जैसलमेर / हेमन्त शेष

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जैसलमेर के अक्षांश और देशांतर में चार सुस्त रफ़्तार ऊँट रेत की आकाश रेखा में विलीन हो रहे थे और एक आदमी, जो उनमें से किसी की पीठ पर भी सवार नहीं था, पैदल चारों को लिए चला जाता था. रेत के अनंत में ऊँट पैदल ले जाते आदमी का यह एक चित्र था जिसके बारे में कोई भी कह सकता था “देखिये- चार ऊंटों को वह आदमी लिए जा रहा है”. देखने वाले चक्कर में पड़ सकते थे वह पैदल क्यों चल रहा है, ऊँट पर बैठ सकने की सुविधा के बावजूद, पर उस से जैसलमेर के अक्षांश और देशांतर में यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा था, जैसे उन्हें इस का जवाब मालूम हो.

ऊँट उस सुस्त-रफ़्तार आदमी की पीछे -पीछे थे- क्यों कि आदमी धीरे चल रहा था, वरना वे शायद ज्यादा तेज़ भी चल सकते थे. आदमी क्या किसी उदासी की वजह से धीरे चल रहा था संभव है ये ख्याल, किसी ऊँट के मन में भी लेखक के ज़हन में उपजे प्रश्न की तरह आया हो. किन्तु यहाँ इस बात को साबित करने का कोई उपाय नहीं इसलिए ये मान कर संतोष किया जा सकता है कि आदमी ‘उदास नहीं’, बल्कि ‘थका हुआ’ है और इसलिए वह धीमे चल रहा है.

क्या उसे भूख लगी है या प्यास? या ऊँट प्यासे हैं- जिन्हें लेकर वह किसी तालाब की तरफ जाएगा- अभी हम कुछ नहीं कह सकेंगे. वह कहाँ जा रहा है, ये भी नहीं, वह क्यों पैदल चल रहा है, ये भी नहीं, वह थका हुआ है या खुश, ये भी नहीं.

कहानीकार कोई ईश्वर नहीं जो ऊँट या आदमी के मन की बात जान ले.

और जो लोग ऐसा करते हैं वे कहानीकार नहीं हैं, कवि भले हों तो हों.

कहानी की मर्यादा तो सिर्फ इतनी है कि मैं सिर्फ इतना भर बता दूं कि

जैसलमेर के अक्षांश और देशांतर में चार सुस्त रफ़्तार ऊँट रेत की आकाश रेखा में विलीन हो रहे थे और एक आदमी, जो उनमें से किसी की पीठ पर भी सवार नहीं था, पैदल चारों को लिए चला जाता था.

मैं तो इसे ही संभावनाओं से भरी एक मुकम्मिल कहानी मानता रहूँगा. अगर आप इसे कहानी न मानें तो मुझे फिर भी कोई शिकायत नहीं, न आपसे, न आदमी से, न ऊंटों से, जो उसके पीछे बस जा रहे हैं. मैं तो नहीं जा रहा...