जुवा / प्रताप नारायण मिश्र
मनुष्य तो मनुष्य ही है, बैल भी इस नाम से काँपता है! छोटा सा कीड़ा इसी नाम की बदौलत सुंदरी स्त्रियों की सुदंरता और प्रेमपात्र बच्चों की सुघरता तथा निद्रा मिट्टी में मिला देता है। फिर न जाने दिवाली में लोग क्यों ऐसे बौखला जाते हैं कि दिन रात जुवा-जुवा, हुवा-हुवा किया करते हैं। यों देखो तो पेट भर रोटी नहीं है, कमर पर लँगोटी नहीं है पर उनसे भी पूछो तो कोई कहता है 'सौ हारे', कोई कहता है 'पचास हारे'! धन्य री धन्य परंपरा! मनु जी जो हमारे शास्त्रकारों के शिरोमणि हैं, हँसी के लिए भी इसका खेलना वर्जित करते हैं, पर वुह मनु जी से भी बढ़ गए जो कहते हैं दिवाली में न खेले तो गदहा का जन्म पाता है।
बाजे-बाजे बुद्धि के शत्रु शिव, युधिष्ठिर, बलदेव, नल आदि का नाम लेके कहते हैं कि वे खेले हैं तो हम क्यों न खेलें! सच है, युधिष्ठिरादि के से सभी काम कर चुके हैं तो एक यही क्यों रह जाय! ऐसी ही समझ ने बुद्धि हर ली है नहीं तो पुराणों में जिनको प्रमाण मान के आप जुवा की लत अपने पीछे लगाते हैं उनमें दो बातें हैं, एक इतिहास, दूसरी आज्ञा और हम युधिष्ठिरादि के बचनों को मानने वाले हैं न कि उनके निज चरित्रों में दखल देने वाले। यदि बड़ों से कोई भूल तो उसका अनुकरण हमको श्रेयस्कर नहीं है। वेद का वाक्य है कि "यान्यस्माकं सुचारितानि तानि त्वयोपास्यानि ना इतराणि" अर्थात् बड़े लोगों के अच्छे काम हमें सीखना चाहिए न कि जुवा आदि बुरे काम। उन्होंने यदि खेला तो उसका फल भी क्या पाया?
शिवजी ने अपने स्त्री पुत्रों में झगड़ा फैलाया। नल ने राज्य खोया। युधिष्ठिर ने भारत का सर्वनाश ही करा दिया! बलदेव जी ने रुक्म (कृष्णचंद्र जी के साले) का प्राण लिया। जब कि बड़े बड़ों की यह गति जुवा के पीछे हुई तो तुम कौन जग जीतने की आशा रखते हो। हम तो यही कहेंगे कि उन्होंने हमें जुवा की बुराई दिखलाने के ही लिए खेला था। यह बात भी प्रसिद्ध है कि बड़े जो कुछ करें सो न करना चाहिए। उन्होंने खेला पर हमें खेलने की आज्ञा कहीं नहीं दी। यदि कहीं किसी पुराण अथवा उपपुराण में प्रगट वा प्रच्छन्न आज्ञा हो भी तो उसके पात्र विचारना चाहिए।
हमारी दृष्टि में ऐसा वचन नहीं आया पर यह कहते हैं कि राजा को योग्य है। खैर राजाओं के लाखों का धन होता है, वे हजारों रु. दूसरों को दे सकते हैं। वे खेलैं पर तुम्हें परमेश्वर ने आँखें दी हैं, तुम्हें क्या सूझी है कि दस पंद्रह की तौ नौकरी करौ, दो चार सौ अपने पराए लगाकर रूजगार करो, पर हारने के समय चार-चार सौ नसाय देव!
भला वर्ष दो वर्ष खाने कपड़े में कष्ट उठाए बिना अथवा अपने दीन आश्रितों को सताए बिना यह गढ़ा क्यों कर पूरा हो सकता है। बुद्धिमानों ने से सब दुर्गुणों का घर कहा है सो बहुत ठीक है। घर से चलते ही जुवारियों को यह विचार होता है कि सबका धन बिना परिश्रम, बिना उस धन के स्वामी का कुछ काम किए मेरे हाथ आ जाए। खेलने के समय चाहे जैसा मित्र बैठा हो उसे भी यही कहेंगे, 'बेईमानी करते हो' 'रोए देते हो' इत्यादि। जब इसका भूत चढ़ता है तब दिन रात मन वचन कर्म से इसी में संलग्न रहते हैं।
यों तो सभी पर्व आमोद-प्रमोद करने के लिए नियत किए गए हैं, क्योंकि गृहस्थों को बारहों मास गृहधंधों की चिंता चढ़ी रहती है; और चिंता शरीर की शोषण करने वाली है। इससे हमारे दयालु पूर्वजों ने प्रत्येक मास के एक दो दिन ऐसे नियत कर दिए हैं जिनमें निश्चिंत हो के भगवद्भजन या और किसी रीति से आत्मपोषण किया जाए। उसमें भी तो होली, दिवाली विशेष हैं जिनमें लड़के, बूढ़े, धनी, दरिद्री, विद्वान, मूर्ख, स्त्री, पुरुष सभी यथासामर्थ दिल खुश कर लेते हैं। पर बिचारे जुवारियों की दशा पर खेद है कि अपनी बुद्धि से चार-चार दिन खाना और सोना अपने ऊपर हराम कर लेते हैं। खास पर्व के दिन बाजे-बाजे घरों में दिया जलाना और खील मिठाई खिलौना आदि से कुटुंब को तथा दीपश्राद्ध से पित्रों को एवं पूजन से देवताओं को प्रसन्न करना दूर रहा उलटा स्त्रियों पर इसलिए डंडेबाजी होती है कि 'गहना क्यों नहीं उतार देती'! बाजे-बाजे इतने में भी संतुष्ट नहीं होते तो चोरी तक करके धन लाते हैं, पर दिन रात छै!छै!!छै!!! हौंकने में कोताही नहीं करते। यदि दैवयोग से जीत गए तौ यह कहना तौ व्यर्थ है कि वुह जीतना जिसमें पराई आत्मा कलपा के अपनी जेब भरे, अनुचित है, पर इसमें संदेह नहीं कि हराम का धन भले काम में नहीं लग सकता।
प्रत्यक्ष व हेर फेर के साथ वुह उन्हीं के घर जाएगा जिनसे देश का सत्यानाश होने में कुछ न कुछ सहायता होती है। यह भी नहीं कि इन्हीं तीन चार दिनों या इसी महीने में खेल छुट्टी हो जाए। जीतने पर अधिक लालच और हारने पर घटी पूरी करने की उमंग में बाजे-बाजे बरामासी द्यूतकार होने के लिए भी इसी शुभ दिन में आरंभ कर देते हैं जिसका फल बदनामी, निर्धनता, चोरी की लत, न्यायी हाकिम के यहाँ झाड़बाजी, बड़ा घर, ईश्वर के यहाँ दंड इत्यादि बने बनाए हैं! बरंच हमारा तो यह सिद्धांत है कि अपनी बुरी आदतों का गुलाम हो जाना ही महा नर्क है! और यह बड़े-बड़े बुद्धिमानों ने दृढ़ता से सिद्ध क दिया है कि बुरे कर्म पहिले बहुत थोड़े जान पड़ते हैं पर धीरे-धीरे मन में स्थिर हो के अनेक बुराइयों को उत्पन्न करके सर्वनाथ का कारण होते हैं।
फिर भला जुवा को सब बुराइयों का उत्पादक कहें तो झूठ है? पाप का बाप लोभ प्रसिद्ध है और उसी का मूल कारण जुवा है जिसका सर्वोत्तम फल यह है कि सहज में पराया धन हाथ में आवे, फिर इसकी बुराइयों का ओर छोर क्या हो सकता है? अतः जहाँ तक हो बुद्धिमानों को इससे सदा बचना चाहिए। क्या होली क्या दिवाली बुरा काम सदा सब ठौर बुरा ही है!
हमारे कानपुर ही की एक सच्ची कथा है कि एक बनिया साहब खेल में तन्मय हो रहे थे, घर से खबर आई कि लड़का मर गया। उत्तर दिया कि फिर हम क्या चल के जिला लेंगे? डाल आओ, हमें फुरसत नहीं है। भला ऐसे परम निर्मोही महर्षियों को तौ हम क्या कहें ब्रह्माजी भी नहीं समझा सकते। पर हमारे पाठक कुछ भी इसकी ओर से मुँह फेरेंगे तो उन्हीं के लिए अच्छा है।