जुनूनी लेखक / शशिकांत सिंह शशि

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक सज्जन हैं उन्हंे लिखने का शौक है। शौक क्या हैं। लिखने का जुनून है। आप उनसे जब भी मिलेंगे आपको वे साहित्यचर्चा में ही तल्लीन मिलेंगे। उनका जीवन साहित्य के लिए ही हुआ है। यह अलग बात है कि आजतक उन्होंने कुछ लिखा नहीं है। मगर लिखेंगे जरूर। हमारा सौभाग्य देखिये कि हमारे ही मुहल्ले में रहते हैं। आते-जाते दुआ सलाम भी होती ही रहती है। हमारे हम उम्र हैं। उससे भी बड़ी बात कि हमारे साथ विद्यालय भी जाते थे। हमसे एक क्लास आगे थे। इस नाते हमारे सीनियर भी हैं। हमने जब साहित्य का क ख ग भी नहीं जाना था। उन दिनों उनकी कवितायें धूम मचा रही थीं। अपने हमउम्र साथियों में उनकी कवितायें बड़े उमंग से पढ़ी जाती। जवानी के दिनों में हम जल्दी मास्टर हो लिए उनकी नाव किसी किनारे लग नहीं रही थी। बातों ही बातों में हमने उनसे एक दिन पूछ लिया -

-’प्रेमचंद ! आजकल साहित्य सेवा चल रही है या बंद कर दी।’

उन्होंने चहकते हुये कहा -

-’कविताएं लिखता था लेकिन उनकी मांग नहीं है। तुमने तो सुनी ही है हमारी कवितायें। अब सोच रहा हूं कि कहानियां लिखूं। कहानियां छपती भी खूब हैं। क्या कहते हो ?’

-’लिखो , तुम तो नैसर्गिक प्रतिभा के धनी हो। लिख सकते हो। ’

प्रेमचंद जी खुश हो गये। यह नाम भी उन्होंने जबरदस्ती रख लिया है। बाप ने तो प्रेमानंद मिश्र नाम रखा था। उन्होंने उसे सीधा करके प्रेमचंद कर लिया। दसवीं कक्षा से ही अपना नाम प्रेमचंद बताते थे। बेशक प्रमाणपत्रों में प्रेमानंद मिश्र हो लेकिन दुनिया में प्रेमचंद ही हैं। उनका मानना था कि नाम से भी आदमी के अंदर गुणों का संचार होता है। प्रेमचंद नाम लिखने के बाद जब कहानियां लिखी जायेंगी तो महान हो ही जायेंगी। कुछ दिनों के बाद मुलाकात हो गई। हमने फिर पूछ लिया ।

-’क्या लिख रहे हो ?’

-’बेरोजगार आदमी हूं। लिखना तो फिलहाल बंद है। नौकरी के चक्कर में हूं। एकबार कहीं अच्छी सी नौकरी मिल जाये तो लिखना शुरू कर दूं। यह नहीं हो सकता कि तुमलोगों की तरह छिटपुट लेखन करूं। लेखन के प्रति हम शुरू से ही गंभीर है। तभी तो नाम भी प्रेमचंद रख लिया। नौकरी की ओर से दिमाग निश्चिंत हो जाये तो यह जीवन साहित्य साधना में ही समर्पित कर दूं। ’

-’दिन में नौकरी की तलाश करो और रात में लिखो। ’

-’हां ...। तुम तो सलाह दोेगे ही। नौकरी में हो। मोटा पगार पा रहे हो। सलाहकार हो ही सकते हो। बेरोजगारी में दिमाग रात-दिन केवल काम की ही तलाश करता रहता है। तुम लिख रहे हो लिखो ं। कछुए और खरगोश की प्रतियोगिता याद रखो। अंत में कछुए की ही जीत होती है। ’

हमने उन्हें लिखने के लिए मंगलकमना दी। प्रेमचंद बन जाने की ओर अग्रसर होने की हिम्मत दी और अपनी दुनिया में रम गये। कलांतर में उनको एक अच्छी नौकरी मिल गई। किसी कंपनी में सुपरवाइजर लग गये। उन्हें जब देखो , या तो आ रहे होते या जा रहे होते। पहले की तरह बरामदे में खड़े होकर अखबार पढ़ते तो हमने देखा ही नहीं। एक दिन एक पार्टी में मिल गये। कीमती सूट में जंच रहे थे। हमने निकट जाकर हालचाल जानने की कोशिश की ।

-’अब तो प्रेमचंद जी साहित्य सेवा जोर-शोर से हो रही होगी। क्या लिख रहे हैं ?’

-’साहित्य सेवा के लिए तो यह जीवन ही समर्पित है। लिखना तो कहानी ही है। नाम ही नहीं काम भी प्रेमचंद का ही लेना है। अभी तो प्राइवेट नौकरी में मरखप रहे हैं। लगता है चौबीस घंटे भी कम ही हैें। बॉस का वश चले तो सूरज को ढ़लने ही न दे। बीस घंटे का दिन और केवल चार घंटे की रात हो ं। तुम्हारे वाली बात तो है नहीं कि जब मन में आया स्कूल चले गये। मन मे ंआया तो कक्षा में गये। नहीं तो बाहर बैठकर गप्पें मारते रहे। यहां तो नौकरी बड़ी तो काम भी बड़ा। रही बात लिखने की तो मां शारदा के चरणों में जिस दिन शब्दपुष्प चढ़ाने लगा तो निरंतर पूजन होगी। ’

हमने उनके साहित्यानुराग को नमन किया और अपने प्लेट पर ध्यान देने लगे। उसके बाद भी प्रेमचंद जी अपनी धुन में मगन बताते रहे कि लेखक को क्या करना चाहिए। अमर रचनाओं में क्या गुण होते हैं। आजकल का लेखन सतही हो गया है। आलोचक लेखकों पर ध्यान नहीं दे रहे। उनका धाराप्रवाह भाषण अचानक रुका तो हमारा भी ध्यान भंग हुआ। हाल में उनके बॉस आ गये थे। उनकी आवभगत के लिए लपक लिये। दुम न सही जीभ तो है। उसको ही दुम की तरह हिला रहे थे। शब्दों के गोले छोड़ रहे थे। बॉस मगन हो रहा था ।

समय बीतता गया। हम दोनों अपनी-अपनी दुनिया में मगन जी रहे थे। उनकी शादी हो गई। दो अदद बच्चे हो गये। उनकी परवरिश में जी जान से लग गये। हमारे तीन थे। हमने उनको प्रभु का प्रसाद मानकर स्वैच्छिक विकास के लिए छोड़ रखा था। उनके पास कार आ गई। उनकी पगार हमसे दो गुणा से कुछ ज्यादा थी। उनके बच्चे कानवेंट में जाने लगे। बीबी का वर्णन करना मित्र द्रोह होगा। हमें पक्का विश्वास था कि अब निश्चित रूप से साहित्य साधना में लीन हो गये होंगे। साहित्यिक पत्रिकाओं में देखता कि उनके द्वारा लिखी कोई कहानी मिल जाये। एक दो कहानियां पर संदेह भी हुआ। एक दिन उनको अपने घर की दहलीज पर खड़े देखकर घोर आश्चर्य हुआ। हमने जी खोल के उनका स्वागत किया। चाय-नाश्ते के बाद हमने सौंफ पेश करते हुये कहा -

-’आजकल किसके लिए लिख रहे हो। किसी पत्रिका के लिए नियमित लेखन कर रहे हो क्या ?’

-’नहीं यार। फुर्सत ही नहीं मिलती। छोटे बेटे को संगीत का शौक है। ए आर रहमान बनना चाहता है। उसके लिए संगीत की क्लास लगा दी हैै। बड़े को खेलने का शौक है। सचिन बनना चाहता है। उसके लिए भी ़ि़क्रकेट कोच रख छोड़ा है। इस सबके बाद अपने लिए न तो समय मिलता है न लिख पाता हूं। लिखने का जनून तो तुम जानते ही हो कि अपने अंदर बचपन से है। तुम्हारे पास आने का कारण भी यही है। सोच रहा हूं कि प्रोफेशनली लिखना शुरू कर दूं। अच्छा यह बताओ कि सबसे ज्यादा किस विधा की मांग है। ’

-’विधा कोई भी हो सकती है। स्तरीय रचानाओं की मांग है। तुम तो कहानियां लिखने वाले हो। नाम भी प्रेमचंद है। कहानियां ही लिखो। ’

-’स्तर की तो तुम चिंता ही मत करो। साहित्य के स्तर की जानकारी मुझे है। कहानियां लिखने की कोशिश करता हूं लेकिन समझ में नहीं आता कि शुरू कहां से करूं। आसपास की घटनाओं को पकड़ने की कोशिश करता हूं तो दिमाग में कंपनी और काम आ जाता है। अब तुमसे क्या छिपाना। हमारे काम में गलाकाट प्रतियोगिता चलती ही रहती है। इधर लिखना भी जरूरी है। तुम कोई शार्टकट बता दो। एकबार आदमी तेजी से छपने लगे तो नाम अपने आप हो जायेगा। संपादक भी तो नाम देखकर ही छापते हैं। एकबार बच्चे अपने जीवन यापन में लग जायें। उनके शौक पूरे हो जायें तो पूर्णकालिक लेखने से जुड़ जाऊंगा। ’

-’जी शार्टकट का ज्ञान तो खाकसार को नहीं है। यहां तो आजतक स्तर का ही ज्ञान नहीं हो पाया। दस में से दस रचनायें वापस आ जाती हैं। ग्यारहवीं संपादक की लापरवाही से छप गई तो छप गई। ’

प्रेमचंद जी ने एक उन्मुक्त ठहाका लगाया। शार्टकट की तलाश में चले गये। उनके दोनों पुत्र आज एक कामयाब जीवन जी रहे हैं। उनकी जरूरत भी परिवार को नहीं है। अकेले रहते हैं ं। विधुर हो चुके हैं। प्राइवेट कंपनी की नौकरी समाप्त हो चुकी है। अब सुबह-शाम सैर को जाते समय दिख जाते हैं। अपने घुटने और कमर में भी स्थायी दर्द घर कर ही चुका है। एक दिन डॉक्टर के पास मिल गये। हमने लपकते हुये, उनसे हाथ मिलाया और पूछ लिया -

-’अब तो आराम ही आराम है। क्या लिखना हो रहा है आजकल ?’

-’लिखना तो है ही यार। लिखे बिना अपने को चैन कहां ? बस जरा आजकल पेट ठीक नहीं रहता। आपको तो पता ही है कि मिठाई अपने को कितनी पसंद रही है। मधुमेह ने भी अपना घर बना रखा है। हाई और लो बी पी ने भी जीना मुहाल कर रखा है। इस सबके बावजूद लिखूंगा जरूर। संकटों से घबराने वाले लेखक नहीं हो सकते। आपने तो मुक्तिबोध को पढ़ा ही होगा। लिखते हैं- उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे। आपलोगों की तरह हमारे जीवन में सहुलियतें नहीं रही हैं। आपका बेटा तो साथ ही रहता है। आपकी देखभाल भी करता है। मेरे तो दोनों बेटे एन आर आई हो गये। चलिए जीवन में और क्या चाहिए। अपने सपने तो अब भी पूरे हो सकते हैं। मैं उपन्यास लिखने की सोच रहा हूं। क्या ख्याल है आपका ?’

हमारी समझ में सारी बातचीत का सार नहीं आया। मुक्तिबोध क्या इसी खतरे की बात कर रहे थे ? महाशय अपने जीवन से निराश हैं या संतुष्ट ? बहरहाल एक बात पक्की थी कि लिखने का जनून जस का तस बना हुआ था। उपन्यास लेखन तो उम्र के हिसाब से ठीक ही है। यदि उसके पहले एक आधी कहानियां लिख लेते तो...। हमारे सलाह की गुंजायश नहीं थी। हम उनके उपन्यास की प्रतीक्षा करते रहे। हमारी प्रतीक्षा साल लगते-लगते ही खत्म हो गई। एक दिन सुबह मुहल्ले में खबर फैली कि प्रेमचंद जी नहीं रहे। उनकी तेरहवी पर हमें भी उनके पुत्रों ने बुलाया था। हम उनकी तस्वीर के सामने बैठे यही सोच रहे थे कि अभी निकलकर कहेंगे। एक अमर साहित्य की रचना करनी है। वाकई दुनिया ने एक जनूनी लेखक को खो दिया ।