जेल के विशेष अनुभव / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
ऊपर लिखी अपने लोगों की कमजोरियों के अलावे और भी कई बातें वहाँ देखीं। जाने के थोड़े ही दिनों बाद हमने देखा कि कुछ लोगों की एक'हलवा पार्टी' बनी। उसे ही वे लोग 'राक्षस पार्टी' भी कहते थे। बहुत लोगों को घी, दूध, आदि एक जगह जमा कर के हलवा वगैरह पकता और खाया जाता था। इसी से'हलवा पार्टी नाम' पड़ा। हँसी-मजाक और ऊधमतो मचता ही रहता था। कभी नाटक, कभी स्वांग और कभी कुछ और हरकतें होती रहती थीं। दिन-रात कुहराम मचा रहता था। उसी से उसे'राक्षस पार्टी भी कहते थे। आखिर राक्षसों का तो काम ही हैभोग करना, ऊधममचाना। इस हलवे की बीमारी की यह हालत हो गई कि जब सरकार ने घी वगैरह देना बंद कर दिया तब भी हलवा बनना न रुका। सबों को जो थोड़ा-थोड़ा तेल मिलता था उसी को जमा कर के हलवा बनाते थे।
यह भी देखा कि जो लोग खान-पान में छूत-छात की बात रखते थे उनके चौके में राक्षस पार्टी के लोग बलात घुस कर भोजन छू देते और उन लोगों को दिकत करते थे। इससे भी हो-हल्ला होता था। बात बुरी भी थी, ऐसा कहा जा सकता है। मगर मैं भी तो छूत-छातवालों में ही था। पर, मुझे कभी किसी ने इस प्रकारदिक्कतन किया। बात असल यह थी कि और लोगों की छूत-छात एक प्रकार की बनावटी चीज थी। क्योंकि जब सुंदर मिठाइयाँ या इस प्रकार की चीजें कहीं से किसी के पास आती थीं तो वे लोग भी उनमें शामिल हो जाते थे। मगर रोटी, भात में छुआछूत मानते थे। लेकिन मैं तो सभी में समान व्यवहार रखता था। इसलिए उन लोगों के ढोंग को राक्षस लोग मिटाना चाहते थे। पर, मेरा तो ढोंग न था। फिर मुझे क्योंदिक्कतकरते?
जेल में ही पं. जवाहर लाल नेहरू से विशेष बातचीत और परिचय का मौका मिला। एक दिन हमारी-उनकी बातें दोपहर को, खाने के बाद, होने को थीं। वे दूसरे वार्ड में रहते थे। मैंने कहा कि धूप ज्यादा है, आपको आने में कष्ट होगा। मैं ही चला आऊँगा। मैंने समझा था कि आनंद भवन में पले हैं। उनने चट उत्तर दिया कि वकील की हैंसियत से खाने के बाद ही मध्य दोपहरी में कचहरियों में दौड़ने की तो आदत हुई। फिर तकलीफ का क्या प्रश्न? अत: मैं ही आऊँगा आप के पास। मैं इस उत्तर के लिए तैयार था नहीं। फलत: अवाक रह गया। उनकी इस एक ही बात ने मेरे दिल में उनके लिए बहुत उच्च स्थान बना दिया। बहुत कम लीडर और नेता ऐसे बेतकल्लुफ और बाहरी दिखावे से अलग रहते हैं। यह हमारी राजनीति की बड़ी भारी कमी है। जन साधारण का और साधारण कार्यकर्ताओं का जो असल में सब कुछ करनेवाले होते हैं, हृदय कभी जीता नहीं जा सकता बिना इस सादगी और दिखाऊपन के अभाव के। अमीरी तो हमारी राजनीति के लिए प्लेगहैं।
वहीं पर रहते समय असौढ़ा (मेरठ) के चौधरीरघुवीर नारायण सिंह भी आए।मेरा-उनका पुराना परिचय था। वे बहुत बड़े जमींदार और रईस हैं। अमीरी भी उनकी खूब रहीहैं। मैंने उनसे पूछा कि आप अपना आराम छोड़ कर भला इसमें क्यों पड़े? वे पढ़े-लिखे तो अच्छे हैं और बुद्धिभी उनकी काफी तेजहै, मगर अंग्रेजी-दाँ नहीं हैं। इसीलिए मुझे आश्चर्य हुआ कि इस राजनीति में वे कैसे फँसे मगर उनकी बातों से पता लगा कि वे खूब समझ बूझ के इसमें पड़े थे। उनकी तीक्ष्ण बुद्धिने जमाने का रुख उन्हें बता दिया था। फलत: उनने समझ लिया था कि जमींदार बच नहीं सकते यदि वे मुल्क की जन आजादी में न पड़ें। इसलिए उन्होंने अपना फर्ज अदा किया और अपने जमींदारभाईयों को भी न सिर्फ जबानी, बल्कि अमली उपदेश दिया। इससे उन पर मेरी श्रद्धाबढ़ गई। मैंने यह भी देखा कि आराम तलबधनाढय लोगों पर भी राजनीति का अच्छा असरहै। फलत: इस राजनीति में स्वयं मेरी लगन और तेज हो गई।
वहीं पर प्रोफेसर धर्मवीर जी एम.ए. मिले। शांत और पानी के जैसे ठंडे स्वभाव के आदमी और सादगी के मूर्ति स्वरूप मैंने उन्हें पाया। ऐसे योग्य सज्जन को पुलिस ने जब पकड़ा था तो कमर में रस्सी बाँध कर पैदल ही हिंदू काँलेज से सुनसान रास्ते से थाने लाई थी! इससे लोगों ने समझा कि कोई मुस्टंड चोर-डाकू हैं! वे दिन-रात स्लेट ले कर गणित में ही रमते रहते थे। उन्हें दूसरा काम रुचता ही न था।
बहुत से मौलाना लोग साथ ही थे। फलत: इस्लाम के बारे में चर्चा होती रहती थी। बात कुछ ऐसीहैकि हम लोग एक-दूसरे केधर्मोंको ठीक-ठीक जानते नहीं। इसीलिए उनके बारे में बहुत बदगुमानी रहतीहै। बेशक वह बेबुनियाद होतीहै। जो कट्टरधार्मिक होते हैं वह तो और भी अपनेधर्मके सिवाय अन्यधर्मोंको जानते ही नहीं। अगर कुछ जानते भी हैं तो उलटा ही। बचपन में मेरी भी यही हालत थी। मैंइस्लामसे सख्त नफरत करता था। उसे बुरा मानता था। मेराख्यालथा कि वह तो जोर-जबर्दस्ती और मारकाट सिखाताहै। उसमें अन्यधर्मोंके प्रति सहनशीलता तो कतईहैनहीं। बेशक आज तो यहधारणा जड़ से खत्म हो गईहै!मगर राजनीति में आने के पूर्व तक यह बनी थी।
असहयोग के युग में मौलानाओं के कुछ लेक्चर कहीं-कहीं सुन कर और हिदुओं की कदर करते उन्हें देख कर उस धारणा पर थोड़ा सा धक्का जरूर लगा था। मगर फिर भी वह बनी हुई थी। जेल में जाने पर वह निर्मूल हो गई। उसके बाद तो मुझमें धीरे-धीरे उस मामले में आमूल परिवर्तन हो गया। असल में वहाँ मौलाना लोगों ने कुरान शरीफ की आएतें पढ़ कर यह दिखाया कि मंदिर, और गिर्जे आदिधर्मस्थानों की इज्जत करने या उनकी तौहीनी (अप्रतिष्ठा) न करने का आदेश उसी कुरान में दिया गयाहै। उन्होंने यह भी कहा कि कुरान का कहनाहैकि हर मुल्क में समय-समय पर पैगंबर हुआ करते हैं। उसी मुल्क की भाषा में लोगों को उपदेश देते हैं। इससे उनने यह दिखाया कि राम, कृष्ण, ईसा आदि को पैगंबर न मानने की वजह कहाँहै? प्रत्युत इससे तो सिद्धहोताहैकि वह भी पैगंबर थे। संस्कृत या यहूदी भाषा में, जो उन मुल्कों की भाषा थी, लोगों को उपदेश दिया। इस प्रकार वह भी एक जमाना हमारे मुल्क में था जब हरेकधर्मोंके दोषों को न देख उनके गुणों को ही ढूँढ़ निकालने की कोशिश होती थी। मैंने तो स्वयं इसका अनुभव किया। और आज भी एक जमानाहैजब हम ठीक उलटे चलने लगे हैं।
हाँ, तो मुझे तो इससे बड़ा लाभ हुआ। पीछे तो मैंने स्वयमेव कुरान का हिंदी अनुवाद आद्योपांत पढ़ा और अपने दिल को साफ किया।
लखनऊ जेल में भी मैं साथियों के एक दल को गीता पढ़ाता था। वह दल अच्छे-अच्छे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का था। उनमें अनेक लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य पढ़ चुके थे। वह यह भी जानते थे, कम-से-कम उनमें कुछ तो जरूर ही, कि मैंने गीता रहस्य की कई बातों का युक्ति-युक्त खंडन समाचार-पत्रों के द्वारा किया था। इसलिए वे विशेष रूप से मुझसे तर्क-वितर्क करते थे। शांकर सिद्धांत से कहाँ क्या मतभेद तिलक को है यह जानना भी चाहते थे। इस प्रकार अच्छा आनंद आता था। मेरे पास तो वही नन्हीं सी गीता थी। उसी के आधार पर उनका समाधन करता था।
असल में गीता रहस्य के बारे में मेरी खास शिकायत एक ही हैं कि तिलक ने शंकर के सिद्धांत को न समझ कर ही उन पर कटाक्ष किए हैं। बात यहहैकि आम तौर से लोगों में श्री शंकराचार्य के मत के प्रति भ्रांत धारणाहै। लोग मोटी तौर से ही उनके सिद्धांत को जानते हैं। तिलक भी दुर्भाग्य से उसीधारणा के शिकार हो गए थे। शंकर का तो जीवन ही कर्ममय और कर्मयोगी का रहा। उनने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही साफ कह दियाहैकि ज्ञानियों के कर्म को तो मैं कर्म मानता ही नहीं , जिस प्रकार भगवानकृष्ण के क्षत्रियोचित कर्मों को कर्म नहीं मानता, 'ज्ञानिनां कर्म तु कर्मैव न भवति, यथा भगवत: कृष्णस्य क्षात्रां चेष्टितम'।शंकर तो कर्म उसे ही कहते हैं जो कर्ता को अपना फल सुखदुखादि देने में समर्थ हो। ज्ञानी का, और इसलिए कृष्ण का भी कर्म तो कर्महैंनहीं। क्योंकि वह उन्हें सुख-दुख बंधन में डाल नहीं सकता।इसीलिए जहाँ एक ओर शंकर ने ऐसे कर्म का समर्थन और आजीवन स्वयं अनुष्ठान किया, तहाँ दूसरी ओर अज्ञान या आसक्ति मूलक कर्म के त्याग या संन्यास का सारी शक्ति लगा कर समर्थन भी किया। ऐसी दशा मेंशंकर को कर्मयोग का विरोधीकहना उनके साथ घोर अन्याय नहीं तो और क्या है?
उस जेल में कुछ ऐसे साथी भी मिले जिनने आगरे की तरफ तथा संयुक्त प्रांत की दूसरी जगहों में शुद्धि का काम किया था। यों चाहे जो भी हो, लेकिन जब वे लोग अपने-अपने अनुभव सुनाते और बातें करते तो कम-से-कम उस समय कट्टरता का पता मालूम नहीं होता था। जिस प्रकार मुसलमानों की कट्टरता उस समय जाती रही। ठीक उसी प्रकार कट्टर से कट्टर आर्य समाजियों की कट्टरता भी मालूम न पड़ती थी। इसे ही कहते हैं एक ही विपत्ति (Common enemy) के मारे लोगों का एका तथा मतभेद का भुला देना। इसीलिए पांडवों की विजय के बाद जब कृष्ण मथुरा जाने लगे तो कुंती ने बहुत क्लेश से कहा कि हमारे लिए तो विपत्तियाँ ही अच्छी थीं जब बराबर आपका दर्शन होता रहता था। आज तो उनके हट जाने पर आप चलने को तैयार हैं'विपद:संतु न: शश्वत्तात्रा तत्रा जगद्गुरो। भवतो दर्शनं यस्मादपुनर्भव-दर्शनम्'। आज जो फिरहिंदू-मुसलिम एक-दूसरे के खून के प्यासे से मालूम पड़ते हैं उनके लिए तो असहयोग युग ही ठीक था।काश, वह आज भी समझ पाते कि दोनों का उस समय का एक ही शत्रु आज भी बरकरार हैं।