जो भी प्यार से मिला / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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उस दिन एक मित्र मिली। वे बहुत ही गुस्से में थीं और दुखी भी; आफिस में उनका अपने बॉस से झगड़ा हुआ था। उनका कहना था की बॉस ने सबके सामने उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुंचाई है और अब वो बॉस का जीना दूभर कर देंगी। कई बार प्रेम संबंधों और अन्य रिश्तों में भी यही होता है। हम छोटी-छोटी बातों को अपने आत्मसम्मान से जोड़ कर देखने लगते है। रिश्ते टूटे तो टूटे पर अहम् पर आंच ना आये। घरों से, दफ्तरों से उठकर अब ये कीड़ा सोशल साइट्स पर भी रेंगने लगा है। फेसबुक की दीवार को साहित्यकारों, लेखकों और कवियों ने अपने आत्मसम्मान से जोड़ दिया है। उनकी लिखी बात, उनके लिखे स्टेटस पर अगर कोई दूसरा व्यक्ति उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़े तो सब ठीक। जो अगर उसने अपने निजी विचार व्यक्त कर दिए तो, लेखक के आत्मसम्मान को ठेस लग जाती है। और फिर फ़ेसबुक दीवार कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाती है।

अक्सर लोग अपने पहनावे, आवाज, अपने नाम, चाल-ढाल, हेयर स्टाइल इत्यादि को लेकर भी इतने सचेत रहते है कि कोई मजाक में इन पर कमेन्ट कर दे तो झगड़े की नौबत आ जाए। क्या हमारा आत्मसम्मान इन छोटी-छोटी चीजों से मिलकर बना है। क्या अहमियत है इन चीजों की जीवन में? क्यों हमारा ध्यान बार-बार इन चीजों की तरफ ही जाता है। सब हमें ही देख रहे है। सब हमारे ही दुश्मन हैं, सब की निगाह हम पर ही क्यों है, सभी हमसे जलते है या मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है, या सभी मेरे खिलाफ साजिश करते है। ये संदेह, ये शंका कभी भी हमें सहज नहीं होने देती। जब हम किसी चीज के प्रति बहुत ज्यादा सचेत होने लगते हैं तो इससे हमारे व्यवहार में असहजता आ जाती है। हम जिन चीजों पर बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहते उसी पर बार -बार ध्यान जाता है। हम परेशान हो जाते हैं कि हम कैसे अपना ध्यान हटा लें ताकि चीजे या घटनाएं हमें परेशान ना करे।

अक्सर किसी चीज पर ध्यान देना या ना देना, किसी चीज के प्रति सचेत होना, या न होना, उसके प्रति हमारे रवैये पर निर्भर करता है। हम किसी वस्तु विशेष या व्यक्ति विशेष के प्रति लगाव या महत्त्वपूर्ण रवैया रखते हैं, तो हम कितनी भी कोशिश कर लें, हमारा ध्यान उस तरफ बरबस जाता ही रहेगा। हम उसके प्रति सचेत होते ही रहेंगे। इसका सीधा-सीधा मतलब यह हुआ कि चीजों के प्रति जब तक हमारा नजरिया नहीं बदलेगा, सोच नहीं बदलेगी और रवैया नहीं बदलेगा तब तक उन पर ध्यान जाना कम नहीं होगा। सम्बन्धों से, लोगों से या चीजों से घबरा कर उनसे दूर भागना। बातचीत बंद कर देना। उनसे ध्यान हटाने के लिए नशे में डूब जाना ये पलायन है। ये समस्या का हल नहीं और ना ये समस्या का निपटारा ही है।

अक्सर हम ज़रा-ज़रा सी बातों पर नाराज़ हो जाते है। कोई हमारा अगर मजाक उड़ा दे तो हमें क्रोध आ जाता है। हम सामने वाले को नीचा दिखाने की सभी कोशिशें कर डालते हैं। जब तक उसे जी भर कर कोस ना ले मन शांत नहीं होता... कभी आपने सोचा है, ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमने अपने अहम् को, अपनी इज्जत को, अपने आत्मसम्मान को बहुत अधिक बड़ा बना लिया है। उसे बहुत अधिक महत्त्व दे दिया है। हम किन्हीं भी परिस्थितियों में इनके साथ समझौता करना नहीं चाहते। हम हमेशा इस बात के लिए सचेत रहते हैं की चाहे जो हो हमारे अहम् पर आंच न आये। जब-जब भी हमारी इज्जत, अहम् और आत्मसम्मान पर कोई खतरा हमें दिखता है, हम असहज हो जाते हैं। थोड़ा आगे बढे तो, हमें गुस्सा आने लगता है। और अचानक हमारा व्यवहार बहुत उग्र हो जाता है।

हम कभी भी नहीं चाहते की हमारा व्यवहार उग्र हो, लोग हमें कठोर समझें या अहमवादी समझे, लेकिन फिर भी हम इस स्थिति से खुद को बचा नहीं पाते। हम ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करते हैं, अपने क्रोध को दबाने की कोशिश करते हैं। दूसरी जगह पर दूसरी चीजों पर ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं। सिगरेट का सहारा लेते हैं या संगीत का भी लेकिन ये सब बेकार के टोटके सिद्ध होते हैं।

दरअसल हमनें मूल कारण को नहीं जाना। अपने क्रोध की, प्रेम की, भावनाओं को दबा दिया और इन्हें दबाने से हमने उनके तात्कालिक प्रदर्शन को तो रोक दिया लेकिन इसकी प्रतिक्रयास्वरूप अवसाद पैदा होगा। हमने अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रया को दबाया, उसका दमन किया और बदले में गहरा अवसाद पाया। सिर्फ अवसाद ही नहीं बहुत-सी मनोवैज्ञानिक समस्याएं बुला ली। पहले भावनाओं का दमन, फिर क्रोध और अंत हुआ अवसाद पर... है ना?

अब सवाल ये कि इस समस्या से कैसे बचें। मैं फिर उसी बात पर आती हूँ कि हमें अपने स्वभाव, अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, कंसंर्स और अपने रवैये से आन्तरिक लड़ाई करनी पड़ेगी। हमें खुद को समझाना होगा कि हमारी इज्जत, अहम् और आत्मसम्मान क्या इतनी बड़ी चीज हो गए कि हम उनके आगे किसी को कुछ नहीं समझ रहे। इनकी हमारे जीवन में क्या अहमियत है। समाज और परिवेश के साथ अंतर्संबंधों में इनकी क्या भूमिका होनी चाहिए। हमें सीखना होगा कि कब हमारा आत्मसम्मान महत्वपूर्ण है, और कब बाकी चीजे। मतलब सामने वाला व्यक्ति उसके साथ हमारे सम्बन्ध कितने महत्त्वपूर्ण हैं। कहीं ऐसा तो नहीं की हमनें अपने आत्म-सम्मान को, अपने अहम् को बचाने में कोमल रिश्तों की बलि दे दी हो। हमें खुद से पूछना होगा की क्या वास्तव में हमारा आत्मसम्मान छुई-मुई जैसा है, जिसे कोई भी अपने स्पर्श से मुरझा कर चला जाए। क्या हमारा आत्मसम्मान इससे अधिक लचीला और मजबूत नहीं होना चाहिए, जिस पर किसी की बात का कोई असर न पड़े। किसी की क्या बिसात जो हमें तोड़ जाए। हमें हमारे आत्म-सम्मान के प्रति हमारे कंसंर्स, संबंधों को समझना और बदलना होगा।

दूसरी बात; हमें ऐसे हालातों में अपने प्रतिक्रियात्मक रवैये को भी समझना होगा। हमें देखना होगा की हमारी प्रतिक्रियाएं कहीं हमारी छवि तो खराब नहीं कर रहीं। हमारे व्यक्तित्व की किसी कमजोरी को इंगित तो नहीं कर रहीं। हमें सभी के सामने हंसी का पात्र तो नहीं बना रहीं। हम कहीं कोई गैर जिम्मेदाराना व्यवहार तो नहीं कर बैठे।

जब हम आत्मसम्मान के प्रति हमारे कंसंर्स और हमारे रवैये में धीरे-धीरे ही सही उचित बदलाव कर पायेगे; तब हम देखेगे की हमारे सामने कितनी भी विपरीत स्थिति हो हमने क्रोध नहीं किया। हमने खुद पर नियंत्रण करना सीख लिया। यानी जिन चीजों से अभी तक आपको तकलीफ होती थी। जो चीजे आपको बार-बार असहज बना रही थी; हमने उनके प्रति अपना सम्बन्ध बदला और रवैया भी... इससे लाभ ये हुआ कि हमारा ध्यान अब बार-बार उन चीजों पर नहीं जाता। और हम अब हम सभी चीजों के प्रति सहज हो गए हैं। और हाँ हमें समाज, रिश्तों और अपने सम्बन्धों के प्रति भी नजरिया बदलना होगा। अपने मन की भी सुने, लेकिन रिश्तों की परवाह भी करें। हमें खुद को सहज और सरल बनाना होगा। आत्मसम्मान को मजबूत करना होगा। जो भी मिले जैसा भी मिले हमें उसे स्वीकार करते जाना है। जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए वाले अंदाज हो हमारे!