जैंता एक दिन तो आलो / गिरीश तिवारी गिर्दा

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जैंता एक दिन तो आलो
लेखक:ज़हूर आलम

गिर्दा भौतिक रूप से आज हमारे बीच नहीं है। एक शरीर चला गया लेकिन उनका संघर्ष, उनकी बात, उनके गीत, उनकी कविता, उनके लोक नाटकों में उठाए गये मुद्दे और जो कुछ वह समाज को दे गये वह सारा कुछ हमेशा जनसंघर्षो को ऊर्जा देता रहेगा। गिरदा आम जन की हर लड़ाई में संघर्ष के गीत गाते रहेंगे। जनता के पक्ष के कवि की आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी।

गिरदा की अन्दाजे बयानी का भी जवाब नहीं था। कहते हैं कि गालिब का है अन्दाजे बयाँ और। गिरदा कविता को इस दरजा बेहतर ढंग से परफॉर्म करते थे कि उनकी वाणी से निकला एक-एक लफ्ज सीधे से सुनने वाले के दिल में उतर जाता था। कविता या गीत की एक-एक पंक्ति, शब्द और उनके व्यापक अर्थों को वह अपनी अन्दाजे बयानी और हाव-भाव में चित्र रूप में साकार कर देते थे। अपनी जादुई बुलन्द आवाज में सुर-लय-ताल के साथ उनके शरीर का एक-एक अंग बोलता था। कविता चाहे मंच पर हो या सड़क पर, उनकी प्रस्तुति हर जगह जिन्दा और बोलती हुई होती थी जो श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाती थी।

उत्तराखण्ड आन्दोलन जब अपने पूरे शबाब पर था और सभी सांस्कृतिक संस्थाएँ, कलाकार, रंगकर्मी, कवि आदि अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने गीत, संगीत, नाटक के जरिये आन्दोलन को तेल-पानी दे रहे थे और पूरा जनमानस इस ऊर्जा से चार्ज था। उस समय नैनीताल समाचार के उत्तराखण्ड बुलेटिन में आन्दोलन की सही खबरों के लिए खूब भीड़ जुटती थी। इस बुलेटिन में गिरदा की उपस्थिति और ही समाँ बाँध देती थी। गौर्दा के वृक्षन को विलाप- ‘आज हिमाल तुमन के धत्यूँछ, जागो-जागो हो मेरा लाल’ की तर्ज पर हर दिन नये हरूफ लिखकर गिरदा अपनी ओजस्वी वाणी में सुनाते थे। वे केवल शब्द और छन्द नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में हो रहे घटनाक्रम का लेखा-जोखा और सरकार बहादुर का कच्चा चिट्ठा होता था। साथ ही जनता से आवाहन भी। इसके रोज-बरोज नये छंद जुड़ते जाते थे और इसी से उत्तराखण्ड काव्य की रचना हुई। उत्तराखण्ड काव्य पर स्वयं गिरदा ने बहुत सटीक टिप्पणी की है।

‘यह काव्य/
या कि यह गीत पंक्तियाँ/
चूँकि नहीं बनती प्रतिदिन/
नुक्कड़ नुक्कड़ ये गाने हित/
गा कर खबर सुनाने हित/
आन्दोलन मुखर बनाने हित/
इसलिए इन्हें हू ब हू/
बहुत मुश्किल/
हरूफों में लिख पाना/
जैसे कोई लोक काव्य।’

गिरदा परिपक्व दृष्टि वाला एक ऐसा जनकवि था जो जनता के खिलाफ हाने वाले हर षडयन्त्र के विरुद्ध ताल ठोंक कर खड़ा था और उन षडयन्त्रों के खिलाफ लोगों को आगाह करते हुए चलता था।

‘उत्तराखण्ड की/
आज लड़ाई यह जो/
हम लड़ रहे सभी/
सीमित हरगिज उत्तराखण्ड तक/
इसे नहीं/
साथी समझो/
यदि सोच संकुचित हुआ कहीं/
तो भटक लड़ाई जाएगी/
इसलिए/
खुले दिल और दिमाग से/
मित्रो/
लड़ना है इसको।’

गिरदा ने इस सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ हमेशा ही टिप्पणी की है-

‘हालते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें/
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें।
गोलियाँ कोई निशाने बाँध कर दागीं थी क्या/
खुद निशाने पे पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें ?’

या उनकी उलटबाँसियाँ-

‘ये उलटबासियाँ नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी’,

या-

‘इस वक्त जब मेरे देश में/
पेश किये जा जा रहे हैं पेड़ पेड़ों के खिलाफ/
पानी पानी के खिलाफ…..जनता के खिलाफ जनता’

हर जगह गिरदा अपनी कविता में लोगों को एक व्यापक दृष्टि देते हुए दिखाई देते हैं। यथा, ‘कैसा हो स्कूल हमारा’ आदि कविताएँ। गिरदा ने हर सामाजिक विषय पर कविता लिखी लेकिन अपने ही पैने अन्दाज में,

‘फिर आई वर्षा ऋतु लाई नवजीवन जल धार/
कृषि प्रधान भारत में उजडे़ फिर कितने घर बार।’

गिरदा एक प्रतिबद्व सांस्कृतिक व्यक्तित्व और रचनाधर्मी था। गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी संस्कृति का कोई आयाम गिरदा से छूटा नहीं था। मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने गिरदा की क्षमता का लोहा माना। उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है। नाट्य मंचन में भी प्रतिबद्ध और व्यापक दृष्टि का दर्शन होता है। गिरदा ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अदभुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की। पहाड़ी (पारम्परिक) होलियों को भी गिरदा ने न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि इस गौरवशाली परम्परा को और व्यापक फलक तथा दृष्टि दी और कई नये प्रयोग भी किये । होली गीतों को भी अपनी प्रयोगधर्मी दृष्टि से सामयिकता दी।

‘झुकी आयो शहर में व्योपारी/…….
पेप्सी कोला की गोद में बैठी, संसद मारे पिचकारी/
दिल्ली शहर में लूट मची है। आयो विदेशी व्योपारी।’

गिरदा ने हमेशा जनता के दुख-दर्दों को आवाज दी और लड़ने का साहस जगाया, आशावाद की प्रेरणा दी। जैसा कि हम सभी की और गिरदा की भी चाहना है कि आएँगे उजले दिन जरूर। इसीलिए गिरदा ने साहिर और विश्व महाकवि फैज के साथ अपने को एकाकार कर लिया था।

‘ततुक की लगा उदेख, घुनन मुनइ नि टेक, जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में।’

उन्होंने फैज की कई रचनाओं का कुमाउँनी में, लेकिन यहीं के मूल मुहावरों और खुशबू के साथ ऐसा सुन्दर भावानुवाद किया, जिसकी मिसाल दुर्लभ है। विश्वदृष्टि के साथ गिरदा अपनी मिट्टी की खुशबू, यहाँ के लोगों, पहाडों, नदियों, पेड़ों और हिमालय को कभी नहीं भूले। यहाँ का वातावरण उनकी साँसो में बसता था।

‘उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि/
मातृभूमि मेरी पितृभूमि/
भूमि, तेरी जय जय कारा/
म्यर हिमाला।’

नैतीताल समाचार से साभार