जेल की दीवारें नैतिकता की सरहद नहीं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 27 सितम्बर 2013
पुणे की जेल में सजायाफ्ता 50 कैदियों द्वारा, जिनमें संजय दत्त भी शामिल है आज एक नाटक की प्रस्तुति करने की घोषणा की गई है, जिसे देखने उनके परिवार के सदस्य आने वाले हैं। ज्ञातव्य है कि इसी कॉलम में कुछ वर्ष पूर्व लिखा गया था कि कलकत्ता की जेल में नाटक की प्रस्तुति नियमित तौर पर की जाती थी। उस अभिनव प्रयास में कत्ल की सजा काटने वाले व्यक्ति के अभिनय की प्रशंसा बंगाल के रंगमंच समालोचकों ने की थी। इस प्रकरण से अनेक बातें रेखांकित होती हैं- एक तो यह कि सजायाफ्ता व्यक्ति को भी मनोरंजन की आवश्यकता है तथा प्रतिभा कहीं भी मौजूद हो सकती है। कोई भी मनुष्य सारी उम्र अच्छा या बुरा नहीं होता, जिंदगी का रंग धूसर है। पाक-साफ छवियों वाले सफेदपोश जाने कितने अपराध करके दंडित होने से बच गए हैं और जेलों में निरपराध भी साक्ष्य के अभाव के कारण बंद हैं। आज दौर ऐसा है जब जेल की दीवारें नैतिक मूल्यों की सरहदें नहीं हैं और सारा समाज रंगीन कांच के टुकड़ों के केलिडियास्कोप की तरह हो गया है और उसके प्रतिक्षण बदलते डिजाइन में अच्छा या बुरा, नैतिक या अनैतिक खोजना कठिन हो गया है।
यह अभिनव प्रयोग संकेत देता है कि रंगमंच पर प्रस्तुति की प्रक्रिया भावों का विरेचन भी करती है और मनुष्य के भीतर छुपा उसका श्रेष्ठ भाग बाहर भी आता है। साथ ही अभिनय की रिहर्सल कैदी को यह अनुभव भी दिला सकती है कि उसके द्वारा कत्ल किए गए या शोषित व्यक्ति के दिल पर क्या बीती होगी। प्राय: उन्माद में लोग कत्ल कर देते हैं और अगर उन्हें मरने वाले व्यक्ति के मनोभावों को अभिव्यक्त करने का अवसर मिले तो वे अपने अपराध के बारे में गहराई से सोच सकते हैं। आत्म अवलोकन कर सकते हैं। सभी विचारकों का मत है कि पाप से नफरत करो, पापी से नहीं। 'बिशप्स कैंडलस्टिक' अंग्रेजी का प्रसिद्ध नाटक है, जिस पर सोहराब मोदी ने 'कुंदन' नामक फिल्म बनाई थी। मोदी पंडित बने थे, जो चोर सुनील दत्त को पुलिस से बचा लेते हैं। जेल सुधारगृह होना चाहिए, परंतु इस महान आदर्श के विपरीत जेल अपराध के कॉलेज बन गए हैं, जहां से छोटा अपराधी ग्रेजुएट होकर बड़ा अपराधी बनता है। फिल्मों में भी प्राय: जेलों की प्रस्तुति दोषपूर्ण हुई है। सच्चाई तो यह है कि भ्रष्टाचार के कारण भारतीय जेलों में कोई समानता का नियम नहीं चलता। 'हू किल्ड जेसिका' का एक अफसर आरोपी से कहता है कि 'तुझे लात-घूंसे नहीं मारने के मैंने यथेष्ट पैसे लिए हैं, परंतु तेरा अपराध इतना जघन्य है कि शायद मैं तुझे पीटूं।'
एक दूसरी सतह पर जेल में अनुभवी तथा मजबूत कैदी अपनी अदालत भी चलाते हैं और कम उम्र की लड़की के बलात्कारी को बहुत निर्ममता से पीटते हैं। जेल के भीतर का यह माफिया इतना निर्मम है कि सोते हुए अपराधी पर रात में दो-दो घंटे से पेशाब की जाती है और उन्हें कभी-कभी अपना ही मैला खाने के लिए बाध्य किया जाता है, परंतु भीतर का यह दंड विधान भी केवल गरीब कैदियों को दंडित करता है। अमीर और पवित्रता का चोगा पहने लोग बच जाते हैं। फिल्म 'आवारा' के जेल के एक दृश्य में नायक को रोटी दी जाती है तो वह कहता है कि यह कम्बख्त बाहर मिली होती तो भीतर क्यों आता? हमें जेल के भीतर अनेक सतहों पर चलती सरकारों पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसी बाहरी सामाजिक संरचना होती है, वैसी ही जेल के भीतर असमान शक्तियां सक्रिय होती हैं। जेल कोई द्वीप नहीं है, जिस पर संपूर्ण समाजरूपी सागर की लहरें टकराती नहीं हों, जब संपूर्ण समाज ही जाति-पांति, धर्म, आर्थिक स्थितियों की असमानता और अन्याय से शासित हो तो जेल में किसी धर्म राज्य की स्थापना का विचार ही असंगत हो जाता है। क्या संजय दत्त किसी कौमी दंगे में अत्याचार सहने वाले व्यक्ति की भूमिका करेंगे कि वहां भी गांधीगिरी ही होगी? ज्ञातव्य है कि गांधीवादी आदर्श पर वी. शांताराम ने 'दो आंखें बारह हाथ' नामक महान फिल्म रची थी।