जो हमारा है / पूनम मनु

Gadya Kosh से
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-"श्याम...!" -"ओ, श्याम! ..."

अपने में मगन श्याम को देख, वह फिर पुकार बैठी।

पर... श्याम तक जैसे उसकी आवाज़ पहुंची न हो। -'बनवारी रे... अटल बिहारी रे...' कुछ ऐसा-सा ही गुनगुना रहा था वह।

उसकी बात को न सुनने पर भी, प्रसन्नचित दिखते श्याम का मुख देख, उल्लास से भर उठी नीरा। कुछेक क्षण स्नेह से निहारती रही वह श्याम को...

पर, जब उससे रहा न गया तो ज़ोर से आवाज़ लगा ही बैठी-"अरे, श्याम! क्या बात है...? आज तो खुशी तेरे अंग-अंग से फूटी पड़ रही है... बड़ा मगन होकर, बड़ी सफाई से काम कर रहा है आज तू..."

नीरा की आवाज़ सुनते ही श्याम के मोटे होंठ और चौड़े हो गए और टेढ़ी-मेढ़ी दंत पंक्तियाँ चमक उठीं। -"नहीं तो! बीबी, ऐसी तो कोई बात नहीं..." वह शरमा-सा उठा।

'शरमाना क्या सिर्फ़ लड़कियों की धरोहर है...नहीं तो!' उसकी इस हरकत पर नीरा की मुस्कान और गहरी हो गई.

-"कुछ तो है ... मुझे न बताएगा ...?" उसने श्याम पर ज़ोर डाला।

-"बीबी, आज रूपा, बेटे का दाखिला सर जी के अङ्ग्रेजी वाले सकूल में करवा के आई है।"

"अच्छा...!" बात की महत्ता को समझते ही नीरा चहक उठी।

"हाँ बीबी" श्याम ने बात की पुष्टि को ज़ोर देकर ऐसे कहा मानों स्टांप लगाकर इस बात को साबित ही करना चाहता हो। जहाँ पर शंका की ज़रा भी गुंजाइश ना हो... ऐसे!

"अरे, वाह! ये, तो सचमुच बड़ी खुशी की बात है ..." नीरा के वास्ते भी ये बात बहुत खुशी की थी।

"हाँ... बीबी! अब मुझ जैसे बुद्धू का बेटा भी अङ्ग्रेज़ी सकूल में पढ़ेगा ..." गर्व से सीना चौड़ा हो गया श्याम का।

"आज तो मनवा बड़ा ही गजब ढा रहा..." वह फावड़े को इधर-उधर घुमाते बोला।

"गSजबबब ..." हँसते हुये नीरा लोटपोट हो गई.

"शुक्र है तूने गजब कहा अजब न कहा..." -"क्या बीबी...?" कौतूहल से भरी उसकी आँखें जैसे किसी रहस्य को जानने को उत्सुक हो उठी हों।

"अरे बुद्धू...! खुशी को खुशी ही कहते हैं। गजब नहीं कहते..." नीरा श्याम को हँसते हुये समझाने लगी।

नीरा की माँ के खेत में काम करता श्याम, उसके मामा ही का लड़का था। श्याम कहने भर को श्याम था वरना गर्भ से तो वह धवल रंग लेकर ही जन्मा था। उसके मामा की आठवीं संतान के रूप में एक जोड़े ने जन्म लिया था ... जोड़ा, एक लड़का और एक लड़की का। जिसमें से लड़के का नाम रखा गया श्याम।

शुरू में, देखने पर तो दोनों ही स्वस्थ लगते थे। परंतु बाद में पता चला कि श्याम के दोनों पैर जन्म से ही बहुत कमजोर थे। लगता था जैसे गर्भ में ही पोलियो पड़ा था उसे।

बारह तेरह साल का होने तक पैरों का काम हाथों से लिया उसने। नालियों को पार करने का उसका बड़ा ही अजब तरीका था। नाली पार पहुँचने को, नाली पर, बांध की तरह अपने शरीर को तान लेता था और फिर उचककर अपने पैरों को रबड़ के पाइपों की मानिंद दूसरी ओर फेंक देता था। अपने हट्टे-कट्टे शरीर को हाथों से ठेलते-ठेलते उसके हाथों में गांठें और ठेके पड़ गई थीं।

जीवन को हर हाल में जीने की कला को सिखाता श्याम, जेठ की भरी दोपहरी में जब भी अपने शरीर को घसीटता हुआ अपने खेतों पर जाता। तो निर्मम से निर्मम हृदय भी उसे देख पिघल जाता। उसकी इसी निराली चाल के कारण उसका नाम, कुछ हंसोड़ / छिछोरे लड़कों ने "कछुआ" रख दिया था।

उसके मासूम मुख और जीवन के प्रति उसके कड़े संघर्ष को देख, उसे निरोगी काया का आशीष देते हृदयों में से जाने किसकी दुआ कबूल हुई याकि उसकी डॉक्टर बुआ की बचपन से अब तक पिलाई, किसी दवाई ने जादू किया कि खेतों पर जाते, नालियों को पार करते धूप में उसका उजला रंग, तांबई पड़ते तक उसने अपने पैरों पर ज़ोर डालकर खड़ा होना शुरू किया तो सोलह-सत्रह वर्ष की आयु तक आते-आते वह अपने पैरों पर निर्विघ्न दौड़ने-फिरने लगा। हाँ... पैर ज़रूर दूर से ही कमजोर दिखते थे।

उठकर खड़े होने की उसकी संकल्प शक्ति ने भी उसके ठीक होने में बड़ी अहम भूमिका निभाई. उसके ठीक होते ही मानों उसके माता-पिता पर से किसी बड़े शाप की समाप्ती हुई.

श्याम मेहनती था। अपने खेतों में किसानी के साथ-साथ वह दूसरों के यहाँ मजदूरी भी आसानी से कर लिया करता था। -"तू भोला, तेरी बातें भी भोली...!" नीरा उसे छेड़-छेड़ हँसती रही बहुत देर तक। -"देख ले, रूपा सबसे अलग है। पढ़ाई के महत्त्व को वह अच्छे से समझती है। भाईसाहब ने तो तेरा बेड़ा पार कर दिया, श्याम...!" नीरा सामान्य होते हुए बोली।

"हाँ बीबी, सच कहती हो तुम... राजे भाईसाहब तो मेरे लिए बिल्कुल भगवान समान हैं। नहीं तो... मेरा ब्याह कहाँ होने वाला था।" श्याम की आँखें श्रद्धाभाव से झुक गईं।

"हम्म" नीरा ने हुंकारे में गर्दन हिलाई.

सीधे श्याम के पिता यानी उसके मामा श्याम की शादी की उम्र से पहले ही स्वर्ग सिधार गए थे। बुद्धू और गंवार श्याम की चालाक भाभियाँ और भाई उसकी किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी लेने से कतराते थे। उनकी नज़रों में श्याम बेवकूफ व अपाहिज से ज़्यादा और कुछ नहीं था।

उसके पिता किसान थे; इस कारण आमदनी का जरिया केवल खेती ही थी। उसकी सीधी माँ को रुपयों पैसों जैसी चीज़ से कभी भी मोह नहीं था। इसीलिए न तो उन्हें पैसे संभालने आए कभी और न ही खर्च करने...

श्याम भी खेती-मजूरी करता। खेतों में भी कभी मौसमी मार, तो कभी बेमौसमी। कभी सूखे से... तो कभी बाढ़ से... छोटे किसान साल दर साल, दरिद्र होते जा रहे थे। मजूरी से जो भी पैसा आता उसी से घर का चूल्हा जलता। पेट भर रोटी मिल जाती इसी में दोनों माँ-बेटा खुश रहते। बावजूद इसके, हारी-बीमारी में दोनों माँ बेटों की स्थिति बेहद गरीब और दूसरों पर आस्तिकों वाली थी।

इधर... विवाक योग्य हो चुके श्याम की शादी की बात पर सब भाई-भाभियाँ अपने कानों में रूई ठूँसे रहते। ऊपर से श्याम को भी जैसे शादी नामक रिश्ते में कोई रोमांच नज़र न आता था। —पर, होता तो वही है जो ऊपर वाला चाहता है। ऐसा ही उसके साथ भी हुआ।

इत्तिफाक़ ही तो हैं जो ईश्वर के आस्तित्व में विश्वास जगाए रखते हैं लोगों का। वरना हर चौथे इंसान को इसमें संदेह है कि-ईश्वर है भी कि नहीं...!

रूपा...! हाँ, रूपा... ऐसे ही तो ईश्वर ने भेजी थी। उसके लिये... -"श्याम, तेरी शादी को जब भी याद करती हूँ... तो एक रोमांच-सा भर जाता है मन में..." विचारों में निमग्न नीरा खेत की मेड़ पर बैठते हुए बोली।

"क्या बीबी ...?" श्याम असमंजस से भरा, भोले कटरे समान उसकी ओर निहारने लगा।

"अरे, तेरी शादी ..." नीरा चहक उठी।

"हाँ बीबी, बस कमाल हो गया... नहीं तो! कहाँ रूपा, कहाँ मैं...!" श्याम की आँखों में चमक उतर आई.

"चल...चल ... काम कर, नहीं तो, शाम हो जाएगी और आज पूरे खेत में पानी न दिया जा सकेगा।" काम करते हुये उसके हाथों की मद्धिम पड़ती गति को भाँपते ही नीरा को वास्तविकता का जैसे बोध हुआ। आज ही पानी का काम ख़त्म करना ज़रुरी था।

"हाँ, बीबी..." कहते ही, दौड़ पड़ा वह अधपके गेंहू की फसल से भरे खड़े, खेत के मध्य की ओर...

उसे खेत के भीतर जाते देख नीरा के होंठों पर मुस्कान खिल उठी। किसी मजदूर की बजाय अपने मामा के इस लड़के पर ही ज़्यादा विश्वास करती थी नीरा। हमउम्र होने के कारण उसे श्याम से गहरा लगाव भी था। अपनी शादी से पहले भी वह और श्याम अपने खेत पर ऐसे ही पानी देने साथ-साथ आया करते थे।

नदी के किनारे लगा ये खेत नीरा की मनपसंद जगहों में से एक था। दो दिन पहले ससुराल से मायके पहुंची नीरा ने माँ से खेत देखने जाने की इच्छा व्यक्त की तो माँ ने श्याम के साथ उसे खेत पर भेज दिया। आज श्याम को खेत में पानी भी देना था। सो, ये एक अच्छा अवसर था उसके लिए.

उसके मामा, उसकी माँ को बीबी कहते तो उन्हीं की देखादेखी श्याम भी नीरा को बीबी कहने लगा। शहर में पढ़ी और शहर में ही ब्याही नीरा को उसका बीबी कहना कभी अजीब नहीं लगा।

खेत में दौड़-दौड़कर पानी देते श्याम को देख, उसके मन में उसके प्रति दुलार उमड़ने लगा। भरे में बहते, ठंडे शीतल पानी में अपने पाँव डाल बैठी नीरा। ठंडी हवा के झोंके, नदी के किनारे, एक रोमांटिक-सा माहौल पैदा कर रहे थे। उसे अपने पतिदेव याद आए कि तभी उसकी मुस्कान और गहरी हो उठी ...

"जीजी, देखियो जरा, तुम्हारे देवर ने क्या किया है... बनियान की कमी के कारण मैंने इनसे रात को अपने लिए एक बनियान लाने को कहा... तो देखियो जीजी... देखो, क्या लाये ये...?" पल्ले में मुंह छुपाते रूपा, दबी-दबी आवाज़ में श्याम की शिकायत करते हुए, नीरा की बड़ी भाभी को, उसका लाया, मर्दों वाला आधी बाज़ू का सफ़ेद बनियान दिखाते हुए बोली।

बड़ी भाभी पहले तो बनियान को उलट-पुलट देखती रहीं दो घड़ी। पर बाद इसके वे पेट पकड़ जो लोटपोट हुईं तो आधे घंटे में जाकर रुकी उनकी हंसी. फिर तो, घर आकर एक-एक बात तफ़सील से, जो उन्होंने सबको सुनाई, तो बस पुछो ही मत...! सब के सब दोहरे हो गए हँस-हँसकर।

बेचारा श्याम... सुनकर, पहले तो वह भी खूब हंसी. परंतु, उसे जल्द ही आभास हुआ कि भोले श्याम को भोला कम बेवकूफ ज़्यादा समझा जा रहा है। वह उलझ पड़ी थी सबसे तब।

इतना सीधा था श्याम।

शादी जैसे रिश्ते की उसे कोई समझ न थी। वह रूपा को समझाने उसके घर गई और कभी भी उसका मज़ाक न उड़वाने का उससे वचन लिया उसने।

"दीदी, जै बुद्धू ही मिला मुझे..." उस दिन वह दुखी मन से बोली थी कि मज़ाक में। नहीं समझ पाई नीरा आज तलक।

बस इतना भर कहकर चली आई थी-"जैसा भी है, अब तेरा है। चाहे इसका मान रख, चाहे अपमान करा। बाकी... सारी दुनिया के सामने तो इसी बुद्धू ने रखी तेरी लाज। तू खुद जानती है ... अब इससे आगे मैं क्या कहूँ..."

इस विवाह को भगवान का तोहफा समझ जितना मान रखता था श्याम। उतना ही रूपा भी रख पाएगी इस पर उसे संदेह ही रहा। शहर की तेज, होशियार रूपा और निहायत ही सीधा सरल गाँव का श्याम... अजीब जोड़ी थी। पर जाने राम को क्या सूझी ...

श्याम के भाई का अचानक अपनी ससुराल में घूमने जाना और ससुराल के पड़ोस में एक लड़की की शादी का होना सब इत्तिफाक़ ही तो था। शादी में बारात द्वारा होने वाले हंगामें को शांत करने वास्ते उसके भाई का उनके घर जाना भी इत्तेफाक ही रहा।

दहेज की मांग को लेकर दोनों पक्षों में शुरू हुई तक़रार वर पक्ष द्वारा लड़की के चरित्र पर लांछन लगाकर समाप्त हुई.

बारात का लौटना अभिशाप जैसा था लड़की वालों के लिए. फेरों पर बैठी ऐसी लड़की को अब कौन ब्याहे से उठे सवाल पर श्याम का नाम सुझाया गया...? चतुर भाई ने 'हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा' वाली कहावत पर अमल किया।

'मरता क्या न करता' कन्यापक्ष ने हामी भर दी। उनकी 'हाँ' पर उनसे दो घंटे का समय मांगा गया। गाँव में बुआ के बेटे, राजे भाईसाहब को फोन पर सारा वृत्तांत बताया गया और श्याम का घर बसाने के अनुरोध पर हर चीज का बंदोबस्त दो घंटे में कर लाने की उनसे विनती की गई.

नीरा के दूसरे नंबर के भाई, राजे भाईसाहब का हुक्म तो वैसे भी कोई न टाल सकता था। वे गाँव के एक प्रभावशाली व्यक्ति होने के साथ-साथ राजनीति में भी अपनी दखल रखते थे।

उनके हुक्म पर श्याम को खेतों पर से लगभग अगवा कर लाया गया। उसके गंदे झाड़ जैसे बाल, दाढ़ी मूँछों को साफ करवाकर, लड़को द्वारा जबर्दस्ती हल्दी उबटन के बाद नहला धुलाकर तैयार कर उसे घोड़ी पर बैठा दिया गया।

कपड़ों लत्तों की ख़रीदारी आधे घंटे में ही पूरी कर ली गई. जेवरात की बारी पर सभी भाभियों ने अपना कुछ न कुछ 'उधार' लड़की के लिए दे दिया। ट्रेक्टर ट्राली भर लड़के / मर्द दो घंटे से भी पहले लड़की के दरवाजे पर पहुँच गए.

हैरत से भरा श्याम मूकदर्शक बना अपने पर होती 'ज्यादती' देखता रहा। उबटन से श्याम का तांबई रंग गुलाबी श्वेत-सा हो उठा। उसे देख, कन्या पक्ष के हर व्यक्ति के माथे पर अब तक खिंची चिंता की लकीरें राहत भरी श्वास में तब्दील हो गईं। लड़की को धूमधाम से हर्ष के साथ विदा कराकर सब उसे अपने गाँव ले आए...

रूपा को देख, श्याम का सारा संशय दूर हो गया। उसने ये शादी मन से स्वीकार की। सब ठीक ही था किन्तु रूपा ... उसे दिल से कितना स्वीकार पाई ये तो रूपा ही जाने।

सुंदर रूपा, निहायत ही हंसोड़ और चुलबुली लड़की थी। जिस पर गाँव के आवारा लड़कों की नज़रें टिकी रहती थीं।

उनके अब तक के वैवाहिक जीवन में उसने श्याम को रूपा के स्वच्छंद व्यवहार के लिए कई बार टोका परंतु हर बार एक ही जवाब रहता उसका-"बीबी, मैं ठहरा सीधा-सादा वह ज़रा शौकीन और हंसमिजाज है... ऐसे में वह अगर अपने हमउम्र किसी अपने जैसे ही लड़के से बोल-बतला लेती है ... तो कौन-सी बुरी बात है!"

-"श्याम ...तू समझता क्यूँ नहीं...? लोग तेरे बारे में क्या बात करते हैं ... लोग कहते हैं कि तुझसे अपनी औरत संभाली नहीं जाती...!" वह झल्लाई कई बार।

"बीबी ... मेरे घर में वह अपनी मर्जी से रहती है... अगर चाहती तो धोखा देकर भाग जाती ... मेरे बच्चे संभालती है। मुझ बुद्धू को ऊंच-नीच वही तो समझाती है। किससे क्या लेना है। किसको क्या देना है। सबका हिसाब वही तो रखती है। तुमने तो देखा है ना बीबी...! जब माँ गुजरने वाली थी तो तीन माह तक इसी ने उसके गू-मूत साफ किए थे...! किसी भी भाभी ने हाथ तक न लगाया था माँ के..." वह तर्क पर उतर आता।

ये बात सच थी कि श्याम की कमाई को बर्बाद करने के बजाय पाई-पाई जोड़कर घर की हालत सुधारी थी उसने ... कमरा बनवाया, शौचालय, गुसलखाना बनवाया उसने। पर, बाद इसके भी...रूपा का स्वच्छंद व्यवहार श्याम के प्रति उसकी पूर्ण वफादारी पर एक सवालिया निशान बना रहा उसकी नज़र में।

यूं तो पर्दे में छिपे लज्जा से भरे चेहरों की काली करतूतें भी जानती थी वह। परंतु फिर भी मन श्याम को लेकर चिंतित रहता उसका। -"उसकी लगाम कसकर रखा कर..." नीरा कह उठी एक दिन। नीरा की आँखों में झाँकता, श्याम कई क्षणों तक जाने क्या खोजता रहा उसके भीतर। -"बीबी, लगाम कसने से तो दम घुटे है ... खुल्ला छोड़ दो, जो हमारा है, वह कहीं नहीं जाएगा और बीबी, लगाम तो पशुओं के लिए बनी है ना... फिर रूपा के लिए कैसे...?"

जाने क्या नाप आया था भीतर। जाने क्या तौल आया। ये क्या कह बैठी वह ...

गंवार श्याम एक स्त्री को इंसान समझता था... छदम बुद्धिजीवी लोगों से परे कि या तो स्त्री पैर की जूती है या फिर केवल पशु... जिस पर उठते बैठते। उफ! ... उसका मासूम मुख देखते भीतर तक ग्लानि से भर उठी थी उस क्षण।

हर रिश्तेदार, आया-गया, रूपा की साफ-सफाई और उसकी आवभगत से प्रसन्न रहता।

पर वह ही... श्याम के प्रति ये उसका अनुराग था या कि कुछ और समझ न पाई... कई बार वह सोचती-'कहीं वह डाह की मारी तो नहीं ...? कहीं, उसकी खीज़, रूपा को श्याम द्वारा मिली स्वतन्त्रता पर तो नहीं...?'

अगर इतनी स्वतन्त्रता उसे मिली होती तो...! जवाब अंदर ही कहीं गडमड हुये रहते।

वह पढ़ी-लिखी होने पर भी इतनी स्वतंत्र तो क़तई नहीं थी कि किसी भी लड़के से यूं खुलेआम बात कर ले। हंसी-मज़ाक कर ले। इतना भरोसा उसके पति उस पर कभी कर ही नहीं पाये। जबकि अनपढ़ श्याम को रूपा पर इतना भरोसा था कि उस बुद्धू के घर में रूपा का रहना ही उसके लिए वफादारी की आश्वस्ति प्रदान करता था।

श्याम, काश ... काश हर पुरुष तुम्हारी तरह सोचता... और हर औरत को उसके मुताबिक जीने की आज़ादी देता।

समय बहती नदिया है ... और ज़िंदगी कारख़ाना जिसमें दम लेने की फुर्सत किसी को नहीं। बीते सालों में क्या-क्या हुआ गाँव में नहीं जान पाई. भाइयों का परिवार सहित शहर में निकल आना गाँव के लोगों से मिलने जाने में अवरोधक बना।

हाँ, श्याम को लेकर कुछ ज़रूर कसकता रहता भीतर... इस प्रार्थना के साथ कि-हे ईश्वर! सदैव उसकी रक्षा करना। किससे रक्षा करना ...? न समझ पाई कभी। न कह पाई.

पर आज...

फोन की लगातार बजती घंटी से बोर हो खीजते मन से फोन उठाया उसने और रूखे स्वर में बोली-"कौन...?"

"दीदी मैं... रूपा ..." एक सुरीली, जानी-पहचानी आवाज़ गूंज उठी कानों में।

-"दीदी, आपके भैया कह रहे हैं ... बीबी से कह दे, बहुत दिन हो गए, मिलने तक नहीं आयीं। अबकी राखी पर आपके लिए साड़ी खरीदवाई है। इन्होंने कहा है-इस बार आपको आना है, तो आना है ... वरना नाराज़ हो जाएंगे ये ... ठीक है दीदी! आपको याद कर ये उदास हो जाते हैं और इनका उदास होना मुझसे देखा ना जाता... दीदी, आना ज़रूर...!" औपचारिक-अनौपचारिक, सभी बातों के अंत में, खिलखिलाती रूपा की आवाज़ अचानक भर्रा उठी।

रूपा को आजतक समझते भी ना समझने की उसकी अपनी बेबुनियाद सोच ने उससे उसे कितना दूर रखा था। उसकी आवाज़ अंतर्घट में ज़ोर-ज़ोर से टकरा रही थी... "आना ज़रूर दीदी..."

आँखों से बहते आँसू, पश्चाताप के थे या खुशी के बताना निश्चित ही आज कठिन था।

15-16 साल हुये जाते थे श्याम और रूपा की शादी को हुये। जिसको लेकर वह हमेशा चिंतित रहती थी कि कहीं मेरे भोले श्याम का सबकुछ लेकर फुर्र न हो जाए ये लड़की। आज वही रूपा ...

कितनी ग़लत थी वह और कितना सही था श्याम कि जो हमारा है वह कहीं नहीं जाएगा बीबी।