जो खौफ आंधी से खाते तो / संतोष श्रीवास्तव
अंडमान के सबसे बड़े द्वीप रंगत में एक यादगार दिन और रात गुजार कर अब बाराटांग द्वीप के लिए हम निकल पड़े। हमारी वैन में आदिवासियों के विशेषज्ञ वर्मा जी, मानव विज्ञानी बेंजामिन जी और पुरातत्वविद् डॉ डेनियल भी थे। जो हमारे खास अनुरोध पर अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में जानकारी देने के लिए साथ आए थे। सबसे पहले पोलिस आऊट पोस्ट पारलोब्जिक नंबर 15 कदमतल मिडिल अंडमान पर हमारी वैन रूकी। जहाँ पुलिस चेकिंग होती है। यहीं से जारवा आदिवासियों का क्षेत्र शुरू होता है। यहाँ के एग्जीक्यूटिव सेक्रेटरी के ऑर्डर पर जारवाओ के लिए कुछ हिदायतें सड़क के दोनों ओर बोर्ड पर लिखी हैं। उनकी तस्वीरें लेना मना है, उनका हमारे वाहन के अंदर प्रवेश मना है, आप दरवाजा खिड़कियाँ बंद रखें, खाने पीने की कोई भी चीज उन्हें ना दें, उनके नजदीक वाहन ना रोके, उन्हें कपड़े आदि ना दें। पर ऐसा क्यों? ...मेरे मन में बड़ी देर से सवाल कुलबुला रहा था। जवाब दिया वर्मा जी ने..."यहाँ की सरकार उनके प्रति बहुत सतर्क है। शुरु में ये पर्यटकों द्वारा कुछ नहीं दिए जाने पर जहर बुझे तीर से उन पर हमला करते थे। क्योंकि पर्यटकों ने खाने पीने की चीजे कपड़े आदि दे देकर उनकी आदत बिगाड़ दी थी। इन के तीर चलाने से अगर कोई पर्यटक मर जाता था तो उसे कंधे पर लादकर अपने ठिकाने पर ले जाते थे।"
अभी तक मेरे मन को माकूल उत्तर नहीं मिला था। आदिवासियों के बारे में सरकार के ऐसे रवैय्ये से मैं हैरान थी पर बहुत जल्दी सब कुछ पता नहीं चल पाएगा सोच कर मैंने वैन के स्टार्ट होते ही खिड़की पर निगाहें टिका दीं।
रास्ते में एक आदिवासी अस्पताल पहाड़ की ऊंचाई पर बना देखा। चढ़ाई पर तीन बीमार आदिवासी बैठे थे। चट्टान जैसे काले और नग्न। इनका उपचार सरकार द्वारा किया जाता है। इनकी घटती आबादी के कारण सरकार इन्हें बचाने का भरसक प्रयास कर रही है। रास्ते में बालुडेरा बीच देखने का आग्रह डेनियल का था। वैन रुकते ही सड़क के किनारे से ही शुरु श्वेत बालू पर हम दौड़ पड़े। निर्जन, शांत बीच क्योंकि इलाका दलदली था अतः पेड़ के तने का पुल बनाया गया था ताकि बीच का आनंद लिया जा सके। समुद्र अपनी निर्जनता में भी सौंदर्य बिखेरने में जुटा था। फेनिल लहरों की झालर जब तट से टकराती तो लगता चांदनी के सफेद फूल बिखर गए हो।
"यही पास में एक पेड़ है जो रात को पानी बरसाता है"
वैन का ड्राइवर राजा बेचैन था हमें उस पेड़ तक ले जाने के लिए लेकिन यह तो वनस्पति शास्त्र का फॉर्मूला है कि जो पेड़ अपनी जरुरत से ज्यादा पानी अपनी जड़ो और तने में जमा कर लेते हैं रात में अपनी पत्तियों के जरिए उस पानी को टपका देते हैं, फिर भी राजा के जोश ने हमें पेड़ देखने पर मजबूर कर दिया अब हम गांधी जेट्टी की ओर थे। जहाँ से छोटे जहाज में बैठकर हमें उत्तरा जेट्टी जाना था। अब इसे बाराटांग जेट्टी कहते हैं। गांधी जेट्टी पर दूर-दूर तक घना जंगल और इक्का-दुक्का मकान है। सड़क के दोनों ओर चाय नाश्ते के स्टॉल। जब हम चाय पी रहे थे तो चाय वाले ने बताया "जारवाओं को पता है कि दूब पूजा के काम आती है तो वह बहुत सारी दूब लेकर आते हैं और उसके बदले में हमसे चाय बिस्किट मांगते हैं। लेकिन यहाँ की पुलिस उन्हें जीप में बैठा कर वापस जंगल में छोड़ आती है। इन्हें खाने की चीजें नहीं देने देती। हमारा मन तो बहुत होता है कि दें पर ये चटपटा मसालेदार नाश्ता हजम नहीं कर पाते। बीमार पड़ जाते हैं। बीमार व्यक्ति को जंगल से सड़क पर ला कर लिटा देते हैं और पुलिस, वन विभाग को परेशानी में डाल देते हैं।" चाय वाले से आदिवासियों की इतनी महत्त्वपूर्ण जानकारी ने मेरे मन को थोड़ा तो शांत किया। एक और चाय का गिलास ले मैं थोड़ी दूर जंगल की ओर जाती पगडंडी को निहारने लगी। इस जंगल में कहाँ होंगे जारवा? हम वैन सहित जहाज में बैठकर बाराटांग आ गए जहाँ से हमें प्रकृति के अद्भुत करिश्मे लाइमस्टोन गुफा जाने के लिए एक नाव लेनी थी। नाव में हम छै ...धूप एन सिर पर... सागर में उमस-सी लगी, शायद धूप हो वजह। मैंने और प्रमिला ने अपने-अपने छाते खोल लिए पर हवा में छाते को संभालना मुश्किल हो रहा था। नाव् जब सागर के बीचो-बीच आई तो मैंग्रोव्ज़ के झुरमुट शुरू हो गए। उनकी उभरी जड़ों ने सागर को दो भागों में बांट दिया था। हमारी नाव बीच से गुजर रही थी। तभी एक विशाल मगरमच्छ मैंग्रोव के झुरमुट से प्रगट हो हमारी नाव की ओर लपका। हमने आंखें बंद कर ली "हे प्रभु रक्षा करो"
तभी राजा की आवाज"मैडम आंखें खोल लीजिए वह चला गया" डरते-डरते सब ओर गर्दन घुमाई। मगरमच्छ कहीं नहीं था। समुद्र की सतह पर कुछ जल पक्षी तैर रहे थे। सफेद पंख, गुलाबी चौच ...अब मैंग्रोव्ज़ के झुरमुट और नजदीक आ गए। कभी नौका बांये उनकी उभरी जड़ों से टकराती तो कभी दाएँ। केवट घुटने-घुटने पानी में उतर कर नाव का संतुलन संभाल रहा था। किनारा दलदली था। किनारे से थोड़ी ऊंचाई पर डालियाँ बिछा कर रास्ता बनाया गया था। इस हिलते और लचीले रास्ते पर चलना जोखिम भरा था। जरा-सा पैर फिसला कि डालियों के बीच से सीधे दलदल में। दलदली इलाका खत्म होते ही पुल भी खत्म हो गया। एक वनकर्मी हमें रास्ता बताने साथ-साथ चलने लगा। अपार सुंदरता से भरे जंगल में-में लगभग बीस मिनट का पैदल रास्ता... अद्भुत ...जैसे मैं हॉलीवुड की फिल्म का कोई पात्र हूँ और घने जंगल में शूटिंग चल रही हो। बीस मिनट के बाद वनकर्मी एक गुफा के सामने रुक गया। अंदर प्रवेश करते ही जैसे खजाना खुल गया हो। सामने तेज़ सर्च लाइट की रोशनी में नुकीली कैल्शियम कार्बोनेट की ठोस चित्रकारी... नहीं, नहीं शिल्प में आंखें चौधिया-सी गई। कलकत्ते से आए विद्यार्थी विद्युत सेन ने जो कि पिछले 3 महीने से इन गुफाओं का अध्ययन कर रहा है और अंडमान प्रशासन द्वारा मार्गदर्शक के रूप में नियुक्त किया गया है गुफाओं में अंदर जाने से पहले हमें पूरी जानकारी दी। बताया..."ये गुफाएँ यहाँ 70 से ऊपर की संख्या में है। लेकिन अभी इन की खोज खत्म नहीं हुई है। टूरिस्ट के लिए बस यही एक गुफा खुली है। इन गुफाओं का जब कुछ शिकारियों को पता चला तो उन्होंने इसकी खबर नौसेना को दी। नौसेना ने जंगल विभाग को विस्तृत जानकारी दी। अब पूरा इलाका जंगल विभाग के मातहत है। गुफाओं का पता 3 साल पहले चल गया था। 2 साल से पर्यटक आने लगे हैं। पहले आप देख ले कि सर्च लाइट ऑफ करने पर यहाँ कितना अँधेरा है।"
सर्च लाइट ऑफ़ होते ही जैसे मैं अंधेरे के भयावह गर्त में डूब गई। हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था आख़िर कैसे खोजी होंगी उन शिकारियों ने ये गुफाएँ। सर्च लाइट जलते ही विद्युत आगे-आगे धीरे-धीरे चलिए मैडम और दीवार को जरा भी टच ना करें। रिक्वेस्ट है। छूने से उनकी सुंदरता मैली होने का डर है। कैल्शियम के पेरेंट रॉक्स है इनके अंदर। इसके ऊपर मिट्टी, पेड़ पौधे, हर्ब, शर्ब हैं। यानी जंगल। कैल्शियम को लेकर पानी नीचे की ओर बहता है। कैल्शियम इकठ्ठा होता जाता है। पानी बहता रहता है। बूंदों के रूप में। बूँदे रिस-रिस कर इकट्ठा होती जाती है और ठोस होने की प्रक्रिया चलती रहती है। जो ऊपर झाड़ फानूस जैसी चट्टाने लटकी हैं उन्हें रूफ पेंडेंट्स कहते हैं। मुझे लगा नुकीले शिखरों वाला पर्वत किसी ने ओन्धा लटका दिया है। कैल्शियम रॉक्स में अद्भुत दृश्य दिखते हैं। किसी को गणेश, किसी को भीम की गदा
"मैडम आप को?"
विद्युत पूछता है। उसके सांवले सलोने चेहरे पर कितनी चमक है। जैसे इन गुफाओं का निर्माण उसी ने किया हो।
"मुझे शिव जी का नंदी" आपको मैंने ए प्लस दिया। वाह, क्या कल्पना है आप की। अद्भुत। "
सभी फोटो खींचने में तल्लीन थे। लौटते हुए जंगल की दूरी अधिक लंबी लगी। मैं जल्दी-जल्दी नाव् तक आई। अब आदिवासियों के इलाके से जो गुजरना है।
वहाँ से जहाज लेकर हम मिडिल स्ट्रीट आए। यहाँ से डिगलीपुर तक की 290 किलोमीटर की दूरी जारवा आरक्षित क्षेत्र घोषित की गई है। लगभग डेढ़ घंटे का आदिवासियों का इलाका... सड़क के दोनों ओर हजारों साल पहले का वन्यजीवन...आदिम सभ्यता के दर्शन इसी मार्ग से गुजरते हुए किए। यहाँ वाहनों की सुरक्षा के लिए सुरक्षागार्ड और पुलिस साथ चलती है। सारे वाहन एक कतार में आगे बढ़ते हैं और पहले और आखरी वाहन में पुलिस बंदोबस्त रहता है। दोनों ओर घने जंगलों के बीच ऊंची नीची सड़क से गुजरता हमारा कारवाँ... मैं खिड़की से नजरे एक पल को भी नहीं हटा रही थी। न जाने कब कहाँ जारवा दिख जाएँ। कि डेनियल कान के पास मुंह ला कर फुसफुसाए "वह देखिए"
मैंने देखा सड़क से जंगल की ओर उतरते झुरमुट से दो आदिवासी लड़के प्रगट हुए। कोलतार जैसे काले चेहरे पर लाल पीली धारियाँ चित्रित थीं। कमर के नीचे कपड़े का टुकड़ा लटक रहा था। वे मेरे सामने आकर वाहन में झांक कर देखने लगे। राजा वैन मंथर गति से चला रहा था। कतार के सारे ही वाहन धीमी गति से चल रहे थे। सामने दो आदिवासी औरतें पीठ पर बैंत की टोकरी में बच्चे लिए खडी थी। ऊपर से एकदम निर्वस्त्र लेकिन कमर पर पत्तों की झालर बाँधे जो जाँघो को ढक रही थी।
"देख रही है ना मैडम जारवाओ को। विश्व में संभवतः यही ऐसे आदिवासी है जो सबसे सादा जीवन बिताते हैं। दक्षिण मध्य अंडमान के पश्चिमी किनारों पर 765 किलोमीटर फैले वनों में इनका निवास है। पहले तो यहाँ से गुजरना मुश्किल था। हालांकि यह जंगली शिकार से अपना जीवन यापन करते हैं। परंतु लोगों के संपर्क में आने से इन्हें परहेज है बल्कि उन्हें देख ये जहर बुझे तीरों से उन पर हमला कर देते थे। वह घटना सुनाइए न वर्मा जी"
बेंजामिन बेताब थे लेकिन वर्मा जी की पान तंबाकू की आदत। पहले डिबिया खुली। पान मुंह में रखा गया। चुटकी में तंबाकू ले कर खुले मुंह में भूरकी तब कहीं जाकर बात का सिरा पकड़ में आया।
" 1998 की घटना है। जारवा समूह का 20 वर्षीय लड़का नारियल के पेड़ से नारियल तोड़ते हुए गिर पड़ा। उसका पैर टूट गया। हड्डी तोड़ दर्द की असहनीय पीड़ा में वह छटपटा रहा था कि तभी सुरक्षा गार्ड की नजर उस पर पड़ी। पुलिस की मदद से उसे अस्पताल लाया गया और फौरन इलाज शुरु कर दिया गया। जब उसे होश आया तो वह पलंग पर छटपटाने लगा। अपनी भाषा में शायद अपने कबीले में लौट जाने की जिद कर रहा हो। उसे जो कपड़े पहनाए गए थे उन्हे पकड़-पकड़ कर खींचने लगा। लेकिन नर्सों और डॉक्टरों के सहयोग से वह धीरे-धीरे शांत हो गया। उसे दर्द में आराम मिला। वह अस्पताल के कर्मचारियों से घुल मिल गया। 3 महीने अस्पताल में रहा। जिस प्रकार का खाना खाया, जिस प्रकार के कपड़े पहने और जिस प्रकार की भाषा (हिंदी) सीखी उसने मानो उसे नई दुनिया की सैर करा दी। स्वस्थ होने पर पुलिस उसे वहीँ छोड़ आई जहाँ से लाई थी। वह बाकायदा कपड़े पहने अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सो, डॉक्टरों द्वारा दिए गए उपहार लिए जब अपने कबीले में लौटा और बताया कि बाहर की दुनिया कैसी है, तब जाकर जारवा हमारे संपर्क में आए।
असल में इन्हें अंग्रेजो ने बहुत सताया था। 18 वीं सदी में जब अंग्रेजों का यहाँ कब्ज़ा हुआ तो उन्होंने इन्हें जंगलों में खूब भीतर तक जाकर निवास करने पर मजबूर कर दिया था। उनके पास बंदूकें थी। जब तक जारवाओ के जहर बुझे तीर उन तक पहुँचते उन की गोली जारवाओं के सीने के पार होती। रक्त रंजित लाश कंधे पर डाल जारवा कबीला जंगलों में भागता। उन्हें लगता कि उनका शत्रु अभी भी उनका पीछा कर रहा है। यही वजह है कि वे सब लोगों को अपना शत्रु मानने लगे। जापानियों ने भी आदिवासियों की बड़ी संख्या को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी बर्बरता के रहते कौन सभी लोगों पर यकीन करेगा। ये आदिवासी हमारी धरोहर है। प्रकृति की गोद में पले-बढ़े। अपनी ही दुनिया में मस्त। कठोर जीवन जीते हुए लेकिन ये अंडमान में कब आए? कहाँ से आए? मेरे दिमाग में कौंधा था और मैंने अपनी नजरें बेंजामिन और डैनियल पर टिका दीं। डेनियल की हँसी मनमोहक थी और हिन्दी लाजवाब।
"जैसे मैं कैनेडियन फिर भी इंडिया में। वैसे ही ये संसार की सबसे पुरानी पाषाण कालीन नीग्रिटो मूल की जनजाति है। इनके पूर्वज सदियों पहले दक्षिण मध्य अंडमान के जंगलों में आकर बस गए थे। 1991 में उनकी जनसंख्या 266 थी अब घट रही है। जब इन्हें पता चला कि इन्हें हमसे कोई खतरा नहीं है। तो जंगल में खाने पीने की कमी होते ही ये सड़कों पर उतर आते हैं और वाहनों के गुजरने का इंतजार करते हैं। हालांकि इन्हें कुछ भी खाने-पीने की चीजें देने की प्रशासन से मनाही है। पर फिर भी मौज मस्ती के लिए आए पर्यटक इन्हें बिस्किट, नमकीन, मिठाईयाँ, चॉकलेट दे ही देते हैं जिससे इनका स्वाभाविक जीवन छिन्न भिन्न हुआ जा रहा है और इनका अस्तित्व खतरे में है।" और तभी सामने वाली जीप से खाने की चीजों से भरा पैकेट सड़क पर आकर गिरा। जाने कहाँ से दो लड़के प्रकट हुए और पैकेट की ओर लपके। ब्रेक कर्कश ध्वनि करता झटके से लगा। वे जीप के नीचे आते-आते बचे।
" कई इस तरह दुर्घटना में मर चुके हैं या घायल हुए हैं। तली भुनी चीजें इन्हें बीमार कर देती हैं। इनके लिए अस्पताल है पर वह सारी प्रक्रिया बड़ी कठिन है। हालांकि यह इलाज के लिए जड़ी बूटियों और लाल मिट्टी के लेप पर निर्भर रहते हैं। ऐसी जड़ी बूटी खाते हैं जिससे इन्हें कभी मलेरिया नहीं होता। उनके समूह में बुजुर्ग तो नाम मात्र के बचे हैं। इसलिए इन्हें अपने रीति रिवाजों की जानकारी नहीं है। देशी विदेशी पर्यटकों के लिए तो ये मात्र शोपीस बनकर रह गए हैं। जारवा घुमंतू जनजाति है। ये कहीं एक जगह स्थाई नहीं रहते। अपना ठिकाना बदलते रहते हैं। समुद्र में ये जहाज से भी तेज गति से तैरते हैं। यह निर्वस्त्र रहते हैं। औरतें पेड़ की छाल, पत्तों से अपना तन ढकती है। पीठ पर बेत से बनी चाय बागानों में इस्तेमाल की जाने वाली जैसी ही टोकरी बन्धी होती है। जिसमें या तो बच्चा होता है या कंदमूल फल। प्रशासन ने मैत्री दल के जरिए इन्हें कपड़े बांटे हैं। इन्हें लाल रंग के कपड़े बहुत पसंद है। मैत्री दल के संपर्क में आने के बाद इनके खाने पीने का ढंग भी बदला है। पहले सब कुछ कच्चा खाते थे। केकड़ा तो जिंदा ही चबा जाते थे। मछली, केकडा, कछुआ उबालकर खाने लगे हैं।
मुंडन की परंपरा भी है इनमें। सिर के बाल भी मिलिट्री वालों की तरह छोटे-छोटे रखते हैं। कंधे पर तीर कमान होता है। कमर, गलेऔर कलाइयों पर जंगली फूलों या नारियल के रेशो से बानी माला होती है। सारे जश्न आधी रात को मनाए जाते हैं।
दुनिया में कितना कुछ एक ही क्षण में घटित होता रहता है।
समुद्र में लहरें बनती बिगड़ती है, तारे उगते ढलते हैं, फूल खिलते मुरझा जाते हैं, हवा ठहरती बहती है। मैं अपनी मुंबई में जब सूर्य दर्शन कर रही होती हूँ तब जंगलों के छतनारे वृक्षों से छन कर आती किरणों के सिंदूरी उजास में ये आदिवासी अपने दिन की शुरुआत कर रहे होते हैं। जिंदगी इसी तरह चलती है कि जैसे पूरी सृष्टि एक मुसाफिर है। चलो ...चलो... चलते रहो। उसी में सौंदर्य है। गति के सौन्दर्य में ही दृष्टि का उत्सव है।
वैन अब समतल रास्ते पर थी। घने दरख्त के साए में एक तमिल औरत नारियल बेच रही थी। साथ में खूब बड़े-बड़े कठहल भी। राजा ने वैन रोकी। तमिल भाषा में उस औरत को हम सब के लिए नारियल का आर्डर दिया। जब मैं मुंबई से अंडमान निकोबार द्वीपों की सैर के लिए रवाना हुई थी तो इन द्वीपों पर रहने वाली आदिम जनजातियों के बारे में मुझे पता चला था कि 19 वीं सदी के मध्य में अंडमान द्वीपसमूह में 10 आदिम जनजातियाँ रहती थी। उनके कई समूह थे। सात हजार के लगभग जनसंख्या थी। लेकिन जैसे ही अंडमान द्वीपसमूह उपनिवेशकों ने बसाने शुरू किए ये जनजातियाँ संक्रामक रोगों का शिकार हो गई। अब तो उनमें से बस 6 ही जनजातियाँ बची हैं। जावा, सेंटिनल, ग्रेट अंडमानी, ओंगी, कार निकोबारी और शोपेन। बेंजामिन मानव विज्ञानी है। साथ ही आदिम जनजातियों के कल्याण कार्यों में लगातार सक्रिय भी है। एक मुट्ठी आसमान, आंचल भर हरियाली, प्राकृतिक भोजन और शरीर के नाप बराबर धरती का बिछौना। बस इतनी-सी चाहत लिए सेंटिनल आदिवासियों ने अपने आप को एक छोटे से द्वीप नॉर्थ सेंटीनेल के जंगलों तक ही सीमित रखा है। उनकी आबादी सौ है। इस एकांतवासी अलग थलग रहने वाले समूह को बाहर की दुनिया से मिलना कतई पसन्द नहीं है। "
मेरा मन बुझ गया। तो मैं सेंटिनल को नहीं देख पाऊंगी। न ही ओगी, शोंपेन्
और कार निकोबारी को? प्रशासन ने इन जगहों पर पर्यटकों को जाने की परमीशन नहीं दी है।
" आप तो जानती है मैडम शब्दों में बहुत ताकत होती है।
वे ऐसा संसार रच देते हैं जो हुबहू दिखाई दे। "
सबके नारियल खत्म हो चुके थे। दोपहर ढल रही थी। 4 बजे का समय था और हम पोर्ट ब्लेयर की राह पर। मैंने आंखें मूंदकर सिर पीछे टिका लिया।
"ओङ्गियो के ठिकाने की सैर नहीं करेंगी मैडम?"
मैंने चौक कर आंखें खोली तो सभी हंस पड़े लेकिन राजा चिंतित दिखा। अंधेरा होने से पहले पोर्ट ब्लेयर पहुँच जाएँ तो अच्छा है। रात को इस इलाके में ड्राइविंग करना रिस्की है। उसने स्पीड तेज कर दी। ठंडी हवा के झोंके वैन मेँ घुस आये। बेंजामिन ओङ्गियो के जीवन में जैसे खो से गए। वैसे भी वे ओङ्गियो की जीवन शैली के प्रामाणिक जानकार है। वे उनके संपर्क में 3 महीने रहे हैं और उन्होंने उनकी भाषा भी सीख ली है।
" जानती है मैडम ...घुमंतू जनजाति के औगी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कितने जूझ रहे हैं। सौ साल पहले ये एक हजार थे अब 92 ही रह गए हैं। इतने शांत और सीधे स्वभाव के होते हैं ये। जारवाओ की तरह देखते ही हमला नहीं करते। इनका कोई मुखिया नहीं होता। सभी अपने मन के राजा होते हैं। ये लिटिल अंडमान द्वीप में डूगाँग ग्रीक नामक जगह पर रहते हैं। महिलाएँ पत्तों से बनी पोशाक पहनती थी। लेकिन अब लुंगी ब्लाउज़ पहनने लगी है। पुरुष कोपीन पहनते है। मजे की बात यह है कि उनके दाढ़ी मूंछ उगती ही नहीं।
"यह कैसे संभव है?"
मेरी आँखें विस्मय से भर उठीं।
"यानी प्रकृति ने भी उनके साथ नाइंसाफी की है।"
पर वे खुश हैं। वे अपने शरीर और चेहरे को लाल सफेद मिट्टी से रंगते हैं। रंगने का काम केवल महिलाओं के जिम्मे है। शादी के बाद पत्नी अपने पति के शरीर को सफेद मिट्टी से रंगती है जो उसके प्रेम का प्रतीक है। विवाह पर कोई समारोह नहीं होता। अपने जीवन साथी के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह नहीं करते। इनमें तलाक जैसी कोई प्रथा नहीं है। बड़े भाई के मरने पर भाभी से देवर का विवाह हो जाता है। इनके झोपड़े सामूहिक होते हैं। उन झोंपड़ों में इनके जीवन यापन से सम्बंधित हर चीज मिलेगी। अब तो ये लकड़ी के घर बनाने लगे हैं। पारंपरिक झोपड़े गुजरा हुआ इतिहास हो चुके हैं। ये पेड़ के तने को छीलकर उसकी नौका तैयार करते हैं और तीर कमान से नौका में बैठकर मछली का शिकार करते हैं। जब ये समुद्र की ओर भोजन की तलाश में जाते हैं तो डेढ़ 2 किलो का केकड़ा तो ये समुद्र की रेत पर बने उनके बिलों में से आसानी से निकाल लेते हैं।
डेढ़ 2 किलो का केकड़ा तो ये समुद्र की रेत पर बने उनके बिलों में से आसानी से निकाल लेते हैं। पेड़ पर से शहद के छत्ते तोड़ना इन के बाएँ हाथ का खेल है। जंगल में उगने वाली एक खास जड़ी बूटी के पत्ते मसलकर यह बदन पर मल लेते हैं फिर मधुमक्खी इन के नजदीक तक नहीं सकती और यह बेहतरीन किस्म का सुनहरा शहद इकट्ठा कर लेते हैं। ओङ्गियो को कल्याण समिति ने बर्तन भी बांटे हैं। अब ये खाना उबालकर खाने लगे हैं। चावल और रोटी से भी परिचित हो गए हैं। उनके गाँव के निकट आदिवासियों का अस्पताल है जहाँ ये गाहे-बगाहे इलाज के लिए चले जाते हैं। मृत्यु होने पर लाश को मृतक की चारपाई के नीचे गाड़ कर तब तक शोक मनाते हैं जब तक लाश नष्ट नहीं हो जाती फिर हड्डियाँ खोद कर निकाल लेते हैं और उनके आभूषण बना कर पहनते हैं। मान्यता है इससे परिवार भूत प्रेत के साए से बचा रहता है। मैं सिहर उठी हूँ कैसी अद्भुत मान्यता है। कार निकोबारी आदिवासी तो भूत प्रेत हटाने के लिए लकड़ी और घास फूस के आदमकद पुतले बनाकर घरों में रखते हैं यानी कलाकार हैं। भले ही अपनी कला भूत भगाने में इस्तेमाल करते हो।
मुझे चाय की तलब लगी थी। सड़क किनारे एक मामूली-सी चाय की दुकान देख राजा ने वैन रोकी। हम बैंचो पर बैठकर कांच के गिलास में निहायत मीठी चाय पीने लगे। दिन ढल चुका था और संध्या मानो धीरे-धीरे कदम बढ़ाते उन वनों में भी प्रवेश कर रही थी जहाँ मुट्ठीभर आदिवासी अभी भी आदिम सभ्यता का जीवन्त दस्तावेज है।
"कार निकोबारी तो निकोबार द्वीपसमूह में रहते होंगे?"
"हाँ" बेंजामिन जी ने सिगरेट सुलगाई।
"मंगोल जाति के ये सच्चे वंशज हैं। गाँव का मुखिया जो कैप्टन कहलाता है समुद्री परंपराओं का सही प्रवर्तक है। वह प्रजातांत्रिक ढंग से चुना जाता है। इनमें बड़ी अजीबोगरीब परंपरा है। शादी के बाद दामाद यदि ससुर के घर में रहता है तो उसे उस के कामों में हाथ बंटाना पड़ता है और वह गुलाम कहलाता है। इसी तरह लड़की यदि ससुराल में रहती है तो वह भी गुलाम कहलाती है। शादी चुनाव से होती है। निकोबारी नाच गाना और मेहनत पसंद आदिवासी हैं। पुराने जमाने में औरतें घास से बनी स्कर्ट पहनती थी। अब बर्मी लूंगी और कमीज पहनती हैं। इनमें जन्म और मृत्यु दोनों को अपवित्र क्रिया मानते हैं। समुद्री किनारे पर जन्म मृत्यू घर होता है। जहाँ गर्भवती महिला और गंभीर रोगी को रखते हैं। ये इस्लाम धर्म और कैथोलिक धर्म को मानते हैं। हर रविवार चर्च भी जाते हैं और उसके सदस्य भी हैं। यह भी कहा जाता है कि यह रविवार को ईसाई और बाकी दिन निकोबारी हैं। इन में काफी बदलाव आया है पर पुरानी संस्कृति अभी बरकरार है। उत्सव पसंद निकोबारी मत्स्य उत्सव मनाते हैं। उस दिन यह पूर्वजों को आमंत्रित कर उन्हें खाना कपड़े चढ़ाते हैं। फिर होडी यानी नाव में बैठकर रात में दूर तक समुद्री यात्रा करते हैं। यह होडी यात्रा पान के पत्तों से बनी मशाल की रोशनी में की जाती है।"
बेंजामिन जी सिगरेट लगभग पूरी पी चुके थे। राजा भी वापस चलने के लिए वैन में बैठा हॉर्न बजा रहा था।
वैन में बैठते ही मैंने सोचा, आधुनिक सभ्यता जिन्हें छू तक नहीं पाई उन असभ्य आदिम जनजातियों के मनोरंजन भी क्या हम सब इंसानों की तरह नहीं? हम भी तो ऐसे ही उत्सवों में खुशियाँ तलाशते हैं। वैन चल पड़ी है। सड़क की बत्तियाँ जगमगा उठी है। वर्मा जी तंबाकू मल रहे थे। पान की डिबिया टटोल रहे थे। बेंजामिन जी चाय, सिगरेट के पेट्रोल के बाद एकदम स्पीड में थे।
"कार निकोबारी तो अब सरकारी नौकरियों, पुलिस, सचिवालय, जहाजरानी आदि में कार्यरत हैं। पर शोंपेन आदिवासी आधे बंजारे हैं। वे यायावर कबीले के हैं। बार-बार अपना ठिकाना बदलते रहते हैं। वे जंगलों और समुद्री तटों पर फल और शिकार की तलाश में घूमते हैं। ये जहर बुझे नुकीले तीर से शिकार करते हैं। जहाँ झरना देखते हैं वही निकट के वृक्ष को खंभा बना कर उस पर झोपड़ा बना लेते हैं। इन्हें केवड़ा बहुत प्रिय है। केवड़े के झुरमुट उनके झोपड़े के पास होते हैं। सुगंधित बयार में यह अपनी दिनचर्या निपटाते रहते हैं। इनका परंपरागत सामाजिक जीवन है। आज भी लकड़ी रगड़कर आग पैदा करते हैं। माचिस के ज्ञान से अनजान... परिवार महत्त्वपूर्ण सामाजिक इकाई है। पुरुष परिवार का मुखिया होता है और औरत को गुलाम बना कर रखता है। औरत का बस्ती से बाहर जाना मना है। ये बच्चों के जन्म पर खुशी नहीं मनाते। शादी भी चुनाव या आपसी बातचीत से तय होती है। अब तो कपड़े पहनने लगे हैं। पहले वृक्ष की छाल और पत्तों से तन ढकते थे।" "इनके लिए प्रशासन ने कुछ नहीं किया?"
"किया है ना। एल्युमीनियम के बर्तन, दाल, चावल, चीनी, कपड़े इन्हें प्रशासन की ओर से दिए जाते हैं।"
फिर भी तो इनकी संख्या तेजी से घट रही है। अब तो केवल 250 शोंपेन ही बचे हैं। सोचती हूँ ये आदिवासी ही पर्यावरण के असली संरक्षक है और हमारी सभ्यता संस्कृति के परिचायक भी। यदि हम इनकी भाषा समझने लगे तो ना जाने कितनी जड़ी बूटियों की हमें जानकारी मिले। द्वीप समूहों पर ढाई हजार प्रकार की जड़ी बूटियाँ पाई जाती हैं। जो ना जाने कितने रोगों में काम आ सकती हैं। डेनियल कह रहे थे यह भी कि आदिवासियों को इस सब की जानकारी है। कई प्रकार के समुद्री जीव, मछली, कछुए तो अब लुप्त प्राय हैं जो इन आदिवासियों की चिंता का कारण है। अक्सर ये उन्हें ढूँढते समुद्र के किनारों पर पाए जाते हैं। हमारा होटल आ चुका था। हम थके पैरों को सीधा करते रिसेप्शन हॉल के सोफे पर धँस गए। बेयरा पानी ले आया। कॉफी का पूछने लगा।
"मैडम, कल सुबह-सुबह ही स्ट्रेट द्वीप के लिए निकल चलेंगे। ग्रेट अंडमानी आदिवासियों से मिलना है ना आपको।"
रात में नींद में चौक-चौक कर जाग जाती थी। कहीं ग्रेट अंडमानी भी जारवाओ जैसे आक्रामक तो नहीं। ऊंचे पूरे चट्टान जैसे काले, पीली आंखो, चपटी नाक और मोटे-मोटे होठ।
स्ट्रेट द्वीप हैवलॉक द्वीप के नजदीक एक छोटा-सा द्वीप है। मुंह अंधेरे ही अंडमान के खास परिंदों की चहचहाहट ने जगा दिया। खिड़की से झांक कर देखा। समंदर की भीगी हवाओं के लिए पौ फट रही थी। हम तैयार होकर जैसे ही नीचे उतरे राजा को इंतजार करते पाया। वर्मा जी, बेंजामिन जी और डेनियल सीधे फोनेक्स बे आ जाएंगे। जहाँ से जहाज लेना है।
"तुम स्ट्रेट द्वीप चल रहे हो न राजा?"
नहीं मैडम वहाँ जेट्टी पर जयंतो मिलेगा जीप लिए। वही आपको इस द्वीप की सैर कराएगा। "
फोनेक्स बे पर तीनों चाय पी रहे थे। हमारे प्यारे ठंडे हो रहे थे। मुझे उनकी आतुरता पर हंसी आ गई। सागर अथाह सौंदर्य से भरा था। उगते सूरज की रुपहली किरनो ने सागर जल पर जैसे चांदी के तार बिखेर दिए थे। दूर हरे भरे द्वीप ऐसे लग रहे थे जैसे नीलम के फर्श पर किसी ने मरकत बिखेर दिए हैं। जहाज निर्धारित समय पर रवाना तो हुआ था लेकिन ऊंची लहरों के कारण उसकी गति धीमी थी। लगभग 40 मिनट लेट पहुँचे हम। जयंती जेट्टी पर ही मिल गया। हंसमुख, दुबला पतला तमिल लड़का, दांत हद से ज्यादा सफेद ...बाहर निकल कर हम सब जीप में बैठे। द्वीप की ठंडी हवा में आंखें मुंद-सी गई।
"अभी तक आपने मैडम जिन आदिवासियों को देखा है, जानकारी ली है वह सब अपने मूल रूप में ही है। लेकिन ग्रेट अंडमानी अपने दायरे से बाहर निकले हैं। अब वे सभ्य होते जा रहे हैं। उन्हें प्रशासन की ओर से खाने पीने की सामग्री तथा मासिक भत्ता भी मिलता है।" डेनियल ने बताया और समुद्र की ओर इशारा किया। "वो देखिए अपनी होड़ी यानी नाव पर ग्रेट अंडमानी पुरुष मछलियों की तलाश में।"
मैंने देखा पीले रंग की टी शर्ट और हाफपैंट पहने वह खड़े होकर नाव चला रहा था।
अब समुद्र दिखना बंद हो गया था और जीप डामल की सड़क पर दौड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर घने जंगल...चहचहाती बुलबुल... और भी तरह-तरह की रंग बिरंगी चिड़िया। एक जगह पेड़ की डाल पर दो मोर बैठे थे उनके पंख पूँछ के समान लटक रहे थे।
"बस अब गाँव शुरू हो गया है। यह उनके पाले हुए मोर हैं जयंतो ' यही जीप रोक दो। हम गाँव में पैदल ही जाएंगे।" कहते हुए वर्माजी उतरने की तैयारी करने लगे। पगडंडियों से गाँव में प्रवेश करते ही मुश्किल से बीस पच्चीस कच्ची मिट्टी और लकड़ी से बने घर जिनकी छतें झोपड़ी नुमा आकार की। बस इतने तक ही सीमित है ग्रेट अंडमानीयों का निवास। इनकी संख्या तेजी से घट रही है और केवल 41 ही बची है। हमें देखकर आदिवासी औरतें अपने-अपने घरों के दरवाजे से झांकने लगी। वे लुंगी ब्लाउज पहनी थी और पत्थर, सीपी, कौड़ी से बनी श्रंगार की वस्तुओं से खुद को सजाए हुए थीं। कुछ आदिवासी पुरुष हमारे नजदीक आए और ताज्ज़ुब! हिन्दी में पूछ रहे थे"कहाँ से आए हैं आप लोग"
"मुंबई से" सुनते ही उनकी आंखे चमकने लगी। मैंने बेंजामिन की ओर सवालिया नजरों से देखा।
"इनमें जागृति आई है भाषा के नाम पर। इन्होंने हिन्दी अपना तो ली है लेकिन अन्य मान्यताएँ इन्हें स्वीकार नहीं।" बेंजामिन जी ने मेरी शंका का समाधान करते हुए एक आदिवासी लड़के से कहा "हमें अपने बाग बगीचे नहीं घुमाओगे" सुनकर वह पगडंडी पर सरपट दौड़ने लगा और भी कुछ आदिवासी साथ हो लिए। घरों के पिछवाड़े फलों के झाड़ और सब्जियों के पौधे लगे हुए थे। बेंगन, तुरई, मिर्ची, शकरकंदी लगी थी। मेड पर पपीता और अनन्नास...आप खाते ये सब? "
"हाँ बहुत अच्छा लगता है" कहते हुए आदिवासी हमें अपने घर के अंदर ले गया। जंगली सुगंध से भरा था घर। एक एल्युमीनियम के बर्तन में मछली कटी हुई रखी थी। दूसरे बर्तन में लकड़ियों की आंच पर चावल उबल रहे थे। बाहर के कमरे में दो आदिवासी बैठे हुए थे जो लकड़ी छिलते हुए उसे जानवरों, पंछियों का आकार दे रहे थे। इतने में मुखिया और उसकी पत्नी भी आ गए। मैंने उनसे उनके रीति रिवाज की जानकारी पूछी। वे भी हिन्दी में बताने लगे " सामाजिक क्रिया कलाप के लिए परिवार इकाई है। पहले ये बच्चे के जन्म के पहले उसका नामकरण कर देते थे। थोड़े फेरबदल के बाद ये रिवाज़ आज भी है। विवाह सादे होते हैं खाना पीना और एक दो घंटे में विवाह संपन्न हो जाता है। वृक्ष के तने से नाव बनाकर समुद्र में दूर तक नोकाटन करते हैं। यदि कोई मर जाता है तो उसके परिवार से झोपड़ा खाली करवा कर लाश को वही दफन कर देते हैं। लेकिन अब यह रिवाज खत्म होता जा रहा है। मुखिया से उनके मुट्ठी भर समुदाय की इतनी जानकारी काफी थी। चलने लगे तो मुखिया की पत्नी एक टोकरी में अनन्नास और पपीते भर कर ले आई। साथ ही लकड़ी से बने दो शिल्प। एक में चौरस लकड़ी पर दो हाथी पेड़ का तना सूंड से ढकेलते हुए, दूसरे में पंख पसार के उड़ती दो बुलबुल ...मैं मुग्ध हो उन्हें निहारने लगी
" यह आपके लिए सौगात है। इन आदिवासियों की। ' वर्मा जी ने दोनों शिल्प हाथ में लेकर देखे फिर जयंतो को पकड़ा दिए। सभी आदिवासी हमें जीप तक छोड़ने आए। लौट रही हूँ उनकी सौगातों से भरी पूरी। जीप के ओझल होते तक वे मुख्य सड़क तक दौड़े आए। हाथ मिलाते रहे। मन में कुछ दरक-सा गया। एक घने जंगल में अपनी बची खुची संख्या को लिए ये आदिवासी आखिर कब तक जिंदगी से संघर्ष करते रहेंगे। तभी जैसे कोई कान में फुसफुसाया
जो ख़ौफ़ आंधी से खाते तो अपने रहने को
परिंदे किसलिए तिनकों का घोसला रखते