जो है- है, उसमें रोना-हंसना क्या? / ओशो
प्रवचनमाला
सुबह आती है, तो मैं सुबह को स्वीकार कर लेता हूं और सांझ आती है, तो सांझ को स्वीकार कर लेता हूं। प्रकाश का भी आनंद है और अंधकार का भी। जब से यह जाना, तब से दुख नहीं जाना है।
किसी आश्रम से एक साधु बाहर गया था। लौटा तो उसे ज्ञात हुआ कि उसका एकमात्र पुत्र मर गया है और उसकी शवयात्रा अभी राह में ही होगी। वह दुख में पागल हो गया। उसे खबर क्यों नहीं की गई? वह आवेश में अंधा दौड़ा हुआ श्मशान की और चला गया। शव मार्ग में ही था। उसके गुरु शव के पास ही चल रहे थे। उसने दौड़कर उन्हें पकड़ लिया। दुख में वह मूिर्च्छत-सा हो गया था।
फिर अपने गुरु से उसने प्रार्थना की, दो शब्द सांत्वना के कहें। मैं पागल हुआ जा रहा हूं।
गुरु ने कहा, शब्द क्यों, सत्य ही जानो। उससे बड़ी कोई सांत्वना नहीं। और,
उन्होंने शव-पेटिका के ढक्कन को खोला और उससे कहा, देखो- 'जो है', उसे देखो।
उसने देखा। उसके आंसू थम गए। सामने मृत देह थी। वह देखता रहा और एक अंतदर्ृष्टिं का उसके भीतर जन्म हो गया। जो है- है, उसमें रोना-हंसना क्या? जीवन एक सत्य है, तो मृत्यु भी एक सत्य है।
जो है- है। उससे अन्यथा चाहने से ही दुख पैदा होता है।
एक समय मैं बहुत बीमार था। चिकित्सक भयभीत थे और प्रियजनों की आंखों में विषाद छा गया था। और, मुझे बहुत हंसी आ रही थी, मैं मृत्यु को जानने को उत्सुक था। मृत्यु तो नहीं आई, लेकिन एक सत्य अनुभव में आ गया। जिसे भी हम स्वीकार कर लें, वही हमें पीड़ा पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)