जूती / गोवर्धन यादव
उसने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि मन के आँगन के किसी कोने से मस्ती का एक सोता फूट निकला है। अब धीरे-धीरे वह शिराओं में आकर बहने लगा था। शरीर में परिवर्तन होने लगे थे। उसके गाल चटक लाल, ओंठ गुलाबी व लजीले हो आए थे। आँखें नशीली होने लगी थीं। साँस-प्रस्वांस में मलयाचल प्रवाहित होने लगा था। कानों में हजारों-हजार नूपुर एक साथ झंकृत होने लगे थे। देह चन्दन की सी सुवासित होने लगी थी और मन किसी रेशमी रूमाल की तरह हवा में लहराने लगा था। अब वह अपने प्रिय का समीप्य पाने के लिए अधीर हो उठी थी।
आदमकद आईने के सामने निर्वस्त्र बैठी राधा, अपने जीवन में अचानक आए परिवर्तनों का सुक्षमता से निरीक्षण कर रही थी। अपने आप में गुम थी राधा तभी उसके कानों से कुछ कर्कश स्वर आकर टकराने लगे। उसने सहजता से ही अन्दाजा लगा लिया था कि टेरने वाला और कोई नहीं बल्कि बुआ थी।
बुआ उर्फ गंगा देवी उर्फ ठाकुर दौलत सिंह जी के स्वर्गवासी पिता की मुंहबोली बहन। हवेली में आने जाने की इन्हें मनाही नहीं है। वे कभी भी किसी भी वक्त बिना रोकटोक के आ जा सकती हैं। पारिवारिक मामलों में दखलंदाजी भी कर सकती हैं। अपनी सलाह के साथ हुक्म भी दे सकती हैं। इस साम्राज्य में, किसी में भी, इतनी हिम्मत नहीं है कि वह इनकी आज्ञा टाल सके। विशेषकर, जब ठाकुर साहब घर पर नहीं होते हैं, तब इनकी चौकसी और भी बढ़ जाया करती है।
वह थोड़ा सा संभल गई थी कि बुआ तूफान की चाल चलते हुए सोफे में आकर समा गई थी और बिना समय गंवाये, उन्होंने कहना शुरू कर दिया था—
‘घर का कोना-कोना छान मारा और महारानी है कि यहाँ बैठी हुई है। बिहारी की माँ आई थी। न्यौता डाल गई है। आज शाम उसकी बहू की गोद भराई है तैयार रहना। चार-पाँच के बीच में लेने आऊंगी।’
प्रत्युत्तर में वह कुछ कहना चाह रही थी। उसके ओंठ फडफ़ड़ाए ही थे, तब तक तो वे कमरे के बाहर भी निकल चुकी थीं।
राधा ने गौर से देखा उनकी साँसें फूली हुई थीं और वे बराबर हाँफ भी रही थीं तिस पर भी वे कितना कुछ बोल चुकी थीं। एक तूफान के गुजर जाने के बाद की भांति अब चारों ओर शांति पसरने लगी थी।
उसने तन पर जैसे-तैसे साड़ी लपेटी। टेबल पर पड़ी कुंकू की डिब्बी उठाई। माथे पर एक बड़ा-सा सूरज उगाते हुए, माँग भरने ही जा रही थी कि आईने में बनने वाला उसका अक्स बोल उठा—
‘राधा, बिहारी की शादी हुए एक साल बीता है और वह बाप बनने जा रहा है। तेरी शादी हुए तो तीन साल बीत गए। तू कब माँ बनेगी? तेरी कोख कब हरी होगी?’
प्रश्न सुनते ही लगा जैसे उसने धोखे से बिजली का नंगा तार छू लिया हो। पूरा बदन झनझना उठा। आँखों के सामने अंधियारा-सा छाने लगा। थर-थर कांपने लगी। माथे पर पसीने की मोटी-मोटी बूंदें छलछला आईं। हलक गहरे तक सूख आया, लगा कि मिट्टी की कच्ची दीवार की तरह भरभरा कर वह गिर ही पड़ेगी।
अपनी बिखरी हुई शक्तियों को समेटने का उसने पुरजोर प्रयास किया पर लगा कि वह उसके बूते की बात नहीं रह गई है। जैसे तैसे अपने आपको संभाला और लडख़ड़ाते कदमों से चलते हुए वह बरामदे में पड़े झूले पर आकर पसर गई। झूले की लोहे की कडिय़ों से निरन्तर आ रही चर्र-चर्र की आवाज और दहशत बढ़ाने लगती थी। ज्ञात डर को और गहरा कर जाती थी।
विस्फरित नजरें अब भी छत की दीवार से चिपकी थीं। वह अपने आपसे ही पूछने लगी, क्या दर्पण भी कभी झूठ बोलता है। सच ही तो कहा है उसने, शादी हुए तीन साल बीत गए, अब तक उसके गर्भ ठहरा नहीं है। वह तो पूरे प्राणपन से माँ बनने को तैयार बैठी है। कितने ही देवी-देवताओं को वह अब तक नवस चुकी है तिस पर भी अगर वह माँ नहीं बन पा रही है तो उसमें उसका दोष कहाँ है।
वर्तमान की त्रासदी और भविष्य की भयावहता की परिकल्पना से वह सिहर उठती। भयानक गर्त में डूब जाने के डर से वह अपने पर बचाने का प्रयास करते हुए कोई समाधानकारक छत खोजने का प्रयास करती। पर मन की अथाह गहराईयों तक समा चुका डर, अब रूप बदल बदलकर सामने खड़ा होकर डराने लगता। वह उसके खूनी पंजों से बचने के लिए पैंतरे बदलती, फिर भी खरोंच के निशान उभर आते और देह से खून टिपटिपा कर बह निकलता।
वह सोचती इन तीन सालों में कितना कुछ बदल गया है। यह सच है कि उसने कभी महलों का ख्वाब देखा था। अकूत धन-दौलत की कामना की थी। आज सब कुछ है उसके पास। जैसा जो कुछ चाहा था उसने। उसे पूरा-पूरा मिला है। हाँ उसे तब माँ बनने का कभी ख्याल भी नहीं आया था। माँ बनने की तब वह सोच भी कैसे सकती थी। सपनों ने इतना विस्तार लिया ही कहा था, जिसमें पति होगा-बच्चे होंगे। बस केवल धन चाहने की लालसा मन में हिलोरें भरने लगी थी। बापू यदि धन्ना सेठ होते तो शायद ही वह धन-दौलत की कामना करती।
सपनों के अनुरूप हवेली भी मिल गई। नौकर-चाकर भी मिल गए। पर पास का जो अमूल्य खजाना था— वह खो गया था। बात बात पर खिल-खिलाकर हंस देने वाली राधा आज पाषाणी प्रतिमा बनकर दिन भर बैठी रहती है। अब तो वह दूसरों की बजाय स्वयं से ही बातें ज्यादा करने लगी है। भीड़-भाड़ से बचने का प्रयास करने लगी है, जानती है वह कि भीड़ उससे क्या प्रश्न पूछेगी। क्या वह जवाब दे पायेगी? है उसके पास जवाब? वह अपने आपसे प्रश्न पूछती फिर स्वयं ही उत्तर खुद को देती। प्रश्न तो राधा तेरे स्वयं के पास इतने हैं कि तुझे उसके उत्तर ही नहीं मालूम। जब वह स्वयं ही उत्तर नहीं जानती तो भला पूछे जाने पर क्या जवाब देगी।
उसे लगने लगा था कि वह प्रश्नों के जलते रेगिस्तान में खड़ी है। दूर कहीं दूर आशा की एक किरण दिखलाई देती। वह हाँफती दौड़ती उस तक पहुुंचती तो पाती कि वह तो केवल एक मृगतृष्णा थी। अकारण ही वह दौड़-भाग करती रही। उसे तो यह भी महसूस होने लगा था कि उसके तलवों में गहरे जख्मों ने जगह बना ली है और मवाद उसमें से रिस-रिस कर बहने लगा है। वह लगातार चलते तो रहना चाहती है पर जानती है कि पैर उठाये, उठ नहीं रहे हैं। वह धम्म से नीचे बैठ जाती है। जानती है वह कि रेगिस्तान में कब आँधी चलने लगती है। कभी भी
आँधी उठ खड़ी होगी और उसका सारा वजूद-सारा वर्चस्व गर्म रेत के नीचे दब जायेगा, दफन हो जायेगा सदा-सदा के लिए, हमेशा के लिए। उसका मन अब बरगद की शीतल ठंडी छांह तले बैठकर आराम करना चाहने लगा था। तभी मन के किसी कोने से एक झीनी सी आवाज सुनाई दे गई कि राधा बरगद की ठंडी छांव तो तुझे तब नसीब होगी जब तेरी कोख से किसी बीज का अंकुर फूटेगा।
हंसते-मुस्कुराते-हाथ पाँव चलाते चपल-चंचल बच्चे की तस्वीर उसके आँखों के सामने नाचने लगी। बच्चे की कल्पना मात्र से लगा कि बसंत लौट आया है। चारों ओर हरियाली छाने लगी है। हजारों-हजार रंग-बिरंगी तितलियां हवा में फुदकने लगी हैं। बस यह तो वह सब कुछ चाहती है। इन्हीं सपनों के साकार होने की प्रतीक्षा में उसके प्राण-विकल बेचैन होते हैं।
कल्पनाओं के गहरे सागर में उतरकर वह डूबती-तैरती रही। तभी एक बवण्डर सा उठ खड़ा हुआ। जोरदार धमाके के साथ तिनका-तिनका बिखर गया। कल्पनाओं के कल्पतरू धराशायी हो गए। अंदर अब सब कुछ क्षत-विक्षत था। चारों ओर गहरे अंधियारे धूल मिट्टी के गुबार के अलावा बचा भी क्या था।
सब कुछ शांत होने के बाद फिर एक आशा की किरण झिलमिलाती सी दिखलाई थी। आशाएँ फिर बलवती होने लगीं। मन में उत्साह का संचरण होने लगा। सलोने सपने फिर सजने लगे।
आशा और निराशा की लहरों पर हिचकोले खाते हुए वह डूबती-उतरती रही। इस बीच नींद ने उसे कब अपने आगोश में ले लिया, पता ही नहीं चल पाया।
नींद खुली लगा पोर-पोर में ऐंठन के साथ आलस भी रेंग रहा है। एक लंबी अंगड़ाई लेते हुए उसने दूर तक देखा। देखा, दीवार की ओट से हरिया अंदर तांक-झांक कर रहा है। वह क्या देख रहा होगा? वह अंदर आने की हिम्मत कैसे जुटा पाया है? तरह-तरह के प्रश्न दिमाग को मथने लगे थे। वह उसे डांट कर भगा देने ही वाली थी, तभी एक ख्याल कौंधा कि पता तो लगाया जाए कि आखिर वह देख क्या रहा है। उसने झूले पर पड़े-पड़े ही चारों ओर नजरें घुमाई। ऐसा तो कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है। वह स्वयं से कह उठी थी। फिर उसने अपनी नजरें अपनेट्ठे जिस्म पर दौड़ाई। देखा निर्वस्त्र पूरी नंगी देह झूले पर झूल रही थी। बात समझ में आई। उसे स्वयं ही अपनी देह देखकर शर्म-सी आने लगी थी। मानसिक संताप के चलते वह यहाँ चली आई थी। उसे तो अब यह भी याद आने लगा कि वह उस समय इस स्थिति में थी ही नहीं कि साड़ी भी ढंग से लपेट पाती और शायद इसी संताप के चलते वह ब्लाउज भी नहीं पहन पाई थी।
नारी की अनावृत देह देखकर ऋषि मुनि भी विचलित हो जाते हैं, तपस्वियों के तप भंग हो जाते हैं, तो भला हरिया हाड-माँस का एक जीता जागता इंसान है, उसमें भी एक दिल धडक़ता है। नारी सौंदर्य देखकर वह अगर विचलित हो ही गया है तो भला इसमें उसका दोष ही कहाँ है। काश अगर वह स्वयं उसकी जगह होती तो। ...तो पता नहीं... कुछ न कुछ तो अब तक हो जाता। उसने अपने आप से कहा। पोर-पोर में अब रोमाँच हो आया था।
हरिया को डांटकर भगा देने का ख्याल मन से तिरोहित हो गया था। उसने उठते हुए यह अभिनय करने का प्रयास किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जैसे उसने कुछ देखा ही न हो।
बिखरी हुई साड़ी को उठाकर लपेटते हुए वह अपने कमरे में आकर समा गई। चलते समय उसने पलटकर यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या हरिया अब भी वहाँ खड़ा है। हरिया उसे दिखलाई नहीं पड़ा। अपनी मालकिन को जागता देख शायद वह दीवार की ओट में दुबक गया हो और संभव है वह अब तक भागकर अपनी खोली में जा छिपा हो।
हवेली से काफी दूर हटकर नौकरों के लिए अलग-अलग खोलियां बनी हैं। इन्हीं एक खोली में हरिया भी रहता है। एकदम शांत सीधा-सादा हरिया अपने काम में दिन भर रमा रहता। सुबह-शाम गाय-भैंसें लगाता। चारा-पानी देता और निर्देशों का तत्परता से पालन करता। लकडिय़ां फाड़ते हुए उसने उसे कई बार देखा है। गठी हुई देह, यष्टि-चौड़ा सीना, कसी हुई भुजाएँ, जब वह कुल्हाड़ी का भरपूर वार लकड़ी के ल_ट्ठे पर करता, सैकड़ों मछलियां उसकी भुजाओं में उछलने लगती थीं। किसी जरूरी काम से आ निकला होगा और मुझे अनावृत देखकर ललचा गया होगा। मर्द बेचारा- वह विस्तार से सोचने लगी थी।
देह पर साड़ी लपेट लेने के बाद भी ऐसा लग रहा था कि समूची देह पर हरिया की आँखें चिपकी हुई हैं और वे उसे लगातार घूरे जा रही हैं। शर्म से वह दोहरी हुई जा रही थी।
नहाना अब जरूरी हो गया था। सीधे वह बाथरूम में पहुंची। मल-मल कर शरीर धोया। शरीर को अच्छी तरह सुखाकर पाउडर छिडक़ा। बार्डर वाली नीली चमचमाती सी साड़ी लपेटी और बाहर आकर बुआ का इंतजार करने लगी।
बुआ का अब तक कहीं अता-पता नहीं था। बैठे-बैठे उसे कोफ्त होने लगी थी। ऊंची-ऊंची दीवारों को लांघकर ढोल-मंजीरों के स्वर एवं महिलाओं के मिश्रित स्वर अंदर तक आ रहे थे। बुआ के इंतजार में वह अधीर हुई जा रही थी। उससे अब और नहीं बैठा गया। नौकरानी को आवश्यक निर्देश देकर वह घर से निकल पड़ी। एकबारगी मन हुआ, कार निकाल ले, पर मन ने मना कर दिया था। आम औरतें शायद यह न सोचने लगें कि अमीरी का ठस्सा दिखाने के लिए वह गाड़ी पर चढ़ कर आई है। वह पैदल ही हो ली।
बिहारी की माँ ने उसका भरपूर स्वागत किया और बिराजने को भी कहा। पलभर को ढोल-मंजीरे बजने बंद हो गए थे। विस्फरित नजरों से सारी औरतें उसे घूरकर देखने लगी थी। उसके बैठते ही ढोल-ढमाका फिर शुरू हो गया। पूरी मस्ती के साथ औरतें गाने लगी थीं। बीच-बीच में उसकी तरफ देख-देखकर एक दूसरे के कानों में खुसुर-पुसुर भी करते जा रही थीं। लगा कि लक्ष्य उसे ही बनाया जा रहा है।
एक बड़ा सा चौक पूरकर पटा बिछा दिया गया। पानी से भरे लोटे को कलश बनाकर उस पर दीप भी जला दिया गया था। बिहारी की बहू को पटे पर लाकर बिठा दिया गया। औरतें बारी-बारी से गोद भराई करतीं आशीशें देतीं और अपनी जगह पर आकर बैठ जाया करतीं। ढोलक की थाप पर महिलाएँ अब पूरे जोश के साथ गा बजा रही थीं।
राधा को अब अपनी बारी का इंतजार था। उसने गौर से बहू की ओर देखा। डील-डौल काठी से शायद वह हमउम्र रही होगी या साल दो साल छोटी। उसकी कोख में एक बच्चा पल रहा है और वह अब तक इस सुख से वंचित है। एक ईष्र्या भाव मन के किसी कोने में अंगड़ाई लेने लगा था। धडक़ते दिल के साथ उसे एक बात और उद्वेलित कर रही थी कि क्या वह आशीर्वचनों के साथ पूतो फलो-दूधो नहाओ कहने का अधिकार रखती है जबकि इसकी स्वयं की कोख अब तक खाली है। वह मन ही मन अपने से बात कर ही रही थी तभी एक अधेड़ औरत ने जुमला उछालते हुए पूछ ही डाला ‘‘काहे बाई- अपनो नंबर कबे आन वारो है- का यहीं से उठकर हवेली चला चलेंं’’ बात सीधी-सादी थी पर उसने उसके पूरे वजूद को हिलाकर रख दिया था।
जिस बात को लेकर वह भरी-भरी सी थी— डरी-डरी सी थी, वही बात सामने आकर खड़ी हो गई। उसे कोई उत्तर सूझ नहीं पड़ा। आँखें डबडबा आईं। उसे अब मितली सी होने लगी, लगा कै हो जायेगी। तमतमाकर खड़ी हो गई। औरतों के झुण्ड को लगभग लांघते हुए वह बहू के पास पहुंची। सौ का एक नोट थमाया और बिना कुछ कहे, मुंह पर हाथ रखकर सरपट भागी और कमरे के बाहर निकल गई।
तेज गति से चलते हुए उसे लगा कि औरतों के कहकहे, फूहड़ हंसी और तीखे नुकीले व्यंग्य उसका पीछा कर रहे हैं। तेज चाल चलते हुए वह पसीना-पसीना हुई जा रही थी।
दम साधकर उसने सोचा— ‘दमयन्ती यहीं पास में रहती है, चलकर मिल आने में क्या हर्ज है। उसे अपनी पहली मुलाकात की याद हो आई। परिचय पाते ही, सौतिया डाह के चलते उसने उसके मुंह पर थूका और गरजते हुए कहा था कि दुबारा लौटकर यहाँ कभी मत आना। वह तो केवल संभावना के चलते मिलना चाहती थी। फिर उसने अपने आपको समझाईस देते हुए ऐसा करने से मना कर दिया कि एक कमजोर डरी हुई औरत से मिलकर फायदा भी क्या होगा। अगर वह तनिक भी हिम्मतवर होती तो पूछती ठाकुर से कि वह बच्चा जन क्यों नहीं पा रही है। उसमें उसका दोष है या ठाकुर का। बदले इसके, उसने अपने माथे पर बाँझ होने का ठप्पा लगवा लिया और बगल में गठरी दबाए चली आई इस काल कोठरी में। उसने अपने आप को इस कोठरी में बंद कर लिया था सदा-सदा के लिए। वह तो यह भी कहती है कि मर कर ही इस कोठरी से निकलेगी। उसके बाद किसी ने भी उसे बाहर निकलते नहीं देखा है। बुजदिल कमजोर औरत— बुदबुदाई थी वह। एक घृणा का भाव तिर आया था मन में दमयन्ती के लिए। यह घृणा और भी घनीभूत हो उठी थी, जब उसे याद आया कि उसके बदन पर थूक दिया गया था। उसे ऐसा लगने लगा कि पूरे बदन पर थूक ही थूक चिपका हुआ है। तन के साथ-साथ मन भी गंदा हो चला था। उसने अपने बढ़ते हुए कदमों को रोका और लौट पड़ी थी हवेली की ओर।
घर लौटी। सन्नाटे के साथ अंधियारा भी चारों तरफ पसरा पड़ा था। बल्ब फ्यूज हो गए थे अथवा नौकरानी ने जलाए ही नहीं। वह नहीं जानती और न ही उसने लाईट जलाने के लिए स्विच बोर्ड की तरफ हाथ ही बढ़ाए। अंधेरे में कुर्सी टटोलते हुए वह उस पर जा बैठी। आहट पाकर जैकी भूंका जरूर था।
विचारों की शृंखला अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। प्रश्न अपने आपको दुहराने लगता। वह अपने आप से पूछती— ‘‘क्या वह ठाकुर के बच्चे को नहीं जन पायेगी? अगर ऐसा न हुआ तो क्या वह अपने माथे पर बाँझ होने का ठप्पा लगवा पायेगी?’’
माँ न बन पाने की व्यथा औरत को तिल-तिल करके जलाती तो है, समाज यदि उसे बाँझ कहकर पुकारने लगे तो व्यथा और भी बढ़ जाती है। उसका समूचा अस्तित्व ही धू-धू करके जल उठता है। क्या वह इस धधकती अग्नि में अपने-आपको झोंक पायेगी? तरह-तरह के प्रश्नों के जहरीले नाग उसके बदन को कसने लगे थे। लगा कि शरीर की सारी हड्डियां चरमराकर चूर-चूर हो जायेंगी।
भावविह्वल होते हुए एक दिन बुआ ने उसके सामने सच उगल ही दिया था। ठाकुर की पहली दो औरतों ने भी इसी गम को अपने गले से लगा लिया था, और तिल-तिल गलते हुए दुनिया से रुखसत हो गई थीं। तीसरी दमयन्ती इसी रास्ते पर चल ही पड़ी है। घर से जब उसे निकाला गया था, उसकी आत्मा मर गई थी और शेष रह गया था शरीर, मरने के लिए।
अपुष्ट खबरों से उसे यह भी ज्ञात हो चुका था कि अपनी बीवियों के रहते, ठाकुर विभिन्न शहरों में रखैल भी रखे हुए हैं। राजे-रजवाड़ों, अमीर-उमराओं के महलों में, बिगड़े रईसों की हवेलियों में औरतों की इज्जत होती ही कितनी थी। मात्र एक जूती के बराबर। जब तक जी चाहा पैरों में डाले रखा और जब जी चाहा, उतार दिया चौखट के बाहर।
आज भी इन रईसजादों के बिस्तर पर जवान औरतों को चादर की तरह बिछाया जाता है और जब चादर मैली कुचली हो जाती है तो उन्हें फेंककर नई चादर बिछा दी जाती है।
इन्हीं रईसों के खानदान से संबंध रखते हैं ठाकुर दौलतसिंह जी यानी उसके पति। इनकी नजरों में आज भी औरत की कीमत एक जूती के बराबर है। एकबारगी वह चादर जरूर बनना पसंद करेगी परंतु जूती बनना कभी पसंद नहीं करेगी। ठाकुर को सिर्फ एक वारिस चाहिए और उसे बस एक औलाद। जब उसके औलाद पैदा होगी, तो वह संपूर्णता के साथ जी उठेगी। उसके मन का आकाश खुशियों से झूम उठेगा। जब उसका नन्हा राजदुलारा तुतलाती मीठी जुबान में बोलेगा— माँ कहकर पुकारेगा तो उसके साथ दसों दिशाएँ खिल उठेंगी। उसका रोम-रोम मीठे-मीठे गीत गाने लगेगा। उसके सारे संताप-सारे दु:खदर्द- सारी कुंठाएँ उसी मीठी चाशनी में घुल जाएँगी-गुम हो जाएँगे। फिर चाहे ठाकुर उसे चादर की तरह बदल दे और नई चादर भी बिछा ले तो वह न तो दुख मनायेगी, न संताप लेगी- न ही आहें भरेगी और न ही सीत्कार करेगी।
घड़ी ने रात के बारह बजे का ठोंका लगाया। ढोल-मंजीरों के स्वर अब भी हवा में तैर रहे थे। वह उठ खड़ी हुई। पैरों में चप्पलें डालीं और बाहर निकल पड़ी।
सन्नाटे से भरे अंधियारे पथ में, उसके कदम हरिया की खोली के तरफ बढ़ चले थे। शायद एक सूरज की तलाश में जो उसका जग आलोकित कर सके।