों नहीं ठीक से संभाल सकी। वह भी स्वीच ऑफ हो गया । पूरी तरह से पानी में तरबतर वह ठीक से कुछ नहीं सोच पा रही थी। लेकिन खड़ी तो मैं जुड़हिया पीपल के नीचे हूं। वह सोचने लगी कि विनोद ने कहा था कि यहाँ पहुँच गयी तो समझो मेरे घर पहुँच गयी। उसके दिमाग में विनोद की आवाज गूंजने लगी ,वह कैसे जब उससे बात करता है तो इस जगह के बारे में बताता जाता है ।

जानती हो पहले ये पूरा इलाका गंगा का कछार था ! ऊंची-नीची जमीन पर पीपल के कई विशाल पेड़ थे..! हम तेज दुपहरी में गंगा के कछार में भटकते रहते थे लेकिन जब भी पांवों को ठंडक देनी हो या तो गंगा देती थीं या उनसे पहले रास्ते का ये पेड़.. शुभ्रा ख्यालों में ही विनोद की बात सुन रही थी फिर उसे एकाएक ख्याल आया कि फिलहाल वह बहुत ही अलग स्थिति में है। उसने भीतर ही भीतर खुद को कोसा-उफ! मेरे साथ यह क्यों होता है जब – जब ज्यादा ठीक से सोचना हो तो दिमाग की बैटरी गीली हो जाती है। फिलहाल विनोद ने इस पूरे इलाके के बारे में क्या बताया था ये छोड़कर ये सोचने की जरूरत है कि उसके घर कैसे जाऊं। शुभ्रा को जी किया कि खुद को दो थप्पड़ लगाये कि इतना रूमानी होना ठीक नहीं ठीक से सोचने का वक्त है। बारिश थम गई थी बारिश के थमते ही लोग वहां से जाने लगे। लोग तितर बितर नहीं हुए कि शुभ्रा का साहस भी हिलने लगा। बैठिये छोड़ देता हूं। एक रिक्शेवाले ने करीब आकर कहा। शुभ्रा को खटका लगा ये क्या बात करने का तरीका हुआ। बदतमीज कहीं का! उसने फट ही मन ही मन गाली दी। वैसे रिक्शेवाले ने ट्रेन में समोसे वाले की तरह दोअर्थी तरीके से नहीं पूछा था। ट्रेन में उसको जरा सी झपकी लगी तो समोसे वाला एकदम से नजदीक आकर बोला-का हो समोसवा लेबू।

घटिया आदमी था। ट्रेन की घटना याद करके शुभ्रा का गुस्सा एकदम से चढ़ गया। तुमसे कहा कि कहीं जाना है। उसने बड़े ही तीखेपन से रिक्शेवाले को जवाब दिया।

— नहीं, मैडम, हम सोचे कि बारिश की वजह से आप रूकी हैं, अब कहीं जाना हो तो हम तो सवारी जानकर पूछे हैं।

शुभ्रा को फिर थोड़ा सा अपराध बोध हुआ कि उसको ऐसे बात नहीं करनी चाहिए।

— भाभी जी, सवर्णों के यहाँ लड़कियों को बहुत ससका कर रखते हैं। आपलोगों के यहाँ तो बहुत पर्दा करना पड़ता है। — एक लड़की उससे कुछ बातचीत का सिरा ढ़ूढ़ रही थी।

शुभ्रा को समझ नहीं आ रहा था कि किससे क्या बात करे। सारी बहुएँ वैसी ही थीं जैसे उसके घर की थी। सिर पर पल्ला लिए। वैसे ही गहरे गले का ब्लाउज, उस पर लटकी डोरियाँ और ढेर सारी चूड़ियाँ। कुछ नई बहुओं ने सिन्दूर बीच माँग में लगाया है और कुछ ने लिपिस्टिक वाला सिन्दूर और बुजुर्ग औरतें वैसे ही बच्चों को आशीष देती हैं।

हूँ - हाँ करके वह चुप हो गई। नई जगह । वह खुद भी यहाँ नई बहू है, जिसको हर कोई आते - जाते एक कनखी देख रहा है। किसको क्या कहे — यह सोचकर वह चुप हो गई। कई बार तो वह जवाब नहीं देती, क्योंकि बात का मतलब कुछ और न निकाल लिया जाए ।

पूरे घर में शादी की धूम थी। शुभ्रा और विनोद की शादी तो छह महीने पहले कोर्ट में हो चुकी थी, लेकिन वह विनोद के घर यानी अपनी ससुराल पहली बार आई थी। शुभ्रा को आना विनोद के साथ था, लेकिन शुभ्रा को छुट्टी नहीं मिली थी। नौकरी भी नई थी । उसे लगा कि विनोद उसे चलने के लिए मनुहार करेगा और फिर वो ज़बरदस्ती छुट्टी लेकर चली चलेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। विनोद ने उससे एक - दो बार कहा। शादी के बाद से विनोद के घरवाले विनोद से नाराज़ थे। वह घर का पढ़ा - लिखा लड़का था। उससे उन्हे ढेरों उम्मीदें थी। उसके लिए कई रिश्ते आ रहे थे, जिससे उन्हे ज़्यादा बड़े घर में रिश्तेदारी का मौक़ा मिलता और पैसा भी। लेकिन विनोद ने शुभ्रा से शादी करके सबकी उम्मीदें तोड़ दीं। विनोद की माँ तो शुभ्रा को बिल्कुल भी नहीं पसन्द कर सकी।

— “भाई सबके अरमान होते हैं। शुभ्रा चाहती तो विनोद को मना कर सकती थी, लेकिन आजकल लड़कियाँ बहुत तेज़ हैं।” — अम्मा के भीतर नाराजगी गहरे बैठी थी, जिसे वो एक आध दफ़ा कहने से भी नहीं चूकीं। शुभ्रा के घर से कोई दावत इज़्ज़त तो मिलनी दूर, ख़ुद शुभ्रा के लिए उसके घर के लोग पराये हो गए। शुभ्रा को ख़ुद क्या - क्या सुनना पड़ा, किस हालात से गुज़रना पड़ा। उसने बहुत सी बातें खुद तक ही रखीं । उसे लगा कि आज बता दूँगी तो क्या पता, कल जब सब ठीक हो जाएगा तो एक - दूसरे के लिए खटास बनी रहेगी। उसे विनोद की अम्मा की नाराज़गी वाली बात कुछ ख़ास बुरी नहीं लगी बल्कि फिर से बड़ी भाभी का भोलापन ही लगा। उन्होंने ही ये बात उसे बताई थी। सच तो यह था, ख़ुद उसके अपने घर से ऐसी बातें उसे सुनने को मिली थीं जिनको वो किसी के आगे दुहरा भी नहीं सकती थी। उसे लगा कि विनोद को बताएगी तो उसे दुख होगा। फिर जब कभी सब ठीक होगा ,तब ये बातें टीसेंगी।

इसके पहले वो विनोद की भाभी और उनकी बहन से मिल चुकी थी। बड़ी भाभी के प्रति शुभ्रा के मन में एक अलग तरह का आदर था। बड़ी भाभी ने जब पहली बार उससे मुलाक़ात की तो ऐसे बात की जैसे वो कोई उसकी अपनी क़रीबी हो। शुभ्रा को यह बिल्कुल नई बात लगी थी। उसे अपने घर की आदत थी कि दूसरों के सामने, ख़ासकर मेहमानों के सामने कभी भी घर की बात नहीं बताओ। भाभी तो पूरी बातूनी थीं । उन्होंने अपनी शादी से लेकर विनोद के घर के हर सदस्य के बारे मे बताया। इतना ही नहीं उन्होंने अपने मायके के बारे में भी ख़ूब बताया। भाभी के चाचा की बचपन में मौत हो गई थी। उनकी माँ का दूसरा विवाह उनके देवर से हो गया । वैसे विवाह क्या था, बस, समझो कि माँ का ख़याल चाचा के अलावा रखने वाला कोई नहीं था।चाचा से मां को तीन और बहनें हुईं। समय का खेल कहो कि माँ बीमार पड़ गई। भाभी के ऊपर छोटी बहनों की जिम्मेदारी आ गई। जानती हो, शहर में तीसरी मंज़िल पर हमारा घर था, नीचे के हिस्से बहुत पहले से दूसरों के हिस्से में थे। माँ की मौत हो गई। और चाचा पीने - खाने लगे। फिर चाचा को भी टीबी हो गई। नीचे उनकी एक साईकिल ठीक करने की दुकान थी, वो भी बिक गई । चाचा नहीं रहे। बच गई मैं और मेरी तीन बहनें। दो की शादी कर दी है, अब रूपा बच गई है। जानती हो, पहले तुम्हारे भइया-जेठ के पापा हमको बड़ी गाली देते थे। साली दहेज में एक-ठो जिम्मदारी लेकर आई है।

भाभी यह सब बातें भी हंस कर बताती हैं । मुझे लगा कि उनकी बहन रूपा को खराब लग रहा होगा कि दूसरे कि जात बिरादरी की लड़की के सामने घर की बात बता रहीं हैं लेकिन रूपा ने भी अपना मान लिया था। जातियों के अंतर से परिवार की बनावट में कितना अंतर था। शुभ्रा ने घर की बात घर में रखने की रोज बात सुनी थी । ऐसी कौन सी बात नहीं होती थी घर में लेकिन मजाल कि बाहर वाले को पता चल जाय। कप से लेकर चावल और बात हर चीज घर और बाहर के लिए पद और प्रतिष्ठा के हिसाब से उसके घर में बंटी थी।

उसके दिमाग में एक घटना घूमने लगी कैसे एक सहेली के सामने उसने परपाजा की चरित्रहीनता का किस्सा बताना शुरू किया था। ये किस्सा भी उसने सुना ही था कि वो सब्जी खरीदने से पहले मुँह खुलवा कर देखते थे। मां को बहुत बुरा लगा। उसके जाने के बाद मां ने कहा कि तुम्हारी तरह लोग अपने घर की बात दूसरों के सामने नहीं कहते।

शुभ्रा को गुस्सा आ गया उसने कहा कि मेरा जी कर रहा था कि बता दूं कि तुम्हारे ससुर यानि मेरे दादा ने तो बांस की सीढ़ी खींच ली थी और तुम नीचे गिर गयी थी। अब ये न कहलाओ कि क्यों खींच ली थी। कुछ याद आया ये तुम मेरे सामने चाची को बता रही थी। अब तो मां का पारा सांतवे आसमान पर पहुँच गया। बद्तमीज हो तुम तुम्ही को याद रहती हैं ये सब बकवास। शुभ्रा को लगता था कि सवर्ण परिवार बातें छुपाते हैं जबकि दूसरी जातियों में बहुत हद तक खुलापन है। धीरे धीरे उसने ज्यादातर चीजों को ऐसे ही देखना शुरू कर दिया था। उनके यहां हमारे यहां। उनके यहां ये होता है हमारे यहां यह होता है। कई मुहावरे ऐसे थे जो बहुत ही अपमान जनक थे। शुभ्रा उनको जानती थी। उनको दुहराना भी नहीं चाहती थी लेकिन पहली बार उसने ब्राह्मणों के लिए मुहावरा सुना। घी देत बाभन नरियाय। उसकी हंसी छूट गयी।

छोटी भाभी की मां आयी थी ।शादी में सबके मायके की औरतें आयी थी शुभ्रा के लिए ये बिल्कुल नई बात थी। क्योंकि उसने अपने घर में नयी लड़कियों को तो लड़की की ससुराल आते देखा था लेकिन लड़की की ताई बुआ मां सब आये और नाचे गाये ये बिल्कुल नया था। लड़के की शादी में तो फिर भी अब लोग बारात में आ जाते हैं लेकिन लड़की की शादी में इतने लोग आयें वो भी घर पर ये बिल्कुल नया था। शुभ्रा को कुछ याद आ रहा था वो दसवीं में पढ़ती थी चचेरे भाई की जिद थी कि उसकी बारात में घर की बहुंए और लड़कियां जायेंगी। बस क्या था बारात में जाने का ऐसा जोश था कि बीस दिन पहले से चप्पल से लेकर क्लिप तक मैचिंग ली गई। इंजीनियर भाई ये बात सरप्राइज रखना चाहता था। भाभी के साथ गांव की दो और बहुंए तैयार हो गयी। लड़कियों मे शुभ्रा के अलावा तीन और नौजवान लड़कियां थी। रास्ते भर गाने बजते रहे, बस चलता तो लड़कियां गाड़ी में ही नाचने लगती। बारात लड़की के दरवाजे पहुंची। बैंड वाले ने बाजा बजाना शुरू किया लड़कियां दुल्हे के साथ खूब नाची। दुल्हे पर चावल दही का छाप तो फेंका गया लेकिन लड़कियों पर नोटो की बौछार होने लगी। थोड़ी देर में बैंड रूकवा दिया गया। भाभी और सारी लड़कियां हांफ रही थी। तभी उनकी सारी खुशी काफूर हो गयी। लड़की का पिता हाथ जोड़ कर चाचा और पापा से कह रहे थे कि आप इन लोगो को वापस भिजवा दीजिए हम इनको नहीं संभाल पायेंगे। गांव के बदमाश लड़कों ने उड़ा दिया है कि बनारस से नाच आया है। उनके आंसू टपक रहे थे। चाचा का लड़का भड़क गया। बारात वापस जायेगी ।

बात भाभी ने संभाली। हमलोगों का जो अपमान हुआ सो हुआ कुछ दिन बाद भूल जायेंगे लेकिन तुम्हारे ऐसा करने से लड़की का भी जीवन खराब हो जायेगा। उसे दुनिया कभी भूलने नहीं देगी दूसरे हम नहीं चाहते कि एक औरत की वजह से एक औरत का जीवन बर्बाद हो। जब समाज ही ऐसा है तो क्या कहा जाय। शुभ्रा को आज तक वो रास्ते का रोना याद है। कैसे वो तमाम खाने पीने से लदे शामियाने से बिना पानी पिये रोते हुए लौटे थे। और उनकी सुरक्षा के लिए एक गाड़ी आगे और एक गाड़ी पीछे लगाई गयी और कितने दिन तक ये किस्सा पूरे गांव के लिए हंसी का पात्र बना रहा।

यहां तो कितनी औरतें हैं। वो भी दूर दराज की भी। न कोई संकोच न कोई नखरा। रसोई में जिस तरह से लोग खुद ही खाना निकाल ले रही थी कि शुभ्रा को वो किसी अजूबे से कम नहीं लग रहा था। शुभ्रा विनोद एक ही कालेज में पढ़ते थे। वहीं से दोस्ताने की डोर बंधी थी। दोनो दो जातियों के थे खान पान में भी अलग लेकिन मोहब्बत में आंखे रूहानी हो जाती हैं। बड़ी भाभी हंस कर कहती है जानती हो हम तो बगल वाली पंडिताईन को कहे कि भाई हमारे घर भी पंडिताईन आयी है। शुभ्रा भाभी की निश्छलता पर निछावर रहती थी। विनोद की मां से अभी मुलाकात नहीं हुई थी। इस शादी में पहली बार सबसे मुलाकात थी। शुभ्रा सबकुछ समझने की कोशिश कर रही थी। उसकी निगाह बार बार रूपा को ढूँढ़ रही थी। रूपा के प्रति शुभ्रा के मन में अलग लगाव था शायद वो इस घर में अजनबी थी और यहाँ रहती थी। वो लगता था कि दूर से सबकुछ देख रही है। रूपा उसे अपने जैसी लगती थी।

— भाभी रूपा कहाँ है? — उसके पूछते ही आसपास की सारी औरतें चौंक गयीं।

— अरे, उसकी शादी हो गई । बताये तो थे फ़ोन पर ।

— हाँ भाभी, मुझे याद है, लेकिन कल शादी है । वो कब आएगी ?

भाभी ने कुछ जवाब नहीं दिया । कुछ बहाना बनाकर वे दूसरे कमरे में चली गईं। तब तक विनोद की मामी ने उसको पकड़ लिया और एक कोने में ले जाकर राज की बात बतानी शुरू की। तुमको, लग रहा है कि कोई नहीं बताया, रूपा ने कुजात में शादी कर ली है। बहुत नाक कटाई है।

शुभ्रा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसका दिल तेजी से धड़क रहा था।वो भाभी के पास गई और उनसे पूछा कि क्या हुआ। भाभी रूआँसी होकर कहने लगीं — क्या बताते तुमसे, रूपा ने हमसे नीचे कास्ट में शादी कर ली है। हमलोगों के यहाँ उनमें खान पान नहीं होता है। समझ लो, किसी - किसी से क्या बताएँ। उस दिन से सब हमको सुना रहे हैं... हमारे बच्चे की शादी तो है नहीं कि सबसे लड़कर बुला लेते। ख़राब तो हमको बहुत लग रहा है ।

भाभी की आँख से आँसू छलक आया और काजल से भींगकर मटमैला हो गया। कहने लगीं — अपनी लड़की की तरह पाले थे । वो तो इसी घर में रही है, लेकिन उसको बुला नहीं सकते । अगर वो आई तो कोई खाए - पिएगा नहीं। पूरे घर में किसी ने एक बार नहीं कहा कि रूपा को झूठे ही सही न्योता भेज दो या फ़ोन कर दो।

तभी बाहर से भाभी के नाम का बुलावा आने लगा। भाभी ने जल्दी - जल्दी काजल पोंछा और ज़रा - सा पाउडर लगा लिया। अब तुम भी बाहर चलो । सबलोग पता नहीं क्या सोच रहे होंगे ?

भाभी की थोड़ी देर में गाने की आवाज़ आने लगी। शुभ्रा का जी ख़राब हो गया। उसे बहुत कुछ याद आ रहा था। उसे लगा कि वह रूपा ही है। जिसका ज़िक्र आते ही ऐसे खुसर - पुसर शुरू हो जाती होगी। वह विनोद से इस बारे में बात करना चाहती थी। रात को छत पर उसने विनोद से पूछा :

— विनोद, तुम जानते हो कि रूपा को नहीं बुलाया गया ।

— हूँ

— तुम जानते हो ?

— हूँ

दोनों की आगे कोई बात नहीं हो पाई। विनोद को पता है और वो इतना सहज है। शुभ्रा पूरी रात जागती रही।

……………………..

बारिश ज़ोरों से हो रही थी। शादी के अगले दिन शुभ्रा को वापस आना था। शुभ्रा ने बहाना बनाया कि जाना ज़रूरी है। वह ट्रेंनिंग से इमरजेंसी छुट्टी लेकर दो दिन के लिए निकली थी। बड़ी भाभी कह रही थी — रूक जाओ, अभी तो तुमसे कोई ठीक से मिले भी नहीं है। शुभ्रा ने फिर जल्दी ही आने का वादा किया। भाभी ने कहा — तुम बिल्कुल मेरी रूपा की तरह हो, ख़ुद को देवरानी नहीं समझना। धीरे धीरे सबलोग तुम्हें समझने लगेंगे।

दोपहर की ट्रेन थी आटो वाले को बुलवा लिया गया। रास्ते में जुड़हिया पीपल का इकलौता पेड़ दिखा। विनोद उसे स्टेशन तक छोड़ने के लिए आया था। उसे वो फिर से कुछ जगहें दिखाने लगा । जानती हो, पहले यहाँ बहुत पेड़ थे। बड़े - बड़े पीपल के पेड़। गंगा के कछार मे काम करने के बाद, जब थक जाते थे तो यहाँ आकर सुस्ताते-जुड़ाते थे।

शुभ्रा को कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। बस, दिमाग में एक गुम्फन तैयार हो रहा था, जहाँ कुछ भी सीधा-सरल सा नहीं था। उसे लग रहा था कि औरत और मर्द की अपनी जलन है, जाति और जाति के भीतर जाति की अपनी जलन है और उसके लिए ठण्डक का पेड़ कब लगा, कब कटा, पता नहीं। शुभ्रा को सिर्फ़ यहाँ मकान ही मकान दिखाई दे रहे थे। वैसे ही मकान जैसे उसके अपने मायके में थे। बीच में रह - रह कर दिमाग में भाभी की आवाज़ भी कौंध रही थी तुम बिल्कुल मेरी रूपा हो। वह कोशिश कर रही थी कि इस सरल सी बात का सरल सा अर्थ बिठा ले।

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