जोगी और पगली / ममता व्यास
वो हवा की तरह थी। कभी यहाँ तो अगले पल न जाने कहाँ। उसका कोई पता नहीं था बे -पता सी रहती थी। दुनिया में उसका कोई नहीं था। उसकी कहीं कोई पहचान नहीं थी। उसका कोई नाम भी नहीं था। वो कहाँ से आई थी कोई नहीं जानता था। उसे कभी किसी ने रोते या सिसकते नहीं देखा। हमेशा जोर-जोर से हँसते ही देखा था, मानो ईश्वर ने उसमें कोई हँसने वाली चाभी भर के भेजा था। बिना बात पर हँसे जाना तरह -तरह से हँसना।
गाँव में किसी की भी शादी-ब्याह हो वो सबसे पहले नाचने-गाने पहुँच जाती थी। हाँ गाँव में अगर कोई मौत हो जाती तो वो अपनी झोपड़ी में जाकर गुम हो जाती थी। पूरे गाँव में कोई उसका नहीं था लेकिन वो सब की थी। मन की सच्ची और पवित्र सी --गाँव के बच्चों से उसकी यारी थी। गाँव की स्त्रियों से जरा कम पटती थी उसकी और गाँव के पुरुषों की तरफ उसने कभी आँख उठाकर नहीं देखा। बस गाँव के सरपंच जी का वो बड़ा मान रखती थी। आज सरपंच जी ने उसे बुलावा भेजा तो भागी चली जा रही थी। उसकी बड़ी बड़ी आखों में समन्दर उफनते थे और उसके होठों पर हमेशा इक निच्छल गुलाबी मुस्कान सजी रहती थी। आखों के उफनते समन्दर और उसकी गुलाबी मुस्कान में गजब का संतुलन बनाये रखती थी वो । न आखों के समन्दर कभी उफन कर बाहर गिरे और न कभी मुस्कानों की गुलाबी पंखुड़ियां ही कभी बिखरी।
“ओ पगली....!! रुक कहाँ जा रही है?” बच्चों की चंडाल-चौकड़ी ने पुकारा|
हाँ, पगली कहकर ही सारा गाँव उसे पुकारता था।
“सरपंच जी के घर”, पगली चिल्लाई। अगले ही पल पगली सरपंच जी के सामने थी। सरपंच जी के साथ इक जटाधारी महात्मा खड़े थे। जिनकी उम्र ज्यादा नहीं लगती थी। धीर गंभीर व्यक्तित्व के धनी वे बड़े ज्ञानीजान पड़ते थे| ज्ञान का दम्भ उनके तेज के साथ मिलकर उनके चेहरेको प्रभावशाली बना रहा था। सरपंच बोले ये बनारस से आए है और अब हमारी नर्मदा मैया के किनारे कुछ दिन बिताना चाहते हैं। पगली ने इक निरिक्षण भरी नजर महात्मा पर डाली और बोली महात्मा है या जोगी?
इन जोगियों का स्वभाव तो हमारी नर्मदा मैया की लहरों जैसा होता है सरपंच जी आज यहाँ कौन जाने अगले पल कहाँ? पगली इतना कहकर जोर -जोर से हँसने लगी। उसकी हंसी लहलहाते खेतों को छू कर गुजरने वाली सरसराती हवा जैसी थी।
सरपंच जी हँस पड़े लेकिन वो जोगी विस्मय से उसे जाते देखते रहे और बड़ी मुश्किल से पूछ पाए कौन है ये? ये पगली है। हमारे हरिपुर गाँव में नर्मदा मैया के घाट पर पांच बरस पहले मेला लगा था, उस बरस बहुत से साधू,सन्यासी, महात्मा और जोगी पधारे थे। उस बरस मेले में आस पास के गाँव के लोग भी हरिपुर में डेरा जमाये थे मेला जब लगा तो कई दिनों तक रौनक रही लेकिन जब मेला टूटा तो बहुत वीराना हो गया था हरिपुर। सभी साधू महात्मा बाबा बैरागी चले गए थे, बस रह गयी थी तो बस ये पगली।
हाँ ये पगली उस मेले में, भीड़ के रेले में कहीं से आ गयी थी अपना नाम कभी बता नहीं सकी कभी वो। बस हर बात पर हँसती थी जोर-जोर से इसलिए गाँव वालों ने उसे पगली कहना शुरू कर दिया था। न जाने क्यों ज्यादा हँसने वालों को अक्सर लोग पागल कहते है मानो ज्यादा चुप रहना और हमेशा गुस्से में धीर गंभीर बने रहना ही समझदारों के लक्षण हों।
बहरहाल गाँव वालों ने इसे अपनी बेटी मान लिया है इसके हाथों में गजब का हुनर है। गाँव की स्त्रियों से इसने झोपड़ी बनाना सीखा, मटके बनाना और कई सारे काम... अब वो पगली सभी के दिनभर काम करती है। लेकिन रहती है हमेशा गाँव से दूर मरघट में अपनी झोपड़ी बनाकर (मरघट शब्द सुनकर महात्मा के शांत चेहरे पर कई आड़ी- टेड़ी लकीरें बन गयी। लेकिन वे सरपंच जी की बातें सुन रहे थे, वे इस रहस्मयी स्त्री के बारे में सब जानने के इच्छुक थे) सरपंच जी बोले चले जा रहे थे।
यही कारण है कि पगली कि खूबसूरत देह पर कभी किसी गाँव वाले ने आँख उठाने की हिम्मत नहीं की। हाँ, गाँव कि स्त्रियाँ इससे मन ही मन इर्ष्या रखती हैं और अपने पतियों को उससे दूर रखने के लिए पगली को योगिनी, प्रेतनी या जादूगरनी भी कह कर बुलाती हैं। इतना कह कर सरपंच जी हँसने लेकिन... उस महात्मा के चेहरे पर कोई हंसी नहीं थी, वो तो दूर जाती पगली को अपलक निहार रहे थे। आजतक किसी स्त्री ने उनपर इसतरह से जोगी कहकर व्यंग नहीं किया था। इतनी बेबाकी से कटाक्ष करने वाली ये रहस्मयी स्त्री इतनी अजीब क्यों है? मन ही मन सोच ये लिए वो महात्मा सरपंच जी के साथ गाँव वालों से मिलने चल दिए।
सरपंच जी ने सभी गाँव वालों को बताया कि आज एक बहुत ही सिद्ध जोगी हरिपुर में पधारे हैं, ये बनारस से आए हैं। अब ये हमारी हनुमान मढ़ी में रहेंगे आज से इनका आशीर्वाद आप सभी को मिलेगा। रोज भजन कीर्तन और सत्संग होगा। महात्मा जी के पास आप सभी अपनी समस्याएं लेकर आ सकते है। गाँव वालों को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गयी थी। सरपंच जी ने महात्मा जी कि कुटिया बनाने का काम साफ सफाई और झाड़ने बुहारने का काम पगली को सौंपा। पगली ने बहुत ही तन्मयता से महात्मा के लिए सुन्दर कुटिया बनाई, वो उन्हें जोगी ही पुकारती थी।
उस महात्मा की उम्र ज्यादा नहीं दिखती थी, काली घनी जटाओं से उसकी बड़ी-बड़ी, गोल-गोल गहरी आँखें चमकती थी। आवाज में मिठास और सम्मोहन था। उन्हें चिकित्सा विज्ञान, रसायन विज्ञान, खगोल, मनोविज्ञान एवम दर्शन शास्त्र सहित कई गूढ़ विषयों का ज्ञान था।
वो जोगी एक बड़े से चबूतरे पर बैठकर प्रतिदिन प्रवचन करते और सारा गाँव उन्हें सुनता। उस जोगी की वाणी में साक्षात सरस्वती विराजती थी जब वो भाव में डूब कर रामकथा सुनाते कभी कृष्ण लीला तो सभी स्त्री पुरुष भाव में डूबकर रो-रो पड़ते लेकिन इमली के परड़ के पीछे छिप कर खड़ी पगली जोर-जोर से हँसती थी।
यही नहीं जब कभी वो जोगी प्रेम पर कोई कथा सुनाते या कोई ज्ञान की बात बताते तो भी पगली जोर जोर से हँसती थी। जोगी पगली कि इस हंसी से बहुत परेशान थे, लेकिन गाँव वालो की वजह से मौन रह जाते थे।
गाँव वाले इस बात पर हैरान होते थे कि इतने सिद्ध महात्मा इक अनपढ़ गंवार पगली की हंसी से क्यों दुखी हो जाते है। जबकि गाँव के सभी शिक्षित स्त्री-पुरुष उस महात्मा के पाँव में झुके रहते हैं।
वक्त गुजरता गया। जोगी के पास गाँव के पुरुष तो अब कभी कभार ही आते थे। कारण खेतों में बुवाई का काम शुरू हो गया था। लेकिन जब उन्हें कोई समस्या होती जैसे खेतों की फसल के बारे में जानना हो तो या कोई लड़ाई झगड़े का मामला हो तब ही वो आते, या फिर भजन सुनने शाम को आ जाते थे। लेकिन उस गाँव की स्त्रियों का अधिकतर समय जोगी के पास ही बीतता था।
सभी स्त्रियों के पास कोई न कोई समस्या होती थी और जोगी के पास सभी के समाधान। वो अपनी वाक् पटुता और बुद्धिचातुर्य से सभी स्त्रियों को मोहित कर लेता था। बूढी स्त्रियाँ उसमे अपने बेटे का रूप देखती अधेड़ स्त्रियाँ उसमे अपना खोया प्रेमी तलाशती और कुँवारी लड़कियां उसमे अपने भावी जीवनसाथी कि छवि देखती। सत्संग के बाद भजन होता और भजन के बाद जोगी सभी को इक खुशबूदार भभूती देते थे। जोगी की भभूति को सभी लोग बड़ी ही श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ग्रहण करते थे। स्त्रियों के बीच वो भभूति चमत्कारी भभूति थी जिससे हर समस्या का समाधान हो जाता था।
लक्ष्मी काकी इसे अपनी बहू को खिलाती ताकि अबकी बार पोता ही हो तो, अधेड़ उम्र की शांता भाभी अपने पति की सब्जी में मिलाकर खिलाती ताकि उसका पति सुदर्शन किसी सौतन के पास न जाए। कुँआरी लडकियां उस भभूती को ताबीज बनाकर बाजू पर बांधती और मीठे सपनों में खो जाती सो जाती।
जोगी के अलौकिक प्रेम में सभी स्त्रियाँ दीवानी थी| उस जोगी को हजारो कहानियां मुंह जबानी याद थी। कई देशों कि लोककथाए प्रेम कथाये जब वो सुनाता तो स्त्रियाँ भावुक हो पड़ती थी। ऐसा नहीं कि जोगी इन बातों से अनजान था, उसे पता था सभी स्त्रियाँ उस पर जान देती हैं पर उसे भी आनन्द आता भीड़ के साथ इस खेल में। स्त्रियों की सिसकियों से. हिचकियों से वो परम आनन्द की प्राप्ति करता था। दुःख प्रेम निराशा, विरह उसके प्रिय विषय होते थे और कमोवेश स्त्रियों के भी। अब पनघट पर स्त्रियाँ उस जोगी के किस्से सुनाती और चौपालों पर पुरुष जोगी के ज्ञान की चर्चा करते। इक दिन ठकुराइन ने पगली को टोका भी –
"ओ पगली जा इक दिन तू भी उस जोगी के चरण पकड़ ले, भभूति चख ले, तेरा ये पागलपन का रोग ठीक हो जाएगा...”
परन्तु अनपढ़ गंवार पगली पर कोई असर नहीं होता था। वो दिनभर देह तोड़ कर काम करती शाम को मरघट में बनी अपनी झोपड़ी में जाकर सो जाती। कभी मन करता तो नर्मदा किनारे बैठ जाती उस पगली को किसी कि जरुरत नहीं थी न कोई मतलब वो अपनी दुनिया में मसरूफ थी।
लेकिन... उस रात पगली की करीब ढाई -तीन बजे नींद उचट गयी उसने देखा कोई इक छाया मरघट के तरफ आ रही है। और फिर इक चबूतरे पर जाकर रुक गयी और फिर जोर जोर से रोने लगी । उस छाया का रुदन इतना डरावना था कि वृक्षों पर सो रहे सभी पक्षी डर कर इधर -उधर हो रहे थे। उसकी दोनों आखों से आसुंओं कि नदी बह रही थी जो चिताओं कि राख में मिलकर चमक रही थी। जब उसका रुदन हिचकियों में, सिसकियों में बदल गया। थोड़ी देर में ही वो छाया जैसे खुद से बातें करने लगी ।
“क्यों आते हो यहाँ”?
"रोने के लिए?”
“हाँ, मेरा दम घुटता है रोये बिना। य़े दुनिया मुझे रोने क्यों नहीं देती? ”
“तुमने ये हँसने वाला मुखौटा क्यों लगाया है? बड़ा रस आता है तुम्हें स्त्रियों की बातों में, है न?”
“नफरत है मुझे संसार की हर स्त्री से, मैं जान-बूझकर उन्हें भावनाओं के जाल में उलझा लेता हूँ और उनके सारे पंख नोच लेता हूँ और वो जब मछली की तरह तड़पती है तो मुझे आनंद मिलता है, परम आनंद”
लेकिन ये तो पाप है, भावनाओं का खेल अपराध है, जिसके लिए कोई क्षमा नहीं”
“क्या कारण है स्त्रियों से नफरत का?”
मेरा पूरा जीवन इन स्त्रियों ने ही नष्ट किया है”मेरे कोमल मन पर कठोर प्रहार किये मेरा सुन्दर जीवन नष्ट किया गया”
“मुझे बंजर कर दिया गया,मैं हँसना भूल गया गीत गाना भूल गया मुझे सुगंधों का भान नहीं रहा”
“मैं अब जीवन भर इन स्त्रियों को छ्लूंगा”तब ही मेरे मन को शान्ति मिलेगी”
“तो वो प्रेम और इश्वर कि बातें? वो कथाये? वो हास- परिहास? ”
“सब झूठ सब पाखंड है मेरा, न मैं किसी इश्वर को मानता हूँ न प्रेम को जानता हूँ... मेरे जीवन में सिर्फ अमावस का अँधेरा है और वो ही अँधेरा मेरा पीछा नहीं छोड़ता। दिन के उजाले मुझे राहत देते हैं और वो भोले-भले चेहरे भी, मैं खुद को भूल जाता हूँ उस समय लेकिन रात घिरते ही ये स्याह अँधेरा मेरा गला घोंटता है, सब अपने दुःख कि पोटली मेरे पास ले आते हैं, सबकी पीड़ा को झेलने के लिए मैं लोहे सा मजबूत बन जाता हूँ। लेकिन मेरे कोमल मन को कोई नहीं समझता, ये स्त्रियाँ जो खूबसूरत हैं, बुद्धिमान हैं, सुन्दर बातें करती हैं, ये क्यों नहीं पढ़ पाती कभी मेरे चहरे को, मेरे मन को, नफरत है मुझे उन सब से... जो कभी झांक नहीं सके मुझमें”
इतना कहकर वो छाया अपने ऊपर चिता की राख मलने लगी मानो कोई अपनी स्याह पीड़ा पर चांदी का मुलम्मा चढ़ा रहा हो ।
अब फिर से मरघट में शांति थी छाया धीरे- धीरे जा रही थी कि पगली ने रोका... कौन? जोगी? यहाँ इस समय आने का कारन? ”मैं तो रोज ही आता हूँ तुमने आज देखा।”(जोगी खुद को संभालते हुए बोले )
“ह्म्म्म... क्यों?" (पगली ने थानेदार कि तरह सवाल किया)
“तुझसे मिलने... तू नहीं आई न कभी मेरे पास इस वास्ते जोगी ने अपनी लच्छेदार बातों का तीर फेंका और जोर से हंसा... .लेकिन जोगी की आखों में दो बूंद आसूं चमक गए।
"चुप रहो... "पगली चिल्लाई,
“क्या समझते हो खुद को?”
"बहुत बड़े ज्ञानी हो तुम?”
"बहुत बड़े पंडित, बहुत प्रेम कथा याद है तुम्हे है न? ”
"गाँव की भोली भाली स्त्रियों को अपने बातो के जाल में खूब फंसाया तुमने।”
“बहुत आनन्द आता है तुम्हें? दिन भर सभी को खुश रहने का मन्त्र देते हो और रातों में यहाँ आकर फूट-फूट कर रोते हो। दिन के उजालों में जिन सवालों को तुम अपनी हंसी में उड़ा देते हो उन्हीं सवालों के जवाब स्याह रातों में खोजते हो। कितने खोखले हो तुम। खुद को और लोगों को कितना छलोगे? बोलो? ये खेल बंद करो जोगी। तुम कोई महात्मा नहीं तुम सिर्फ इक बहुरुपिया हो तुम्हारा खुद का मन भीतर से शांत नहीं तुम क्या किसी को शांति दोगे। तुम किसी के मीत नहीं हो सकते। तुम तो खुद के ही सगे नहीं जोगी। अरे तुमसे अच्छे तो मेरे गाँव की गाय बकरियां है जो शाम होते ही अपने ठिकाने पर लौट आती हैं। तुम जहाँ-जहाँ से आए हो तुम कभी पलट के गए हो उस डगर पर? ” नहीं गए| मैं जानती हूँ। तुम सिर्फ भागते रहे उम्र भर... तुम्हे तो ये भी याद नहीं की कितने हाथों में तुमने भभूती दी है। कौन-कौन तुम्हारे नाम का ताबीज पहन कर भटक रही है। कभी सोचा है तुमने? तुम्हारे चले जाने के बाद इन भोली स्त्रियों का क्या होगा? उनके मन में क्या गुजरेगी मन समझते हो तुम? भावनाओं का खेल पाप से भी भारी है जोगी... सच बतलाना तुम किसके सगे हो? और पगली जोर -जोर से हँसने लगी आज पगली की हंसी गुल्लक में से गिरते सिक्कों कि तरह सुनाई दे रही थी। अपने मन की पीड़ा का बदला दूसरे का मन दुखा कर नहीं लिया जाता जोगी ।
“प्रेम ही हर पीड़ा की चिकित्सा है”
“तुम्हारे भीतर प्रेम का अभाव है”(पगली ने अपनी बात पूरी की )
जोगी अवाक था... ये पगली इतना कैसे जानती है ये तो पढ़ी लिखी है। अनपढ़ नहीं,चतुर स्त्रियों से तो बहुत वास्ता रहा मेरा लेकिन पगली ने तो मेरे अंतर मन को पढ़ लिया।
ये पगली नहीं हो सकती। आजतक जितनी भी चतुर स्त्रियाँ मुझे मिली मेरे ज्ञान,मेरी प्रसिद्धि मेरी बुद्धि मेरे हुनर के आगे सर झुकाती थी। और ये स्त्री मुझसे प्रश्न करती है? (जोगी फिर इकबार खुद से बातें करना लगा)
उसकी तन्द्रा पगली की हंसी ने तोड़ी। बमुश्किल जोगी बोला: "हम्म... तो तुम पागल नहीं हो... बोलो तुम कौन हो?”
"और तुम ये सारा दिन क्यों हँसती हो? मेरी हर बात पर तुम क्यों हँसती थी बताओ? ”
"...इसलिए कि तुम किताबी बातें करते हो। तुम बिना अनुभव के बोलते थे पागल बनाते थे गाँव वालों को उन भोली स्त्रियों को। दरअसल तुम खुद को ही छलते रहे जोगी। प्रेम करना और प्रेम का स्वांग करना दोनों में फर्क है जोगी। प्रेम ग्रन्थ लिखना, प्रेम ग्रन्थ बांचना अलग और प्रेम को अनुभव करना अलग तुम्हे तो प्रेम की एक बूंद भी नहीं भिगो पाई अबतक...”
पगली फिर जोर से हंसी... अबकी बार जोगी को ये हंसी कलेजे में कटार सी चुभी अब जोगी के सब्र का बांध टूट गया उसने असंयमित होकर अपना हाथ बढ़ाया और तर्जनी से पगली के हँसते होठो को छू दिया और बोला "बहुत हँसती हो न तुम मैं भी देखूं? कितनी असली है, ये मुस्कान ये हंसी...”
और इक पल में जैसे आसमान में बिजली कड़की, परड़ कांपने लगे, नर्मदा का पानी किनारों पर आकर ठहर गया और मरघट में बहुत गहरी शांति छा गयी। जिस देह को बचाने के लिए उसने मरघट में रहना गवारा किया पगली का स्वांग किया आज उसी मरघट में इक जोगी उसे छू गया... उसकी तर्जनी में जाने क्या जादू था कि पगली हँसना भूल गयी।
पगली की पूरी देह काँप गयी उसकी आखें किसी योगिनी की तरह बंद हो गयी। जोगी के स्पर्श से पगली के होठ जड़ हो गए।
जोगी अगले दिन गाँव छोड़कर चला गया। कई दिनों तक जोगी के चर्चे होते रहे कोई कहता जोगी ने नर्मदा मैया में जल समाधी ले ली, कोई कहता जोगी किसी बड़े शहर में बहुत प्रसिद्ध गायक था और जिन्दगी के दुखों ने उसे जोगी बना दिया था। लोगों ने जोगी को फ़िर कभी भी किसी गाँव में जोग लगाते नहीं देखा। समय के साथ उन चतुर स्त्रियों ने भी जोगी को भुला दिया, लेकिन पगली आज भी उसकी कुटिया को बुहारती है, लीपती है और सारा दिन गुमसुम रहती है। रातों को मरघट के उसी चबूतरे पर जाकर फूट-फूट कर रोती है। गाँव वालों ने उसे फिर कभी हँसते हुए नहीं देखा... गाँव के समझदार लोग कहते है वो जोगी पगली पर जादू कर गया।
कोई कहता है पगली ने गलती से जोगी की भभूती खा ली थी...