जेल और समाज संरचना समान होती है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 अगस्त 2017
अन्याय, असमानता, असहिष्णुता एवं क्रूरता शासित देश की जेलों में भी यही सब होता है। हर देश की जेल उस देश के वनमूल्यों से ही संचालित होती है। जब हमने गांधी और उनके आदर्श को ही खारिज कर दिया है तब हमारी जेल शांताराम की बनाई ‘दो आंखें बारह हाथ’ की तरह किसी आदर्श का परचम कैसे फहरा सकती है? भारत की एक जेल की कथा प्रस्तुत करती है आदित्य चोपड़ा की ताजा फिल्म ‘कैदी बैंड।’ सुना है कि इसी तरह की कथा फरहान अख्तर अभिनीत ‘लखनऊ सेंट्रल’ नामक फिल्म की भी है- ऐसा प्रचारित हो रहा है। दरअसल, दोनों ही फिल्में एक सत्य घटना से प्रेरित हैं कि सजायाफ्ता लोग जेल में अपना गीत-संगीत साधने का प्रयास करते हैं और एक नेता अपने चुनाव प्रचार में इस कैदी बैंड का इस्तेमाल करना चाहता है। वाद्य
यंत्र खरीदने गए कैदी भाग जाते हैं और एक अखिल भारतीय रॉक कन्सर्ट में हिस्सा लेकर अपनी प्रतिभा के लिए पुरस्कार पाते हैं।
इस तरह प्रसिद्ध हुए ये कैदी एक आंदोलन प्रारंभ करते हैं कि जेलों में हजारों लोग कैद हैं, जिन पर एफआईआर दर्ज नहीं हुई, उन्हें न्यायालय में पेश भी नहीं किया जाता। वे व्यवस्था के सनकीपन के शिकार हैं। आपातकाल केवल एक बार लगा है परंतु अघोषित आपातकाल जैसे हालात आज भी कायम हैं। फिल्म में प्रस्तुत गीत की पंक्ति है, ‘आज़ादी को सचमुच आज़ाद करें हम’ गोयाकि 1947 में मिली राजनीतिक आज़ादी उस समय तक अधूरी है जब तक अन्याय व असमानता जारी है। इसी तथ्य को निदा फाज़ली ने इस तरह बयां किया था, ‘आज़ाद न तू, आज़ाद न मैं, तस्वीर बदलती रहती है, दीवार वही रहती है, बेजान लकीरों का नक्शा इंसा की मुसीबत क्या जाने, दिल मंदिर भी है, मस्जिद भी है, ये बात सियासत क्या जाने।’ आगे एक अन्य रचना में निदा फाज़ली कहते हैं, ‘जंजीरों की लंबाई तक है तेरा सारा सैरसपाटा, यह जीवन है एक शोर भरा सन्नाटा।’
चतुर व्यवस्था अपना विरोध करने वालों को विरोध की आज़ादी देती है ताकि वे स्वयं की गणतांत्रिक छवि बनाए रखें परंतु इस नियंत्रित आज़ादी को ही निदा फाज़ली ने इस तरह बयां किया कि ‘जंजीरों की लंबाई तक ही सारा सैरसपाटा है।’ साहस के अनुपात में जंजीर की लंबाई घटाई बढ़ाई जाती है। सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने ऐसा समाज रच लिया है, जो विरोध को तमाशा समझकर उसका लुत्फ उठा रहा है। ‘मिडनाइट एक्सप्रेस’ नामक हॉलीवड की फिल्म में ईरान की जेल का विवरण है। अल्सर पीड़ित एक कैदी अधिक मात्रा में पानी पीकर अपने को बचाए रखता है। सत्य घटना से प्रेरित इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव में जेल जीवन में सधार किए गए। कुछ लोगों का विचार हो सकता है कि अपराधी के साथ जेल में मानवीय व्यवहार क्यों किया जाए परंत इसका जवाब य ही है कि अपराधी नहीं अपराध से घृणा की जा सकती है।
बहरहाल, जेल में कुछ कैदियों की अपनी दादागिरी चलती है। जेल द्वारा दिए गए अंडे भी सभी कैदियों को नहीं दिए जाते वरन जो जेल अधिकारी एवं जेल में पनपे दादाओं को धन दे सकता है, उसी को पौष्टिक आहार मिलता है। जेलों की व्यवस्था में भी करोड़ों रुपए के घपले होते हैं। जेल संबंधित साहित्य रचा गया है। नूतन अभिनीत बिमल रॉय की फिल्म ‘बंदिनी’ जरासंघ की किताब ‘लौह कपाट’ से प्रेरित थी। सचिनदेव बर्मन और शैलेन्द्र ने सार्थक माधुर्य रचा था। एक गीत की पंक्तियां हैं, ‘मुझको तेरी बिदा का मर के भी रहता इंतज़ार, मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूं इस पार, ओ रे माझी ओ ओ रे माझी..।’ इस श्रेणी में शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। मनुष्य को एक और अवसर मिलना चाहिए के आदर्श से यह फिल्म प्रेरित थी। प्रकाश झा की एक फिल्म में दिखाया गया है कि एक अपराधी घोषित नेता को जेल की कोठरी में सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई है। वहां फ्रिज भी है, उसका अपना मालिशिया भी है, मोबाइल भी है।
एक प्रसिद्ध नाटक है ‘थैंक यू मिस्टर ग्लाड।’ स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाला व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है। जेलर अंग्रेज व्यक्ति है। दोनों के बीच अंतरंगता हो जाती है। कैदी जेलर से प्रार्थना करता है कि वह उसे गोली मार दे, क्योंकि फांसी पर जरायमपेशा लटकाए जाते हैं। क्लाइमैक्स में जेलर ग्लाड कैदी की इच्छा के अनुरूप उसे गोली मारता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह न केवल नौकरी खो देता है वरन उसी जेल में कैदी के रूप में रहता है। इससे प्रेरित हिंदी फिल्म अमजद खान के साथ बनाई जाने वाली थी।
बहरहाल, ‘कैदी बैंड’ एक सामाजिक सौद्देश्यता से रची गई मनोरंजक फिल्म है, जिसमें आदर जैन ने अभिनय किया है। यह उनकी पहली फिल्म है। इस फिल्म की नायिका ने भी अपनी पहली फिल्म में ही अपनी असीम संभावनाओं की झलक दिखाई है।