जेल के दो साल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1940 ई. अप्रैल केमध्यसे ले करसन 1942 ई. के मार्च के दूसरे हफ्ते तक प्राय: दो साल जेल में गुजरे और अच्छी तरह गुजरे। सजा थी सख्त। फलत: कुछ-न-कुछ काम करना जरूरी था। फल भी अच्छा ही होने को था। क्योंकि इससे हर साल प्राय: तीन महीने सजा में यों ही कम हो जाया करते हैं। इसी को मुआफी या'रेमिशन'कहते हैं। यही जेलों का नियम है और इससे लाभ न उठाना नादानी है। कुछ काम न करने से शारीरिक,मानसिक आदि हजार संकट भी आते रहते हैं। यों ही गप्प-सड़ाके में नाहक समय कटता है। यद्यपि मेरे साथ यह बात न थी, क्योंकि मैंने अपने एक-एक मिनट के सदुपयोग के लिए नियम बना लिए थे। फिर भी मैंने जेल का कुछ काम करना समय के सदुपयोग के भीतर ही डाल दिया और प्रतिदिन कुछ-न-कुछ सूत कातना तय कर लिया। मेरा चर्खा नियमित रूप से चला करता था। इस बार का सूत जेल की ही संपत्ति रहा। मैंने पैसे देकर उसे रिहाई के समय खरीदा नहीं। ऐसा ही विचार हो आया।