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चार्वाक कौन? चारु वाक् अर्थात् मीठी वाणी बोलने वाले चार्वाक। जिन विषयों को शास्त्रीय और गम्भीर विषय माना जाता है उन्हें चार्वाक लोग व्यावहारिक और लौकिक रूप से करते थे। जो सबके मन को चारु लगे, प्रिय लगे, ऐसा दर्शन देने वाले चार्वाक। एक मत के अनुसार बृहस्पति ने यह दर्शन दिया,इनके अनुयायी चार्वाक कहलाते थे। ऐसा भी माना जाता है कि चार्वाक नाम का कोई व्यक्ति था, जिसने इस दर्शन का प्रादुर्भाव किया, उसके अनुयायी उसके नाम पर चार्वाक कहलाए।

सभी नौ दर्शनों में नास्तिक या अवैदिक तीन ही दर्शन हैं। चार्वाक, बौद्ध और जैन। आत्मा को भी न मानने वाले चार्वाक तो अपनी राह पर अकेले ही थे। चार्वाक दर्शन को लोकायत, बार्हस्पत्य, देहात्मवादी और भूतवादी दर्शन भी कहा जाता है। उनके अनुसार आत्मा या चेतना जैसी कोई संरचना नहीं होती। चार्वाक देहात्मवादी हैं, देहात्मवाद के अनुसार सब कुछ देह ही है, वही आत्मा भी है। जब तक शरीर जीवित है तभी तक चेतना भी रहती है। शरीर के बाद चेतना भी मर जाती है।

चार्वाक, जिनका न कोई प्रत्यक्ष साहित्य मिलता है और न ही कोई विधिवत अनुयायी। क्या हुआ जो इतना बड़ा दर्शन पूरी तरह लुप्त हो गया! उसके कोई साक्ष्य मिलने भी कठिन हो गए। उसके अग्रणियों के नाम भी भुला दिये गए। उनके विषय में हम जान सके तो दूसरों के वर्णनों में। वर्णन भी वे, जिनमें उनकी आलोचना मात्र ही थी। यथा चार्वाक तो फला गलत बात कहते या फलाँ गलत काम करते थे, जबकि उत्तम विचार या राह यह है।

जब हमारे समाज में मोक्ष की अवधारणा बलवती थी, धर्म का ध्येय मोक्ष की ओर था। तब एक ऐसा दर्शन हमारे समाज में क्यों फल फूल रहा था जो पूर्णतः भौंतिकवाद पर टिका था। जिसके लिए न कोई ईश्वर था, न कोई स्वर्ग-नर्क न कोई अजर-अमर आत्मा ही?

मनुष्य है, जीवन है तो वह भोग की ओर भी आकृष्ट होगा ही; क्यों कि प्रकृति ने मनुष्य के भीतर इच्छाएँ देकर ही धरती पर भेजा है। निश्चय ही उसके भीतर सांसारिक भोग का भाव भी है ही। इसीलिए हमारे समाज में चार आश्रमों का अस्तित्व है जो उम्र के हिसाब से निर्धारित किए गए हैं। परंतु वर्जनाओं की शृंखलाएँ इतनी कठोर हो गईं कि कह तो यह तक दिया कि वीर्य की यदि एक बूँद भी गिरी, तो यह घोर पाप होगा। (मृत्यु: बिंदपातेन) यह वर्जना तो पुरुषों के लिए थी, स्त्री के लिए वर्जनाएँ कितनी कठोर रही होंगी, अनुमान लगाया जा सकता है। सम्भव है कि उस समय व्यक्ति पर वर्जनाओं का बोझ इस कदर लाद दिया गया हो कि समाज के एक वर्ग ने विद्रोह स्वरूप एक ऐसा दर्शन दे दिया, जो पूर्णतः भोग-विलास पर आधारित था। यह तो है भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य ही कि किसी कार्य के लिए सीधे-सीधे मना करना इच्छा को बढ़ावा देना ही है।

यद्यपि चार्वाक लोग किसी न किसी रूप में वैदक युग के आरम्भ से ही उपस्थित थे; परंतु छठी शताब्दी ई. पू. में उनका उदय स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यही भारत में जैन, बौद्ध, आजीवक आदि मतों के जन्म का भी युग था। ये सभी मत नास्तिक थे। यह युग भारत में ही नहीं विश्व भर में जैसे दर्शन के विस्फोट का युग था। इसी समय चीन में कन्फ़्यूशियस हुआ, लाओत्से हुआ। इसी समय जापान में शिंतो धर्म का उदय हुआ। ग्रीस में थेल्स या थालेस पाइथागोरस और इसी समय हेराक्लीज़ हुआ। इसी समय मोजेज के तोराह का संकलन भी हुआ। इनके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी कई दर्शन पनपे।

इतिहास

चार्वाकों का वर्णन वेदों में भी आता है, यद्यपि वहाँ उनका नाम चार्वाक नहीं है। वहाँ वे सुखवादी या जड़वादियों के रूप में उपस्थित हैं। माना जाता है कि चार्वाक दर्शन के अग्रदूत भगवान बुद्ध से भी पहले पैदा हुए। चार्वाकों के दर्शन की तरह आत्मा के खंडन का इतिहास वैदिक साहित्य या वैदिक दर्शन जितना ही पुराना है, क्योंकि जब वैदिक धर्म फल-फूल रहा था, तभी ऋषि, मुनियों से नास्तिकों ने आत्मा के खंडन से संबंधित तमाम प्रश्न किए थे।

ऐसा माना जाता है कि चार्वाक दर्शन की स्थापना देवताओं के गुरु बृहस्पति ने की थी। इसीलिए इसका एक नाम बार्हस्पत्य दर्शन भी है। बृहस्पति के शिष्यों को भी चार्वाक कहा गया ऐसा वर्णन है। परंतु बृहस्पति ऐसा दर्शन क्यों देंगे, जिसमें वेदों की मान्यता न हो! तो इसके उत्तर में कहा गया कि उन्होंने यह दर्शन राक्षसों और असाधु नागरिकों के लिए दिया, ताकि वे पतित हो जाएँ। ऐसा पद्मपुराण में उल्लेख है। ये बृहस्पति कौन से हैं, यह भी मतभेद है; क्योंकि बृहस्पति भी कई हुए हैं। किसी पिंगकेश नाम के मंत्री का एक जैन मुनि विजय सिंह से शास्त्रार्थ हुआ था जिसमें पहली बार आत्मा को नकारा गया।

स्रोत

चार्वाक दर्शन के विषय में नवीं शताब्दी ई. में एक किताब मिलती है, ‘तत्वो विप्लव सिंक’ जयराशि भट्ट द्वारा। इस पुस्तक में पहली बार इनका थोड़ा सा वर्णन मिलता है कि चार्वाक कौन थे। इसके बाद ग्यारहवीं शताब्दी में एक नाटक है ‘प्रबोध चंद्रोदय’ जिसे कृष्ण मिश्र ने लिखा है। इसमें भी चार्वाकों का वर्णन आया है। यह अकेली रचना है जो चार्वाकों के पक्ष में बोलती है। हालाँकि यह बहुत छोटी सी रचना है।

12वीं शताब्दी तक एक पुस्तक उपलब्ध थी। जिसमें चार्वाकों के सभी सूत्र थे परंतु अब वह पुस्तक उपलब्ध नहीं है। उस पुस्तक पर जो टीका-टिप्पणियाँ की गईं, बस उन्हीं में थोड़े-बहुत सूत्र मिलते हैं। डी आर शास्त्री द्वारा 1928 में इन सूत्रों को मिलाकर ‘चार्वाक सृष्टि’ नामक एक ग्रंथ की रचना की गई। इस ग्रंथ में चार्वाकों से संबंधित 60 सूत्र मिलते हैं। इसके बाद उन्होंने 1944 में ‘चार्वाक पंचशिखा’ की रचना की। 1965 में उन्होंने ‘चार्वाक फिलॉसोफी’ लिखी जिसमें 54 सूत्र थे।

उसके बाद एक व्यक्ति हुए माधवाचार्य विद्यारण्य जो शृंगेरी मठ के गुरु थे। उनकी भी एक पुस्तक है- ‘सर्व दर्शन संग्रह’ जिसमें उन्होंने चार्वाक लोगों का वर्णन किया है। चार्वाक दर्शन का कोई साहित्य उपलब्ध न होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से किसी को ज्ञात नहीं कि चार्वाक लोगों का मत क्या था। परंतु आलोचकों द्वारा जो उनकी आलोचना की गई उसके आधार पर अनुमान लग पाया कि उनके विचार क्या रहे होंगे। पूर्वपक्ष के रूप में विभिन्न ग्रंथों में इनका वर्णन मिलता है। यथा न्यायकुसुमांजलि, ब्रह्मसिद्धि, “षडदर्शनसमुच्चय” आदि। परंतु जब हम किसी के प्रत्यक्ष विचार न पढ़कर, उसका मूल्यांकन किसी अन्य के द्वारा की गई उसकी आलोचना के आधार पर करते हैं तो हम उसके साथ पूरा न्याय नहीं कर पाते।

चार्वाक सिद्धांत

उनके अनुसार प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। दूसरे सभी दर्शनों में कई प्रमाणों की बात होती है जैसे- प्रत्यक् प्रमाण, अनुमान, उपमान, आप्तवचन, अनुपलब्धि, शब्द प्रमाण आदि। परंतु चार्वाक मात्र और मात्र एक ही प्रमाण मानते हैं जो आँखों से देखा हुआ या दूसरी इंद्रियों से अनुभव किया हुआ सत्य हो। जैन, बौद्ध या ब्राह्मण लोगों ने आत्मा को अनुमान उपमान के आधार पर स्थापित किया: परंतु चार्वाक दर्शन यह नहीं मानता। उनके अनुसार ईश्वर का भी कोई अस्तित्व नहीं। वे मिट्टी, बीज और जल आदि के संयोग से बनने वाले पौधे में या अन्य किसी संरचना में ईश्वर की भूमिका नहीं देखते।

न स्वर्ग: अस्ति। न अपवर्ग: अस्ति। न वा आत्मा पारलौकिक: अस्ति।

वर्णाश्रमादीनाम क्रिया नैव फलदायिका अस्ति।

स्वर्ग नामक कोई सिद्धांत नहीं है। और न ही अपवर्ग रूप फल है आत्मा शरीर रूप है परलौकिक नहीं शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं होती। जो स्वर्ग आदि फल है वह भी मिथ्या है। वेद विहित कर्म भी मिथ्या है।

चार्वाक को लोकायत दर्शन भी कहा गया है। जिसका अर्थ है इसी लोक का जीवन। वे किसी परलोक को नहीं मानते। उनके अनुसार वेद, परलोक, स्वर्ग, नरक, ईश्वर कुछ भी नहीं है। इसी लोक में स्वर्ग भी है, इसी लोक में नर्क भी है, इसी लोक को सुंदरतम बनाना है। शरीर को स्वस्थ रखना है और आनंदपूर्वक रहना है। स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिए किए गए कर्मों का वे खंडन करते हैं। उनके अनुसार इस जगत के बाहर कोई मोक्ष भी नहीं है चेतन देह का अंत ही उनके अनुसार मोक्ष है।

इनके अनुसार जगत पाँच नहीं चार तत्त्वों से बना है। अग्नि, जल, पृथ्वी और वायु इन्हीं तत्त्वों से हमारा शरीर बना है। परंतु चूँकि आकाश को इंद्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता है; इसलिए वे आकाश तत्व को पंचभूतों में सम्मिलित भी नहीं करते। इनके अनुसार चेतना कोई अलग संरचना नहीं है। इन्हीं चार तत्वों के संयोग से चेतना पैदा हो जाती है। जैसे पान, चूना, कत्था में कोई भी वस्तु लाल नहीं है; परंतु सबके संयोग से लाल रंग बन जाता है। चार्वाकों के द्वारा कही गई यह बात बहुत ही वैज्ञानिक और सारगर्भित लगती है। तब जबकि आज का विज्ञान भी आत्मा पर इस प्रकार के शोध कर ही रहा है। चार्वाक मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् कुछ शेष नहीं रहता, शरीर के नाश के साथ ही चेतना का भी नाश हो जाता है। मनुष्य को यज्ञ आदि धर्म के कार्य नहीं करने चाहिए; क्योंकि इनका जो परिणाम है वह मृत्यु के बाद निकलता है। चूँकि मृत्यु के बाद व्यक्ति का कोई अस्तित्व बचता ही नहीं इसलिए इनको करना व्यर्थ है, उनके अनुसार।

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्ड-धूर्त-निशाचराः।

जर्फरी-तुर्फरीत्यादि पंडितानां वचः स्मृतम्। ।

अर्थात् तीनों वेदों के रचयिता मूर्ख, धूर्त और राक्षस हैं। उनके इस कथन पर विद्वानों में थोड़ी असहमति भी है। यह सम्भव है कि ये सारी बातें समाज को उनके ख़िलाफ़ खड़ा करने के लिए ब्राह्मण समाज या अन्य मतों के द्वारा उन पर आरोपित कर दी गईं। चार्वाक तीन ही वेद मानते हैं। वे अथर्ववेद को वेद नहीं मानते। उनके अनुसार यह तीनों वेदों का पुनर्पाठ ही है।

लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्मृतः।

दहस्य नाशो मुक्तिस्तु न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते।।

वे कहते है, अगर समाज में व्यवस्थाएँ सुचारू रूप से बनी हुई चाहिए तो ईश्वर की तरफ मत देखो, राज्य की तरफ देखो और कहो- “राज्याय नमः”। चार्वाक दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष सिद्ध राजा ही ईश्वर है। ईश्वर या मंदिरों में आस्था रखना व्यर्थ है। इनके स्थान पर राष्ट्र में आस्था रखना, उसे बलिष्ठ बनाना आवश्यक है। क्योंकि जब हमारे ऊपर कोई आक्रमण होता है< तो राज्य ही इस लोक में हमारी रक्षा करता है, ईश्वर या मंदिर नहीं। वे उदाहरण भी देते हैं कि जब भी कोई यज्ञ होता है तो सबसे पहली आहुति इंद्र के ही नाम होती है, “इदम् इंद्राय नमः”। इंद्र कौन है? इंद्र देवताओं का राजा है और सबसे पहली आहुति राजा के नाम होती है। अर्थात् राजा ही सबसे शक्तिशाली है, रक्षक है उसी को नमन करना चाहिए, ईश्वर को नहीं।

प्रणेता

एक मत के अनुसार बृहस्पति के अतिरिक्त राजा पायासी को चार्वाक दर्शन का जनक माना जाता है। परंतु अगर इतिहास में जाएँ तो देखने में आता है कि जितने भी राजा हुए हैं, वे सब किसी न किसी धर्म से संबंध रखते थे। तो यह बात थोड़ी सी शंकित करती है कि कोई राजा नास्तिक दर्शन प्रस्तुत करे, उसे बढ़ावा दे।

इसके अतिरिक्त भी यदि किसी राजा के द्वारा इसे स्थापित किया गया होता तो फिर इसे राज्य का आश्रय भी अवश्य ही मिला होता, यह इस तरह लुप्त न हो गया होता।

चार्वाक और अजित केश कंबली

छठी शताब्दी ई. पू. में अजित केश कंबली के रूप में चार्वाकों को एक नायक मिला, जिसने चार्वाक दर्शन को विधिवत स्थापित किया। इन्हें तर्क-वितर्क करके पराजित कर पाना असम्भव था अतः इनका नाम ‘अजित’ पड़ा। मनुष्य के केशों का कम्बल ओढ़ने के कारण वे ‘केश कंबली’ कहलाए। हालाँकि इनका लिखा हुआ कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है: परंतु बौद्ध और जैन ग्रंथों में उन्हें देहात्मवादी बताया गया है। इस तरह से हम उनके विषय में हम जान पाते हैं। बौद्ध धर्म के दीर्घ निकाय में अजित केस कंबली के दर्शन का वर्णन मिलता है परंतु है वह भी आलोचना के रूप में ही। यहाँ उन्हें यह कहते हुए दर्शाया गया है कि भिक्षा या बलिदान आदि का कोई परिणाम नहीं होता। अच्छे या बुरे कर्म का भी कोई परिणाम नहीं होता और मृत्यु के बाद प्राणियों का कोई पुनर्जन्म भी नहीं होता है। इन्हीं उल्लेखों में अजीत केश कंबली के भूत चतुष्टयवाद का भी वर्णन है। यहाँ वे बोलते हैं कि यह पूरा अस्तित्व भौतिक तत्वों का एक योग है। मृत्यु के बाद शरीर का पृथ्वी तत्व पृथ्वी में लौट जाता है, जल तत्त्व जल में विलीन हो जाता है, शारीरिक ताप अग्नि में लौट जाता है, वायु तत्त्व वायु में और मानसिक क्षमताएं अंतरिक्ष में विलीन जाती हैं। उनके अनुसार चार कंधे देने वाले मनुष्य की अर्थी को ले जाते हैं। मनुष्य के अवशेषों को श्मशान में देखा जा सकता है जहाँ कबूतरों के रंगों की नंगी हड्डियाँ पड़ी रहती हैं। सारी भिक्षा दान आदि देना मिट्टी में मिल जाता है। कुछ मूर्ख भिक्षा देना धर्म और योग्यता समझते हैं, पर भिक्षा देने में योग्यता जैसी कोई चीज नहीं होती। मूर्ख और बुद्धिमान दोनों के शरीर मृत्यु के बाद नष्ट ही हो जाते हैं। मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं बचता

अजीत केश कंबली के इन विचारों के कारण श्रमण और ब्राह्मण दोनों ने ही उनकी घोर निंदा की। उनके प्रति इनमें घृणा हद से भी अधिक बढ़ जाती है। चार्वाक अपने इस मत के कारण बौद्ध, जैन और ब्राह्मण सभी से निंदित हुए और प्रतीत होता है कि इन सभी ने उनके विरुद्ध षड्यंत्र करके, उनको हटा फेंकने की ठान ली। अजीत केस कंबली के विचारों की तुलना पश्चिम के हैडोनिज़्म (सुखवादिता) से भी की जाती है परंतु भौतिकवाद और हैडोनिज़्म दोनों में पर्याप्त वैभिन्य है। ध्यान से देखने पर हैडोनिज़्म का अर्थ कोरी सुखवादिता है अर्थात् हर पल व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही कार्य करना चाहिए जबकि चार्वाकों के भौतिकवाद में ऐसा नहीं है। अजित केश कंबली तो स्वयं ही केशों का कंबल ओढ़ते थे। जो गर्मी में अधिक गर्म और सर्दी में अधिक ठंडा हो जाता था। जिसके कारण शरीर को अतिरिक्त कष्ट उठाना पड़ता होगा। उनके इस तरह के आचार-व्यवहार से परिचित होने पर पूर्णतः सुखवाद का समर्थन नहीं होता। वे न तो इस संसार को सत्य मानते हैं न ही दूसरे संसार को। अगर वे इस संसार को भी सत्य नहीं मान रहे हैं तो भी उन्हें साधु प्रकृति का व्यक्ति ही कहा जा सकता है। स्वभाववाद, भूतचतुष्टयवाद, प्रत्यक्षप्राधान्यवाद, देहात्मवाद चार्वाकों के इन सिद्धांतों को पूरी तरह भुला दिया गया है। जब भी उनकी बात चलती है तो उनके सम्पूर्ण दर्शन का सार निम्नलिखित पंक्तियों में कह दिया जाता है कि, यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ 

अर्थात् जब तक जियो सुख से जियो क़र्ज़ा करके घी को पियो, क्योंकि एक बार मृत्यु के बाद पुनरागमन नहीं होता।

इन पंक्तियों को और इसी प्रकार की कुछ अन्य बातों के द्वारा ही उनका दर्शन बताकर उन्हें कुप्रचारित किया गया, जबकि ‘ऋणम कृत्वा घृतम् पिबेत’ के स्थान पर है नाशिमृत्योर अगोचरा” है।

कहा तो यह भी गया कि वे यह भी कहते थे-

पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत्पतति भूतले।

पुनरुत्थाय पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते।।

अर्थात्, पियो, पुनः पियो तब तक जब तक धरती पर गिर ना पड़ो। उठो, फिर पियो, क्योंकि कोई पुनर्जन्म नहीं होता।

यों उनकी आलोचना तो महान विचारकों से लेकर आम मनुष्यों द्वारा भी की गई। परंतु आधुनिक समय में एक पक्ष का मानना है कि अगर चार्वाकों जैसे व्यावहारिक लोग भारत में अपने दर्शन के साथ जीवित रहे होते तो संभव था कि भारत विज्ञान एवं तकनीक में अग्रणी होता। क्योंकि तत्कालीन धर्म ने अधिकांश लोगों को कर्मकाण्ड और पूजा-पाठ में लिप्त रखा। नागरिकों की सारी क्षमताएँ कर्मकाण्डों को करते हुए चुकती रहीं। वे उतनी प्रगति नहीं कर सके जितनी करनी चाहिए थी। अनुमान यह भी है कि वैचारिक, मौखिक या शाब्दिक आलोचना के साथ - साथ चार्वाकों पर शारीरिक हमले भी अवश्य ही हुए होंगे। बिना उसके चार्वाक दर्शन का समूल नाश सम्भव नहीं था। वैसे अघोषित रूप से संसार की लगभग तीस प्रतिशत या उससे भी अधिक जनसंख्या किसी न किसी रूप में आज भी चार्वाक जीवन ही यापन करती है। तो क्या उनका सिर्फ़ नाम मिटा पर वे नहीं…

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