जेल / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

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जेल में पहुंचते ही खुफिया पुलिस वालों ने यह प्रबन्ध कराया कि हम सब एक दूसरे से अलग रखे जाएं, किन्तु फिर भी एक दूसरे से बातचीत हो जाती थी। यदि साधारण कैदियों के साथ रखते तब तो बातचीत का पूर्ण प्रबन्ध हो जाता, इस कारण से सबको अलग अलग तनहाई की कोठड़ियों में बन्द किया गया। यही प्रबन्ध दूसरे जिले की जेलों में भी, जहां जहां भी इस सम्बन्ध में गिरफ्तारियां हुई थी, किया गया था। अलग-अलग रखने से पुलिस को यह सुविधा होती है कि प्रत्येक से पृथक-पृथक मिलकर बातचीत करते हैं। कुछ भय दिखाते हैं, कुछ इधर-उधर की बातें करके भेद जानने का प्रयत्‍न करते हैं। अनुभवी लोग तो पुलिस वालों से मिलने से इन्कार ही कर देते हैं। क्योंकि उनसे मिलकर हानि के अतिरिक्‍त लाभ कुछ भी नहीं होता। कुछ व्यक्‍ति ऐसे होते हैं जो समाचर जानने के लिए कुछ बातचीत करते हैं। पुलिस वालों से मिलना ही क्या है। वे तो चालबाजी से बात निकालने की ही रोटी खाते हैं। उनका जीवन इसी प्रकार की बातों में व्यतीत होता है। नवयुवक दुनियादारी क्या जानें? न वे इस प्रकार की बातें ही बना सकते हैं।

जब किसी तरह कुछ समाचार ही न मिलते तब तो जी बहुत घबड़ाता। यही पता नहीं चलता कि पुलिस क्या कर रही है, भाग्य का क्या निर्णय होगा? जितना समय व्यतीत होता जाता था उतनी ही चिन्ता बढ़ती जाती थी। जेल-अधिकारियों से मिलकर पुलिस यह भी प्रबन्ध करा देती है कि मुलाकात करने वालों से घर के सम्बन्ध में बातचीत करें, मुकदमे के सम्बन्ध में कोई बातचीत न करे। सुविधा के लिए सबसे प्रथम यह परमावश्यक है कि एक विश्‍वास-पात्र वकील किया जाए जो यथासमय आकर बातचीत कर सके। वकील के लिये किसी प्रकार की रुकावट नहीं हो सकती। वकील के साथ अभियुक्‍त की जो बातें होती हैं, उनको कोई दूसरा सुन नहीं सकता। क्योंकि इस प्रकार का कानून है, यह अनुभव बाद में हुआ। गिरफ्तारी के बाद शाहजहांपुर के वकीलों से मिलना भी चाहा, किन्तु शाहजहांपुर में ऐसे दब्बू वकील रहते हैं जो सरकार के विरुद्ध मुकदमें में सहायता देने में हिचकते हैं।

मुझ से खुफिया पुलिस के कप्‍तान साहब मिले। थोड़ी सी बातें करके अपनी इच्छा प्रकट की कि मुझे सरकारी गवाह बनाना चाहते हैं। थोड़े दिनों में एक मित्र ने भयभीत होकर कि कहीं वह भी न पकड़ा जाए, बनारसीलाल से भेंट की और समझा बुझा कर उसे सरकारी गवाह बना दिया। बनारसीलाल बहुत घबराता था कि कौन सहायता देगा, सजा जरूर हो जायेगी। यदि किसी वकील से मिल लिया होता तो उसका धैर्य न टूटता। पं० हरकरननाथ शाहजहांपुर आए, जिस समय वह अभियुक्‍त श्रीयुत प्रेमकृष्ण खन्ना से मिले, उस समय अभियुक्‍त ने पं० हरकरननाथ से बहुत कुछ कहा कि मुझ से तथा दूसरे अभियुक्‍तों से मिल लें। यदि वह कहा मान जाते और मिल लेते तो बनारसीदास को साहस हो जाता और वह डटा रहता। उसी रात्रि को पहले एक इन्स्पेक्टर बनारसीलाल से मिले। फिर जब मैं सो गया तब बनारसीलाल को निकाल कर ले गए। प्रातःकाल पांच बजे के करीब जब बनारसीलाल को पुकारा। पहरे पर जो कैदी था, उससे मालूम हुआ, बनारसीलाल बयान दे चुके। बनारसीलाल के सम्बन्ध में सब मित्रों ने कहा था कि इससे अवश्य धोखा होगा, पर मेरी बुद्धि में कुछ न समाया था। प्रत्येक जानकार ने बनारसीलाल के सम्बन्ध में यही भविष्यवाणी की थी कि वह आपत्ति पड़ने पर अटल न रह सकेगा। इस कारण सब ने उसे किसी प्रकार के गुप्‍त कार्य में लेने की मनाही की थी। अब तो जो होना था सो हो ही गया।

थोड़े दिनों बाद जिला कलक्टर मिले। कहने लगे फांसी हो जाएगी। बचना हो तो बयान दे दो। मैंने कुछ उत्तर न दिया। तत्पश्‍चात् खुफिया पुलिस के कप्‍तान साहिब मिले, बहुत सी बातें की। कई कागज दिखलाए। मैंने कुछ कुछ अन्दाजा लगाया कि कितनी दूर तक ये लोग पहुंच गये हैं। मैंने कुछ बातें बनाई, ताकि पुलिस का ध्यान दूरी की ओर चला जाये, परन्तु उन्हें तो विश्‍वसनीय सूत्र हाथ लग चुका था, वे बनावटी बातों पर क्यों विश्‍वास करते? अन्त में उन्होंने अपनी यह इच्छा प्रकट की कि यदि मैं बंगाल का सम्बन्ध बताकर कुछ बोलशेविक सम्बंध के विषय में अपना बयान दे दूं, तो वे मुझे थोड़ी सी सजा करा देंगे, और सजा के थोड़े दिनों बाद ही जेल से निकालकर इंग्लैंड भेज देंगे और पन्द्रह हजार रुपये पारितोषिक भी सरकार से दिला देंगे। मैं मन ही मन में बहुत हंसता था। अन्त में एक दिन फिर मुझ से जेल में मिलने को गुप्‍तचर विभाग के कप्‍तान साहब आये। मैंने अपनी कोठरी में से निकलने से ही इन्कार कर दिया। वह कोठरी पर आकर बहुत सी बातें करते रहे, अन्त में परेशान होकर चले गए।

शिनाख्तें कराई गईं। पुलिस को जितने आदमी मिल सके उतने आदमी लेकर शिनाख्त कराई। भाग्यवश श्री अईनुद्दीन साहब मुकदमे के मजिस्ट्रेट मुकर्रर हुए, उन्होंने जी भर के पुलिस की मदद की। शिनाख्तों में अभियुक्‍तों को साधारण मजिस्ट्रेटों की भांति भी सुविधाएं न दीं। दिखाने के लिए कागजी कार्रवाई खूब साफ रखी। जबान के बड़े मीठे थे। प्रत्येक अभियुक्‍त से बड़े तपाक से मिलते थे। बड़ी मीठी मीठी बातें करते थे। सब समझते थे कि हमसे सहानुभूति रखते हैं। कोई न समझ सका कि अन्दर ही अन्दर घाव कर रहे हैं। इतना चालाक अफसर शायद ही कोई दूसरा हो। जब तक मुकदमा उनकी अदालत में रहा, किसी को कोई शिकायत का मौका ही न दिया। यदि कभी कोई बात हो भी जाती तो ऐसे ढंग से उसे टालने की कौशिश करते कि किसी को बुरा ही न लगता। बहुधा ऐसा भी हुआ कि खुली अदालत में अभियुक्‍तों से क्षमा तक मांगने में संकोच न किया। किन्तु कागजी कार्यवाही में इतने होशियार थे कि जो कुछ लिखा सदैव अभियुक्‍तों के विरुद्ध ! जब मामला सेशन सुपुर्द किया और आज्ञापत्र में युक्‍तियां दी, तब सब की आंखें खुलीं कि कितना गहरा घाव मार दिया।

मुकदमा अदालत में न आया था, उसी समय रायबरेली में बनवारी लाल की गिरफ्तारी हुई, मुझे हाल मालूम हुआ। मैंने पं० हरकरननाथ से कहा कि सब काम छोड़कर सीधे रायबरेली जाएं और बनारसीलाल से मिलें, किन्तु उन्होंने मेरी बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया। मुझे बनारसीलाल पर पहले ही संदेह था, क्योंकि उसका रहन सहन इस प्रकार का था कि जो ठीक न था। जब दूसरे सदस्यों के साथ रहता तब उनसे कहा करता कि मैं जिला संगठनकर्त्ता हूं। मेरी गणना अधिकारियों में है। मेरी आज्ञा पालन किया करो। मेरे झूठे बर्तन मला करो। कुछ विलासिता-प्रिय भी था, प्रत्येक समय शीशा, कंघा तथा साबुन साथ रखता था। मुझे इससे भय भी था, किन्तु हमारे दल के एक खास आदमी का वह विश्‍वासपात्र रह चुका था। उन्होंने सैंकड़ों रुपये देकर उसकी सहायता की थी। इसी कारण हम लोग भी अन्त तक उसे मासिक सहायता देते रहे थे। मैंने बहुत कुछ हाथ-पैर मारे। पर कुछ भी न चली, और जिसका मुझे भय था, वही हुआ। भाड़े का टट्टू अधिक बोझ न सम्भाल सका, उसने बयान दे दिये। जब तक यह गिरफ्तार न हुआ था कुछ सदस्यों ने इसके पास जो अस्‍त्र थे वे मांगे, पर उसने न दिये। जिला अफसर की शान में रहा। गिरफ्तार होते ही सब शान मिट्टी में मिल गई। बनवारीलाल के बयान दे देने से पुलिस का मुकदमा बहुत कमजोर था। सब लोग चारों ओर से एकत्रित करके लखनऊ जिला जेल में रखे गए। थोड़े समय तक अलग अलग रहे, किन्तु अदालत में मुकदमा आने से पहले ही एकत्रित कर दिए गए।

मुकदमे में रुपये की जरूरत थी। अभियुक्‍तों के पास क्या था? उनके लिए धन-संग्रह करना दुष्‍कर था। न जाने किस प्रकार निर्वाह करते थे। अधिकतर अभियुक्‍तों का कोई सम्बन्धी पैरवी भी न कर सकता था। जिस किसी के कोई था भी, वह बाल बच्चों तथा घर को सम्भालता या इतने समय तक घर-बार छोड़कर मुकदमा करता? यदि चार अच्छे पैरवी करने वाले होते तो पुलिस का तीन-चौथाई मुकदमा टूट जाता। लखनऊ जैसे जनाने शहर में मुकदमा हुआ, जहां अदालत में कोई भी शहर का आदमी न आता था ! इतना भी तो न हुआ कि एक अच्छा प्रेस-रिपोर्टर ही रहता, जो मुकदमे की सारी कार्यवाही को, जो कुछ अदालत में होता था, प्रेस में भेजता रहता ! इण्डियन डेली टेलीग्राफ वालों ने कृपा की। यदि कोई अच्छा रिपोर्टर आ भी गया, और जो कुछ अदालत की कार्यवाही ठीक ठीक प्रकाशित की गई तो पुलिस वालों ने जज साहब से मिलकर तुरन्त उस रिपोर्टर को निकलवा दिया ! जनता की कोई सहानुभूति न थी। जो पुलिस के जी में आया, करती रही। इन सारी बातों को देखकर जज का साहस बढ़ गया। उसने जैसा जी चाहा सब कुछ किया। अभियुक्‍त चिल्लाये - 'हाय! हाय!' पर कुछ भी सुनवाई न हुई ! और बातें तो दूर, श्रीयुत दामोदरस्वरूप सेठ को पुलिस ने जेल में सड़ा डाला। लगभग एक वर्ष तक वे जेल में तड़फते रहे। सौ पौंड से केवल छियासठ पौंड वजन रह गया। कई बार जेल में मरणासन्न हो गए। नित्य बेहोशी आ जाती थी। लगभग दस मास तक कुछ भी भोजन न कर सके। जो कुछ छटांक दो छटांक दूध किसी प्रकार पेट में पहुंच जाता था, उससे इस प्रकार की विकट वेदना होती थी कि कोई उनके पास खड़ा होकर उस छटपटाने के दृश्य को देख न सकता था। एक मैडिकल बोर्ड बनाया गया, जिसमें तीन डाक्टर थे। उनकी कुछ समझ में न आया, तो कह दिया गया कि सेठजी को कोई बीमारी ही नहीं है ! जब से काकोरी षड्यंत्र के अभियुक्‍त जेल में एक साथ रहने लगे, तभी से उनमें एक अद्‍भुत परिवर्तन का समावेश हुआ, जिसका अवलोकन कर मेरे आश्‍चर्य की सीमा न रही। जेल में सबसे बड़ी बात तो यह थी कि प्रत्येक आदमी अपनी नेतागिरी की दुहाई देता था। कोई भी बड़े-छोटे का भेद न रहा। बड़े तथा अनुभवी पुरुषों की बातों की अवहेलना होने लगी। अनुशासन का नाम भी न रहा। बहुधा उल्टे जवाब मिलने लगे। छोटी-छोटी बातों पर मतभेद हो जाता। इस प्रकार का मतभेद कभी कभी वैमनस्य तक का रूप धारण कर लेता। आपस में झगड़ा भी हो जाता। खैर ! जहां चार बर्तन रहते हैं, वहां खटकते ही हैं। ये लोग तो मनुष्य देहधारी थे। परन्तु लीडरी की धुन ने पार्टीबन्दी का ख्याल पैदा कर दिया। जो युवक जेल के बाहर अपने से बड़ों की आज्ञा को वेद-वाक्य के समान मानते थे, वे ही उन लोगों का तिरस्कार तक करने लगे ! इसी प्रकार आपस का वाद-विवाद कभी-कभी भयंकर रूप धारण कर लिया करता। प्रान्तीय प्रश्‍न छिड़ जाता। बंगाली तथा संयुक्‍त प्रान्त वासियों के कार्य की आलोचना होने लगती। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बंगाल ने क्रान्तिकारी आन्दोलन में दूसरे प्रान्तों से अधिक कार्य किया है, किन्तु बंगालियों की हालत यह है कि जिस किसी कार्यालय या दफ्तर में एक भी बंगाली पहुंच जाएगा, थोड़े ही दिनों में उस कार्यालय या दफ्तर में बंगाली ही बंगाली दिखाई देंगे ! जिस शहर में बंगाली रहते हैं उनकी बस्ती अलग ही बसती है। बोली भी अलग। खानपान भी अलग। जेल में यही सब अनुभव हुआ।

जिन महानुभावों को मैं त्याग की मूर्ति समझता था, उनके अन्दर भी बंगालीपने का भाव देखा। मैंने जेल से बाहर कभी स्वप्‍न में भी यह विचार न किया था कि क्रान्तिकारी दल के सदस्यों में भी प्रान्तीयता के भावों का समावेश होगा। मैं तो यही समझता रहा कि क्रान्तिकारी तो समस्त भारतवर्ष को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्‍न कर रहे हैं, उनका किसी प्रान्त विशेष से क्या सम्बन्ध? परन्तु साक्षात् देख लिया कि प्रत्येक बंगाली के दिमाग में कविवर रवीन्द्रनाथ का गीत 'आमर सोनार बांगला आमि तोमाके भालोवासी' (मेरे सोने के बंगाल, मैं तुझसे मुहब्बत करता हूँ) ठूंस-ठूंस कर भरा था, जिसका उनके नैमित्तिक जीवन में पग-पग पर प्रकाश होता था। अनेक प्रयत्‍न करने पर भी जेल के बाहर इस प्रकार का अनुभव कदापि न प्राप्‍त हो सकता था।

बड़ी भयंकर से भयंकर आपत्ति में भी मेरे मुख से आह न निकली, प्रिय सहोदर का देहान्त होने पर भी आंख से आंसू न गिरा, किन्तु इस दल के कुछ व्यक्‍ति ऐसे थे, जिनकी आज्ञा को मैं संसार में सब से श्रेष्‍ठ मानता था जिनकी जरा सी कड़ी दृष्‍टि भी मैं सहन न कर सकता था, जिनके कटु वचनों के कारण मेरे हृदय पर चोट लगती थी और अश्रुओं का स्रोत उबल पड़ता था। मेरी इस अवस्था को देखकर दो चार मित्रों को जो मेरी प्रकृति को जानते थे, बड़ा आश्‍चर्य होता था। लिखते हुए हृदय कम्पित होता है कि उन्हीं सज्जनों में बंगाली तथा अबंगाली का भाव इस प्रकार भरा था कि बंगालियों की बड़ी से बड़ी भूल, हठधर्मी तथा भीरुता की अवहेलना की गई। यह देखकर अन्य पुरुषों का साहस बढ़ता था, नित्य नई चालें चली जाती थीं। आपस में ही एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाते थे ! बंगालियों का न्याय-अन्याय सब सहन कर लिया जाता था। इन सारी बातों ने मेरे हृदय को टूक टूक कर डाला। सब कृत्यों को देख मैं मन ही मन घुटा करता।

एक बार विचार हुआ कि सरकार से समझौता कर लिया जाए। बैरिस्टर साहब ने खुफिया पुलिस के कप्‍तान से परामर्श आरम्भ किया। किन्तु यह सोचकर कि इससे क्रान्तिकारी दल की निष्‍ठा न मिट जाए, यह विचार छोड़ दिया गया। युवकवृन्द की सम्मति हुई कि अनशन व्रत करके सरकार से हवालाती की हालत में ही मांगें पूरी करा ली जाएं क्योंकि लम्बी-लम्बी सजाएं होंगी। संयुक्‍त प्रान्त की जेलों में साधारण कैदियों का भोजन खाते हुए सजा काटकर जेल से जिन्दा निकलना कोई सरल कार्य नहीं। जितने राजनैतिक कैदी षड्यन्त्रों के सम्बन्ध में सजा पाकर इस प्रान्त की जेलों में रखे गए, उनमें से पांच-छः महात्माओं ने इस प्रान्त की जेलों के व्यवहार के कारण ही जेलों में प्राण त्याग दिये !

इस विचार के अनुसार काकोरी के लगभग सब हवालातियों ने अनशन व्रत आरम्भ कर दिया। दूसरे ही दिन सब पृथक कर दिये गए। कुछ व्यक्‍ति डिस्ट्रिक्ट जेल में रखे गए, कुछ सेण्ट्रल जेल भेजे गए। अनशन करते पन्द्रह दिवस बीत गए, तब सरकार के कान पर भी जूं रेंगी। उधर सरकार का काफी नुकसान हो रहा था। जज साहब तथा दूसरे कचहरी के कार्यकर्त्ताओं को घर बैठे वेतन देना पड़ता था। सरकार को स्वयं चिन्ता थी कि किसी प्रकार अनशन छूटे। जेल अधिकारियों ने पहले आठ आने रोज तय किये। मैंने उस समझौते को अस्वीकार कर दिया और बड़ी कठिनता से दस आने रोज पर ले आया। उस अनशन व्रत में पन्द्रह दिवस तक मैंने जल पीकर निर्वाह किया था। सोलहवें दिन नाक से दूध पिलाया गया था। श्रीयुत रोशनसिंह जी ने भी इसी प्रकार मेरा साथ दिया था। वे पन्द्रह दिन तक बराबर चलते-फिरते रहे थे। स्नानादि करके अपने नैमित्तिक कर्म भी कर लिया करते थे। दस दिन तक मेरे मुख को देखकर अनजान पुरुष यह अनुमान भी नहीं कर सकता था कि मैं अन्न नहीं खाता।

समझौते के जिन खुफिया पुलिस के अधिकारियों से मुख्य नेता महोदय का वार्तालाप बहुधा एकान्त में हुआ करता था, समझौते की बात खत्म होने जाने पर भी आप उन लोगों से मिलते रहे ! मैंने कुछ विशेष ध्यान न दिया। यदा कदा दो एक बात से पता चलता कि समझौते के अतिरिक्त कुछ दूसरी बातें भी होती हैं। मैंने इच्छा प्रकट की कि मैं भी एक समय सी० आई० डी० के कप्‍तान से मिलूं, क्योंकि मुझसे पुलिस बहुत असन्तुष्‍ट थी। मुझे पुलिस से न मिलने दिया गया। परिणामस्वरूप सी० आई० डी० वाले मेरे दुश्‍मन हो गए। सब मेरे व्यवहार की ही शिकायत किया करते। पुलिस अधिकारियों से बातचीत करके मुख्य नेता महोदय को कुछ आशा बंध गई। आपका जेल से निकलने का उत्साह जाता रहा। जेल से निकलने के उद्योग में जो उत्साह था, वह बहुत ढ़ीला हो गया। नवयुवकों की श्रद्धा को मुझ से हटाने के लिए अनेकों प्रकार की बातें की जाने लगीं। मुख्य नेता महोदय ने स्वयं कुछ कार्यकर्त्ताओं से मेरे सम्बन्ध में कहा कि ये कुछ रुपये खा गए। मैंने एक एक पैसे का हिसाब रखा था। जैसे ही मैंने इस प्रकार की बातें सुनीं, मैंने कार्यकारिणी के सदस्यों के सामने रखकर हिसाब देना चाहा, और अपने विरुद्ध आक्षेप करने वाले को दण्ड देने का प्रस्ताव उपस्थित किया। अब तो बंगालियों का साहस न हुआ कि मुझ से हिसाब समझें। मेरे आचरण पर भी आक्षेप किये गए।

जिस दिन सफाई की बहस मैंने समाप्‍त की, सरकारी वकील ने उठकर मुक्‍त कण्ठ से मेरी बहस की प्रशंसा की कि आपने सैंकड़ों वकीलों से अच्छी बहस की। मैंने नमस्कार कर उत्तर दिया कि आपके चरणों की कृपा है, क्योंकि इस मुकदमे के पहले मैंने किसी अदालत में समय न व्यतीत किया था, सरकारी तथा सफाई के वकीलों की जिरह सुन कर मैंने भी साहस किया था। इसके बाद जब से पहले मुख्य नेता महाशय के विषय में सरकारी वकील ने बहस करनी शुरू की। खूब ही आड़े हाथों लिया तो मुख्य नेता महाशय का बुरा हाल था, क्योंकि उन्हें आशा थी कि सम्भव है सबूत की कमी से वे छूट जाएं या अधिक से अधिक पांच या दस वर्ष की सजा हो जाए। आखिर चैन न पड़ी। सी० आई० डी० अफसरों को बुला कर जेल में उनसे एकान्त में डेढ़ घण्टे तक बातें हुई। युवक मण्डल को इसका पता चला। सब मिलकर मेरे पास आये। कहने लगे, इस समय सी० आई० डी० अफसर से क्यों मुलाकात की जा रही है? मेरी जिज्ञासा पर उत्तर मिला कि सजा होने के बाद जेल में क्या व्यवहार होगा, इस सम्बन्ध में बातचीत कर रहे हैं। मुझे सन्तोष न हुआ। दो या तीन दिन बाद मुख्य नेता महाशय एकान्त में बैठ कर कई घंटे तक कुछ लिखते रहे। लिखकर कागज जेब में रख भोजन करने गए। मेरी अन्तरात्मा ने कहा, ' उठ, देख तो क्या हो रहा है?' मैंने जेब से कागज निकाल कर पढ़े। पढ़कर शोक तथा आश्‍चर्य की सीमा न रही। पुलिस द्वारा सरकार को क्षमा-प्रार्थना भेजी जा रही थी। भविष्य के लिए किसी प्रकार के हिंसात्मक आन्दोलन या कार्य में भाग न लेने की प्रतिज्ञा की गई थी। Undertaking दी गई थी। मैंने मुख्य कार्यकर्त्ताओं से सब विवरण कह कर इस सब का कारण पूछा कि क्या हम लोग इस योग्य भी नहीं रहे, जो हमसे किसी प्रकार का परामर्श किया जाए? तब उत्तर मिला कि व्यक्‍तिगत बात थी। मैंने बड़े जोर के साथ विरोध किया कि यह कदापि व्यक्‍तिगत बात नहीं हो सकती। खूब फटकार बतलाई। मेरी बातों को सुन चारों ओर खलबली मची। मुझे बड़ा क्रोध आया कि कितनी धूर्त्तता से काम लिया गया। मुझे चारों ओर से चढ़ाकर लड़ने के लिए प्रस्तुत किया गया। मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचे गए। मेरे ऊपर अनुचित आक्षेप किए गए, नवयुवकों के जीवन का भार लेकर लीडरी की शान झाड़ी गई और थोड़ी सी आपत्ति पड़ने पर इस प्रकार बीस-बीस वर्ष के युवकों को बड़ी-बड़ी सजाएं दिला, जेल में सड़ने को डाल कर स्वयं बंधेज से निकल जाने का प्रयत्‍न किया गया। धिक्कार है ऐसे जीवन को ! किन्तु सोच-समझ कर चुप रहा।