जुलूस / इन्दिरा वासवानी / देवी नागरानी

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इन्दिरा वासवानी »

जुलूस आज़ादी के दिन ही बाबा का सुबह सवेरे देहान्त हुआ, वैसे उसके पहले दिन उनकी तबीयत इतनी ख़राब न थी । ख़राब क्या, बिलकुल कुछ भी न था, पर अचानक ही बाबा ने आधी रात को बेचैनी महसूस की थी । दादा, ताऊ दोनों ने बिना समय गँवाए उन्हें हॉस्पिटल में दाख़िल करा दिया । ताऊ ने मारुती इतनी तेज़ चलाई कि हॉस्पिटल पहुँचने में चार मिनट से ज़्यादा न लगे । डॉक्टरों ने जाने कितने प्रयास किये, सुइयाँ लगाईं, पर बाबा को बचाने में हर कोशिश नाकामियाब रही।

ताऊ की जान-पहचान का विस्तार वैसे भी बड़ा है, दादा तो है ठंडे घड़े की तरह, धूप में रखो या छाँव में, पानी हमेशा ठंडा रहता। ताऊ ऐसे नहीं ! वक़ालत के काम में काफ़ी निपुण हैं और राजनीति के खेल में भी माहिर हो रहे हैं । वह भी जबसे सरकारी पार्टी में उनका एक ख़ास मुकाम बना है उनकी बहुत चलने लगी है ।

बाबा के देहान्त पर माँ शांत ही रही, दादा की आँखों के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, बाक़ी ताऊ ने ख़ुद पर ज़ाब्ता रखने की भरपूर कोशिश जारी रखी ।

कितनी ग़ुरबत में दिन गुज़ारे थे । टूटी हुई चप्पल और सिलाई की हुई कमीज़ पहनकर ताऊ स्कूल जाते थे । ताऊ जितने ही पढ़ने में होशियार थे, उतने ही बात करने में भी रहे । कभी-कभी स्कूल में भी विषयों पर बहस में भागीदारी लिया करते थे । इनाम भी जीते थे, इसलिये मास्टरों का भी वह प्रिय शागिर्द बन गया था ।

एक कमरे वाला घर था जिसमें सभी रहते थे । घर के बाहर ही एक छोटी कैबिन में बाबा ज़रूरत की चीज़ें रखकर बेचते थे। माँ सुबह उठकर कभी चने, कभी मूँग तो फिर कभी चौली पकाकर उन्हें थाल में भरकर देती, जो दो-तीन घंटों में ही बिक जाते थे। उन्हीं पैसों से वह घर की ज़रूरत की चीज़े लेकर, खाने का जुगाड़ करती । ‘लाओ तो खाओ’ वाला हिसाब था, पर बाबा ने कभी दिल को मायूस होने नहीं दिया। वे दुखों को ज़िन्दगी की सुन्दरता मानते थे और कहा करते थे कि इन्सान कभी एक-सी अवस्था में नहीं रहता । यही ज़िन्दगी जो बिताई उससे वे काफ़ी संतुष्ट थे। यही कारण था कि आगे चलकर ताऊ की अच्छी कमाई के बावजूद भी वे इस एक कमरे वाले पुराने मकान को छोड़कर नए बड़े घर में जाने को तैयार न थे ।

दुख के दिन बीत गए, ताऊ सबसे आगे निकल गए । वकालत के धंधे में धन व शोहरत दोनों कमाए । अपने लिये पढ़ी-लिखी, नौकरी करती हुई लड़की ढूँढ़कर उससे ब्याह कर लिया । अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में दाख़िला दिलाई । घर की व्यवस्था सब ठीक ही चल रही थी । अपने बड़े घर में एक हिस्सा दादा और छोटे भाई को दिया। बाक़ी एक भाई पुराने एक कमरे वाले घर में ही रहा । ताऊ ने बाबा से कहा था - ‘‘अब यह कैबिन बन्द करके घर में आराम करो ।’’

बाबा ने कहा - ‘‘बेटा जब तक जिन्दा हूँ तब तक इस कैबिन से निभाऊँगा । मेरे मरने के बाद जैसे चाहो वैसे कर लेना ! कमाई के लिये धंधा नहीं करता हूँ, बस वक़्त कट जाता है । वैसे भी बड़ी उम्र में शरीर से काम लेना ही चाहिए, नहीं तो हड्डियाँ जम जाती है।’’

ताऊ के मनचाहे विषय थे हिन्दी और राजनीति, राजनीति का उन्हें शौक रहा और अच्छा अभ्यास भी करते थे । एक बार आज़ाद उम्मीदवार के तौर चुनाव में खड़े रहे । सरकारी पार्टी की तरफ़ से बहुत पैसे देकर उनका हाथ ऊपर करवाया, बाद में उसी पार्टी का सदस्य बनकर काम करते रहे । सामाजिक काम, नौकरी लेकर देना, छोटे-मोटे झगड़ों को निपटाने के लिये मशहूरी भी मिली । हालाँकि शुरुवाती दौर में उसके दुश्मन भी बहुत थे । धीरे-धीरे पानी में ठहराव आते गया और उनके हिमायती बढ़ते गए ।

बाबा सुबह गुज़रे, ताऊ को झंडे की सलामी के लिये जाना ही था, पर उसके बाद एक दुकान का महूरत भी करना था । झंडे की सलामी के लिये असेम्बली मेंम्बर आने वाला था । सुबह ही उसने शास्त्री जी को अपने पिता के देहान्त की ख़बर दी थी । उसने कहा सलामी का काम पूरा करके आपके पास आऊँगा । ताऊ को पता चला कि डिप्टी मिनिस्टर भी अपने गाँव आया हुआ है । यहाँ से २५-३० मील के फासले पर ही वह गांव था । ताऊ ने उसे भी फ़ोन के द्वारा यह जानकारी दी । डिप्टी मिनिस्टर ने कहा - ‘मैं भी समय पर पहुँच जाऊँगा, फिर भी कुछ देर हो सकती है !’

‘नहीं साहब ! ऐसे कैसे होगा ! यहाँ तो बड़ा जुलूस निकलेगा, जिसका मार्गदर्शन

आपको ही करना है’ ताऊ ने जोर देते हुए कहा ।

वज़ीर साहब कुछ कह नहीं पाए । उन्हें पता था कि उस इलाके के वोटों पर ताऊ का बड़ा कब्ज़ा है । आख़िर आने का वक़्त तय हो गया । ताऊ के चेहरे पर मुस्कान थी, खेल को जीतने जैसी। उसने बाहर आकर हाथ जोड़ते हुए सबको बताया - ‘नायब मंत्री महोदय ख़ुद आकर इस जुलूस का मार्गदर्शन करेंगे और पूरे दस बजे यहाँ पहुँचेंगे, तब तक और भी लोग झंडे की सलामी से फ़ारिग़ हो जाएँगे । इसलिये आख़री सफ़र का वक़्त दस बजे रखते हैं ।’

लोगों में खुशी की लहर फैल गई । जिनकी ताऊ से नहीं बनती थी उनके चेहरे उतर गए । एक ने कहा - ‘बाप की मौत पर मंत्री महोदय आ रहे हैं, अरे लगता है पगला गया है ।’ दूसरे ने कहा - ‘पागल नहीं है बस सब वोटों का खेल है ।’ तीसरे ने अक्लमंदी दिखाते हुए कहा - ‘भाई ! पार्टी का ज़ोर है । आज अगर उसके घर का कुत्ता भी मरता तो नायब मंत्री आते । ये नेता होते ही स्वार्थी है । इसलिए तो वो गधे को भी बाप बना लेते हैं ।’ दो-तीन लोगों ने उन्हें होठों पर उँगली रखने की हिदायत दी यह कहते हुए कि ‘दीवारों को भी कान होते हैं ।’

ताऊ का उत्साह बढ़ गया । दो-तीन लोग लगवाकर उन्हें घर के सामने सफ़ा ई करने की हिदायत दी। वीडियो-कैसेट निकलवाने का बंदोबस्त किया । फोटोग्राफर तो पहले ही आ चुका था । बताशे और नारियल का ऑर्डर भेज दिया । सब उसके काम में हाथ बँटा रहे थे । अब ताऊ फ़कत सोफ़ा पर बैठ कर फ़ोन कर रहे थे । खादी का कुर्ता-पाजामा पहन कर तैयार हो गए । उनका सारा ध्यान बाहर था कि कब मोटर का हॉर्न बजता है और कब पुलिस का यूनिट आता है । इस बीच में ज़िला के एस.पी. तालुक के डिप्टी कलेक्टर, शहर के पी. आइ के फ़ोन आ चुके थे । पुलिस की जीप पहुँचते ही इर्द-गिर्द खाकी वर्दी वाले बहुत ख़बरदारी से यहाँ-वहाँ आँखे फिरा रहे थे । ऐसे मौकों र उनमें काफ़ी फुर्ती आ जाती है, ख़ास करके आजकल, जब नेताओं के पीछे उनके विरेाधी दल के आदमी हाथ धोकर पड़े रहते हैं ।

अर्थी की पूरी तैयारी हो चुकी थी । अन्दर से औरतों के रोने की आवाज़ ज़ोर-ज़ोर से आ रही थी । जहाँ-जहाँ कैमरा फिर रहा था उसी तरफ़ लोगों के चेहरे भी फिर रहे थे... कोई अपनी नाक साफ़ कर रहा, कोई अपने आँसू पोंछने के लिये रूमाल का इस्तेमाल कर रहा, तो कोई अपना सिर पीटे जा रहा था, कुछ तो चीखने-चिल्लाने में व्यस्त थे ।

नायब मंत्री और उनके साथ शहर के कुछ मुख्य आदमी आए, तो बैठे हुए लोगों में हलचल मच गई । ताऊ उन्हें ले आने के लिये आँखों पर रूमाल रखकर आगे बढ़े । नायब मंत्री ने अपनी बाहें उसके गले में डालते हुए उसके काँधों को थपथपाना शुरू किया ।

लोगों ने मंत्री को घेर लिया । कुछ उसके पाँव छूने लगे, कुछ हाथ बांधे खड़े रहे, दादा उन्हें हाथ पकड़कर अर्थी की तरफ़ ले गए । सेक्रेटरी ने मंत्री को लाये हुए फूल दिये जो उन्होंने अर्थी पर अर्पण करके हाथ जोड़े । कैमरा फिरता रहा ।

‘मंत्री महोदय की जय, मंत्री महोदय की जय ।’ अर्थी को कंधा देने के लिये बेइंतिहा भीड़ हो गई थी ।

आख़िर पहले चार बेटों ने कंधा दिया ‘राम नाम सत्य है, वाहगुरु संग है !’ आहिस्ते-आहिस्ते कंधे बदलते रहे । अर्थी को एक श्रृंगारी गई ट्रक में रखा गया । कितने ही ठेकेदारों ने अपने ट्रकें लाई थीं, कुछ मोटरें, कुछ स्कूटर लाये थे ।

‘बाबा जी अमर रहे ! मंत्री महोदय की जय बाबा जी की जय, राम नाम संग है, हरी नाम सत्य है, मंत्री महोदय की जय ! बाबा अमर रहे ।’ बताशे फूल और सिक्के फेंके जाने लगे । ताऊ मंत्री महोदय के साथ उसकी कार में जा बैठे । कैमरे का फ़ोकस अब उस तरफ़ था । आगे पुलीस की जीप थी, उसके पीछे मंत्री की कार और उसके पीछे पुलीस, फिर अर्थी वाली ट्रक और बड़े आदमियों की मोटरें और स्कूटर...।

जुलूस काफ़ी बड़ा था । पाँच मिनट के पश्चात् नायब मंत्री की कार रुकी और उसने ताऊ से इजाज़त ली । ताऊ ने उनका शुकराना माना और लौटकर अपनी कार में बैठ गए। उसके चेहरे पर संतोष की रेखाएँ ज़ाहिर थीं ।

मंत्री की कार के साथ कितनी मोटरों व स्कूटरों ने रुख़ बदला । इसके बावजूद भी शमशान भूमि तक जुलूस में बहुत आदमी थे । अर्थी शमशान भूमि में पहुँच गई थी । लोगों की बातचीत का सिलसिला जारी था ।

‘बाबा की आत्मा को यह सब देखकर कितनी शांति मिलती होगी?’

दूसरे ने कहा - ‘बाबा अच्छा इन्सान था, कोई घमंड नहीं था ।’

तीसरे ने कहा - ‘कल तक भी उन्होने से कैबिन में बैठकर गोलियाँ बेचीं ।’

किसी ने कहा - ‘कभी-कभी बच्चों को मुफ़्त में चीज़ें दिया करते थे । भाई जिसने खुद ग़रीबी में दिन बिताये, उसको ही ग़रीबों की क़द्र होगी ।’

एक और ने कहा - ‘ताऊ के दिमाग़ में भी अभी कुछ ग़ुरूर बैठा है ।’

‘आहिस्ते बोलो, आहिस्ते बोलो, पहले तो वह भी अपनी ग़रीबी के गुण गाया करता था । भाई फिर भी और नेताओं से बहतर है, किसी को लूटता तो नहीं है । ग़रीबों की पीड़ा तो महसूस करता है । बाक़ी है ग़रीबों का ख़ानदान।’

‘यह तो अच्छा है कि ताऊ पढ़-लिख गए, अच्छे वकील बने और तरक़्क़ी कर ली । और ऊपर से सरकारी पार्टी के नेता ! वर्ना क्या मुझ जैसे के पास मंत्री आते ? या इतनी भीड़ साथ होती ?’

अर्थी से आग के शोले निकलने लगे । लोगों ने धीरे-धीरे पीछे हटते हुए वापस लौटना शुरू कर दिया था । कुछ एक की तो अन्दर की आग भी बाहर निकली - ‘अरे भाई ये तो उनकी चमचागिरी करनी है ।’

‘पर बाबा की आत्मा भी क्या याद करेगी ।’ किसी ने व्यंग कसा ।

ताऊ जब घर लौटे तो उसके चेहरे पर फ़ख्र वाली जीत थी । इस इलेक्शन में उसे जीतने की संभावना थी, फिर... ऐसे जुलूसों में उसे भी...!