जेल से बाहर / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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बारह महीने के बादसन 1923 ई. के शुरू में ही मैं लखनऊ जेल से बाहर आया। मेरा जुर्माना पच्चीस रुपए था। किसी ने बिना मुझसे पूछे ही दे दिया था। फलत: एक मास और जेल में रहने का मौका ही न लगा। बाहर आने पर पहले तो गाजीपुर आया। जुलूस बना कर लोग स्टेशन पर लेने आए। अच्छी उमंग थी।

मगर बाहर का वायुमंडल दूषित और मनहूस हो गया था। जेल से निकलने के बाद देशबंधु दास और पं. मोतीलाल नेहरू के उद्योग से सत्याग्रह जाँच कमिटी कांग्रेस की तरफ से बनी थी।उसने देश के कोने-कोने में जा कर सत्याग्रह की तैयारी की जाँच तो क्या की, उसे छोड़ फिर कौंसिलों में जाने का रास्ता साफ करना शुरू किया!गाँधीवादियों का तो खास कर, और दूसरों का भी, कहना था कि वह तो बड़ी ही मनहूस चीज थी। उसने देश के वायुमंडल को और भी दूषित कर दिया। इसी गड़बड़ी में गया में सन 1922 ई. के दिसंबर में देशबंधु की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। मगर देशबंधु की कौंसिल ─प्रवेश-नीति उसमें स्वीकृत न हो सकने से और भी गड़बड़ी हुई।

उस समय कांग्रेस में दो प्रचंड दल थे। एक दास साहब और नेहरू का परिवर्तनवाही (Pro changer) और दूसरा श्री राजगोपालाचारी आदि का अपरिवर्तनवादी (No changer) दोनों की लड़ाई बहुत वर्षों तक चलती रही। आज तो समय ने ऐसा पलटा खायाहैकि राजगोपालाचारी पक्के से भी पक्केपरिवर्तनवादीबन गए हैं। दास, नेहरू की भी नाक काट रहे हैं!

मगर असली दिक्कत सत्याग्रह जाँच कमिटी के करते नहीं हुई। वह जिस परिस्थिति के फलस्वरूप थी वही परिस्थिति या उसके उत्पन्न करनेवाले लोग ही असल में जवाबदेह थे इस मनहूस वातावरण के लिए। हालाँकि, उस समय मैं इस बात को समझ न सका। जिस समय सेना उमंग से बढ़ती जा रही हो और सारे मुल्क में जोश लहरें मार रहा हो, ठीक उसी समय बिना लक्ष्य-प्राप्ति के ही, एकाएक 'रुक जाओ' की आज्ञा दे कर हथियार रखवा देने की बात का परिणाम दूसरा होई क्या सकता था? जब मैं बनारस जेल में था तभी चौरी-चौरी की घटना हुई। फलस्वरूप गाँधी जी ने बारदोली में सत्याग्रह स्थगित करने की घोषणा कर दी। उसी का परिणाम यह था। हम लोग तो यह घोषणा पढ़ कर स्तब्ध और क्षुब्ध थे। हालाँकि गाँधी जी जो करेंगे ठीक ही करेंगे यह अटल-विश्वास उस समय मेरा जरूर था। अचानक लड़ाई रोक देना जब कि हार का भी कोई लक्षण न हो, निराली बात थी! इसीलिए आगे बढ़नेवाली शक्तियाँ ईधर-उधरअपना रास्ता ढूँढ़ने लगीं।

अहिंसा के बाल की खाल गाँधी जी की तरह खींचना तो कोई जानता न था। अत: जन-साधारण के और देशबंधु तथा नेहरू जैसे नेताओं की भी समझ में यह बात न आ सकी। इसीलिए वे लोग क्षुब्ध थे और लड़ाई को ऐसा रूप देना चाहते थे जिसमें आंतरिक प्रेरणा या दैवी पुकार जैसी किसी चीज की जरूरत न हो। वह निरा भौतिक हो। इसीलिए उन लोगों ने पुन: कौंसिल प्रवेश का प्रश्न उठाया। सन 1923 के बीतते-न-बीतते वे लोग इसमें सफलीभूत भी हुए। रूस आदि देशों के इतिहास में भी यह देखा गया है कि जब बाहर कोई जबर्दस्त भिड़ंत नहीं होती और जनता में कुछ ठंडक रहती तो पार्लियामेंटोंऔरधारा सभाओं में ही घुस कर बाहर आग बनाए रखने की कोशिश की जाती थी।

हाँ, तो गाजीपुर में मैं काम करता रहा और लोगों को जगाने में तल्लीन था। लेकिन खाना-पीना अब कुछ ऐसा हो गया था कि बाहरी दौड़-धूप बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मेरा ऐसा अनुभव हुआ कि दूध के बिना दिमागी काम करने के लायक आमतौर से हमलोग रही नहीं जाते। मैंने तो न सिर्फ दूध, किंतु मसाला वगैरह सभी छोड़ दिया था। मसाला तो बहुत पहले ही छूटा था। पर, नमक जेल में छूटा। वह अब तक छूटा ही है। शायद बाहर आने पर नमक खाने की कोशिश होती। मगर उसी साल नमक पर टैक्स बढ़ जाने से एक और भी कारण मिल गया और नमक का त्याग जारी रहा। इन सब चीजों का फल यह हुआ कि मैं कमजोर बहुत हो गया। फिर भी घूमना जारी था। फलत: सन 1923 ई. की गर्मियों में लू का थोड़ा असर हो जाने से खाना-पीना कुछ भी रुचता ही न था। प्यास लगती थी। मगर पानी भी अच्छा नहीं लगता था। बड़ी परेशानी हुई। अंत में मैं फिर बक्सर के इलाके में सिमरी चला गया। वहाँ जौ की पतली सी दलिया पानी में पका कर खाता और आम भून कर उसके गूदे से देह की मालिश करता रहा। इस प्रकार धीरे-धीरे लू का असर गया और मैं फिर काम करने लायक हो गया। इसके बाद मैंने गौ केदूधका सेवन पुन: शुरू कर दिया।बाकी खान-पान पूर्ववतरहा। मुझे फिर कोई बाधानहीं हुई।

लेकिन मैं गाजीपुर पुनरपि चला गया। वहाँ कुछ पैसे जिला कांग्रेस कमिटी के लिए जमा किए। इस समय दो घटनाएँ हुईं। एक तो मैंने पं. जवाहर लाल नेहरू से लिखा-पढ़ी शुरू की कि प्रांत के सभी जिलों और जिलों के भी सभी हिस्सों में काम जारी रखने के बजाए हमें थोड़े ही इलाके में सारी शक्ति लगानी चाहिए।गाँधी जी का तो यही बल है कि वह अपनी कमजोरी को साफ स्वीकार करते हैं। हमें भी वही करना चाहिए। मेरा अनुभव बताता था कि यदि हम थोड़ी दूर में ही जगह-जगह जम के (intesive)काम करें तथा सफलता प्राप्त करें तो बाकी जिले या जिलों के हिस्से-स्वयमेव आकृष्ट होजाएगे और हमारी पद्धति अपनाएँगे। इस प्रकार अंत में हम सफल होंगे।

मगर जवाहर लाल जी का कहना था कि जहीं पर काम न होगा उसी स्थान का बुरा असर (re-action) कामवाले इलाके में पड़ेगा और वहाँ भी गड़बड़ी होगी। इसीलिए वे समूचे प्रांत में विस्तृत (Extensive) काम के हिमायती थे। इस प्रकार जेल से आने के थोड़े ही दिनों बाद से ले कर बहुत दिनों तक मेरा-उनकापत्रव्यवहार बराबर चलता रहा। अंत में उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को स्वीकार किया। मगर तब तक तो रही-सही शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी और थोड़ी सी जगहों में भी जम के काम करना असंभव था।

लू से अच्छे होने और पैसा एकत्र करने के बाद दूसरी बात यह हुई कि हमारे कार्यकर्ता लोग इन पैसों को यों ही खर्च कर देना चाहते थे। मगर मैं इसका विरोधी था। जनता के पैसे की एक-एक कौड़ी मैं पवित्र मानता हूँ और उसे ज्यादे से ज्यादा लाभकारी कामों में खर्चने का हिमायती हूँ। इसलिए मैंने साथियों का विरोध किया। जब देखा कि वे लोग नहीं मानते तो जिला कांग्रेस कमिटी का आँफिस गाजीपुर शहर से हटा कर मुहम्मदाबाद (यूसूफपुर) में काजी निजामुलहक साहब के बँगले पर लाया। वे उसके प्रेसिडेंट थे। जमींदार होते हुए भी कांग्रेस के साथ बराबर रहे। शरीफ तो इतने बड़े कि कहिए मत।

प्रसिद्ध नेता डाँ. अंसारी का असली घर यूसूफपुर में ही था। काजी साहब के वे दामाद भी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वहीं रह के मैंने सोचा कि जो भी पाँच-सात सौ रुपए हैं इन्हें खादी में लगा दूँ। नहीं तो खर्च होई जाएगे। कांग्रेस का कोई और कार्यक्रम था भी नहीं। सिमरी में मैंने पहले से ही खादी का काम शुरू कर दिया था। बस, वही काम बढ़ाया और सब पैसे उसी में लगा दिए। असल में गाजीपुर में खादी का कोई काम न होने से सिमरी में ही चालू करना पड़ा। वहाँ काम तो था ही। सिर्फ विस्तार किया और खादी तैयार होने लगी। वहाँ रूई भी होती थी, चर्खे भी चलते थे। अब खादी बुनी जाने भी लगी। लेकिन साथियों से तनातनी तो चलती ही रही। असल में ऐसे झमेले तो मुझे बराबर ही करने पड़े हैं। खास कर सार्वजनिक कोष को ही ले कर। आज भी उनसे पिंड नहीं छूटा है। आगे भी छूटने की आशा नहीं दीखती।

मैं 1923 और 1924 में गाजीपुर में ही रहा और वहीं से युक्त प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का मेंबर था। वहीं से अहमदाबादवाली आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक में गया था। इसका उल्लेख पहले हुआ है। आगे भी होगा। उन दिनों गाँधी जी का जोर था कि कांग्रेस के मेंबर वही हों जो चार आने के बजाए अपने हाथ का कता सूत दें। श्री पुरुषोत्तम दास टंडन इसके समर्थक थे। युक्त प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन जो गोरखपुर में 1924 में हुआ उसमें उन्होंने इसे पास करवाना चाहा। मगर वहाँ के प्रमुख लीडर बाबा राघव दास इसके विरोधी थे, हालाँकि जेल में चर्खे के पीछे उनने बड़े झमेले किए कि चर्खा मिले। वे बराबर कातते भी थे। पर ईधर उनकी धारा पलट गई थी। टंडन जी ने देखा कि मैं ही सूतवाला, जिसे 'यार्न फ्रेंचाइज' (yarn franchise) कहते थे, प्रस्ताव पेश करूँ तो ठीक हो। एक बाबा (संन्यासी) ईधर और दूसरे बाबाउधर। मैं बराबर तकली कातता भी था। वहाँ भी साथ ही थी। उनने मुझसे कहा कि वह प्रस्ताव न लाइएगा? मैं तैयार हो गया और लाया। राघव दास जी नेविरोधकिया। जिला भी उन्हीं का था फिर भी मेरा प्रस्ताव पास हो गया। इस पर कुछ प्रेसवालों ने मुझे अलग ले जा कर मुझेतकली कातते हुए का फोटो बलातलिया।

उसी समय एक मजेदार घटना हो गई। काशी के श्री शिवप्रसाद गुप्त ने मजाक में कहा कि संन्यासी हो कर यह क्या सूत की बात लाते हैं? मैंने चट उत्तर दिया कि मैं अपना धर्म बखूबी जानता हूँ और आपका भी। आपसे मुझे सीखना नहीं है। सभी हँस पड़े। वे चुप हो गए!

आखिरकार परिवर्तन और अपरिवर्तनवादियों का गृह-कलह किसी प्रकार शांत हो इसका रास्ता कोई न निकला। दास-नेहरू प्रयत्न जोरों से जारी था। उधर श्री भगवान दास जी काशी वाले बराबर गाँधी जी पर जोर देते रहे कि स्वराज्य की परिभाषा कर डालिए, नहीं तो खतरे हैं। मगर गाँधी जी ने तब तक न सुना। तब उनने अपनी योजना तैयार कर के दास साहब को दी। उनकी पार्टी ने उसे पास भी कर लिया। फिर सोचा गया कि कांग्रेस में बिना दो में एक पार्टी की जीत के शांति न होगी। सो भी दास साहब की ही पार्टी की जीत से यह संभावना थी। अंत में दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन कर के फैसले की बात तय पाई। मौलाना अबुल कलाम आजाद उसके अध्यक्ष चुने गए। मैं भी उसमें शामिल था। बड़ी चहल-पहल थी।

मौलाना ने अपने भाषण में कौंसिल पक्ष का समर्थन किया। फिर क्या था, दास साहब को विजय की आशा हुई। अंत में गाँधी जी ने दोनों दलों का समझौता करा दिया। तय पाया कि कांग्रेस मैन चाहें तो कौंसिलों में जा सकते हैं या लोगों को भेज सकते हैं। मगर यह काम कांग्रेस के नाम से नहीं होगा। फलत: स्वराज्य-पार्टी के जन्म का सूत्रपात हुआ। उसी पार्टी की ओर से कौंसिल चुनाव की लड़ाई आगे लड़ी गई। यहाँ यह कह दूँ कि मैं उस समय पक्का अपरिवर्तनवादी था।

दिल्ली में यह जो दोनों दलों में समझौता हुआ वह दास-नेहरू के अधिक प्रयत्न का फल था। वहीं मैंने देखा कि स्वराज्य पार्टी का काम जोरों से चलाने के लिए दास साहब ने अंग्रेजी के नए फॉरवर्ड (Forward) नामक दैनिक पत्र का विज्ञापन आदि खूब बँटवाया। तभी से वहपत्रचालू हुआ। वही पीछे नाम बदल कर'लिबर्टी और एडवांस' के रूप में क्रमश: निकलता आयाहै। सरकार के आक्रमण के कारण नाम बदलने पड़े थे।

कलकत्ते के पं. श्यामसुंदर चक्रवत्ती कट्टर अपरिवर्तनवादी थे। जब उन्होंने दोनों दलों के समझौते की बात जानी तो अपने अंग्रेजी पत्र (Servant) में लिखा कि श्री चित्तरंजन दास और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी में, जो दो विरोधीदलो के नेता हैं, कौन-सी समानता आ गई, सिवाय इस बात के कि दोनों ही संक्षेप में सी. आर. (C.R.) कहे जाते हैं? फिर दोनों में कैसे समझौता हो गया? बात तो ठीक ही थी।