जोकर / विवेक मिश्र
फिर मेट्रो आई रुकी और चली गई ।
समय से घर पहुँचने का एक मौक़ा आया, रुका और आँखों के सामने से सरकता चला गया ।
एक दिन, एक घण्टा जल्दी जाने की मोहलत नहीं मिल सकती । नौकरी है या गुलामी । न जाने भाबू का बुखार उतरा होगा कि नहीं । कितनी बार कहा है जशोदा से, — ’थोड़ा अपने आप भी निकला करो घर से, देख लो आस–पास की जगहें, जिससे बखत–ज़रूरत जा सको बाहर।’ पर हमेशा एक ही बात, — ’बाहर जाते डर लगता है, शहर है या समन्दर । अकेले घर से निकलने की बात सोचते ही जी कच्चा होने लगता है और फिर इस शैतान भाबू के साथ, कभी नहीं ।’
आज भाबू के लिए ही बाहर निकलना है। डॉक्टर के पास जाना है, पर नहीं निकल सकती । उसने कहा था — जल्दी आऊँगा, पर नहीं जा सकता । खाने–पीने वालों के लिए होगी मौज़–मस्ती की जगह, उसके लिए तो एक जेल है, ये रेस्टोरेण्ट ।
जोकर के लिबास में सारे दिन का क़ैदी है. दुख न दिखे इसलिए रंगीन लैंस लगे हैं आँखों में । उदासी छुपाने के लिए चेहरे पर लाल–पीले रंग से मुस्कान चिपका दी गई है । वह चाहे भी तो निजात नहीं पा सकता, इस मुस्कान से । तरह–तरह से मुस्कराना, हाथ मिलाना, लाल–पीले थैले में से निकालकर बच्चों को खिलौने बाँटना, उनका हाथ पकड़कर चलना । उनके रोने पर रोना, हँसने पर हँसना. उनकी फरमाइश पर नाचना, एड़ी पर घूमकर चकरी, या फिर लट्टू बन जाना । रेस्टोरेण्ट में जोकर का होना बच्चों के लिए सबसे बड़ा कौतुक है । उनकी अपनी पसन्द की आइसक्रीम या बर्गर से भी बड़ा । माँ–बाप ख़ुश रहें, इसलिए बच्चों का ख़ुश रहना जरूरी है । माँ–बाप के हिसाब से वे मासूम हैं और उन्हें खाते–पीते हुए जोकर के करतब देखना पसंद है । जोकर की नज़र से सब बच्चे मासूम नहीं दिखते । उनमें से कुछ दुष्ट और सिरफिरे भी होते हैं । वे बिना वजह कपड़े खींचते हैं, धकियाते हैं पर जोकर को हर हाल में उनकी कारगुज़ारियों से डरना है, सहम जाना है । फिर भी न माने तो मुस्कराते हुए पलटी मारकर भाग जाना है । पर किसी भी हाल में उन्हें नाराज़ नहीं करना है ।
अपनी ही मुस्कान इतनी असहय हो सकती है, यह उसने यहाँ, इस नौकरी में सुबह से लेकर देर रात तक मुस्कराते हुए ही जाना. शायद कभी इस मुखौटे को उतार कर अपनी असली शक्लोसूरत में यहाँ आए तो उसे भी अच्छा लगे. अगर ऐसा हुआ तो भाबू और जशोदा को साथ लाएगा. अपने हाथ से बर्गर सेंक कर खिलाएगा. नहीं, टेबल पर बैठ कर ऑर्डर करेगा. वह गर्म, ताज़ा, अपने पैसों से खरीदा हुआ बर्गर होगा. ठण्डा, बासी, बचा हुआ, खैरात में मिला नहीं. पर तब जोकर नहीं होगा. उसके करतब नहीं होगें. किसी को हँसाने के लिए किसी का जोकर बनना जरूरी है. यही नियम है. सोचा ‘मैं जोकर ही रहूंगा. भाबू और जशोदा टेबल पर बैठेंगें. भाबू भी बच्चा है, यहाँ आकर जरूर ख़ुश होगा. पर मुझे इस तरह जोकर बना देखे तो न जाने क्या सोचे? क्या सोचेगा? बाप हूँ उसका. ये काम है मेरा. पर जोकर किसी का कुछ नहीं होता. वह सिर्फ़ जोकर होता है. उससे कोई भी, किसी भी तरह पेश आ सकता है. भाबू और जशोदा भी.’
‘क्लाउन कम हियर.’ आवाज़ गूंजी.
पलटा तो सामने मैनेजर खड़ा था, ‘क्या प्रोबलेम है तुम्हारी? इतने सुस्त क्यों हो? ये रेस्टोरेन्ट के बिज़ी ऑवर्स हैं. तुम्हें वहाँ गेट पे, बल्कि गेट से बाहर होना चाहिए. बाहर देखो कितने लोग वेटिंग में हैं. कितने बच्चे हैं, उनके साथ. तुम यहाँ खड़े खिड़की से बाहर ताक रहे हो.’
‘सर आज जल्दी निकलना था.’
‘मैंने तुम्हें कितनी बार बोला, वीकेन्ड पे जल्दी निकलने की बात मत करना. पिछले तीन दिन से बिज़नेस कितना कम था. चलो गेट पे पहुँचो, अभी बात करने का टाइम नहीं है और सुनो ऐसे मुँह मत लटकाए रहना.’ मैनेजर तेज़ी से किचिन की तरफ़ बढ़ गया. किचिन से मांस के भुनने की गंध आ रही थी.
तभी दो-तीन बच्चों ने आकर घेर लिया. वे कोने में लगे पंचिंग बैग के पास खींच के ले गए. बच्चे बैग को हिट करेंगे, बैग जोकर को लगेगा. जोकर गिर जाएगा. हर बार अलग अदा से. कभी सीधे, कभी उल्टे, कभी समरसॉल्ट करते हुए. परसों इसी खेल में घुटना स्टूल से लग गया था. अभी तक दुख रहा है. बचने के लिए खंबे पर बंधी लाल रस्सी खोली और कूदता हुआ बाहर चला गया. चारों ओर गुब्बारे हैं, घंटियाँ हैं, संगीत हैं, हर तरह का खाना–पीना है, कपड़े हैं, रंग हैं और शरीर हैं. और उन शरीरों को किसी चीज़ की कमी नहीं है. सब कुछ इतना है कि छलछ्ला के बाहर गिर रहा है, बह रहा है.
कूदते हुए उसका मुंह सूख रहा है. लगता है छाती में कुछ जम गया है. बीड़ी पीने की जबरदस्त तलब लगी है. तभी घुटना ‘चट’ की आवाज़ के साथ चटका और ठीक हो गया. शरीर में दर्द की गुंजाइश नहीं है. हर दर्द कुछ देर रहकर ठीक हो जाता है. उसके लिए हर दर्द का जल्दी ठीक हो जाना जरूरी है. सब ख़ुश हैं. बगल की टेबल पर कोई चहक रहा है, ‘इट्स फ़न बीइंग हेयर एट वीकेन्ड’, दूसरी आवाज़ उसमें मिल गई है, ‘या, इट्स सो हेपनिंग.’ इतने तेज़ बजते संगीत के बीच भी ये आवाज़ें चुभ रही हैं.
तभी किसी ने कंधे पर हाथ रखा. इमरान इस समय किचिन से बाहर! ‘तेरी घरवाली का फोन है.’ दिल धक से रह गया. हाथ कांप गए फोन पकड़ते हुए. दूसरी तरफ़ से जशोदा लगभग चीखते हुए बोल रही थी, ‘डॉक्टर की दुकान पर हूँ. भाबू का बुखार बड़ गया था. नीचेवाली भाभी के साथ यहाँ ले आई. पैसे इन्से लेके पूरे पड़ गए. तुम चिन्ता नईं करना, भलीं. काट रई हूँ, ये डॉक्टर साब का फोन है.’ कुछ और पू्छता कि वहाँ से फोन कट गया. पर यहाँ वीकेन्ड काटे नहीं कट रहा था.
जाते–जाते भी बीसियों गुब्बारे फुलवा के रख लिए कल के लिए. फेंफड़े थक गए. साँस लेना भी मुश्किल हो गया. बाहर निकला तो हवा भी भारी लगने लगी. कौन जाने हवा में धुआँ ज्यादा था या फेफड़ों में ऊब और घुटन. यहाँ से निकल के घर की ओर बढ़ना रोशनी की चकाचौंध से भरे टापू से अंधेरे कुएं में उतरने जैसा था. दिल्ली और गज़ियाबाद के बोर्डर पर बसी खोड़ा कॉलोनी अंधेरे में डूबी धीरे–धीरे ऊँग रही थी. हाइवे से देखने पे लगता था किसी ने शहर भर का कबाड़ लाके यहीं उलट दिया है. गलियाँ भीतर जाके संकरी होकर आपस में उलझकर अंधेरे में बिला गई थीं. इन्ही गलियों में कहीं–कहीं खिड़कियों से झांकती हल्की सी रोशनी टिमटिमा रही थी.
उसके कमरे में घुसते ही जशोदा ने फुसफुसाकर बताया, ‘भाबू दवा खाके एकदम से सो गया, पीते ही नींद आ गई. अंग्रेजी दवा में नशा होता है क्या?’ फिर थोड़ा रुकके बोली, ‘तुम भी नशा किए हो क्या?’
उससे बोला नहीं गया. उसने अपना मुँह उसके पास ले जाकर फाड़ दिया और ज़ोर की साँस ली. जशोदा ने बक़ायदे मुँह सूंघा. बास नहीं आई. हाथ पकड़ के बैठ गई. फिर हाथ सूंघे. हाथों से चॉकलेट की खुशबू आ रही थी. बुदबुदाती हुई बोली, ‘भाबू को चॉकलेट बहुत पसंद है.’
उसने थैले से एक डिब्बा निकालकर जशोदा के हाथ में दे दिया. डब्बे में एक बासी बर्गर था. कई बार रोटी का रोटी होना जरूरी नहीं होता. दोनो बीच में रखकर रोटी की तरह तोड़–तोड़ के खाने लगे.
सुबह भाबू उठा तो आँखे सूजी हुई लग रही थीं. माथा छूके देखा तो बुखार नहीं था. उसे देखके किलक उठा. कुछ देर तक गोद में लिए बैठा रहा. लगा आज न जाए काम पर. फिर पता नहीं किस ताक़त ने खींच के खड़ा कर दिया. तैयार होकर निकलने को हुआ कि भाबू धाड़े मार मार के रोने लगा. पैरों से लिपट गया. लाड़ किया. समझाया. नहीं माना. रोना और तेज़ हो गया. साथ चलूंगा की जिद पकड़ ली. समझाते–समझाते जशोदा रुंआसी हो गई. हार के बोली ‘हम साथ चलते हैं. इसे लेकर बाहर बैठी रहूँगी, तुम अपना काम करते रहना. जवाब में झुंझला गया, ‘अरे ऐसे बाहर नहीं बैठने देंगे, बहुत सफ़ाई रहती है, वहाँ पर.’
जशोदा जैसे छाती से आवाज़ जुड़ा के बोली, ‘तो हम सबका कुकुर हैं, सुअरी हैं, जो गंदा जाएंगे, नहा धोके चलेंगे.’ ‘अरे स्वीपर लोग के साफ़ करने के बाद, दबाई छिड़क के ज़मीन, टेबल, कुर्सी सब साफ़ होता है, वहाँ पर. दस्ताना पहिन के खाना बनाते हैं, बाबर्ची. हम लोग का ये कपड़ा बेसमेन्ट में उतरवा लिया जाता है. हम भी बर्दी के बिना नहीं जा सकते वहाँ, समझीं.’
जशोदा का गुस्सा कुछ कम हुआ, ‘बाप रे! एक जोकर की हँसी–मसखरी की ऐसी कठिन नौकरी? ऐसे में कौन हँसे और कौन हँसाए? रहने दे भाबू, हम यहीं रहेंगे. जाने दे बाबा को.’
‘रोओ मत चॉकलेट लाऊँगा’ कहते हुए भाबू को बिना देखे बाहर निकल गया. भाबू पीछे–पीछे चला आया. खीज उठा, ‘पकड़ो इसे, ऐसे गली में मत छोड़ा करो. आजकल नोएडा का बच्चे पकड़ने वाला गैंग घूमता है खोड़ा की गलियों में. ये कोठी वाले लोग गरीब लोग के बच्चों का कलेजा भून के खा जाता है.’ जशोदा ने उसे घूर के देखा और भाबू को गोद में उठा लिया. वह पाँव पटकता गली से बाहर निकल गया.
आज सुबह से काम में मन नहीं लग रहा है. हँसी–मसखरी हमेशा अच्छी नहीं लगती. इतवार की वजह से आज दिन में ही रात जैसी भीड़ है. रंग–बिरंगी गेंदें हवा में उछालकर नचा रहा है. दो हाथ में होती हैं तो दो हवा में. चाहे तो बिना एक भी गेंद गिराए घंटों नचा सकता है पर सुस्ताने के लिए जानके चूक जाता है. फिर भौंदू सी शकल बना कर होंठों में दबी लम्बी पीपड़ी बजा देता है. पर पलक झपकते ही बच्चे गेंदें उठाकर फिर ले आते हैं. बच्चे उसे घेरे खड़े हैं. वह जहाँ जाता है वे उसके पीछे आते हैं. वे ख़ुश हैं. उनके लिए कोई जगह वर्जित नहीं है. वे जिस चीज़ को देखते हैं उनकी हो जाती है. उन्हें किसी चीज के लिए धाड़े मार मारकर रोना नहीं पड़ता. सोचा, ‘इन्हें ज़ोर ज़ोर से रोता भाबू किसी और दुनिया का प्राणी लगेगा.’ यहाँ आकर कई बार उसे भी भाबू की रुलाई बहुत धीमी, नेपथ्य में चमक के बुझ जाने वाली किसी रोशनी की तरह लगती है. पर कभी–कभी आवाज़ें सीमाएं लांघकर कानों में घुसी आती हैं. वह उन्हें पीपड़ी की पुर्ररर–पुर्ररर में दबा देता है.
उसे नई धुन पर नाचना है. इसलिए हर दुख को झाड़पोंछकर कूड़ेदान में डाल दिया गया है. यहाँ किसी के रोने की आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं है. नए रंग की फिरकिनियाँ और झंडियाँ आई हैं. फिरकिनियों को लेकर भागने से वे घूमती हैं, झंडियाँ लहराती हैं. वह पंखे के सामने खड़े होकर बच्चों को उन्हें घुमाना सिखा रहा है. पंखे कम हैं, फिरकिनियाँ ज्यादा, पर हर फिरकिनी को बच्चों के मन माफ़िक घूमना होगा. उसके लिए उसे फूंक मारनी होगी. बच्चों की फिरकिनियाँ हाथ में लेकर दौड़ना होगा. सोचा, ‘कल भाबू का बुखार उतर जाने पर उसे कंधे पर बिठाकर ऐसे ही दौड़ेगा. वह अपने लिए कभी नहीं दौड़ा. वह हमेशा दौड़ाया गया.’
इमरान उसकी तरफ़ दौड़ा आ रहा है. सामने आते ही फोन देने से पहले ही फोन पर हुई बात बोल दी, ‘तेरा बेटा खो गया है.’ फोन से कई आवाज़ें आ रही हैं. वह उनमें से जशोदा की आवाज़ बिलगा रहा है. जशोदा की आवाज़ गले में फंसके भर्रा गई है, ‘दो मिनट के लिए नीचेवाली भाभी के पास बिठा के दवाई लेने गई थी. बस इतने में पता नहीं कहाँ चला गया. गली से लेके सड़क तक, नहर से लेके नाले तक. पार्क से लेके कूड़े के पहाड़ तक, सब जगह देख लिए, कहीं नहीं मिला.’
खोड़ा की गलियाँ साँप के गुच्छों की तरह आपस में लिपट रही हैं. वे दो मुँही हो गई हैं. वे विष उगल रही हैं. भाबू उन ज़हरीले साँपों के बीच बिलख–बिलखके रो रहा है. आज अपने लिए दौड़ना है. वह आज अपने लिए दौड़ रहा है. वह जोकर के कपड़ों में ही पुल पर भाग रहा है. आने–जाने वाले इसे जोकर का करतब समझ रहे हैं. पुलिसवाला सीटी बजा रहा. लोग हँस रहे हैं. जोकर जान छोड़ के दौड़ रहा है. जोकर कहीं रुक नहीं रहा है. वह नदी–नाले लांघ रहा है. जोकर भीड़ में खो गया है.
भाबू दो गली पीछे एक दुकान पर बैठा, चॉकलेट खाता मिल गया है. इस बात को दो दिन हो गए हैं. जशोदा और भाबू रेस्टोरेन्ट में घुसने की कोशिश में हलकान हो रहे हैं. उन्हें भीतर नहीं जाने दिया जा रहा है. भीतर एक नया जोकर है जो बच्चों को नए करतब दिखा रहा है. बच्चे ख़ुश हैं. इमरान जशोदा को समझा रहा है. पर जशोदा यह मानने को तैयार नहीं है कि वह किसी गाड़ी से कुचल कर मर गया है. उसे किसी रेस्टोरेन्ट में नहीं बल्कि किसी सरकारी अस्पताल के शवगृह में ढूँढा जा सकता है. पर जशोदा को विश्वास है वह नहीं मर सकता.
जोकर नहीं मर सकता.