जूठन / ओमप्रकाश वाल्मीकि / पृष्ठ-2
- लेखक की ओर से....
दलित-जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने साँसें ली हैं जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी। अपनी व्यथा-कथा को शब्द-बद्ध करने का विचार, काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिली थी। कितनी ही बार लिखना शुरू किया और हर बार लिखे गए पन्ने फाड़ दिए। कहाँ से शुरू करूँ और कैसे ? यही दुविधा थी। कुछ मित्रों की राय थी, आत्मकथा के बजाय उपन्यास लिखो। अचानक दिसम्बर, 1993 में राजकिशोर जी का पत्र आया। वे ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला में ‘हरिजन से दलित’ पुस्तक की योजना बना रहे थे। वे चाहते थे, उस पुस्तक के लिए दस-ग्यारह पृष्ठों में, अपने अनुभव आत्मकथात्मक शैली में लिखूँ। उनका आग्रह था, अनुभव सच्चे एवं प्रामाणिक हों। पात्रों के नाम चाहें तो बदल भी सकते हैं। राजकिशोर जी के इस पत्र ने मेरे मन में बेचैनी पैदा कर दी थी।
कुछ दिन दुविधा में निकल गये। एक पंक्ति तक नहीं लिख पाया। इसी बीच राजकिशोर जी का दूसरा पत्र आ गया था, अल्टीमेटम के साथ। जनवरी, ’94 के अंत तक सामग्री भेजो। पुस्तक प्रेस में जाने के लिए तैयार है। पता नहीं राजकिशोर जी के उस पत्र में ऐसा क्या था, मैंने उसी रात अपने शुरुआती दिनों के कुछ पृष्ठ लिख डाले, और अगले ही दिन राजकिशोर जी को भेज दिए। सप्ताह-भर उत्तर की प्रतीक्षा की। फोन पर बात हुई, उस सामग्री को वे छाप रहे थे। ‘हरिजन से दलित’ पुस्तक में पहला ही शीर्षक था-‘एक दलित की आत्मकथा’। पुस्तक छपते ही पाठकों के पत्रों का सिलसिला शुरू हो गया था। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्रों तक से पाठकीय प्रतिक्रियाएँ मिली थीं। दलित वर्ग के पाठकों को उन पृष्ठों में अपनी पीड़ा दिखाई दे रही थी। सभी का आग्रह था, मैं अपने अनुभवों को विस्तार से लिखूँ। इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद, मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएँ मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा-कितना दुखदायी है यह सब ! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।
कई मित्र हैरान थे, अभी से आत्मकथा लिख रहे हो ! उनसे मेरा निवेदन है-उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा-कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा। एक मित्र की यह भी सलाह थी कि मैं आत्मकथा लिखकर अपने अनुभवों का मूलधन खा रहा हूँ। कुछ का यह भी कहना था कि खुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को ही बढ़ाएँगे। एक बेहद आत्मीय मित्र को भय सता रहा है। उन्होंने लिखा-आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही न खो दें। जो सच है, उसे सबके सामने रख देने में संकोच क्यों ? जो यह कहते हैं-‘हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता’ यानी अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने का भाव-उनसे मेरा निवेदन है, इस पीड़ा के दंश को वही जानता है जिसे सहना पड़ा। इस प्रक्रिया में ऐसा बहुत कुछ है जो लिखा नहीं गया या मैं लिख नहीं पाया। मेरी सामर्थ्य से बाहर था। इसे आप मेरी कमजोरी मान सकते हैं।
पुस्तक का शीर्षक चयन करने में श्रद्धेय राजेन्द्र यादव जी ने बहुत मदद की। अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर पांडुलिपि को पढ़ा। सुझाव दिए। ‘जूठन’ शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया। उनका आभार व्यक्त करना मात्र औपचारिकता होगी। उनके सुझाव और मार्गदर्शन मेरे लिए महत्ता रखते हैं। कँवल भारती और डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन ने इस दौरान मानसिक संबल दिया है। और अंत में, अशोक माहेश्वरी जी, जिनकी बगैर यह पुस्तक शायद पूरी न हो पाती। इसे छापने में उन्होंने जो रुचि दिखाई, उससे मेरी बहुत-सी समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो गया।
4, न्यू रोड स्ट्रीट कलालोंवाली गली, देहरादून-248001 (उ.प्र.)
-ओमप्रकाश वाल्मीकि