जोशी सर / प्रकाश मनु

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अभी-अभी मेरे गृहनगर माखनपुर से छोटे भाई अत्तू का फोन—“परेश भैया, अपने जोशी सर नहीं रहे।” जोशी सर, यानी हमारे अंग्रेजी के अध्यापक प्राणनाथ जोशी, जो सिर्फ अध्यापक ही नहीं, हमारी जिंदगी के मॉडल और हीरो भी थे। मेरे भी, अत्तू के भी और हमारे छोटे-से कसबाई शहर माखनपुर के बहुतेरे नौजवानों के भी, जो जिंदगी में एक सपना लेकर चल रहे थे। अत्तू का गला रुँधा हुआ था। उसने ज्यादा कुछ नहीं बताया। बस, इतना ही कि कुछ अरसे से बीमार थे, पर ऐसा तो नहीं लगता था कि यों चले जाएँगे। “यों भी...” उसने कहा, “एट्टी प्लस थे। तो उम्र तो हो ही गई थी, पर उम्र उन पर हावी नहीं थी। इस उम्र में भी जिंदादिली से लबालब थे। खूब गपशप, खूब बातें...बहसें! साहित्य के साथ-साथ राजनीति को लेकर भी। और इधर तो राजनीति को लेकर उनकी तीखी बहसें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं। कहते थे, देश कहाँ जा रहा है, भई, मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा। पर इतना जरूर कह सकता हूँ, कि कहीं कुछ गड़बड़ है, भारी गड़बड़, जो आने वाले कल के लिए खतरनाक हो सकती है। नेताओं से कुछ नहीं होना। ये तो अपने क्षुद्र फायदे से आगे कुछ देख ही नहीं सकते। हाँ, कुछ साफ दिल वाले नौजवान लोग आगे आएँ तो कुछ हो सकता है।” “और हाँ भैया!” अत्तू ने बताया, “आपको बहुत याद करते थे। मैं जब भी उनसे मिलने गया, ऐसा एक दफा भी नहीं हुआ कि उन्होंने याद न किया हो। कहते थे, मेरे स्टुडेंट यों तो इतने अच्छे हैं कि जहाँ भी हैं, मुझे अकसर याद करते हैं। मिलने भी चले आते हैं और जरूरत पड़ने पर मदद के लिए भी तैयार रहते हैं। उनमें एक से एक इंटेलीजेंट छात्र हैं। कुछ तो बहुत बड़े पदों पर पहुँचे, पर अब भी आकर पैर छूते हैं। हाँ, एक परेश है, जिससे मिले बरसोंबरस हो जाते हैं, पर मैं उसे कभी एक दिन के लिए भी भूल नहीं पाया। मेरे छात्रों में यह सबसे अलग...!” सुनते हुए पता नहीं मैं कहाँ से कहाँ चला गया और अत्तू क्या कह रहा है, क्या नहीं, आगे क्या-कुछ उसने कहा, जैसे आवाजों के शोर और अंधड़ में समा गया। जोशी सर की तमाम स्मृतियाँ किसी भूचाल की तरह उठीं और भीतर भरती चली गईं। अत्तू के शब्द घुप अँधेरे और अंतहीन धुँधलके में बदलते जा रहे हैं और मैं निराश्रित उस अँधेरे समंदर में हाथ-पैर मार रहा हूँ। निरर्थक। बहुत कुछ एकाएक डगमगा गया है और मन डूबता-सा जा रहा है। यह जानते हुए भी कि वे पूरी उम्र जीकर गए हैं और इनसान को आखिर कभी तो जाना ही होता है, मन अब भी स्वीकार करने को राजी नहीं कि जोशी सर नहीं रहे। हम जो थे और जो आज हैं, उन्हीं की वजह से हैं। उन्होंने ही हमारे भीतर बड़े सपनों की बुनियाद रखी थी, यह बात भला किसे समझाई जा सकती है? इतनी अंधी निराशा और खालीपन कि देर तक मन खाली टीन की तरह बजता रहा और कुछ भी सोचना-समझना जैसे थम गया। हालाँकि जोशी सर के होते ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था। उन्होंने आत्मविश्वास दिया था, किसी भी बड़ी से बड़ी मुश्किल से भिड़ जाने और जरा भी न घबराने का। हम जो भी करते, उसके पीछे जैसे उन्हीं का बल था। इसी कारण उनके होते परवाह नहीं थी किसी की, कोई भले ही कितना ही, कैसा ही अफलातून क्यों न हो। उन्होंने सिखाया था कि अगर तुम्हारा दिल साफ-साफ कुछ कहता है, तो वही करो। फिर उसके आगे किसी की परवाह मत करो। और भी ऐसी ही हिम्मत देने वाली बेशुमार बातें, जो आज भी कदम-कदम पर साथ देती हैं। अपने छोटे-से कसबे माखनपुर में उनसे बहुत कुछ सीखकर और पढ़-लिखकर हम लोग दूर-दूर जा पहुँचे। अपनी-अपनी जगहें बनाईं हमने और ऊँचे चढ़े।...पर वे तो वहीं—उसी माखनपुर की जमीन से चिपके रहे मरते दम तक। भले ही उनके बेटे सुकांत का बार-बार फोन आता रहा कि, “पापा, आप अकेले क्यों पड़े हैं वहाँ? यहाँ आ जाइए ना!” पर जोशी सर का हमेशा एक ही जवाब, “बेटा सुकांत, अब क्या कहूँ, मुझे तो यहीं अच्छा लगता है। यही मेरी जान है। यहाँ मैं कोई पचास साल पहले नौकरी के लिए आया था पहाड़ से चलकर, पर क्या पता था, यह जमीन मुझे इस कदर अपना लेगी। अब तो यही मेरा धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र है।...यही मक्का-मदीना!” सच तो यह है कि उनके शिष्य ही उनकी जान थे और वे जितना आदर जोशी सर का करते थे, उतना शायद ही किसी और का उन्होंने किया हो। यों वे जैसे पढ़ाने के साथ-साथ अपने सरीखे लोगों का एक परिवार बना रहे थे और उनके रिटायर होते-होते वह बहुत बड़ा हो गया। मुझे याद है, क्लास में पढ़ाते हुए एक दफा उन्होंने कहा था कि “देखो, तुम लोग बुरा न मानना।...पर मैं जानता हूँ कि तुममें से आधे से ज्यादा बच्चे तो रास्ते में मिलने पर विश भी नहीं करेंगे। नजरें बचाकर निकल जाएँगे, कि जोशी सर सामने हैं तो कहीं नमस्ते न करना पड़ जाए! और कुछ तो यह भी सोचेंगे कि था कोई अंग्रेजी का टीचर तो अब क्या करें? पढ़ाता था हमें तो काहे का अहसान! क्या स्कूल से तनखा नहीं लेता था?” “नहीं सर, नहीं।” जोशी सर की बात पूरी होते ही समूची क्लास जैसे एक साथ चीखी थी, “ऐसा कभी नहीं होगा सर!” कहते-कहते सभी के गले रुँध गए थे। “अच्छा, नहीं?” जोशी सर ठठाकर हँसे थे अपने मजाक पर। पर पहली बार मैंने उनके चेहरे पर ऐसी गूढ़ लिपि में लिखी कोई कहानी पढ़ी, जिसमें उनकी जीवन-कथा का कोई मार्मिक अध्याय छिपा था। हालाँकि वह जीवन भर हमारे लिए अज्ञात, बल्कि रहस्य ही रहा। हमारे लिए तो उनकी कहानी का बस यही सच था कि जोशी सर अपने छात्रों के लिए जान देने वाले अध्यापक थे, जिनका इसके अलावा अपना कोई निजी सपना नहीं था। हमारे स्कूल ‘आदर्श विद्याभवन’ के बाकी अध्यापक जहाँ रात-दिन ट्यूशन के नशे में डूबे रहते थे, वहाँ वे अपना एक-एक पल अपने शिष्यों को देने के लिए जैसे बेचैन थे। बेसब्र...किसी दीवानगी के साथ! “कभी कोई मुश्किल आए, तो बेहिचक मेरे पास आ जाना।” वे करीब-करीब रोज ही क्लास में कहते, “रात को दस बजे भी आ सकते हो। उसके बाद तो मैं सो जाता हूँ।” “आज के जमाने में भी किसी टीचर का इतना प्यार अपने छात्रों से हो सकता है?” सोचकर हम लोग हैरान रह जाते। इसीलिए देखते ही देखते वे अध्यापक से ज्यादा हमारे अभिभावक और फिर गाइड बन गए। बाद में भी जब बड़े होकर हमने नौकरियाँ पकड़ीं और अपने लिए अलग-अलग भूमिकाएँ चुन लीं, वे जैसे हमारे करीब ही थे। हम कहीं भी हों उनकी सलाह हमें जरूर मिलती। कभी-कभी मौज में आकर लंबी भावनात्मक चिट्ठियाँ भी वे लिखते, पर ज्यादातर तो कुछ ही शब्दों में अपने मन की बात उड़ेल देते थे। मुझे याद है, बरसों पहले मैं पत्रकारिता में आया और उऩ्हें पता चला तो उनका पोस्टकार्ड मिला। उस पर गिनती के शब्द थे, पर वे आज तक मेरे दिल की स्लेट पर दर्ज हैं। उन्होंने लिखा था— ‘प्रिय परेश, चलो अच्छा रहा तुम पत्रकारिता में आ गए। लिखने-पढ़ने में तुम्हारी शुरू से दिलचस्पी थी, तो तुम्हें यहाँ अच्छा लगेगा और बहुत कुछ नया करने को मिलेगा। पर मैं देख रहा हूँ, पत्रकारिता का मिजाज इधर दिनोंदिन बदलता जा रहा है। जैसे सनसनी फैलाने को ही पत्रकारिता मान लिया गया हो। तुम इस माहौल में कैसे रहोगे, सोचकर चिंता होती है। पर अच्छे की संभावना तो हर जगह है, हर कहीं है—मुझे इसका पक्का यकीन है। तुम कामयाब होओ। जहाँ कामयाबी मुश्किल है, बहुत मुश्किल—वहाँ भी रास्ता निकालकर दिखाओ। मेरी शुभ कामनाएँ हमेशा तुम्हारे साथ हैं और रहेंगी। —जोशी’ परेशानियाँ तो आईं और अब कभी-कभी ताज्जुब होता है, जोशी सर ने कैसे बरसों पहले इसका अनुमान लगा लिया था कि ये खतरे या मुश्किलें मेरे सामने आने वाली हैं। असल में वे शिष्यों से इतना करीबी तौर से जुड़ जाते थे कि उन्हें वह सब भी दिखाई पड़ता था, जो अकसर औरों को नजर नहीं आता। कई बार मैं और सुबोध भी, जो उनके पट्ट शिष्य थे, मुश्किलों में पड़े। पर उनकी आँखें हमें देख रही हैं हर घड़ी, इससे न जाने कैसी आश्वस्ति-सी महसूस होती कि हम खुद को भरा-पूरा महसूस करते थे। मैं अपने मिजाज के हिसाब से पत्रकारिता में आया और सुबोध जो कहीं ज्यादा नपी-तुली सोच वाला व्यावहारिक बंदा था, इंजीनियर बना। हम दो अलग-अलग ध्रुवों पर थे, पर एक-दूसरे को बेइंतहा प्यार करते थे। इसके पीछे भी शायद जोशी सर ही थे, जो दो विपरीत धाराओं पर भी पुल बना सकते थे—एकदम पक्का और टिकाऊ पुल। सुबोध की तुलना में मैं कुछ अनगढ़ और बेढब किस्म का प्राणी था। जोशी सर जानते थे यह। उन दिनों भी लिखने-पढ़ने का काफी चस्का लग गया था। इस वजह से कभी-कभी पढ़ाई भी पीछे छूटने लगती। जोशी सर की क्लास में भी कभी-कभी अपने में खोया-खोया-सा रहता। इस पर वे अकसर मीठी-सी चुटकी लेते। पर कभी उन्होंने कैरियर के नाम पर साहित्य पढ़ने या लिखने से हतोत्साहित किया हो, याद नहीं पड़ता। कभी-कभी मुसकराकर यह भी कहते कि “देखो भाई, हमेशा जो लीक छोड़कर चलते हैं, वे ही जिंदगी में कुछ कर पाते हैं। पर हाँ परेश, एक बात जरूर ध्यान रखना। लीक छोड़कर उसी को चलना चाहिए जिसमें नई लीक बनाने का हौसला और उसके लिए बड़ी से बड़ी तकलीफें झेलने का माद्दा हो।” शायद यह जोशी सर के आशीर्वाद का ही फल था कि जिंदगी में खूब ठोकरें खाईं, पर कभी हारा नहीं। यहाँ तक कि जान-बूझकर विपत्तियाँ बुलाता रहा, आ बैल मुझे मार! दोस्त कहते, “पगला गया है परेश, पता नहीं किस नशे में रहता है! भला ऐसे भी जिंदगी को कोई दाँव पर लगाता है?” पर यकीन था कि मैं जोशी सर का शिष्य हूँ, कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कितने ही दुख या मुसीबतें आएँ, मैं हारूँगा नहीं। और यही चीज हमेशा बड़ी से बड़ी मुश्किलों से बचा लेती थी। यानी यह जो अपने गुरु प्राणनाथ जोशी पर विश्वास था, वही बाद में खुद पर विश्वास की नींव बनता चला गया।


हालाँकि यह भी सच है कि जब हम उनसे पढ़ते थे, नवें-दसवें दरजे में—तब इतना डर लगता था उनसे कि अकसर हवा खराब हो जाती। मारा उन्होंने कभी नहीं। कभी हाथ तक नहीं छुआया, पर उनके क्रोध से बढ़कर यातना हमारे लिए कुछ न थी। यह दीगर बात है कि इस सबके बावजूद सबसे ज्यादा प्यार भी हम उन्हीं से करते थे। यों तो हमारे कसबे के उस सबसे अच्छे स्कूल, आदर्श विद्याभवन में एक से एक अच्छे अध्यापक थे, पर हम मुरीद थे तो सिर्फ जोशी सर के। शायद इसलिए कि और अध्यापक सिर्फ पढ़ाते थे, और अच्छा ही पढ़ाते थे। पर जोशी सर में पढ़ाने का जैसे जुनून-सा था। उनका पढ़ाना पाठ्य पुस्तकों से शुरू होकर जल्दी ही जिंदगी की खुली किताब तक पहुँचता था। और यह ऐसी जगह थी जहाँ गाइड करना तो छोड़िए, कुछ भी बताने, सुनने या संवाद करने लायक उस वक्त हमारे कस्बे में कोई न था। एक मजे की बात यह है कि पूरी क्लास को वे जैसे हर घड़ी अलर्ट रखते। मजाल है कि जब वे क्लास में हों और पढ़ा रहे हों, किसी को जमुहाई आ जाए। जोशी सर का पढ़ाते हुए अचानक पीछे गर्दन घुमाकर सवाल पूछने का अंदाज इतना प्यारा था कि हम सबमें एकाएक बिजली-सी दौड़ जाती और जवाब देने के लिए अच्छी-खासी होड़ शुरू हो जाती। इसलिए कि वे सिर्फ सवाल पूछते ही नहीं थे, बल्कि कौन किस अंदाज में जवाब देता है, इस पर भी उनकी पैनी नजर रहती थी। अगर कहीं कुछ गड़बड़ होता तो फौरन टोकते और पूरी क्लास के आगे अच्छा-खासा मजाक बनता। लेकिन जवाब बढ़िया होता तो इतनी तारीफ करते कि लगता, ओह, हमारा इस दुनिया में जन्म लेना और आदर्श विद्याभवन में आकर जोशी सर से पढ़ना धन्य हो गया। मानो हम इसीलिए स्कूल आते हैं कि जोशी सर पूछें तो झट चौकन्ने होकर उनके सवाल का माकूल जवाब दे सकें। मन बाग-बाग हो जाता! अहा, जोशी सर ने तारीफ कर दी, तो अब जिंदगी में भला पाने को रह ही क्या गया? फिर वे कोई एक-दो से पूछकर संतुष्ट हो जाने वालों में से नहीं थे। एक-एक करके हर छात्र को खड़ा करते जाते और कभी-कभी तो पूरी की पूरी क्लास को खड़ा कर देते। आखिर में मैं और सुबोध ही रह जाते और हम बिजली के-से चौकन्नेपन से जोशी सर की ओर टकटकी लगाए देखते कि कब वे पूछें और हम बताएँ। और जब तक नंबर आता, दिल की धड़कनें इतनी बढ़ चुकी होतीं कि लगता—बस, अभी हम बेहोश होकर जमीन पर आ गिरेंगे। कई बार तो मैं और सुबोध घर से ही इतनी तैयारी करके जाते कि जैसे किसी अंतर्रराष्ट्रीय सेमिनार में जाना हो। खुद ही जोशी सर बनकर अपने आपसे सवालों की झड़ी लगा देते। बार-बार भीतर से सवाल फूटता—कि अच्छा बताओ, अगर जोशी सर ने यह पूछा, तो भला क्या जवाब दोगे? हमारे सब्जेक्ट तो पूरे आठ थे, पर सच्ची बात तो यह है कि सब्जेक्ट हमारे लिए एक ही था—अंग्रेजी। बाकी सब्जेक्ट पढ़ लेते थे, बस। पर अंग्रेजी? इसमें तो हम लोट लगाते थे, इसलिए कि यह जोशी सर का सब्जेक्ट जो था। इतना सख्त कंपीटीशन...कि अकसर वही हमारे लिए पूरे दिन की सफलता का मयार बन जाता! सुबोध मुझ जैसे अति भावुक और चुप्पा शख्स की तुलना में काफी विटी था और कभी-कभी मजाक में कहा करता था, “यार परेश, कहीं हमें जोशी सर से इश्क तो नहीं हो गया? आज सुबह ही मैं सोच रहा था कि पता नहीं, यह क्या चक्कर है कि क्लास तो और भी हैं, पर हम शायद सिर्फ जोशी सर के पीरियड के लिए स्कूल आते हैं। तुम्हें ऐसा नहीं लगता परेश...?” “हाँ, बात तो सही है।” कहते-कहते मैं इतना हँसा, इतना हँसा कि जैसे भीतर से हँसी का कोई ताबड़तोड़ झरना फूट पड़ा हो। सुबोध ने बिल्कुल ठीक कहा था। हमारी सचमुच दीवानों वाली हालत थी। जोशी सर हमसे खुश हैं, यही हमारे खुश होने और जीने का सबसे बड़ा कारण था। उनकी खुशी के लिए हम खुशी-खुशी जान देने को तैयार रहते! इसे दीवानगी न कहें तो क्या कहें? ऐसे जोशी सर भी कभी जाएँगे, और यह दुनिया उनके बगैर भी होगी, कभी सोचा नहीं था।... और आज भी वे दिन पतंगों की तरह मेरी आँखों में मँडरा रहे हैं, जब मैं और सुबोध उनके घर पढ़ने जाया करते थे। बच्चे की तरह उनके पास बैठकर सीखना क्या कभी भूला जा सकता है? हालाँकि जब हम लोग नौकरियों पर लग गए, तो मिलने के लिए उनके यहाँ जाने पर कभी-कभी थोड़े तंज के साथ भी वे कहते, “भई, अब मैं क्या कहूँ? अब तो तुम लोग काफी सीख गए हो। सोचोगे कि यह बुड्ढा बेकार की पें-पें कर रहा है और हमें लिहाजदारी में सुनना पड़ रहा है। वैसे भी अब मेरे पास क्या है तुम्हें बताने को? उलटा क्या कुछ आज की दुनिया में हो रहा है, यह तुम्हीं सिखाओगे।” फिर मेरी ओर इशारा करके कहते, “और परेश, तुम्हारा तो अच्छा-खासा बड़ा नाम है, लेखक-पत्रकार हो। सुना है, खूब नाम हो गया है तुम्हारा। ज्यादा तो नहीं, पर बीच-बीच में कुछ पत्रिकाएँ देखता-पढ़ता हूँ, तो बड़ा गर्व होता है कि मेरा स्टुडेंट इतना आगे पहुँच गया।” सुनकर मैं पानी-पानी हो जाता। रुँधे गले से कहता, “सर, ज्यादा खोचड़ी करेंगे तो मैं उठकर चला जाऊँगा।” इस पर जोशी सर मुसकराने लगते। हालाँकि पिछली दफा ऐसा ही प्रसंग चला और मैं कुछ ज्यादा ही रोंआसा हो गया, तो जोशी सर ने आगे बढ़कर प्यार से मुझे छाती से लगा लिया था। मेरी आँखें उस समय गीली थीं।


प्राणनाथ जोशी...! ये हमारे लिए केवल शब्द नहीं, सचमुच प्राणों से बढ़कर कोई चीज थे। दिल में गहरा जज्बा और जोश भर देने वाले शब्द। इसीलिए ‘हमारे अंग्रेजी के अध्यापक प्राणनाथ जोशी’—सिर्फ इतना कहने से बात नहीं बनती। सच पूछिए तो वे कुछ और ही थे। सबसे अलग और इतने बड़े...कि उन्हें छू पाना लगभग असंभव था। हमारे बड़े से बड़े आदर्श से भी वे बड़े थे। हाँ ठीक, वे अध्यापक थे। मगर ऐसे अध्यापक जिसकी एक आदर्श और कल्पित तसवीर हमेशा हमारे दिल में रहती है। शायद इसीलिए एक वाक्य में उनके बारे में बताना हो तो मैं कहना पसंद करूँगा कि पूरी दुनिया में प्राणनाथ जोशी तो सिर्फ एक प्राणनाथ जोशी ही हो सकते थे! उन जैसा कोई दूसरा शख्स बना पाना शायद खुद ईश्वर के लिए भी संभव न हो। बहुत-सी बातें हम कभी न समझ पाते, अगर जोशी सर की क्लास में न गए होते। मसलन, पढ़ाना क्या चीज है! मुझसे या सुबोध से पूछो तो हम कहेंगे कि पढ़ाना वह होता है, जो जोशी सर की क्लास में हम महसूस किया करते थे जब वे पढ़ा रहे होते थे। पढ़ाते थे तो बिल्कुल डूब जाते थे। और ऐसे नाटकीय अंदाज में पढ़ाते थे कि पूरी क्लास पर उनका जादू तारी हो जाता था। कई बार क्लास में उनकी मुद्राएँ देख-देखकर हम मानो हक्के-बक्के-से रह जाते थे। एकदम चित्र-लिखित। उनका पढ़ाया हुआ पाठ ‘अंकल पोजर हैंग्स अ पिक्चर’ अब भी याद है। और ‘अब भी’ क्यों कह रहा हूँ? इसलिए कि इसे तो जनम-जिंदगी तक भूल पाना मेरे बस की बात नहीं है। उफ, उन्होंने किस कदर पूरी क्लास में नाच-नाचकर यह पाठ पढ़ाया कि किस तरह अंकल पोजर तसवीर टाँगने के लिए एक स्टूल पर चढ़ते हैं और फिर क्या-क्या तमाशे होते हैं। ऐसे उन्होंने दीवार पर कील रखी, ऐसे कसकर चलाया हथौड़ा कि दीवार का पलस्तर तक उखड़कर दूर जा गिरा और फिर उसी के साथ ही अंकल पोजर गिरे ध-ड़ाss...म! नाटक में नाटक में नाटक...तौबा-तौबा! जोशी सर के इस नाटक की खासियत यह कि उन्होंने सिर्फ आवाज की अनगिनत भंगिमाओं का सहारा लिया था और उसी से दृश्य पर दृश्य निर्मित होते जाते थे। उस सबकी याद से मैं आज भी चकित और विस्फारित रह जाता हूँ कि क्या सचमुच यह हुआ था! और वह भी आदर्श विद्याभवन के पढ़ाकू मगर किंचित दकियानूस वातावरण में—कि एक नाटकीय पाठ को उसके असल और पूरे नाटक के साथ यों पढ़ाया गया कि मानो आप क्लास रूप में नहीं, मंडी हाउस में बैठे हैं! और यही नहीं, हर रोज जब वे पढ़ा रहे होते तो अपने देश, समाज और कभी-कभी तो आदर्श विद्याभवन के बारे में भी उनकी तीखी आलोचनाएँ और कटूक्तियाँ तक सुनने को मिल जाती थीं। बिल्कुल उसी अंदाज में जैसे आप मंडीहाउस में कोई तीखा व्यंग्यात्मक नाटक देख रहे हों, जिसमें शुरू से अंत तक भीषण एब्सर्डिटी की खुराक...! जोशी सर की एक खासियत यह थी कि वे बड़े नफीस किस्म के आदमी थे। हमेशा सफेद बेदाग धोती-कुरते में लकदक-लकदक नजर आते। जमीन से जैसे आधा फुट ऊपर हों। और वे लगभग हर चीज के आलोचक थे। खुद हमारे स्कूल के रंग-ढंग की आलोचना वे जिस धाकड़ी से करते थे, उससे हम चकित होने के साथ-साथ थोड़ा आतंकित और आशंकित भी होते थे कि ये सारी बातें आदर्श विद्याभवन के महा शक्तिशाली प्रिंसिपल डा. बलवंतदेव मखीजा तक पहुँचेंगी, तो न जाने क्या अनर्थ हो जाएगा! लेकिन जोशी सर को बात कहते हुए कभी दाएँ-बाएँ देखते की जरूरत नहीं पड़ी। जोशी सर से जुड़ा एक प्रसंग और है जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया और शायद इस जिंदगी में तो कभी नहीं भूल पाऊँगा। हुआ यह कि एक दफा उन्होंने क्लास में ग्रामर का पाठ पढ़ाया और उसी में से कोई काम सब बच्चों को दिया था, घर से करके लाने के लिए। उनका काम हम बच्चे सबसे पहले करते थे, इसलिए कि उनके गुस्से और इससे भी अधिक उनके भाषणों से बड़ा डर लगता था। सच पूछो तो कभी-कभी वे हमें जाइंट लगते थे...विशालाकार दैत्य! तो उन्हें कैसे भुलाया जा सकता था? लेकिन इस दफा हुआ यह कि उन्होंने होमवर्क दिया, फिर लंबी छुट्टियाँ हो गईं। लिहाजा क्लास में किसी को भी याद नहीं रहा। छुट्टियों के बाद हम क्लास में आए तो जोशी सर ने काम के बारे में पूछा। पूरी क्लास में इक्का-दुक्का को छोड़कर किसी ने होमवर्क नहीं किया था, लिहाजा उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा और उन्होंने पूरी क्लास को ‘मुर्गा’ बनने का आदेश दे दिया। सभी सन्न! सभी जानते थे कि जोशी सर का कहा पत्थर की लकीर है। इसे माने बगैर कोई चारा नहीं। यह भी हो सकता है कि अनखने पर वे गुस्से में सजा और बढ़ा दें। तो एक-एक कर सभी बच्चे सामने आते गए और मुर्गा बनते गए। रह गया मैं जो जोशी सर का बहुत सम्मान करता था, पर मुर्गा बनना मुझे बुरा लगता था। सोचता था कि ईश्वर ने जब अच्छा-खासा बंदा बनाया है, तो मुझे मुर्गा बनाने का हक तो किसी को नहीं है—जोशी सर को भी नहीं, चाहे वे कितने ही आदरणीय क्यों न हों। अलबत्ता मैं मुर्गा नहीं बना। उऩके बार-बार कहने पर भी नहीं बना। जोशी सर ने बहुत धमकाया। क्लास से फौरन निकल जाने और हफ्ते भर तक क्लास में न आने को कहा। मैं इस पर भी तैयार नहीं था। उनकी हरेक धमकी और गुस्सैल वचनों का जवाब मेरे पास सिर्फ यही था कि, “सर, आप मार लीजिए। आप कितना ही मारिए, मैं बिल्कुल चूँ नहीं करूँगा। पर मैं मुर्गा नहीं बनूँगा।” एक पीरियड पूरा निकल गया इसी चक्करबाजी में। जोशी सर कभी शांत होकर मुझे समझाते कि “देखो परेश, मुर्गा तो तुम्हें बनना पड़ेगा। इसके बगैर कोई चारा नहीं है। बल्कि हो सकता है, मेरी सजा और बढ़ जाए। इसलिए अच्छा है कि पहले ही मान लो।” बीच-बीच में गुस्से में आकर डाँटने लगते। अंत में पीरियड खत्म होने की घंटी बजी, तो मुझे कुछ चैन पड़ा। जोशी सर क्लास से जाने लगे तो उन्होंने निर्णायक स्वर में कहा, “देखो परेश, तुम्हारी वजह से इतने सारे स्टुडेंट्स का पूरा पीरियड खराब हो गया। पूरी क्लास का बहुत नुकसान तुमने कराया है। अब अगले पीरियड में या तो मेरी क्लास में आना मत, या फिर पीरियड शुरू होते ही यहाँ आकर मुर्गा बन जाना। अच्छी तरह सोच लो कि तुम्हें क्या करना है, वरना मुझे सख्त कदम उठाना पड़ेगा। तुम क्लास के सबसे अच्छे स्टुडेंट हो और तुम खुद जानते हो, मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ। पर डिसिप्लिन इज डिसिप्लिन। यहाँ मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। आज तुम्हें छोड़ूँगा, तो कल को क्लास के दूसरे बच्चे भी यही कहेंगे। सो यू डिसाइड, मेरी क्लास में बैठना है या नहीं?” सुनकर मेरा सिर चकरा गया। मैं तो सोच रहा था कि पीरियड खत्म हुआ तो इस बला से छुटकारा मिल गया। इसीलिए इतनी देर से ईश्वर से प्रर्थना कर रहा था कि “हे भगवान जल्दी से जल्दी घंटा बजवा दो, ताकि इस आफत से बचूँ।” और अब घंटा बजा भी तो यह आफत!...उफ, मारे गए गुलफाम! क्लास के बच्चे जो एकदम शुरू में ही बस एक-एक, आधा-आधा मिनट मुर्गा बनकर इस आफत से पिंड छुड़ा चुके थे, मेरी ओर ऐसे दया-भाव से देख रहे थे कि जैसे हलाल के लिए बकरा ले जाया जा रहा हो। अलबत्ता क्लास में जो दो-तीन लड़कियाँ थीं और जिन्हें इस सजा से स्वाभाविक रूप से मुक्ति मिली हुई थी, काफी प्रशंसा भरी नजरों से मेरी ओर देख रही थीं। इससे सच ही मेरा हौसला कुछ बढ़ गया था। खासकर साँवली सलोतरी देवकी, जो तीनों लड़कियों में सबसे होशियार थी—का देखना तो कुछ अलग-सा ही था। मैंने महसूस किया कि वे निगाहें मुझसे कह रही हैं, “डटे रहो परेश, डटे रहना। तुम सही हो, एकदम सही। इसलिए बिल्कुल हार मत मानना, तुम्हें मेरी कसम!” उसके बाद एक-एक करके कई पीरियड आए, गए। मुझे कुछ होश नहीं था। मैं तो जैसे कीलित कर दिया गया होऊँ! मेरा सारा ध्यान तो उस कत्ल की घड़ी पर था जो अंग्रेजी के अगले पीरियड यानी आठवें पीरियड में आने वाली थी। क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता था जो मुझे आने वाली बड़ी आफत से बचा ले? पर नहीं, आफत जो आने वाली है, वह तो आकर ही रहती है। उसे भला कौन रोक पाया है? उससे बचने का कोई रास्ता नहीं था, सिवाय इसके कि जोशी सर से टकराकर अपने आप को सही साबित करूँ। पर क्या जोशी सर से मैं भिड़ सकता था? मेरे पैर काँप रहे थे, जबकि अंदर से मन कह रहा था, “तुम सही हो परेश, तुम एकदम सही हो। भला तुम्हें मुर्गा बनने की क्या जरूरत?” इसी सुर में सुर मिलाकर मैंने अपने आप से कहा, “जोशी सर को सजा देनी है तो डाँट लें, या फिर चाहे जितना मारें, पर मुर्गा...? नहीं-नहीं, यह तो गलत है, बेहूदा है, अन्याय...! और अन्याय तो अन्याय है, भले ही उसे करने वाले हमारे आदरणीय जोशी सर ही क्यों न हों!” एक ओर हिम्मत, दूसरी ओर पस्ती। विकट पस्ती में थर-थर काँपती टाँगें। अजब हालत थी। घबराहट के मारे पसीना छूट निकला था। जबान तालू से चिपक गई थी और होंठ सूख गए थे। हाय, अब क्या होने वाला है?...आगे क्या होगा परेश? यों जैसे-तैसे राम-राम करके आठवाँ पीरियड शुरू हुआ। मेरी ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। डर के मारे प्राण निकले जा रहे थे कि पता नहीं क्या हो! जोशी सर ने क्लास में आते ही अपनी उसी निर्मम तटस्थता से पूछा, “हाँ तो परेश, तुमने क्या सोचा...?” मैं जवाब देना चाहता था, पर होंठ तो जैसे पपड़िया चुके थे! बल्कि जोशी सर की सुबह वाली क्लास में बोलते हुए स्वर में जो हठ और मजबूती थी, वह अब नहीं रह गई थी। मैंने देखा, एक मरी हुई-सी आवाज मेरे मुँह से निकली, “सर, आप मार लीजिए जितना भी चाहें, पर…? “पर क्या...? तुम साफ-साफ बताओ कि मुर्गा बनोगे कि नहीं? मैं कुछ और नहीं सुनना चाहता।” जोशी सर ने एकाएक गुस्से में आकर कहा। मेरी फिर हवा गोल होने लगी, पर मैंने जैसे-तैसे हिम्मत बनाए रखी। “सर, मैं मर्गा तो नहीं बनूँगा, पर आप मार लीजिए।” कहते हुए मैंने हाथ आगे कर दिए। पूरी क्लास यह नाटक साँस रोककर देख रही थी, जो अब क्लाइमेक्स पर पहुँचा ही जाता था। “देखो, तुम मेरा ही नहीं, क्लास के सारे बच्चों का टाइम बर्बाद कर रहे हो परेश। चाहे पूरा साल इसी तरह निकल जाए, पर...सजा तो तुम्हें मिलेगी और तुम्हें मुर्गा बनना पड़ेगा। वरना मैं पढ़ाऊँगा नहीं। सोचो, कितना नुकसान पूरी क्लास का होगा तुम्हारी वजह से।” “सर, आप मार लीजिए।” मेरी वही टेक। मैंने फिर से हाथ आगे बढ़ा दिया। मेरा हाथ थर-थर काँप रहा था। वाकई अगर एक के बाद एक बीस डंडे भी पड़ जाते, तो भी मैं उफ न करता। पर भला मुर्गा कैसे बनूँ मैं, जबकि मन नहीं है मुर्गा बनने का? और फिर उस साँवली सी देवकी ने जिस हिम्मत और सराहना भरी नजरों से मेरी ओर देखा था, उसे क्या मैं समझता नहीं था? नवीं में था, पर समझता था कि जब कोई लड़की इस तरह किसी की ओर देखे, तो सब कुछ भूल, जान पर खेल जाना चाहिए। पर...? तो यों मुर्गा मैं न बना। जोशी सर ने बहुत डर दिखाया, गुस्से के मारे उनकी भी हालत खराब थी। इतनी देर से वे लगातार बोलते जा रहे थे कभी गुस्से में, कभी प्यार से। बीच-बीच में साइकोलॉजीकल फीयर भी....! अपने तरकश के सारे तीन वे चला चुके थे। पर क्या करते? वे मुझे प्यार भी बहुत करते थे। लिहाजा एक बीच का रास्ता उन्होंने निकाला। बोले, “अच्छा, इतना ही तुम कहते हो तो बस, एक तरीका है।...अगर क्लास के बच्चे कहेंगे कि परेश को छोड़ दीजिए, तो मैं छोड़ दूँगा।” “ओह, ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद! हे ईश्वर, तू कितना दयालु है, कितना... कितना ममत्वपूर्ण!” उनकी बात अभी पूरी हुई भी न थी, कि पूरी क्लास एक साथ चीख पड़ी, “छोड़ दीजिए सर, छोड़ दीजिए...छोड़ दीजिए!” आश्चर्य, उसमें देवकी का स्वर सबसे ऊँचा था। जैसे मेरी नहीं, यह उसी की जीत हुई हो! और यों देर से न्यायालय में लंबित जीत और हार ही नहीं, मरने और जीने का मामला बमुश्किल खत्म हुआ। हालाँकि अब भी अंतरतम में बुरी तरह ‘थर-थर...थर-थर’ हो रही थी। आँखें जैसे आँसुओं से उमड़ उठना चाहती हों और आँसू निकल भी न रहे हों! बड़ी विचित्र हालत। खैर, उस दिन पूरी छुट्टी होने पर स्कूल से निकला, तो मैं क्लास के सारे बच्चों का ‘हीरो’ बन चुका था, क्योंकि एक बच्चे ने पहली बार किसी नचिकेता की तरह, अपनी विनम्रता से जोशी सर जैसे रोबीले और सख्त मिजाज वाले अध्यापक पर विजय पाई थी...और कहिए कि एक सही मुद्दे पर विजय पाई थी। यह विजय अपने उस प्यारे अध्यापक पर थी, जिसे हम जी-जान से चाहते थे, और जिसका गुस्सा हमें यमराज से कम भयानक नहीं लगता था!


हालाँकि जोशी सर हमेशा ऐसे ही नहीं रहे, बदले। और जब तीन साल बाद मेरा छोटा भाई अत्तू उनकी क्लास में पहुँचा, उनका मिजाज काफी बदल गया था। वे कहीं अधिक कोमल और स्नेहिल लगने लगे थे। छात्रों को सजा देने वाली सख्ती भी कम होती गई। हालाँकि शिष्यों को पढ़ाते हुए अपना सब का सब दे देने की बेसब्री वैसी ही थी और वह उनमें अंत तक रही! शायद इसलिए कि कोई स्टुडेंड उनके लिए खाली एक रोल नंबर नहीं था! हर किसी को वे भीतर-बाहर से जानते थे और कोशिश करते थे कि वे सिर्फ पढ़ाएँ ही नहीं, बल्कि उसके व्यक्तित्व को जितना सँवार सकते हैं, सँवारें। फिर मेरे प्रति ममतालु किस्म का उनका प्यार तो शुरू से ही था। उनकी क्लास में मेरा पहला ही दिन था, जब उनके सवाल का बढ़िया अंग्रेजी में जवाब देने पर उनकी निगाहें मेरे चेहरे पर टँग गईं। कुछ चौककर उन्होंने पूछा, “परेश, क्या तुम ऐंग्लो इंडियन हो?” “नहीं सर।” मैंने चौंककर कहा। “पर तुम्हें अंग्रेजी आती है।” इतनी प्यार भरी नजरों से देखते हुए उन्होंने कहा था कि मैं आज तक उसे भूला नहीं हूँ। और फिर उनके कुछ ऐसे ही सराहना भरे शब्द दर्जनों बार सुनने को मिले। वे तारीफ करते थे तो केवल कुछ शब्द ही नहीं कहते थे, बल्कि उनके पूरे व्यक्तित्व से एक अलग तरह की खुशी फूटती थी जो मैंने उनके अलावा कहीं और नहीं देखी। लेकिन कभी चूकता तो पूरी क्लास के आगे पानी उतार देते, “अरे, क्या हो गया परेश तुम्हें? तुम भी जवाब नहीं दे पाए इतने मामूली से सवाल का, यह तो बड़ी शर्म की बात है।” सुनकर लगता, जैसे धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ! असल में यही उनका ढंग था किसी के दिल में उतरने का। वे जैसे आपकी हर चीज से कन्सर्ड थे, इसीलिए उन्हें और उनकी कही हुई बातों को भुला पाना असंभव होता। अत्तू बता रहा था, “जोशी सर की क्लास में जाने पर पहले ही दिन उन्हें पता चल गया था कि मैं आपका भाई हूँ। और जैसे ही मैंने बताया कि सर, मैं परेश का छोटा भाई हूँ, उनकी आँखों में प्यार के बादल उमड़ पड़े। चेहरा कुछ इस कदर स्नेह से लबालब था कि एक मिनट तक तो वे कुछ बोल ही नहीं पाए। फिर बहुत भावुक होकर पूछा—अच्छा, कैसा है परेश...? ठीक है न! मुझे कभी याद करता है कि नहीं? उसे कहना, कभी मुझसे मिलने आए। क्या वह मुझे बिल्कुल भूल गया है?...और फिर पता नहीं कितनी देर तक पूरी क्लास को बताते रहे, कि परेश ऐसा ब्रिलिएंट और प्यारा स्टुडेंट था उनका जिसे वे कभी भूल नहीं पाएँगे।” उसी दिन से अत्तू क्लास में उनका सबसे ज्यादा स्नेहभाजन बन गया। उसकी एक-एक बात का वे खयाल रखते। अगर गलती भी करता, तो प्यार से समझाते। कभी-कभी हलकी डाँट भी लगा देते कि “मेहनत किया करो अमित। तुम परेश के भाई हो, यह पता तो चलना चाहिए।...हाँ, अगर कोई मुश्किल आए तो एक नहीं, दस बार पूछो। पर ऐसा मत करना कि मुझे तुम्हें डाँटना पड़े। कहीं परेश का नाम मत डुबो देना। माइंड इट, मेरा सबसे प्यारा स्टुडेंट था वह।” हमारे स्कूल के बहुत-से टीचर थे जो पढ़ाते तो थे, पर जिन्हें पढ़ाना आफत लगती थी। इसलिए पीरियड खत्म होने से पहले ही वे रजिस्टर सँभालकर बैठ जाते थे कि कब घंटा बजे और वे अगली क्लास का रूटीन शुरू करें। पर जोशी सर के लिए पढ़ाना जैसे नशा था। उन्हें इसमें वाकई मजा आता था और मुझे लगता है, अगर उन्हें लगातार चौबीस घंटे पढ़ाना पढ़ता, तो भी वे थकते नहीं। क्लास में भी अकसर ऐसा होता कि घंटा बज गया, पर जोशी सर नाटकीय ढंग से किसी कविता-कहानी की व्याख्या या फिर किसी कैरेक्टर की किसी खास अदा को बताने में इतने तल्लीन कि पता ही नहीं। तब हमें याद दिलाना पड़ता था कि सर, पीरियड खत्म हो गया है और वे ‘सॉरी’ कहकर अपना विचार-प्रवाह बीच में रोकते और शायद अनिच्छा से क्लास छोड़कर जाते। यहाँ तक कि इम्तिहानों के नजदीक आ जाने पर तो वे हमें इतवार को घर बुलाने लगे, ताकि ग्रामर के जरूरी नोट्स लिखवा सकें। उनके सारे पुराने स्टुडेंड्स बताते थे कि उनके ये नोट्स तो शुद्ध सोना हैं, सोना जिसमें उनके पूरे ज्ञान का निचोड़ है। खासकर डायरेक्ट-इनडायरेक्ट के लिए तो उनसे अच्छी गाइडेंस कहीं से मिल ही नहीं सकती! “सब लोग यहाँ गलती करते हैं, पर तुम मेरे स्टुडेंट हो मैं चाहूँगा कि तुममें से कोई यह गलती न करे।” पढ़ाते हुए बीच-बीच में जोशी सर के मुँह से सुनते तो बहुत अच्छा लगता था। “इंगलिश ग्रामर...! याद रखो, यह तुम्हारे लिए वरदान है इंगलिश में डिस्टिंक्शन मार्क्स लाने के लिए। इसी से नंबर मिलेंगे। जैसे गणित में सवाल सही है तो पूरे नंबर मिलते हैं, ऐसे ही अगर ध्यान से मेरे ये नोट्स पढ़ लो तो कहीं मार नहीं खाओगे।” जोशी सर का दावा था, जिसमें कोई अतिरंजना नहीं थी। उनके छात्रों के कई पुराने बैच इसकी गवाही दे सकते थे। यही वजह थी कि हाईस्कूल के पेपर्स से पहले जब प्रिपरेशन लीव्ज थीं, मैं और सुबोध तब भी दौड़कर उनके पास जा पहुँचते। और आखिरी दिन जब वे पेपर से संबंधित सब कुछ बता चुके, तो उनकी आँखों में बस एक गुजारिश थी, “खूब मेहनत करो। अपने जोशी सर को निराश मत करना। याद रखना, तुम दोनों मेरी दो आँखें हो।” उसी दिन उन्होंने बताया, “देखो, पहली बार तुम्हें एक राज बता रहा हूँ। वह ये कि मैंने खुद प्रिंसिपल मखीजा साहब से बहुत जिद करके उनसे तुम लोगों की टैंथ की क्लास माँगी थी। उन्होंने मेरा कहना नहीं टाला। इसीलिए अब तुमसे मुझे इतनी उम्मीदें हैं।” और तभी पता चला कि जोशी सर को बरसों से इस बिना पर दसवीं और बारहवीं की क्लासेज नहीं दी जा रही थीं...कि ये थौरो स्टडी कराते हैं तो बच्चों के ज्यादा नंबर नहीं आ पाएँगे। पर हमारी क्लास के लिए जोशी सर अड़ गए कि “आप इस बार टैंथ की क्लास मुझे दीजिए। इस बार इंगलिश में मैं कम से कम दो डिस्टिंक्शन आपको दूँगा!” “क्या ! डिस्टिंक्शन इंगलिश में... ? आज तक तो ऐसा हुआ नहीं।” मक्खीकट मूँछों वाले गोलमटोल प्रिंसिपल मखीजा हैरान थे। “पर जो कभी नहीं हुआ, वह भी तो कभी न कभी होता ही है।” जोशी सर हँसे। उनकी हँसी में इतनी दृढ़ता और आत्मविश्वास था कि प्रिंसिपल मखीजा को उनकी बात माननी पड़ी और उन्होंने ‘हाँ’ कर दिया। हालाँकि जोशी सर के लिए यह कितना बड़ा चैलेंज रहा होगा, इसका अंदाजा अब हमें हो रहा था! हमने उनके पैर छूकर विदा ली। फिर जिस दिन इंगलिश का पेपर था, उससे एक दिन पहले भी मैं और सुबोध उनके घर गए। हम दोनों का कंधा थपथपाकर उन्होंने कहा, “मुझे यकीन है, तुम दोनों ही कुछ न कुछ कमाल इस बार करोगे। तुम्हें किसी से घबराने की जरूरत नहीं है। अगर मुश्किल से मुश्किल परचा आ जाए, तो भी कोई तुम्हें अंग्रेजी में डिस्टिंक्शन लाने से नहीं रोक सकता। आखिर तुम मेरे सबसे लायक स्टुडेंट हो!” इतना बड़ा उम्मीदों का भार उन्होंने हमारे सिर पर रख दिया था कि उसे उठाते हुए हमारे पैर काँप रहे थे। पर जब हाईस्कूल का रिजल्ट आया तो वह सपना हकीकत बन चुका था, जिसकी कल्पना करते भी हम डरते थे। उस साल पहली बार इंगलिश में दो डिस्टिंक्शन आई थीं और हमारे स्कूल में वाकई एक नया रिकार्ड बना था। सुबोध और मैं पूरे स्कूल में चर्चित हो गए थे।


यों जोशी सर जैसे पढ़ाते-पढ़ाते ही बूढ़े हुए। रिटायर होकर भी वे रिटायर कहाँ हुए थे? उनके घर पढ़ने वाले छात्रों का ताँता पहले की तरह ही लगा रहता और वे खूब मजे में पढ़ाते। उनके साथ के अध्यापक शिक्षा की दुकानें लगाकर बैठे थे और जोशी सर ज्ञान की नदी बहा रहे थे। कोई भी अंजलि भर-भरकर उसका जल ले सकता था। हालाँकि उनके परिवार के लोग, खासकर पिता जो रिटायर्ड सरकारी अफसर थे, इस सब से खुश नहीं थे। “अरे प्राण, लोगों ने ट्यूशन कर-करके हवेलियाँ खड़ी कर लीं, और तुम...! बस, यही छोटा-सा घर है न तुम्हारे पास।” एक बार पिता उनसे मिलने आए तो अपनी नाखुशी उन्होंने जाहिर कर दी। जोशी सर हँसकर बोले, “नहीं-नहीं पिता जी, छोटा-सा कहाँ? हमारे लिए तो इतना ही काफी है। इससे बड़ा हो तो कौन सँभालेगा?” और सच तो यह है कि उनका वह छोटा-सा घर भी हर वक्त किताबों से अँटा रहता। मिसेज जोशी, जोशी सर जिन्हें कभी दमयंती तो कभी प्यार से दम्मो कहकर बुलाते थे—ज्यादा पढ़ी-लिखी तो न थीं, पर वे भी सौभाग्य से बहुत स्नेहिल थीं और समय-असमय डेरा जमाने वाले हम जैसे स्टुडेंट्स से कतई चिढ़ती न थीं। कई बार वे भी वहीं आकर बैठ जातीं। हमारी और जोशी सर की बातें सुनतीं और मुसकराती रहती थीं। सच तो यह है कि हमने बहुत-से घर देखे, पर प्रेम से बना घर भी कोई हो सकता है, यह अहसास तो बस जोशी सर के घर जाने पर ही होता था। जोशी सर का बेटा सुकांत इधर बरसों से अमेरिका में था। उसने इलाहाबाद से इंजीनियरिंग की और कोई अच्छी जॉब उसे मिली। कंपनी ने पाँच साल के लिए उसे अमेरिका भेज दिया और फिर वहीं अपनी पसंद की लड़की से शादी करके, उसने अमेरिका में ही बसने का फैसला कर लिया। रह गए सिर्फ पति-पत्नी...यानी जोशी सर और मिसेज जोशी। भीतर तक सरलता और प्रेम से भिदे हुए आदर्श हिंदुस्तानी दंपति। कई बार हम लोग सोचते, “घर पर इतना समय हम जोशी सर का लेते हैं। कहीं इससे मिसेज जोशी परेशान न होती हों?” पर वे अपने पति और उनकी प्यारी-सी सनक को जानती थीं और यह भी कि इसी से वे जिंदा हैं। इसीलिए सुकांत ने भले ही बीसियों बार उन्हें अमेरिका बुलाया, पर वे नहीं गए। मिसेज दमयंती जोशी भी इस मामले में जोशी सर से कुछ कम न थीं। कोई तीन बरस पहले मिसेज जोशी गुजरीं हार्ट अटैक से। उनके जाने के बाद पहली बार जोशी सर हमें थोड़े कमजोर और टूटे हुए-से लगे। वे कहीं न कहीं अकेले पड़ते जा रहे थे। हालाँकि उनकी हिम्मत और जीवन-लय टूटी नहीं थी। मैंने कभी उन्हें दूसरे रिटायर्ड लोगों की तरह मौजूदा वक्त या नई पीढ़ी को कोसते नहीं देखा। कहा करते थे, “हर दौर में समय अपना मिजाज खुद तय करता है। हाँ, हम पुराने समय के लोग हैं, तो अपना तरीका छोड़ नहीं सकते।” इस उम्र में भी सारे काम खुद करके उन्हें खुशी मिलती थी। बेटे सुकांत की जिद, “पापा, आप चौबीस घंटे का कोई नौकर रख लीजिए। पैसे की बिल्कुल चिंता मत कीजिए। मैं सारा खर्चा दूँगा।“ इस पर जोशी सर का जवाब कि “बेटा, सुबह से रात तक धीरे-धीरे ही सही, सारे काम करता हूँ तो गाड़ी चल रही है। एक बार बैठा तो फिर बैठा ही रह जाऊँगा। तब कोई नौकर कुछ नहीं कर पाएगा। और अमेरिका में बैठे हुए तुम भी भला कितना कर लोगे?” इस बीच बेटे सुकांत का अमेरिका आने का आग्रह निरंतर बढ़ता गया। पर जोशी सर की जिद अपनी जगह। सारे स्टुडेंट, जो उनसे मार खा-खाकर पक्के हुए थे, हर दिन उनका हालचाल पता करते ही रहते थे। उनमें बैंक मैनेजर से लेकर सेक्रेटरी जैसे ऊँचे ओहदों पर बैठे हुए लोग भी थे, जो बड़े गर्व से बताते कि हम जोशी सर के स्टुडेंट हैं। और जब उनके स्टुडेंट मिलने आते, तो जोशी सर की खुशी बाँध तोड़कर बह निकलती। बातें करते हुए एकदम जवान हो जाते, जैसे उम्र के पहाड़ को उन्होंने उतार फेंका हो।


अभी कोई साल भर पहले की बात, मैं और सुबोध उनसे मिलने गए थे। जोशी सर इतने खुश हुए कि खुशी उनके भीतर-बाहर से फूट रही थी। “कैसे हो तुम लोग?” उन्होंने कँपकँपाते होंठों से पूछा। देर तक घर-परिवार के बारे में पूछते रहे। फिर खुद ही चाय बनाने के लिए उठने वाले थे कि उन्हें बड़ी मुश्किल से हमने इस बात के लिए राजी किया कि चाय मैं और सुबोध मिलकर बनाएँगे। थोड़ी देर बाद चाय का प्याला उनके आगे रखते हुए मैंने कहा, “सर, हम भी तो आपके बेटे हैं।” सुनकर उनकी आँखें थोडी भीग गईँ। “तुम लोग बहुत अच्छे हो, वरना आजकल कौन याद करता है किसे?” कहते हुए जोशी सर का स्वर भीग गया था। “नहीं सर, ऐसा न कहें। आपने हमें बनाया है। खुद अपने हाथों से आपने हमारा व्यक्तित्व गढ़ा है, जिससे कभी कोई गलत काम नहीं हुआ हमसे और कभी हम किसी के आगे झुके नहीं।” सुबोध ने कहा। मुझसे तो इतना भी नहीं कहा गया। पता नहीं क्या कहना चाहता था? गला रुँध गया! होंठों से कोई बोल निकला ही नहीं। “इंजीनियरिंग में आकर वह इंगलिश तो छूट ही गई जिस पर आप जोर देते रहे, पर जोशी सर, मैं आज भी वहाँ सबसे अच्छी अंग्रेजी लिखता-बोलता हूँ!” सुबोध ने कहा तो उनके चेहरे पर अजब-सी आर्द्रता थी। यह आत्मदया नहीं, अपने भरे-पूरे होने और टूटकर जीने का अहसास था। मुझे याद आई बरसों पहले कही गई जोशी सर की बात कि, “देखो परेश, मैंने तुम्हें इतना पक्का और मजबूत बेस दिया है कि तुम्हें कहीं किसी के आगे झुकने की जरूरत नहीं है। यह कभी मत भूलना कि तुम मेरे स्टुडेंट हो।” मैंने उन्हें याद दिलाया तो हँसने लगे। एक कमजोर-सी हँसी, लेकिन मिठास से पगी हुई। पर अगले ही पल न जाने कैसे मुझे नवें दरजे का मुर्गा न बनने वाला प्रसंग याद आ गया। मैंने ठिठोली की, “और हाँ सर, मुझे मुर्गा बनने की भी जरूरत नहीं है, भले ही मुझे आपके या फिर किसी और के आगे सत्याग्रह करना पड़े!” सुनकर वे उस दुर्बलता की हालत में भी खिलखिलाकर हँस पड़े थे। फिर कुछ रुककर बोले, “परेश, सच कहूँ तो उसी दिन से मेरे मन मे तुम्हारी एक अलग इमेज बनी। तुमने देखा नहीं कि पंद्रह मिनट में पूरी क्लास मुर्गा बनी। सब मुर्गा बनते गए और अपनी अपनी सीट पर बैठते गए। यहाँ तक कि सुबोध भी। लेकिन उस दिन का बाकी पूरा पीरियड और अगला पीरियड भी तुम्हारे साथ झिक-झिक करते बीता। उसी दिन मैं समझ गया था, तुम्हारी जिंदगी किन रास्तों पर चलेगी। और आज तुम्हें बता रहा हूँ कि उस दिन मैंने हार मानी थी तुमसे। तुम छोटे थे, पर कुछ ऐसी बात थी तुममें कि मुझे हारना पड़ा। वह अब भी है तुममें और मैं चाहूँगा कि हमेशा बनी रहे।”

चलते हुए मैंने और सुबोध ने पैर छुए, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया, “खुश रहो और जीवन में बहुत बड़े काम करो...!” फिर सुबोध को इशारे से पास बुलाकर कहा, “देखो सुबोध, मुझे पता है, तुम तो सब सँभाल लोगे। पर मुझे परेश की अब भी कभी-कभी चिंता होती है। अगर कभी वह किसी मुसीबत में पड़े तो तुम उसे सँभालना।” और सुबोध का हाथ मेरे कंधे पर कस गया था। यह सब इतना आकस्मिक था कि मैं हक्का-बक्का रह गया। लगा, खुद को नहीं रोका, तो अभी फूट-फूटकर रोने लगूँगा। उन्हें प्रणाम करके हम निकले, तो बाहर आकर गाड़ी स्टार्ट करते हुए सुबोध ने कहा था, “मेरा मन कहता है परेश, अब ज्यादा समय नहीं है। ज्यादा से ज्यादा शायद साल-छह महीने। देख नहीं रहे थे, कैसे उनके हाथ कँपकँपा रहे थे चाय पीते वक्त!” कहते-कहते उसकी आँखें भर आई थीं, मेरी भी। और आज...! उसी सुबोध को फोन करूँ और फोन पर सूचना दूँ कि हमारे प्यारे और दुनिया में सबसे निराले और लाजवाब जोशी सर नहीं रहे, यह जिम्मा मुझ पर है। लेकिन कैसे कहूँ, कैसे कि सुबोध, हमारे जोशी सर अब नहीं रहे? शब्द मेरे गले से निकलेंगे? मैंने फोन का चोगा उठा लिया है, पर हाथ अब भी काँप रहे हैं—थर-थर...थर-थर। भीतर अंधड़ में आँसुओँ से भीगी कोई आवाज है जो रो रही है।