जोंक / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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रात काफी हो गयी थी, पर उसकी आंखों में नींद नहीं थी। हर छोटे से खटके से वह उठ बैठती थी, लगता था कि काली आ गया है और वह उठकर छज्जे तक जाती और नीचे गली में झांकती, परन्तु काली को न पाकर निराश लौट आती। उसमें अब और झंुझलाहट भर गयी थी। सुबह का निकला लड़का अब तक नहीं आया था। इसे रत्ती भर भी मॉ की परवाह नहीं है। उसी की वजह से वह इस घर में पड़ी हुयी है, वरना बड़ा जग्गी और छोटा बब्बू कई बार कह चुके है अपने साथ रहने के लिए परन्तु वह सोचती है कि काली का क्या होगा? उसके तो बीबी-बच्चे तो कोई है नहीं। कुछ करता-धरता भी नहीं है। काली का कोई धन्धा-रोजगार भी नहीं है। किसी की नौकरी में भी वह दो-तीन महीने से ज़्यादा टिक नहीं पाता हैै, साल में शायद तीन-चार महीने की नौकरी कर पाता हो। वह भी वामुश्किल हजार-बारह सौ रू0 महीने से ज़्यादा की नहीं। काली के बाप की फैमिली पेन्शन की रकम भी बारह-चौहदह सौ है, उससे भी घर चलाना मुश्किल है। वह तो भला हो छोटे लड़के बब्बू का जो हर माह खुद आकर हजार-बारह सौ दे जाता है, जिससे रोटी-दाल की किल्लत नहीं हो पाती है जब कि वह खुद एक बाबू है लखनऊ सचिवालय में। जग्गी दिल्ली में कोई बड़ा सरकारी अधिकारी है, परन्तु वह इसलिए कुछ नहीं भेजता कि मॉं सब काली पर खर्चा कर देती हैं, वह काली से एक तरह से नफरत ही करता है उसके रवैये को लेकर। नाराजगी में वह मॉं की भी सुध नहीं लेता है। ये तो छोटा बब्बू है जो कहता है कि मैं तो मॉ के लिए करता हॅूू अब मॉं खुद अपने लिए खर्च करें या भाई पर लुटा दें, इससे उसे कुछ लेना-देना नहीं है।

काली के बाबू मास्ठर थे, सरकारी प्राइमरी स्कूल में। स्कूल की तनख्वाह से और ट्यूशन आदि करके उन्होनंे भरपूर कोशिश की पॉचों बच्चों को पढ़ा लिखा कर काबिल बना देें। सिर्फ़ काली ही नहीं पढ़ पाया। आठवीं से ज़्यादा पढ़ कर नहीं दिया। अपनी सीमित आमदनी से उन्होंने दो लड़कों और दो लड़कियों की शादी ब्याह भी किया। नहीं कर पाये ंतो काली को कही ढंग से लगा पायें। असल में काली का ध्यान हरदम मौज-मस्ती, घूमने-फिरने, यार-दोस्ती में ज़्यादा लगा रहता था। ज़्यादा डांटने-मारनें पर वह घर से निकल जाता था और कई-कई दिन घर नहीं आता था, फिर अचानक प्रगट हो जाता था। एकदम बेहया होकर, अपना अधिकार समझकर। फिर कोई उससे कुछ नहीं कहता था, क्योंकि उसके आते ही मॉं की सांस में सांस आती थी। उसका रवैया फिर वैसे का वैसा ही हो जाता था। उसका यह रवैया अभी तक वैसे ही बना है। कोई बदलाव नहीं है। काली पर कोई बात असर नहीं करती थी। ना अनिश्चत भविष्य का डर न ही खानें-पीनें की परवाह। उसके लिए घर था बिना दाम का होटल और मॉं थी केयर-टेकर उसकी।

सत्तर साल की उम्र में भी मॉ घर का सारा काम वह खुद ही करती थी और बाज़ार से सौदा-सुलफ भी वहीं करती थीं। मॉ-बाप के लिए जो बच्चा सबसे ज़्यादा कमजोर होता है, उससे सबसे ज़्यादा ममता होती है और उसका ध्यान-हित ही सर्वोपरि होता हैं। मॉ के लिए काली ही सब कुछ था, उसी की देख-भाल में उसकी सम्पूर्ण चिंता सिमट गई थी।

काली अक्सर मॉं की नाराजगी हंसी में उड़ा दिया करता था, 'ये खोटा सिक्का ही काम आ रहा है, तुम्हारा साथ ये नालायक बेटा ही दे रहा है।' उसके इस डायलांग से वह चिड़ जाती थी और कुढ़ जाती थी और उसे तभी भला-बुरा कहती थी। वह सोंचने लगती थी उसके बाद उसका क्या होगा? उसके ना रहने पर पेन्शन भी बन्द हो जायेगी और बब्बू भी क्या उसके बाद कुछ मदद करेगा? उसका दिमाग भन्ना जाता है, यह सोंच कर कि इस लड़के काली का क्या होगा?

वह अक्सर दुःचिन्ता से भरी रहती थी। बहुत-सी रातें ऐसी होती थी जब वह घर आता ही नहीं था। इतना पुराना घर जर्जर होता हुआ और उसमें अकेली रहती हुयी वह। डर लगा रहता था। हांलाकि वह चालीस साल से इसी मकान में रह रही थी, परन्तु रात में, अकेले और अंधेरे में उसे लगता कोई उसे दबोचने लगा है। वह सारी-सारी रातें करवटें बदलती रहती थी। ज़रा आँख झपकती तो उसे बुरे-बुरे सपने आने लगते थे और उसकी नींद उचट जाती थी।

और काली आता तो एकदम निश्चित और बेफिक्र। उसे मॉं की ज़रा भी फिक्र नहीं रहती थी न उसकी बीमारी से मतलब ना आरामी से। जब वह याद दिलाती तो अक्सर झुझंला कर कहता 'कौन अपनी बीबी बच्चे बैठे इन्तजार कर रहे थे जो जल्दी घर आ जाता। मॉं पलट कर कहती' और जो तुम्हारी महतारी बैठी है इन्तजार में, उसकी कोई परवाह आदि है कि नहीं? 'तो कहता' तुम्हें क्या हो रहा था, अच्छा खासा भलीं चंगी तो हो? ' वह मन मसोस कर रह जाती।

काली के स्वभाव में एक कमजोरी थी, जो उससे प्रेम से बोल दे, चाचा, मामा, काका का सम्बोधन लगा दे उसके लिए दिलों जान से हाजिर था। अपना काम छोड़कर, मुफ्त का नौकर और किसी ने यदि खानें को भी पूंछ लिया, तो उससे अच्छा इन्सान कोई नहीं। लोगों को पता था कि वह खाली और बेकार हैं। घर की रोटियाँ तोड़ने वाला बिना किसी मकसद के टहलने वाला एक छुट्टा जीव। ज्यादातर मोहल्ले और रिश्तेदारों को उसकी यह कमजोरी पता थी, इसलिए उसका उपयोग वह मुफ्त के नौकर के रूप में किया करते थे। वह अगर कभी ड्यूटी पर भी जा रहा होता था तो नौकरी से गैर हाजिर होकर भी जान-पहचान वालों के काम में जुट जाता था। सिर्फ़ अपनी नौकरी पर वह नकारा सिद्ध होता था, क्योंकि वहॉं पर मालिक और नौकर का रिश्ता काम करता था जो कि अक्सर उसे नागवार गुजरता था। इसलिए वह किसी भी नौकरी में महीने-दो महीने से ज़्यादा टिक नहीं पाता था। जब नौकरी छोड़ना होता था या छुटने वाली होती थी, उसके दो-चार पहले से ही, उसकी भूमिका बनाने लगता था। 'अरे! मालिक बड़े हरामी है, जल्लाद है, सुबह से शाम तक पेरे रहते है और एक कप चाय को भी नहीं पंूछते। मैं जल्दी ही यह नौकरी छोड़ दूॅंगा।' जब मॉ पूछंती 'फिर क्या करोगें?' वह कहता 'अरे, दूसरी मिल जायेगी।' रोजगार दफ्तर में बहुत-सी नौकरियाँ है, हमारे लायक। ' वह किसी से भी अपनी बेकारी की बात नहीं करता था। उसे अपनी बेकारी की चिन्ता क्यों नहीं सताती थी? असल में घर में खाने-पीने-रहने आदि की समस्या तो थी नहीं और मॉं तो थी, उसकी हर तरह की देख भाल करने की। उसे अखबार पढ़ने का बड़ा शौक था और उसके लिए आस-पड़ोस से अखबार मॉंग लाता था और जोर-जोर से पढ़ता था और मॉ को भी जबरदस्ती सुनाता था। वह बाहर से जब भी आता तो मॉं को दुनियाँ भर की खबरें सुनाता रहता था।

वह आया तो शाम होनी वाली थी। वह बुरी तरह से अस्त-व्यस्त-सा था। उसके सिर के बाल बुरी तरह उलझें थे और पैंट शर्ट मुचड़ गया था। जाहिर था कि सुबह जिस हाल में सोकर उठा था, अब तक उसी हाल में था, शायद उसे मुॅंह-हाथ धोने की भी फुरसत नहीं मिली थी।

'अम्मा, खाना दे, बहुत भूख लगी है।' वह चुपचाप बैठी रही थी। गुस्से में थी।

'अम्मा, रोटी।'

'रोटी आज नहीं बनी है।' वह बोली। 'मुझे क्या पता था कि साहब बहादुर कब घर आयेंगें...आयेंगें भी या नहीं?' रात की रोटी मैंने सबेरे खायी सबेरे की अभी। मैं क्यों रोज-रोज बासी रोटी खाती रहॅू? इस उम्र में बासी रोटी हजम कहॉं होती है। '...क्यों जहॉं मुफ्त की सेवा कर रहा था, वहॉं खाने को भी नहीं पूछंा?'

'अरे! बड़े चीकट थे। वे तुम्हारे ही रिस्तेदार थें।' तुम्हारे गॉंव के चचा, लक्ष्मी प्रसाद। मैंने झूठ कह दिया कि खाना खाकर आया हॅू और उन्होंने पल्ला झाड़ लिया। '

मॉ उठी, पीछे-पीछे वह भी आया। उसने खाना गरम करके उसे दिया। उसने खाकर डकार लिया और चारपाई पर लेट गया और उसके खर्राटें गुजनें लगें।

वह बड़ी बैचेनी एव बेसब्री से बब्बू का इन्तजार करती थी। महीने के हर दूसरे शनिवार को वह आता था। उस दिन उसकी आफिस की छुट्टी रहती है और वह घर के खर्च के लिए रूपयें देता था। अपने हाल-चाल बताता था और मॉं को ठीक देखकर आश्वस्त होता था। उसके पसन्द का खाना वह पहले से ही बनाकर रखती थी। मॉं के हाथ का खाना खाकर बहुत ही संतुष्ट अनुभव करता था।

काली अक्सर उसके आने के दिन ज़रूर रहता था और जब मॉं की पेन्शन मिलती थी उस समय। एक तो पेन्शन से वह मॉं से सौ, दो सौ रूपये काट लेता था। तथा बब्बू के जाने के बाद, वह कितना दे गया है, यह दरयाफ्त करके भी सौ-दो सौ रूपयें मॉं से झटकता था। वह अपनी साइकिल की मरम्मत करवाने के बहानें अक्सर मॉं से रूपयें लेता रहता था। कहता था, नहीं तो नई साइकिल दिलवां दो। आखिर नौकरी ढुढ़ने के लिए साइकिल का चलती हालत में होना ज़रूरी है। '

बब्बू सबसे छोटा होते हुये भी अपने करने की वजह से वह बड़ा से बड़ा और सबसे बड़ा हो गया था, मॉं छोटी हो गयी थी और काली तो उसके सामने बौना हो गया था। उससे बात करनें में सभी दबकर बात करते थें। वह भी जिस शिष्टता और कोमलता से बात करता था कि वह घर आया मेहमान ज़्यादा नजर आता था वनस्पति घर का लड़का। काली अक्सर उसके सामने पड़ने से डरता था। परन्तु जब उसके आने का दिन होता था उन दिनों वह कोशिश करता था कि घर से गैरहाजिर ना हों। क्योंकि वह मॉं से कहता रहता था कि 'जब काली भइया, कोई नौकरी चाकरी नहीं करते तो वह घर क्यों नहीं रहते? कम से कम एक दूसरे का ध्यान तो रख सकते हैं और वह भी बेफिक्री महसूस करेगा और वह भी दुनियाँ भर के बवालों से बचेंगें।' काली अक्सर किसी न किसी विवाद में पड़ जाता था और चोट-चपाट लगाकर चला आता था। फिर मॉं उसकी सेवा-सुशुर्षा में जुट जाती थीं। काली इस ढ़ग से अपने को निर्दोष बताता था कि मॉ गैर को अनगिनत गालियाँ निकाल कर उसे सख्त हिदायत देतीं थीं कि भविष्य में वह कहीं नहीं जायेगां। परन्तु काली के पॉंव घर में टिकते कहॉं थे?

बब्बू, घर आया था, उसने दरवाजे की सांकल खट-खटाई थी। कोई जबाब नहीं आया था। वह कई बार जब ऐसा कर चुका था परन्तु न कोई आवाज आ रही थी ना ही कोई आहट हो रही थी। वह सशंकित हो उठा था। ऐसा नहीं होता था कि एक बार की संकल खट-खटाने पर कोई आवाज न आये या फिर छज्जे पर काली या माँ झांकते नजर न आये और तुरन्त दरवाजा खुल जाता था। काफी देर बाद हल्के से दरवाजा खुला था, उसने देखा माँ ही थी। वह हांफ रही थी और पस्त होकर वहीं बैठ गई थी। उन्हें काफी तेज बुखार था और इसी हालत में वह नीचे उतर कर आयी थी। काली नदारत था। माँ ने बताया ' अभी थोड़ी देर में आता हॅू कह कर गया था और तीन दिन हों गये हैं। जब वह गया तभी मंॉ को बुखार था। वह मेडिकल स्टोर से दवाई लेकर खिला गया था।

वह माँ को गोद में लेकर ऊपर आया और बिस्तर में लिटाकर, माँ को छोड़कर अपने एक डाक्टर मित्र को लाकर उसे दिखाया था और उचित दवाई दिलवाईं। यह डाक्टर मित्र उसके साथ इण्टर तक पढ़ा था और उसकी दोस्ती अभी तक अच्छी-खासी चल रही थी। ...़़़़़़़़़़़़़काली भइया के व्यतिक्रम उत्पन्न करने के बाद भी। ... उसने काली को डाक्टर के पास अनुरोध करके कम्पाउन्डरी के काम में लगवा दिया था ...परन्तु वह डाक्टर से 15-20 दिनों में लड़-झगड़ कर, हाथापाई करके छोड़कर आ गया था। कारण यह बताया कि वह उससे छोटे भाई जैसा व्यवहार नहीं करता था। बल्कि उसे नौकर जैसा ट्रीट करता था। ...वह यह बरदास्त नहीं कर सकता था ...आखिर उसका भी मान-सम्मान है।

मॉ दवाई खाकर बिस्तर पर लेटी सो गई थी। उसने मूंग की दाल की खिचड़ी बनाई जिससे दोनों खा सकें। वह माँ के उठने का इन्तजार कर रहा था। ...उसे काली पर क्रोध आ रहा था। गुस्सा, खीज से वह काफी गर्म हो रहा था ...मां उसकी वजह से यहाँ पड़ी हुई है।और उसे माँ की ज़रा भी परवाह नहीं है... मांॅ मरे-जिये... उससे कोई मतलब नहीं...जैसे वह उसकी मॉ नहीं है। ...सिर्फ अपने से मतलब... अपने में मस्त है। पैसे-कौड़ी से नहीं, कम से कम हांथ-पैर से तो माँ की देखभाल कर ही सकता है। ...अपना भाई है कैसा? ... एकदम निर्मोही...आवारा मतलब परस्त...उसके विषय में सिर्फ़ ग़लत विचार ही आ रहे थे। एक आशंका और बलबती होती जा रही थी कि कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा ना कर लिया हो और वह पुलिस की गिरफ्त में हो...तब क्या होगा...इधर मॉं बीमार पड़ी है। ...उधर उसे छुटानें के लिए जमानत आदि का इन्तजाम और खर्चा। ...उसके पास तो इतने रूपये भी नहीं है। ...किससे मॉंगेंगा। वह चिन्तित और अधीर हो उठा था। ...सब कुछ ठीक हो ...काली के साथ ...इतनी विपदा वह कैसे सम्भाल पायेगां।

काली आया था हफ्ते बाद रात को। बहुत पूछनें पर बताया कि वह राजधानी जा रहा था, एक रैली में हिस्सा लेने। रैली में भाग लेने पर सौ रूपये मिलते और खाना पीना अलग। उपर से राजधानी घूमने का मौका। वह और उसके दो साथी रैली से बिछुड़ गये और दूसरी ट्रेन में सवार हो गये थे। वे सभी बिना टिकट यात्रा करने पर पकड़ लिए गये थे और एक हफ्ता की जेल काट कर वह आया था।

बब्बू उस पर खूब बिगड़ा था। वह मुॅंह छिपाता फिर रहा था। परन्तु आज वह उसे छोड़ने के मूड में बिलकुल नहीं था। एक तो बीमार मॉं को छोड़कर जाना और फिर समाज में बेइज्जती कराने वाली हरकतें। वह काफी क्षुब्ध था। उसने कहा 'जिस तरह का रवैया तुम अपना रहे हो उसी तरह मैं और अम्मा भी अपना ले तो भाईसाहब खाने के लाले पड़ जायेगें।'

'तुम खुदा नहीं हो।' जिसने मुॅंह चीरा है वह खाना भी देगा, समझे। ...और तुम क्या समझते हो तुम्हारे दिये रूपयों से ही घर का काम चल जाता है। इस गलतफहमी में मत रहना। मैं क्या कुछ नहीं करता?

'वह तो मैं जानता हॅू, कितना तुम करते हो? एक मॉं के साथ ठीक से रह नहीं पाते। बातें बनाते हो!' नौकरी कहीं कर नहीं सकते। इज्जत घटती है। इस तरह से जीवन यापन करके कितना मान-सम्मान अर्जित कर रहे हो? सब पता है। जेल तक की सैर कर आये हो। '

'जेल कोई चोरी-डकैती में नहीं गया था। नेतागीरी में गया था समझे!'

हल्ला-गुल्ला सुन कर मॉं जग गयी थी। उन्होंने हाथ जोड़कर शोर बन्द करने का अनुरोध किया। उसके बाद खामोशी छा गई थी जो बहुत ही अस्वाभाविक और दम घोटने वाली प्रतीत हो रही थी।

अब की बार वह काफी असंतुष्ट लौट आया था। वह दो-तीन दिन और रूका था, जब तक मॉं करीब-करीब ठीक नहीं हो गई थी। वह काली के भरोसे छोड़कर नहीं आ सकता था। काली भी शायद उसे दिखाने के लिए दो-एक रोज रोजगार दफ्तर के चक्कर लगाये थे कि वह कितना प्रयत्नशील है नौकरी ढूढने के लिए. हालांकि भाइयों में कोई बातचीत नहीं हो रही थी। तनाव का माहौल व्याप्त था।

काली की अनुपस्थिति में मॉं ने एक ऐसी बात छेड़ दी कि उसे घोर आश्चर्य हुआ था।

'बेटा हो सके तो काली की शादी करवा दो। जब जिम्मेदारियाँ आयेगी तो सुधर जायेगा।' ...

उसने मॉं को बीच में ही टोका 'अम्मा, बौरा गई हो क्या?' 45 साल के बेरोजगार आदमी को कौन अपनी बेटी देगा? ' ...और होनी होती तो अभी तक हो न जाती? ...और बाबूजी ...अगर हो रही होती तो कर न जाते।

'बेटा, मैं ज़्यादा दिन की मेहमान नहीं हॅू मेरा कब बुलावां आ जाये, कौन कह सकता है? मेरे बाद उसकी रोटी का क्या होगा? ...' कोई विधवा या तलाक शुदा से ही करवां दे। ...तू चाहेगा...तो उसका घर बस जायेगा। ...'

'ना।' मेरे बस में नहीं है। पहले वह नियमित नौंकरी का जुगाड़ तो करे रोजी-रोटी का ठिकाना हो...तभी तो खुद खा पायेगा और किसी को खिला पायेगा। अम्मा आप उससे जम के नौकरी करने को क्यों नहीं कहती ं? ' ...

और उसने इस मामले में पूर्णतया अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। वह मॉं की इस मांग से काफी नाखुश हो गया थां। उसने माँ को भी बुरी तरह मायूस कर दिया था।

मां की आंखों में नींद नहीं आती थी। करवटें बदलती रहती थीं कि किसी तरह नींद आ जाये। नींद न आना रोज की बात हो गयी थी। एक समय था जब दस बजे से ही उसकी आंखों में नींद भर जाती थी और कहाँ अब ग्यारह-बारह, एक-दो, एक-एक घंटे गिनती रहती थी। उसे काली की चिंता खाये रहती थी। जाने क्यों? वह सोचती और करवटें बदलती रहती थी। रात को अक्सर देर से सोती थी परन्तु सुबह जल्दी उठ जाती थी। उठने पर उसका दिल रात से ज़्यादा अस्थिर और अशान्त रहता था। इतना बड़ा पहाड़-सा खाली दिन और फिर वैसी ही खाली-बेचैन रातें। उस लम्बे खालीपन ने उसमें एक शून्य पैदा कर दिया था। अव्यक्त और अकथनीय था उस पर छाया बोझ।

अब की बार जब वह बीमार पड़ी थी, तो बब्बू ने उसके कई सारे टेस्ट करवाये थे। तभी डाक्टर ने बताया था कि चिंता तनाव और अनिंद्रा के कारण वह उच्च रक्तचाप की मरीज हो गयी है। उसे इन चीजों से बचना है। बब्बू ने एक-माह की दवाई भी दिलवाई थी और नियमित रूप से खाने की सख्त हिदायत भी दी थी। परन्तु माँ का मन दवाई खाने में नहीं लगता था। मुंह और मन कसैला हो जाता था। फिर उसे टाइम से लेने की सुध भी नहीं रहती थी और काली क्यों चिन्ता करने लगा?

मां, कुछ ऐसे आकस्मिक ढंग से विदा हुई कि हतप्रभ रह गया था। काली ने बताया वह रात को सोयी तो सुबह उठी ही नहीं। जग्गी भइया, अमिता, सरिता दीदी सभी भौचक्के रह गये थें। सब फटाफट आ गये थे और सारा अंतिम संस्कार का कार्यक्रम निपटा कर ही गये थे। काली दुःखी तो था परन्तु बेफिक्र होने का दिखावा कर रहा था बहुत-कुछ उसके उमड़-घुमड़ रहा था, परन्तु सब भीतर ही भीतर व्याप्त था।

सब जा चुके थे। बब्बू भी परिवार सहित जाने के लिये तैय्यार हो रहा था। अचानक काली ने उसे पकड़ लिया था। उसने उसे एक कुर्सी पर बिठाकर उसके पैर पकड़ लिये थे। ऐसे जैसे सड़क पर भीड़ मांगने वाले बच्चे राहगीरों के पैर पकड़ कर लिपट जाते हैं और जब तक नहंी छोड़ते जब तक रूपया-दो रुपया पा नहीं जाते। काली फूटफूट कर रो रहा था, एक तमाशा खड़ा हो गया था उसकी पत्नी और दोनों बच्चे आ गये थे और कोैतुहलवश, ये क्या हो रहा है देखकर पशेमान हो रहे थे। वह ग्लानि और शर्म से भर गया था। काली उससे पन्द्रह साल बड़ा था। उसने उसका हांथ अपने पैरों से हटाने की जबरदस्त कोशिश की। 'ये क्या करते हो? मुझे पाप का भागी क्यों बनाते हो?' उसे उस पर छाया गुस्सा और वितुष्णा का भाव काफूर हो गये थे और रहम दिली ने उसे पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उसकी आंखें पुनः गीली हो गयी थी। परन्तु काली ने उसके पैर जब तक नहीं छोड़े जब तक वह पूरी तरह आश्वश्त नहीं हो गया था कि बब्बू उसे छोडे़गा नहीं।

वह भावनाओं के समुद्र में बह गया था और सोच रहा था कि जोंक ने मॉं का जिस्म छोड़ दिया था या छूट गया था, परन्तु वही जोंक अब उस पर चढ़ गई थी और जाने-अनजााने, चाहे-अनचाहे वह उसे अलग नहीं कर पायेगां।