जोर लगा के हईशा का असल जोर / जयप्रकाश चौकसे

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जोर लगा के हईशा का असल जोर
प्रकाशन तिथि :05 मार्च 2015


हिन्दुस्तानी सिनेमा की विशेषता रही है कि समय-समय पर अप्रचारित अनाम सी कोई फिल्म आकर सफलता पाती है जिसमें सितारे भी नहीं होते। आदित्य चोपड़ा की 'जोर लगा के हईशा' ऐसी ही फिल्म है। यह सरल सादी पारिवारिक फिल्म प्रेम को परिभाषित करते हुए उसके सबसे कठिन सूक्ष्म भाव पर प्रकाश डालती है। विवाह के आधार को भी पुख्ता दंग से प्रस्तुत करती है। आमतौर पर सुंदर सलोने से युवा लड़का-लड़की मिलते हैं और प्रेम हो जाता है। प्रथम दृष्टि में प्रेम की अनगिनत कहानियां हैं। दो ईश्वरीय कमतरी के शिकार लोगों की प्रेम कहानी भी है जैसे गुलजार की 'कोशिश।' युद्ध कहानियों से अधिक प्रेम कहानियों पर फिल्में बनी हैं, ग्रंथ लिखे गए है परन्तु 'ढाई आखर' समझ में नहीं आता, क्योंकि वह सिर्फ महसूस करने की चीज है।

इस फिल्म में सुंदर सलोने से मध्यम वर्ग के युवा की शादी उसकी इच्छा के विपरीत गुणवान पढ़ी-लिखी परन्तु मोटी युवती से इसलिए करा दी जाती है कि उसकी नौकरी परिवार को आर्थिक सम्बल देगी। एक दिन पति शराब पीकर मित्रों के बीच मोटी पत्नी के लिए अपनी छुपी नफरत को बयां करता है और स्वाभिमानी लड़की अपने मायके चली जाती है। किस तरह कौन-सी जरूरत उन्हें इकट्‌ठा करती है और कैसे उनकी विशुद्ध प्रेम-कथा का सचमुच शुभारंभ होता है यह देखने और महसूस करने वाला रोचक घटनाक्रम इस फिल्म की रीढ़ की हड्डी है। एक हॉलीवुड निर्माता ने अपनी 1942 में बनी फिल्म को दोबारा रंगीन रूप में 1958 में बनाया जिसकी प्रेरणा से हमारे यहां आधा दर्जन फिल्में बनीं। जैसे अशोक, मीना कुमारी, प्रदीप कुमार की 'भीगी रात'; राजेंद्र कुमार, साधना अभिनीत 'आरजू' और इन्द्र कुमार की आमिर खान, मनीषा अभिनीत 'मन'। इन फिल्मों में नायक दुर्घटनावश अपना एक पैर कटवाता है और इस कमतरी के कारण प्रेमिका से दूर चला जाता है। प्रेमिका सत्य जानकर उसे खोज लेती है और आरा मशीन के सामने अपना पैर कटाना चाहती है। सार यह है कि दुर्घटना में किसी अंग के कट जाने से प्रेम नहीं मरता। आम जीवन में भी पत्नियां और पति एक दूसरे को अपनी रुचियों के अनुरूप ढालने में रिश्ते को कमजोर कर देते है। अलग-अलग स्वभाव होते हुए, प्रेम का बना रहना आवश्यक है। प्रेम शरीर के परे जाता है। स्वयं गांधीजी ने कहा था कि विवाह दो शरीरों के माध्यम से आत्मा का मिलन है और इसी वाक्य से प्रेरित एक सदी पहले रिचर्ड बर्टन ने 'बॉडी एन्ड सोल' उपन्यास लिखा था। यह लेखक अपनी 'एनाटॉमी ऑफ मेलंकली' के लिए प्रसिद्ध है।

इतालवी लेखक अलबर्तो मोराविया का एक लघु उपन्यास है 'इन्टीमेसी'। दो सुंदर सलोने गुणवान प्रेम की डोर में बंधते हैं और युवा पहले ही भावी दुल्हन को बता देता है वह सेक्स में अक्षम है और इलाज करा चुका है। दरअसल अनेक किशोर अवस्था के लोगों में इस काल्पनिक कमतरी का भय बना रहता है। सच तो यह है कि भय ही इस तथाकथित रोग का कारण है। यौन शिक्षा के अभाव के अंधकार की कहानियां कभी प्रकाश में नहीं आती। इस विषय पर इरविंग वैलेस की 'सेवन मिनिट्स' अत्यंत रोचक उपन्यास है। बहरहाल अलबर्तो मोराविया की 'इन्टीमेसी' की नायिका सत्य जानकर भी विवाह करती है और वे सारी रातें आलिंगनबद्ध होकर बिताते हैं। यह कमतरी उनके प्रेम को तोड़ नहीं पाती परन्तु कुछ वर्ष बाद पत्नी को एक संपूर्ण यौन अनुभव होता है और नया प्रेमी उसके पति की कमतरी का मखौल उड़ाता है और उसे कहता है कि सुबह चार बजे वह रेल्वे स्टेशन पर दो टिकिट खरीदकर उसका इंतजार करेगा। वह रईस है और उससे विवाह करना चाहता है।

पत्नी दुविधा में है पर वह एक पत्र तकिये पर रख घर से निकल पड़ती है। रास्ते में उसे अपने प्रेमल हृदय पति की याद आती है। वह जानती है कि उसके बिना वह जी नहीं पाएगा। वह लौट आती है। पत्र फाड़कर जला देती है। मेरा अपना विचार था कि इस उपन्यास का अंत यह होना चाहिए कि वर्षों बाद मृत्यु शय्या पर लेटी पत्नी अपना एक गुनाह स्वीकार करने की पहल करती है कि पति उसके ओठों पर हाथ रखकर कहता है कि वह पत्र पढ़ा था और उसे विश्वास था कि वह लौट आएगी। बहरहाल आत्मा और प्रेम दोनों ही शरीर में रहते हैं और हम यह खोज नहीं पाते वे कहां दुबके बैठे हैं। उनका पता अवचेतन है और वह भी मि.इंडिया की तरह अदृश्य रहा है।