जोंक / से.रा. यात्री
लीजिए! गलत पते पर भेजे गए खत की तरह वह फिर बैरंग वापस आ गया।
अपनी बहुत अच्छी किताबें, जिन्हें बरसों से बहुत सहेजकर अलमारी में संजोकर रखे हुए था, उसके जाने का इंतजाम करने के लिए मैंने कौड़ियों में बेच दिया था। जाने से पहले उसने अपनी नियुक्ति का जो पत्र मुझे दिखलाया था, उसे देखकर मैं इतना आह्लादित हो उठा था जैसे मेरी बढ़ती उम्र की बेटी का वरण करने के लिए कोई मकबूल वर स्वयं ही मेरे दरवाजे पर याचक बनकर आ गया हो। यही नहीं, उसे नौकरी मिल जाने की खुशी में मैंने मित्रों को एक अच्छी-सी दावत तक दे डाली थी।
उसने जाते हुए कहा था, 'दादा, जाते ही आपको तार दूंगा और पहली तनख्वाह मिलते ही रुपया भी जरूर भेजूंगा।' भाव विह्वलता से वह यहां तक द्रवित हो उठा था कि आंखों में आंसू भरकर उसने मेरे दोनों पांव कई क्षण तक पकड़ रखे थे। उसके इस स्वरूप को देखकर मैं भावुक हो उठा था और यह सोचकर आश्वस्त हो गया था कि उसे वास्तविकता का ज्ञान हो गया है। बार-बार नौकरी छोड़ने का उसका उन्माद अब खत्म समझो।
पर, अभी तो ढंग से सवा महीना भी कहां गुजरा था कि वह आफत की तरह फिर सिर पर टूट पड़ा। मैंने दहलीज पर उसे खड़े देखा तो मैं चौंक उठा। मोटे कांच वाले चश्मे के पीछे उसकी आंखें मिचमिचा कर मुझे घूर रही थीं।
उसे सामने खड़ा देखकर मैं भीतर तक उखड़ गया और एक शब्द भी नहीं बोल पाया।
इसी समय रिक्शे वाला उसका लोहे का भारी संदूक जीने की सीढ़ियों से खींचता लाया और मेरी दहलीज पर रखकर किराए के इंतजार में खड़ा हो गया।
कई जेबों में टटोला-टटाली करके उसने पैसे निकाले और रिक्शा चालक की ओर आगे बढ़ाकर बोला, 'नीचे चबूतरे पर मेरा बिस्तर और बैग रखा है, उसे भी यहीं उठा लाओ।'
इसके बाद वह मूर्खों की तरह बेवजह मुस्कराते हुए बढ़ा और मेरे घुटने छूकर बोला, 'भाभी और बच्चे नहीं दिख रहे हैं। क्या कानपुर गए हैं?'
मेरे 'हां' कहने के बाद मुझे कुछ कहने का अवसर ही उसने नहीं दिया, स्वयं ही बोलने लगा, 'मैं तो यह बात जानता था कि आपने सबको कानपुर भेज दिया होगा और अब अकेले स्वाध्याय में डूबे होंगे। मै। वहां भी लोगों से आपकी घनघोर 'स्टडी' की प्रशंसा किया करता था।'
बच्चों को बाहर भेजने के पीछे उस उल्लू को मेरा पुस्तक व्यसन ही नजर आया। यह बात एक बार भी उसे नहीं सूझी कि जाते-जाते जिस आर्थिक भंवर जाल में वह मुझे धकिया गया था उसके चलते मुझे उबरने के लिए पत्नी को बच्चों सहित उसके मायके भेजना ही पड़ता।
अपने मैले रूमाल से अपना चेहरा और बाद में चश्मे के कांच पोंछकर वह सोफे पर पसर गया। मैंने देखा, उसका बक्सा-बिस्तर और बैग दरवाजे में अटके पड़े थे। मैं उसके घृणित आभिजात्य पर जल उठा। अब मैं ही दरवाजे पर पड़ा सामान उठा कर कमरे में लाऊं वर्ना उसे सामान से क्या लेना-देना। वह भुनभुनाया, 'लाख रिजर्वेशन करा लो पर ट्रेन में घुसपैठिए कहां चैन लेने देते हैं? अहमदाबाद से दिल्ली तक आते-आते मैं तो पूरी तरह घुट गया। पता नहीं अपने इस महान देश का क्या होगा?'
उसकी फिजूल बकवास से मेरी खिन्नता और बढ़ गई। मैं कुर्सी छोड़कर उठा और रसोई की ओर जाते हुए बोला, 'बातें बाद में करना, तुम हाथ-मुंह धोओ, मैं चाय बना लाता हूं।'
वह सोफे पर लंबा होता हुआ बोला, 'वह सब मैं ट्रेन में ही कर आया हूं। बड़ी भूख लगी है, चाय के साथ थोड़ा चना-चबैना भी हो तो क्या कहना।'
मैंने रसोई में जाकर कई डिब्बे उलटे-पुलटे पर सिर्फ एक डिब्बा ही निकला जिसमें जरा सा बेसन पड़ा था। सब्जी की टोकरी में जो दो-तीन प्याज पड़ी थीं, उन्हें महीन-महीन काटकर मैंने बेसन में मिलाया और तय किया कि चाय के साथ थोड़ी सी पकौड़ियां तल लूं।
गैस आठ-दस दिन पहले ही खत्म हो गई थी। इसलिए मैं बत्ती वाले स्टोव पर ही चाय वगैरह बनाता था।
मैंने स्टोव जलाकर पहले पकौड़ियां तलीं और उन्हें प्लेट में रखकर कमरे में ले गया। मैंने प्लेट मेज पर टिकाई और उससे बोला, 'मैं अभी चाय लेकर आ रहा हूं।'
उसने मेज से अपना चश्मा उठाकर आंखों पर चढ़ाया और गर्म पकौड़ियां देखकर चहक उठा, 'अरे वाह दादा? रियली यू आर ए जेम। मैं कमाल ही मानता हूं आपको। दस मिनट में चाय-पकौड़ियां तैयार! आप तो दफ्तर में बेकार आंखें फोड़ रहे हैं। आपको तो किसी फाइव स्टार होटल में 'कुक' होना चाहिए।'
उसकी टिप्पणी पर यों तो मेरा जी उसे खूब लतियाने का हुआ पर मैं कुछ कहे बिना चाय बनाने चला गया।
जब मैं चाय के प्याले लेकर कमरे में वापस लौटा तो मैंने पाया, प्लेट में आधी पकौड़ी भी नहीं बची थीं। वह चटखारे लेकर बोला, 'आई फील क्वाइट अनफुलफिल्ड। कम पकौड़ियों ने मेरी भूख और जगा दीं। आपने कितनी बढ़िया पकौड़ियां बनाईं, मगर इतनी कम क्यों बनाईं?'
मैंने थोड़ी सख्ती से कहा, 'पकौड़ियों के लिए इतना ही बेसन था घर में इस वक्त।'
'ओह! तब तो आयम सारी।'
वह सोफे की पीठ से टिककर चाय पीने लगा। मैंने भी बोलने की कोई जरूरत नहीं समझी। चुपचाप कुर्सी पर टिककर चाय पीता रहा।
जब मैंने देर तक उससे न नौकरी छोड़ने के बारे में पूछा, न कोई और जिज्ञासा दिखलाई तो वह स्वयं ही नौकरी को एक भद्दी-सी गाली देकर खदबदाने लगा, 'क्या... नौकरी थी...। मनहूस शहर है...। मेरा तो उस नरक शहर में पहुंचते ही हाल बुरा हो गया। खाने में एकदम लचर लोग। हर सब्जी-दाल में.... गुड़। तुफ्फ है इन गुजरातियों पर। पेट इस कदर बिगड़ा कि संग्रहणी होने की नौबत आ गई। खाने की क्या बात -आबहवा ने भी ऐसी की तैसी कर दी अपनी तो।'
चाय के दो-तीन घूंट भर कर बोला, 'वहां की क्या कैफियत सुनाई जाए दादा। बस मुझे तो न वह जैंट्री अच्छी लगी न शहर रास आया।'
मैंने तल्खी से कहना चाहा, जब तुझे यह उल्लू का पट्ठा रास आया हुआ है तो यहां से कहीं जाने की नौबत ही क्यों आए? पर यह सब कहने का कोई अर्थ नहीं था क्योंकि उस पर बेशर्मी की परत इतनी मोटी चढ़ चुकी थी कि शब्द उसके लिए प्रभावहीन हो गए थे।'
वह चाय पी चुका था तो पकौड़ियों की खाली प्लेट में उंगलियां रगड़ते हुए बोला, 'खाने का जुगाड़ करना ही पड़ेगा नहीं तो भूख मुझे मार डालेगी।'
मैं उससे बातें करने से बचना चाहता था क्योंकि उसके यों यकायक फट पड़ने से मेरी सारी व्यवस्था गड़बड़ा गई थी। एक नाकारा - बेरोजगार आदमी की जो अब लड़का भी नहीं रह गया हो को झेलते चला जाना निम्न मध्य वर्ग गृहस्थ के बूते के बाहर की बात थी।
मैं किचेन से एक झोला उठा लाया और बोला, 'मैं साग-भाजी लेने जा रहा हूं। लौटकर घर में ही सब्जी-परांठे बन जाएंगे। मैंने समझ लिया था कि बाजार में खाने पर कम से कम पंद्रह-बीस रुपये की चपत पड़ जाएगी।'
'अरे दादा आप भी क्या बात करते हैं? भला मेरे आने का क्या मतलब हुआ अगर आज भी थोड़ी बहुत अय्याशी न की जाए।'
उसके आग्रह का ख्याल करके मैंने घर में खाना बनाने का इरादा छोड़ दिया और झोला रसोई में ही रख आया।
मैंने मेज से खाली प्लेट-प्याले हटाए और सिंक में रख आया। जब से मेरी पत्नी अनीता अपने मायके गई थी, यह बर्तन-भांडे धोने का काम भी मेरे सिर ही आ पड़ा था। मैंने सोचा चलो अच्छा है। बाजार में खाना खाने से यह बर्तनों को साफ करने की इल्लत आज तो टल ही जाएगी।
उसने अपना कोट उतारकर कुर्सी की पीठ पर टांग दिया और मैं अलमारी में रखी किताबों और पत्रिकाओं को खोल-खोलकर देखने लगा। मैं थोड़े रुपये अपनी किताबों और मैगजीनों में रखने का अभ्यस्त हूं। जब रुपये पैसे का घोर संकट उपस्थित होता है तो मैं इस सुरक्षित राशि से काम चला लेता हूं। आज भी यही स्थिति थी क्योंकि बाजार में खाना खाने के लिए कुछ रुपये तो मिलने ही चाहिए थे। जब काफी सिरमारी के बाद मुझे कुछ नहीं मिला तो मैं वहां से हट गया। वह गुसलखाने की ओर जाते हुए बोला, 'दादा मैं फ्रेश होकर आता हूं, आप भी बाहर चलने के लिए तैयार हो जाइए।'
जब वह हाथ-मुंह धो रहा था तो मैंने सोचा लाओ जब तक वह लौटे मैं उसका बटुआ ही देख डालूं। अगर इसके पास कुछ रुपये हुए तो खाना बाहर खा लेंगे, अन्यथा घर में ही कुछ बना लिया जाएगा। मैं पिछले अनुभवों के आधार पर जानता था कि वह बहुत फजीहत पसंद आदमी था। मानो इसने खाना खाने के बाद अपने हाथ झाड़ दिए और खाने का पैसा चुकाने से इंकार कर दिया, तो भरे बाजार में मिट्टी पिट जाएगी।
उसका बटुआ देखकर मैं आश्वस्त हो गया। उसमें दस-दस, पांच-पांच के नोट तो थे ही बारह सौ रुपये का एक चैक भी था।
वह बाथरूम से लौटा तो मेरे हाथ में अपना मनीबैग देखकर एकदम बौखला उठा। झपटते हुए मेरे पास आया और आक्रामक मुद्रा में मुझसे बटुआ छीनते हुए बोला, 'भला यह क्या बात हुई। आप मेरे मनीबैग की तलाशी क्यों ले रहे हैं? क्या मैंने पहले ही नहीं कह दिया था आपसे कि आज मेरा अय्याशी का मूड है। यह तो बहुत घटिया बात है और सभ्यता के एकदम विपरीत कि आप छिपकर किसी दोस्त के बटुए की तलाशी लें।'
उसका उलाहना सुनकर मेरा दिमागी संतुलन पूरी तरह गड़बड़ा गया। उसने अपनी संकीर्णता में एक बार भी नहीं सोचा कि उसने कितनी बार मुझे आर्थिक संकटों में डाला था और सब जगह धक्के खाकर वह जहाज के पंछी जैसा मेरे ठिकाने पर ही लौटता था।
मैंने उसे वहीं छोड़ा और अपनी जेब में पड़े थोड़े से पैसों के सहारे बाजार से शाक-भाजी लेने चल पड़ा। रास्ते में मुझे बार-बार उसके वह अपमानित करने वाले शब्द याद आ रहे थे 'आप तो दफ्तर में बेकार आंखें फोड़ रहे हैं, आपको तो किसी फाइव स्टार होटल में कुक होना चाहिए।'