जैसलमेर - सम के टीले / रश्मि शर्मा
जैसलमेर से कुलधरा, फिर कुलधरा से सम की ओर कैब से प्रस्थान करते हुए दो ही शब्द बार-बार ज़ेहन में आ रहे थे एक 'मरुस्थल' दूसरा 'रेत के टिब्बे'। इन्हीं के आकर्षण के चलते तो हम गए थे अपने घर से इतनी दूर राजस्थान के जैसलमेर में। कुलधरा से सम पहुँचने में बहुत ही कम समय लगा हमें, महज़ 42 किलोमीटर की दूरी। संयोग से हमारा कैब ड्राइवर 'लच्छू' बेहद बातूनी मगर दिलचस्प इंसान, उस पर तुर्रा यह कि महाशय भूगोल विषय से बी.ए.पास सो रास्ता कब कटगयापता ही नहीं चला।
कहते हैं कि लौह-युग के वक़्त वैदिक भारत में यह सारा इलाका समुद्र था, जिसे लवणसागर यानी खारा समुद्र के नाम से जाना जाता रहा और जब भगवान राम सीता जी को खोजने निकले, तो इसी रास्ते से गए, परन्तु अपने आग्नेय अस्त्रों से इस समुद्र को भी सुखाते चले। कहते हैं-यहाँ आज तक भी समुद्री वनस्पतियों के फॉसिल या जीवाश्म मिलते हैं। नारियल के सघन बन कभी यहाँ रहे होंगे; क्योंकि उनके भी रेत में गहरे दबे अवशेष यहाँ मिले हैं।
हमारी इस जानकारी का समर्थन जब कैब के ड्राइवर ने किया, तो हमारे बड़े बेटे अमित्युश की बहस लच्छू से हो गई, जिसे हमारे इलाके में स्थित राजमहल हिल्स में मिलने वाले फॉसिल्स की जानकारी अपनी पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से थी और उसका यह मानना था कि फॉसिल्स सिर्फ़ पहाड़ों में मिलते हैं। बालहठ के आगे भगवान की भी नहीं चली, सो ड्राइवर ने हार मान ली और चुप्पी लगा गए.
रास्ते में कुछ अच्छे रिसॉर्ट्स दिखाई दिए भव्य...खूबसूरत। यहाँ पाए जाने वाले पीले पत्थरों को तराश कर किलेनुमा बने हुए, जैसे राजपूताना का इतिहास जीवित हो रहा हो उनमें। मगर वक्त नहीं था कि रुककर देखते। हमारी बुकिंग के हिसाब से हमें शाम चार बजे कैंप में एंट्री करनी थी। जब हम सम पहुँचे तो कई कैम्प नज़र आए. मगर कहीं रेत का नामोनिशान नहीं था। सड़क किनारे कहीं-कहीं बालू पड़ी थी। जैसे हमारे यहाँ भी होते हैं। हम बड़े निराश हुए. लगा, क्या यही देखने हम इतनी दूर आए है। हमारे यहाँ तो इससे ज्यादा बालू मिल जाएगी।
हमारी निराशा को भांपकर और उतरे हुए चेहरे देख लच्छू महाराज ने कहा "आप लोग जीप सफारी करोगे"। पहले तो हमने मना कर दिया क्योंकि चार बजने ही वाले थे। पर उसने आग्रह किया कि मेरे कहने पर चले जाओ, इतनी दूर आए हो। हम मान गए.
उसने गाड़ी एक छोटे से झोपड़े के आगे लगा दी। शायद वहाँ चाय-पानी की व्यवस्था थी, स्थानीय भाषा में ऐसी जगहों को थड़ी कहते हैं। वहाँ से जीप में बैठे हम। खुली जीप थी अजीब-सी जोंगा टाइप। दो मिनट के अंदर जीप हवा से बातें करने लगी और जैसे चमत्कार हुआ। हम एकदम रेगिस्तान पहुँच गए. लगा, अभी तो कोलतार की चिकनी सड़क पर चल रहे थे और अचानक रेत का समंदर। गाड़ी के पहिए से लग कर जबरदस्त रेत उछल कर हमारे चेहरे पर चिपक रही थी। हम हवा से बातें करते जा रहे थे।
जीप वाले ने रेत के टिब्बों पर चढ़ाते-उतारते और हमारी कभी डर से कभी आनंद से निकलने वाली चीखों के बीच एकदम सबसे ऊँचे टिब्बे के ऊपर आकर गाड़ी रोक दी। लगा ठीक वक्त पर ब्रेक नहीं लगता, तो हम नीचे गिरे होते। पर बहुत कुशल और अनुभवी होते हैं इन रेतीले रास्तों के ये चालक। यह अरबाज़ था।
अन्य पर्यटक स्थलों से एक अलग बात यहाँ देखने को मिली कि लोग बहुत दोस्ताना होते हैं और आपको बिना पूछे भी सब बताने को आतुर होते है सो अरबाज़ भी बताने लगा कि इसी जगह बजरंगी भाईजान की शूटिंग हुई थी, सलमान खान ने इसी टिब्बे के नीचे वाली सड़क से बॉर्डर पार की थी उस फ़िल्म में, कपिल शर्मा की फ़िल्म 'किस किस को प्यार करूँ' का एक पूरा गाना यहीं फ़िल्माया गया, उसमें कुछ सीन बड़ा बाग के भी हैं। चारों तरफ रेत ही रेत।
हवाओं के चलने से रेत पर धारियाँ पड़ गई थी जिन्हें साक्षात् सामने देखकर मुझे विश्वास हो चला कि राजस्थान के प्रसिद्ध लहरिया प्रिंट का कांसेप्ट यहीं से लिया गया लगता है। लंबी-लंबी, मुड़ी हुई लहराती धारियाँ। रेत ही रेत, इन्हें गोल्डन सैंड डयून्स कहा जाता है। सुनहरी रंग की धारियों से लबरेज नीले शुभ्र आसमान के नीचे दूर तक नज़र दौड़ गई तो लगा आसमान और रेत गले मिल रहें वहाँ। रेत पर ये सुनहरी धारियाँ हवाओं के पहले सीधे फिर आड़े तिरछे प्रबल झोंकों से बनती हैं। लगता था जैसे स्वयं भगवान् विश्वकर्मा आकर यहाँ चित्रकारी कर गए हों ...अतुलनीय ...अविस्मरणीय। दूर-दूर खींप की झाड़ियाँ नजर आ रही थी कहीं-कहीं उगी हुई. अचानक देखा मैंने कुछ पीले फल पड़े हैं रेत के ऊपर। इन्हें तुम्बा या गढ़ तूम्बा कहा जाता है और इसका प्रयोग एक वाद्ध्य यंत्र के रूप में किया जाता है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि अपने साथ जो कमण्डल रखते रहे वह भी इसी को सुखा कर खोखला कर के बनता था। यह फल खरबूजे की आकृति का था आयुर्वेद में इसे इन्द्रायण के नाम से जाना जाता है और कई प्रकार की औषधियाँ इस से बनती हैं यह एक दुर्लभ प्रजाति का पौधा है।
रेत के ऊंचे नीचे पहाड़ों पर अपनी ऐडवेंचर भरी ड्राइव को थाम कर अब अरबाज़ ने गाडी के बड़े टिब्बे की चोटी पर ले जा कर रोक दी। उस ने बताया कि यह थार का टिब्बा कहलाता है और सबसे खूबसूरत और बड़ा भी है। चारों तरफ पीली रेत...नीला आसमान। दूर-दूर तक किसी का पता नहीं। अनछुई रेत देखकर बहुत मज़ा आया। हम जिधर चल रहे थे, हमारे पैरों के निशान बनते जा रहे थे। हमने खूब सारे फोटो लिए. सब रेत से खेल रहे थे। उस पर दौड़ लगा रहे तो कभी लोटपोट हो रहे थे। जिधर की हवा होती, मुट्ठियों में भरा रेत उधर का रूख कर लेता। अच्छी बात यह थी कि हम जहाँ थे वहाँ आसपास कोई और नहीं था। जैसे समंदर के बीच हमारी नाव इकलौती हो और हम लहरों से खेल रहे।
हमारा मन चाह रहा था कि हम कुछ देर और रूके. मगर समय की पाबंदी थी। शाम भी ढलने लगी थी। वापसी के वक्त जीप वाला दूसरे रास्ते से वापस लाया। हम दो मिनट में अपने कैब वाली जगह पर पहुंच गए, जहाँ ड्राइवर हमारा इंतज़ार कर रहा था।
अब चले कैंप की तरफ। पास आए तो देखा सामने ही सड़क पार रेगिस्तान है और वहाँ पर्यटकों की बेहद से ज़्यादा भीड़ है। कई ऊंट वाले लगाम हाथ में थामे घूम रहे हैं। कोई साफा बांधे, कोई अंगरखा पहने ज्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखते थे, जिनके कुछ परिवार सरहद के पार भी रहते हैं। कुछ लोग ऊंट पर सवारी का आनंद ले रहे तो कुछ ऐसे ही बैठे हैं। पर उधर रेत में जाने से पहले हमें कैंप में जाना था।
हमने कैंप में एंट्री की। एक बार तो लोगों की कतार देख डर लगा कि इतने लोग कहाँ से और कैसे आएंगे। पर अंदर जाने पर पता लगा कि कॉलेजस्टूडेंट का कोई ग्रुप आया है मुंबई से, इसलिए इतनी भीड़ है। वैसे भी हमारी बुकिंग पहले से थी। हमने तुरंत अपना सामान टेंट में रखा और बाहर भागे। क्योंकि शाम होने वाली थी और मुझे यहाँ की आवभगत से ज़्यादा बाहर की दुनिया खींच रही थी।
कैंप वालों ने अपनी तरफ से ऊंट की सवारी का इंतजाम रखा था। वह लोग हमें घुमाने का इंतजार ही कर रहे थे। बाहर छोटी-छोटी चाय और मैगी की गुमटियाँ लगी हुई थी। लोग बैठे थे। मैंने देखा है कि ऐसी गुमटियाँ भी पर्यटन स्थलों पर खूब चलती हैं। दिन भर से हमने कुछ खाया नहीं था तो बच्चों ने मैगी की जिद की। हमने में साथ में खाया और चाय पीने के बाद कैमल सवारी को चल दिए.
बैठने में एक बार डर लगा, पर चूंकि हम पहले भी ऊंट की सवारी का आनंद ले चुके थे, इसलिएहिम्मत के साथ चल दिए. एक ऊंट पर हमदोनों, दूसरे में दोनों बच्चे। शाम ढलने में ज़रा वक्त था। हमें ऊंट वाले ने थोड़ी दूर का चक्कर लगाया फिर बहाना बनाया कि अब देर हो गई है। कल सुबह दूर तक ले जाऊंगा। हम समझ गए कि उन्हें अलग से अपनी कमाई करनी है। पर हममें से किसी को ऊंट पर बैठने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी। सो हम वापस आए और पैदल चल दिए ऐसी जगह की तलाश में जहाँ से रेत और डूबते सूरज को कैमरे में एक साथ कैप्चरकिया जा सके.
काफी भीड़ थी। हम पैदल ज़रा दूर चलते हुए एक ऊंचे टिब्बे पर जा बैठे। दिनसामन्य गरम था मगर जैसे-जैसे शाम ढलने लगी, रेत का स्पर्श शीतल लगने लगा। ठंढ बढ़ने लगी थी। हमें जैकेट पहनना पड़ा। दूर शाम ढल रही थी। साल का अंतिम सूरज अस्तचल की ओर था। लालिमालिए सूरज काफी नजदीक नजर आ रहा था। रेत के दरिया के ऊपर लाल होता सूरज। ऊंटों का काफिला एक कतार में लौट रहा था। कुछ युवा लड़के-लड़कियाँ हाथ बांध डांस करने लगे। कालिमाघिरने लगी। गुलजार सम अब वीरान होने लगा।
धीरे-धीरे भीड़ छटने लगी। लोग वापस जाने लगे। लगा कि बहुत सारे लोग 31 दिसम्बर की शाम सेलिब्रेट करने यहाँ आए थे। पर हम जमे रहे। ठंडी रेत पर। बातें करते, कुछ गुनगुनाते। बच्चे हमारे जूतों को रेत के नीचे दबा कर अपना मनोरंजन करने लगे। शाम ढलने लगी। उसी हिसाब से ठंढ बढ़ने लगी। मैं चाँद के निकलने का इंतजार करती रही। मुझे लगता था कि चाँदनी रात में रत की खूबसूरती और बढ़ जाती है। पर चाँद देर शाम तक नहीं निकला।
अब हमने अपने कैंप की तरफ देखा। रौशनी थी चारों तरफ। आरकेस्ट्रा की आवाज़ आ रही थी। जितने भी कैंप थे सबमें कुछ न कुछ आयोजन था। हम भी उठकर चल दिए. चाय की तलब हो रही थी। पूरा सम जैसे जगमगा रहा था।
अंदर जाने पर देखा खुले में गीत-संगीत का इंतजाम है। एक मंच लगा है और उसमें लोक गीत गा रहे कलाकार। नाश्ते का अच्छा इंतजाम था। कई तरह की चीजें थी। पर हमने चाय के साथ पकौड़ा और चिलीलिये। फिर गरमागरम जलेबी का भी मज़ालिया। एक बड़े से कडाहे पर दूध खौलाया जा रहा था। केसर वाला दूध। उसकी भी खूब मांग थी। हमने वहीं खड़े होकर गीत सुनते हुए खाया और अपने टेंट की ओर गए. अब हमने अंदर जाकर टेंट की सुविधाएँ देखीं। एक डबल बेड, साथ ही एक सिंगलबेड, अंदर परदे की दीवार कर के लैट-बाथ, बेसिन। कमरे में एक छोटा टेबल और सामान रखने को बड़ा टेबल।
कुल मिलाकर अच्छा अरेजमेंट था, मगर इसके लिएजितने पैसे लिए गए, उस हिसाब से नहीं था। बाद में पता लगा कि नेटबुकिंग का ज्यादा ही वसूलते हैं लोग। वहाँ जाकर लेने पर कम में मिल जाता। पर चूँकि 31 की रात थी इसलिए हम कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे।
थोड़ा फ्रेश होकर हमलोग वापस बाहर गए. सामने मंच बना हुआ था। वहाँ प्रसिद्ध कालबेलिया नृत्य, घूमर, चरी नृत्य (सर पर घड़ा रख कर नाचना) गणगौर नृत्य, तेरह ताली आदि नृत्य दिखा रही थी कलाकार। मंच के दोनों तरफ बैठने की व्यवस्था थी। ऊपर कुर्सियाँ और नीचे गाव तकिया लगाकर बैठकर या अधलेटे होकर देखने का इंतजाम था। नीचे की पंक्ति लगभग भर गई थी। बहुत सारे कालेज के छात्र-छात्राएँ आए थे। हम कुर्सी पर बैठे और नृत्य का आनंद लेने लगे। बीच में अलाव की व्यवस्था थी। कुछ लोग वहाँ भी आग के समीप बैठे थे।
इसी बीच डिनर का वक्त हो गया। इंतजाम अच्छा था। हमने जी भरकर खाना खाया। फिर वापस उसी जगह जहाँ गीतों की बहार थी। जब लोक गीत-नृत्य समाप्त हुआ तो फिल्मी गानों पर डांस शुरू हुआ। लगा जैसे खास इस रात के लिए इन्हें बुलाया गया है। अब तो युवाओं की मस्ती देखने लायक थी। ऊपर मंच पर लड़की का डांस और नीचे छात्रों का। इन्हीं सब में वक्त गुज़र गया। घड़ी के कांटे 12 पर रुके और हैप्पी न्यू इयर की आवाज से पूरा कैंप गूँज उठा। केक काटा गया और जो लोग अब तक दर्शक थे, वह भी डांस करने लगे। बेशक...अब हम भी इसमें शामिल थे। एक अविस्मरणीय रात के साक्षी रहे हम।
थोड़ी देर तक डांस चलता रहा। फिरहमलोग उठकर अंदर आ गए. सारे दिन की थकान थी। मगर बाहर के शोर से सो नहीं पाए. लगभग सुबह को नींद आई जब शोर-शराबा थमा। हमने तय किया था कि सुबह जल्दी उठकर सैर के लिएजाएँगे। मेरी नींद खुली तो सुबह से 6 बजे थे। लगा, अब तक सूरज निकल चुका होगा। हड़बड़ाकर बाहर गए, तो देखा घुप्प अंधेरा। यकीन नहीं हुआ। इस वक्त जाने का कोई मतलब नहीं था सो हम वापस सो गए.
घंटे भर बाद जब उठकर बाहर गए तो ऊँट वाले जिद करने लगे कि घुमा लाएँगे। हमारा मन नहीं था। तभी एक ऊँटगाड़ी वाले ने कहा कि वह जल्दी ऊपर तक ले जाएगा। लग रहा था कि सूरज निकल आया है, इधर से पता नहीं चल रहा। हम दौड़कर ऊँट गाड़ी पर बैठे। मैंने कैमरा थामा और फोटो खींचती गई. ऊपर वाकई सूरज तेजी से चढ़ रहा था। मैंने जल्दी से कुछ खूबसूरत शॉट्सलिये। रेत के टीलों से ऊपर आता सूरज और सामने ऊँट, बिल्कुल पोस्टरों जैसा दृश्य था। हमें चारों तरफ कौए दिखे। शायद पर्यटकों द्वारा छोड़ी गई खाद्य सामग्री के कारण कौए झुंड के झुंड जमा थे।
अब हम वहीं पर उतर गए और पैदल आगे गए. कई छोटे-छोटे झाड़ मिले। अभी रेत के धोरे साफ थे। शाम तो पैरों के इतने निशान बने हुए थे कि सारी खूबसूरती समाप्त हो गई. बड़ा सुंदर समा था। पेड़ों के पास छोटे-छोटे बिल थे और बाहर पंजों के निशान। जैसे कि कोई साँप का घर हो या गुबरैला चला हो जमीं पर।
कच्ची धूप हमें अच्छी लग रही थी। वहाँ एक चाय वाला आया। हमने चाय पी. पूछा-ऐसे तो कचरा होता होगा। चाय वाले ने बताया कि हर शाम यहाँ सफाई होती है। अच्छा लगा। वरना इतने प्लास्टिक के गिलास और बोतल पड़े होते कि रेगिस्तान की सारी खूबसूरती ही समाप्त हो जाती।
कुछ देर तक हम वहीं रुके. जी भर कर रेगिस्तान को निहारा क्योंकि अब हमें जाना था वापस। बस एक दिन ही रहना था हमें यहाँ। रेत के धोरों को आँखों में बसा लेना चाहते थे हम। डूबते सूरज और उगते सूरज में रेत का बदलता रंग देख लिया था हमने। सोनल रेत हमारे तन को छूकर मन में बस गई थी।
लौटकर हम नहाए और फटाफट सामान पैक किया। बहुत खारा पानी था वहाँ का। हमें पता था कि पानी की बहुत दिक्कत होती है इन जगहों पर। बहुत जतन करने होते हैं। इसलिए पानी कम से कम खर्च हो इसका ध्यान रखा।
अब हमने सुबह का नाश्ता लिया, जो उसी डायनिंग हॉल में था जहाँ रात को डिनर की व्यवस्था थी। कई तरह के व्यंजन थे। सबने अपनी पसंद का नाश्ता कर चल पड़े आगे सफर को। थोड़ी दूर ही गए थे कि छोटे बेटे ने जिद की कि वह फिर से जीपसफारी करेगा। मगर इतना वक्त नहीं था। तो हमारे कैब वाले ने हमें रेत के समंदर के पास लाकर छोड़ा। कहा कुछ देर रह लो। हमें देखकर कुछ बच्चे आ गए, जो अपने अपनेऊँट की रास थामे थे। उनके कहने पर हमने थोड़ी दूर की कैमलसफारी की। रेगिस्तान के जहाज पर से उतरकर हम सीधे निकल पड़े जोधपुर की ओर। जैसलमेर का सफर समाप्त। -0-